अनन्त का छंद – 4

अनन्त का छंद – 4

प्रसन्न कुमार चौधरी

मनुष्य का अस्तित्व

क. सामान्य

45. मनुष्य के अस्तित्व की एक विलक्षणता यह है कि वह अपने विकसित मस्तिष्क के साथ जन्म ही नहीं ले सकता ।22 उसके मस्तिष्क का पूर्ण विकास जन्म के डेढ़-दो साल बाद जाकर सम्पन्न होता है । उसके अस्तित्व की इस विलक्षणता के कारण उसकी प्रोग्रेमिंग में एक फांक उत्पन्न हो जाती है । वह पूरी तरह नियोजित प्राणी नहीं है । नियोजन की यह कमी ही प्रकृति के बरक्स मनुष्य की स्वतंत्रता, उसकी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (फ्री विल) का बायस बनती है । प्रकृति और मनुष्य का द्वैत सामने आता है ।

46. लेकिन नियोजन की यह कमी एक दूसरी शक्ति के उद्भव का भी कारण बनती है – चेतना की शक्ति । इस शक्ति का सरोकार मूलतः उसकी जेनेटिक स्मृति – सूक्ष्म कणों से मनुष्य तक विकास की, अनन्त की स्मृति से है । जेनेटिक स्मृति अन्य प्राणियों में भी रहती है, लेकिन सुषुप्तावस्था में । मनुष्य के उद्भव की खास अवस्था में यह जागृत हो उठती है । चेतना मूलतः क्रियाशील, जाग्रत जेनेटिक स्मृति है । कम्प्यूटर की भाषा में इस स्मृति को हम रीड ओनली मेमोरी (आर.ओ.एम., रोम) कह सकते हैं । प्रकृति और मनुष्य का द्वैत चेतना और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति के द्वैत के रूप में सामने आता है ।

47. ऊपर हमने जिस चेतना का ज़िक्र किया है, वह ज्ञानेन्द्रियों के ज़रिये मस्तिष्क द्वारा हासिल संवेदनात्मक ज्ञान और ऐसे ज्ञान पर आधारित धारणाओं/विचार-प्रणालियों से भिन्न प्रवर्ग है । दरअसल वह मनोविश्लेषण में वर्णित सुषुप्ति/अचेतन अथवा इद की सक्रिय अवस्था के समकक्ष एक प्रवर्ग है । उसी तरह ऊपर हमने जिस जेनेटिक मेमोरी का ज़िक्र किया है, वह रोज़मर्रा की याद्दाश्त अथवा अपने व्यावहारिक जीवन अनुभवों के स्मरण से भिन्न प्रवर्ग है । वैसे व्यावहारिक स्मरण भी एक संश्लिष्ट प्रणाली है । दरअसल मनुष्य के मस्तिष्क में स्मरण की कोई एक प्रणाली (सिस्टम) नहीं – वह कई प्रणालियों का एक अनोखा समुच्चय है जिसमें विस्मरण की प्रणालियाँ भी शामिल हैं । खैर, इस तरह की मेमोरी को जिनका मस्तिष्क प्रायः उपयोग करता है, हम कम्प्यूटर शब्दावली में रैंडम एक्सेस मेमोरी (आर.ए.एम.) कह सकते हैं ।23

48. मन चेतना और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, चेतना और मस्तिष्क की सह-क्रिया (सिनर्जी) है । इन शक्तियों की अन्तःक्रिया स्वभावतः नाना आयामों में अभिव्यक्ति पाती है । वहाँ अनन्त के साथ एकात्म होने की प्रवृत्ति है, और मस्तिष्क द्वारा ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त जानकारियों/सम्बन्धों का संसार भी । ‘निरपेक्ष/अमूर्त’, अन्तर्मन, सार्विक मानव-मूल्य जैसी श्रेणियों का विकास इसी सह-क्रिया का परिणाम है ।

49. चेतना मनुष्य को अनन्त के साथ एकात्म होने की ओर प्रवृत्त करती है । मानसिक रूप से मनुष्य आरम्भ से ही विभिन्न रूपों में ऐसा करने की – अनन्त होने की कोशिशें करता रहा है । उसकी यही वृत्ति आध्यात्मिक वृत्ति के रूप में जानी जाती है । यह आध्यात्मिकता उसे प्रकृत संसार को देखने की नई दृष्टि देती है ।

50. मानसिक स्तर पर मनुष्य की ये कोशिशें उसकी स्वतंत्र इच्छा-शक्ति के लिए भी चुनौती बन जाती है । वह न सिर्फ मानसिक तौर पर, बल्कि अपनी मस्तिष्क की शक्ति के ज़रिये भौतिक तौर पर भी इस अनन्त-शक्ति का साक्षात् करने, उसे पाने और ख़ुद स्रष्टा बनने की कोशिश करता रहा है । सका आज तक का इतिहास उसकी इन कोशिशों का भी इतिहास है । आदिकाल से ही वह अमरता की अवधारणा से सम्मोहित (ऑब्सेस्ड) रहा है । संसार का मिथकीय साहित्य इस सम्मोहन का प्रत्यक्ष गवाह है । मनुष्य की जितनी मिथकीय कल्पनाएँ हैं, विज्ञान आज उन्हें लगभग रूपायित कर रहा है । कल के मानसिक सम्मोहन आज की व्यावहारिक उपलब्धियों में साकार हो रहे हैं । विज्ञान और प्रविधि के ज़रिये वह आज अपने आप को मंज़िल के बहुत क़रीब पा रहा है । लेकिन क्या वह इस मंज़िल को पा सकेगा ? या फिर क्या उसे भौतिक रूप से ऐसा लक्ष्य रखना चाहिए ?

51. बहरहाल, भौतिक रूप से अनन्त होने की दिशा में वह एक हद तक अनजाने ही कदम बढ़ाता रहा है । फलतः अध्यात्म और ज्ञान का द्वैत प्रकट होता है । अपने जीविकोपार्जन के प्रयोजनों से प्रेरित होकर ही उसने औज़ारों का विकास-परिष्कार किया, अपने आसपास के संसार को जानने-समझने की कोशिश की । उसे इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करने के ज़रिये वह क्रमशः अपने आप के कृत्रिम पुनरुत्पादन की दिशा में – प्रकृति की सृष्टि के रूप में मनुष्य से क्रमशः मनुष्य की सृष्टि के रूप में मनुष्य, सृष्टि के मनुष्य से मनुष्य की सृष्टि की ओर कदम बढ़ा रहा है । (प्रसंगवश, कृत्रिम को प्रकृति से मनुष्य की निरपेक्ष स्वतंत्रता के रूप में नहीं देखा जा सकता । वह प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों और शक्तियों का मनुष्य द्वारा ज्ञानपूर्वक उपयोग है ।)

52. अपने आप का और इस क्रम में सृष्टि का पुनर्निर्माण – मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है, मनुष्य की ज्ञान-क्षमता का अपरिहार्य विकास-क्रम । उसकी ज्ञान-क्षमता इन्हीं प्रयासों में अंज़ाम पाती है । मनुष्य द्वारा अपनी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों का मशीनों द्वारा विस्थापन, रोबोटिक्स, कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स, ए.आई) का विकास, स्मार्ट वस्तुओं का निर्माण, जेनेटिक इंजीनियरिंग, मानव-क्लोनिंग, निरन्तर उच्च क्षमतावाली पार्टिकल एक्सेलरेटर्स का विकास, आदि उसी मूल वृत्ति की अनिवार्य परिणतियाँ हैं । कम्प्यूटरों ने इस प्रक्रिया को अभूतपूर्व आवेग प्रदान किया है । अब वह माया मानवों और माया ब्रह्माण्डों की डिज़ाइनिंग कर सकता है और उन्हें हासिल करने की दिशा में बढ़ सकता है । हम पत्थर के औज़ारों से डिज़ाइनर शिशुओं/डिज़ाइनर सृष्टि के ज़माने में आ चुके हैं । जिस दिन मनुष्य ने अपने दो मुक्त हाथों के ज़रिये पत्थर के औज़ारों का निर्माण किया, उसी दिन उसने अपने हाथों के विस्थापन की भी नींव रख दी – पहले हाथों के सहायक के रूप में औज़ारों का निर्णाण हुआ । पुनः काल-क्रम में हाथों को विस्थापित करने वाली मशीनों का आगमन हुआ । आज जब मस्तिष्क की शक्ति, ज्ञान की शक्ति प्रमुख उत्पादक-शक्ति बनती जा रही है, तब वह (मस्तिष्क के सहायक यन्त्रों के विकास से ग़ुजरते हुए) मस्तिष्क के विस्थापन में लगा है । समग्र तौर पर देखें तो मनुष्य के अन्दर क्रियाशील दोनों शक्तियाँ – चेतना-शक्ति और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति – एक-दूसरे को विस्थापित करने में लगी रही हैं । चेतना द्वारा अध्यात्म से स्वतंत्र इच्छा-शक्ति का, और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति द्वारा ज्ञान से चेतना का विस्थापन – यह ज़द्दोज़हद मानव अस्तित्व का अब तक स्थायी तत्त्व रहा है ।

53. इसी ज़द्दोज़हद में मानव अस्तित्व की बहुचर्चित बिडम्बना सामने आती है, और उसका चिरकाल से चला आ रहा नैतिक धर्मसंकट प्रकट होता है । क्या अपनी विकास-प्रक्रिया में मनुष्य अपने जीवन-स्रोतों का विनाश करता जा रहा है ? अगर किसी खगोलीय दुर्घटना में उसका असामयिक अन्त न भी हो, तो क्या अपने जीवन स्रोतों के विनाश के कारण अथवा अपनी वर्चस्व वृत्ति के कारण, वह अकाल-मृत्यु का शिकार होगा ? सभी प्राणियों में हम प्रायः कई श्रेणियाँ पाते हैं । लेकिन होमो सेपियन नामक हमारी प्रजाति इसका अपवाद है । क्या जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिये अपनी प्रजाति की विविधता हम स्वयं रचेंगे ? कृत्रिम प्रजनन के द्वारा (आज से कुछ सौ अथवा हजार वर्षों बाद) मनुष्य के हाथों मनुष्य इतना बदल दिया जाएगा कि वह पहचाना भी नहीं जा सके ? (जैसा कि अतीत में हमने अन्नों और पालतू पशुओं के साथ किया ।) और ऐसा होता है तो हर्ज़ ही क्या है ? आख़िर अपने किसी ख़ास रूप-गुण से चिपके रहना हमारी प्रजातिगत जड़ता नहीं है ? और यही जड़ता हमारे विनाश का कारण नहीं बन सकती ? क्या मनुष्य में इस जड़ता का अतिक्रमण करने की क्षमता नहीं ? और अगर है तो वह उसका उपयोग क्यों न करे ?

54. मनुष्य का नैतिक धर्मसंकट कुछ इस तरह प्रकट होता हैः

पहला पक्ष – एक मूर्त अस्तित्व के रूप में मनुष्य की आत्म-पुनरुत्पादक शक्ति एक सापेक्ष शक्ति है । उसे अपने अस्तित्व की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए । अनन्त बनने की कोशिश में वह ख़ुद अपने आत्म-संहार को न्यौता देगा ।

दूसरा पक्ष – मनुष्य का जन्म ही अस्तित्व का अतिक्रमण है । अतिक्रमण ही उसके अस्तित्व की गारंटी है । माना कि वह अनन्त शक्ति से सम्पन्न नहीं हो सकता । लेकिन इस शक्ति से सम्पन्न होने की निरन्तर कोशिश ही उसके अस्तित्व की शर्त है । शिशु के रूप में उसके समय से पूर्व जन्म की क्षतिपूर्ति समय से परे जीने की उसकी लालसा में होती है । अतिक्रमण मनुष्य का स्वभाव है ।

पहला पक्ष – सही है कि मनुष्य में अतिक्रमण की क्षमता है, परन्तु उसका मनुष्यत्व इस बात में है कि वह इस क्षमता के बावज़ूद सचेत रूप से ऐसा न करे । यही मर्यादा है । अगर यह क्षमता न होती तो यह प्रश्न ही नहीं उठता ।

कुल मिलाकर, एक पक्ष मनुष्य को मानसिक रूप से अनन्त के साथ एकात्म कर सृष्टि के तमाम अस्तित्वों की सापेक्ष दिक्काल सत्ताओं का साक्षात् कराता है और मनुष्य को भी अपनी दिक्काल सत्ता में स्थापित करने का यत्न करता है, वहीं दूसरा पक्ष मनुष्य को अपनी दिक्काल सत्ता का अतिक्रमण कर ख़ुद स्रष्टा बनाने का यत्न करता है । एक के केन्द्र में सृष्टि है, सृष्टि के अन्य अस्तित्वों के सहभागी के रूप में मनुष्य है, अन्य अस्तित्वों की स्वीकृति है, सार्विक प्रेमभाव है । दूसरे के केन्द्र में मनुष्य है, अन्य अस्तित्वों की बलि है, वर्चस्व है । एक में मनुष्य बलि देता है, दूसरे में वह बलि लेता है ।

इस तरह, उत्पादन के ज़रिये जीविकोपार्जन के माध्यम से अपने विस्तारित पुनरुत्पादन के क्रम में मनुष्य सदा से इन दबावों का – मर्यादा (अध्यात्म) और अतिक्रमण24 का सामना करता है । यद्यपि दोनों वृत्तियाँ मनुष्य की अनन्त से एकात्म होने की मूल वृत्ति का ही प्रतिफलन है, तथापि इनकी व्यावहारिक परिणति दो विपरीत दबावों के रूप में सामने आती है ।

55. कोई भी वृत्ति एकआयामी होकर नहीं रहती । अगर हम बाह्य संसार में अन्य अस्तित्वों को स्वीकार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं तो यह वृत्ति मानव समाज के भीतर और व्यक्ति के अपने जीवन में भी सार्विक प्रेमभाव में अभिव्यक्ति पाएगी । वहीं दूसरी ओर यदि हम बाह्य संसार में अन्य अस्तित्वों का हनन करते हैं, अतिक्रमण करते हैं, तो मनुष्य के सामाजिक और व्यक्तिपरक सम्बन्धों में भी अतिक्रमण और वर्चस्व की कार्रवाइयाँ होंगी । अगर हम प्रकृति में मनुष्य को श्रेष्ठ और अन्य अस्तित्वों को निम्न मानेंगे, तो अपने समाज में भी श्रेष्ठ-निम्न की श्रेणियाँ बनेंगी और निम्न पर श्रेष्ठ के वर्चस्व के दावे होंगे ।

56. सार्विक, निरपेक्ष, अमूर्त जैसे मानसिक प्रवर्गों के विकास ने जहाँ एक ओर विशिष्ट, सापेक्ष और मूर्त के ज्ञान को जबर्दस्त आवेग प्रदान किया, वहीं उसके नकारात्मक परिणाम भी सामने आये । निरपेक्ष रूप से श्रेष्ठ अथवा निम्न की अवधारणाएँ बनीं – मनुष्य श्रेष्ठ, अन्य प्राणी निम्न, अमुक समुदाय श्रेष्ठ, अमुक निम्न । इसने वर्चस्व वृत्ति को सशक्त वैचारिक आधार प्रदान किया । इतिहास में हम श्रेष्ठ-निम्न का विभिन्न रूपों में साक्षात् करते हैं । भिन्न का एकत्व श्रेष्ठ-निम्न के द्वैत द्वारा विस्थापित होता है । भिन्नता (विविधता) अनन्त के अस्तित्व का ढंग है । श्रेष्ठ-निम्न की अवधारणा वर्चस्व के अस्तित्व का ढंग है ।

57. अतिक्रमण और अध्यात्म के अलावा मनुष्य की एक और वृत्ति है – अनुकरण जो वह प्राणी जगत से विरासत में प्राप्त करता है । हाँ, उसकी विशिष्टता यह है कि वह अनुकरण की प्रक्रिया में प्रयुक्त सामग्रियों/उपकरणों का प्रयोग करते-करते अन्वेषण की दिशा में आगे बढ़ जाता है । अनुकरण के ज़रिये अन्वेषण का पुनः सार्विकरण होता है । गुफाओं और पक्षियों के घोंसलों का अनुकरण कर उसने मिट्टी और पत्तों से अपने प्रारम्भिक घरों का निर्माण किया । मिट्टी और खर-पत्तों का इस्तेमाल करते-करते वास्तुशिल्प, मूर्तिकला, बर्तन-निर्माण आदि का उसने अन्वेषण किया । फिर अनुकरण के ज़रिये इस अन्वेषण का भी सार्विकरण हुआ । अनुकरण-अन्वेषण-अनुकरण की यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है ।

58. इस तरह, कुल मिलाकर मनुष्य के अस्तित्व के साथ तीन वृत्तियाँ अभिन्न रूप से जुड़ी हैं – अनुकरण, अतिक्रमण और अध्यात्म । इन्हीं वृत्तियों के आपस में घुले-मिले अस्तित्व की वज़ह से हर काल में हमारा सामना तीन तरह के लोगों से होता है – अन्वेषक/आध्यात्मिक, अनुकर्ता और अपकर्ता । अथवा संन्यासी/अन्वेषक, गृहस्थ और आवारा । पहले और तीसरे किस्म के लोगों की तादाद काफ़ी कम होती है । इनका एक-दूसरे में रूपान्तरण भी होता रहता है । अक्सर आवारा किस्म के लोग भी अन्वेषक अथवा आध्यात्मिक होते देखे गये हैं ।

59. अनुकरण, अतिक्रमण और अध्यात्म की मूल वृत्तियाँ और उनका एक-दूसरे में रूपान्तरण समाज के अन्दर, और एक व्यक्ति के अन्दर भी, निरन्तर चलने वाली क्रिया है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग-अलग जीवन-स्थितियों में अपने ढंग से उसका साक्षात् करता है ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 3

अनन्त का छंद – 3

प्रसन्न कुमार चौधरी

सृष्टि

29. पूरी सृष्टि में एक अनन्त शक्ति व्याप्त है – आत्म-पुनरुत्पादन की शक्ति । अन्य सारी शक्तियाँ इसी अनन्त शक्ति की उपज हैं ।

30. आखिर अनन्त है क्या ? आत्म-पुनरुत्पादन की शक्ति ही अनन्त है । सूक्ष्म कण के रूप में इसे हम स्पिन ∞ का माया कण (वर्चुअल पार्टिकल ऑफ स्पिन इनफिनिटी) कह सकते हैं ।

31. आत्म-पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में आये व्यवधान/विच्युति अथवा विकृति से ही मूर्त शक्ति-कण और वस्तु-कण अस्तित्व में आते हैं । और फिर ब्रह्माण्डों का अस्तित्व सामने आता है । बहरहाल, अनन्त शक्ति – आत्म-पुनरुत्पादन की शक्ति मूर्त अस्तित्वों में भी अभिव्यक्त होती रहती है ।

32. अनन्त में व्यवधान अथवा विच्युति का प्रश्न फिलहाल अज्ञात का क्षेत्र है । ऊर्जा क्षेत्र, खासकर ताप ऊर्जा में परिवर्तन के सन्दर्भ में इसकी कुछ व्याख्याएँ परिकल्पित की जा सकती हैं । लेकिन ठोस रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं । सिद्धान्त रूप में इतना कहा जा सकता है कि अनन्त में व्यवधान/विच्युति अथवा विकृति वह परिकल्पित क्षण है जब पुनरुत्पादन की प्रक्रिया किसी कारणवश विलम्बित हो जाती है । उलट रूप में जैसे मरने के लिए नियोजित (प्रोग्रेम्ड) कोशिकाएँ मरना भूलकर केन्सरस हो जाती हैं ।

कुल मिलाकर, संसार का सारा क्रियाविधान अनन्त में क्षणिक व्यवधान का, स्मृतियों का सारा संसार अनन्त की क्षणिक विस्मृति का परिणाम है । अनन्त की विकृति ही गोचर सृष्टि है । (प्रसंगवश, वैयाकरणों के स्फोट सिद्धान्त में शब्द के जिन दो रूपों की चर्चा की गई है, उनमें उसके व्यक्त रूप को विकृत रूप तथा अव्यक्त को प्राकृत, नित्य रूप कहा जाता है ।)

33. वैसे तो अनन्त की विकृति के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, फिर भी कुछ परिकल्पनाएँ पेश की जा सकती हैः

क. हर मूर्त अस्तित्व का अन्त है । सूक्ष्म कणों से लेकर मनुष्य, धरती, सौरमण्डल और ब्रह्माण्डों का अगर प्रादुर्भाव है, तो उनका पराभव भी है । सृष्टि है तो संहार भी है ।

ख. बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ब्राउनियन गति की खोज और तीसरे चतुर्थांश में अब्दुल सलाम-स्टीवन वाइनबर्ग के अनुसन्धानों से ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्माण्डों की एक ऊर्जा सीमा है । अत्यन्त उच्च और अत्यन्त निम्न ऊर्जा की स्थितियों में पुनर्सामान्यीकरण (रिनॉर्मलाइजेशन) की परिघटना सामने आती है – यानी शक्तियों के एकीकरण की परिघटना । निम्न ऊर्जा की स्थितियों में संतुलन/क्रमभंग (सिमिट्रि-ब्रेकिंग) घटित होता है, यानी शक्तियों का पृथक्करण होता है । चार आधारभूत शक्तियों – विद्युत्चुम्बकीय शक्ति, दुर्बल न्युक्लियर शक्ति, सबल न्युक्लियर शक्ति और गुरुत्वाकर्षण शक्ति से हम दो आधारभूत शक्तियों – विद्युत्चुम्बकीय और गुरुत्वाकर्षण शक्ति – की ओर बढ़ रहे हैं । अनुमान किया जा सकता है कि ऊर्जा की खास स्थितियों में इन दो शक्तियों का भी पुनर्सामान्यीकरण घटित होता है, भले ही वे स्थितियाँ मनुष्य की प्रायोगिक पहुँच से काफी दूर हों, या फिर पहुँच से ही दूर हों ।18

ग. ऊर्जा की दो परिकल्पित बिन्दुओं पर अनन्त का संतुलन/क्रम भंग होता है । इन बिन्दुओं से परे क्षेत्र को हम अनन्त का क्षेत्र कह सकते हैं । सृष्टि इन दो सीमाओं के बीच अनन्त के अस्तित्व का ढंग है । अतः ब्रह्माण्डों की सीमाएँ हैं, लेकिन मनुष्य इन सीमाओं की क्षितिज-पटी (इवेण्ट होराइज़न) तक ही झांक सकता है । शक्तियों का पुनर्सामान्यीकरण – विद्युत्चुम्बकीय और गुरुत्वाकर्षण की शक्तियों का अनन्त में लय – प्रायोगिक रूप से असम्भव है, क्योंकि उसका अर्थ होगा ब्रह्माण्ड का संहार और अनन्त में उसका विलयन । बहरहाल, इस क्षितिज-पटी और पुनर्सामान्यीकरण के बीच इतनी दूरी है कि नये-नये शक्ति/वस्तु-कणों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता ।

घ. अनन्तों के गणित (ज़ॉर्ज़ केण्टर) से हम जानते हैं कि वक्रों (कर्व्स) का अनन्त ज्यामितीय आकारों के अनन्त से, और ज्यामितीय आकारों का अनन्त अंकों के अनन्त से बड़ा होता है । यहाँ हम जिस अनन्त की चर्चा कर रहे हैं, उसे तमाम अनन्तों का पूर्व कल्पित आधार – निरपेक्ष अनन्त मान सकते हैः

निरपेक्ष अनन्त → ∞2 (कर्व्स का अनन्त) > ∞1 (ज्यामितीय आकारों का अनन्त) > ∞0 (अंकों का अनन्त)

ङ. कणों में अन्तर्निहित आत्म-पुनरुत्पादन शक्ति को अगर ध्यान में रखा जाए तो सी पी टी संतुलन/क्रम-भंग की भी बेहतर व्याख्या की जा सकती है । (सीः कण की जगह प्रति-कण, पीः दाहिने की जगह बाएँ, टीः समय की दिशा को उलट देना ।) चूँकि कण आत्म-पुनरुत्पादित होते रहते हैं, इसलिए उनको उलट देने की स्थिति में संतुलन-भंग की, उनके द्वारा भिन्न मार्ग अपनाने की संभावना बनी रहती है ।

च. अनन्त का संतुलन-भंग (रिचर्ड फाइनमैन के ‘सम ओवर हिस्ट्रीज़’ के अनुसार) हर संभव मार्ग अपना सकता है ।19 दूसरे शब्दों में हम एक ऐसे ब्रह्माण्ड में रह रहे हैं जो अनन्त के संतुलन-भंग की हर संभव सृष्टियों में सेबस एक संभव सृष्टि है । अन्य संभव मार्गों/सृष्टियों – छाया कणों से लेकर छाया ब्रह्माण्डों – के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता ।

34. अनन्त में – आत्म-पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में व्यवधान अथवा विच्युति के साथ ही एक दूसरी शक्ति सामने आती है । विच्युति से अच्युत, विकृति से प्राकृत अथवा व्यक्त से अव्यक्त अवस्था में वापस ले जाने वाली यह शक्ति अनन्त का ही दूसरा पहलू है । सूक्ष्म कण के रूप में इसे हम स्पिन 0 (शून्य) का मायाकण (वर्चुअल पार्टिकल ऑफ स्पिन 0) कह सकते हैं । यह शून्य शक्ति ही तमाम अस्तित्वों में मौज़ूद स्मृति-शक्ति है । जिस तरह मूर्त अस्तित्वों में अनन्त पुनरुत्पादन की शक्ति विभिन्न रूपों में क्रियाशील रहती है, उसी तरह यह शून्य-शक्ति भी स्मृति, आकर्षण, सर्फेस-टेंशन (पृष्ठ-तनाव) आदि विभिन्न शक्ति-रूपों में अभिव्यक्त होती है । (मनोविश्लेषण की भाषा में, अनन्त यदि इरोटिक इंस्टिंक्ट के रूप में तो शून्य डेथ इंस्टिंक्ट के रूप में जाना जाता है ।)

35. तमाम मूर्त अस्तित्व – मूर्त संसार – अनन्त और शून्य की इन्हीं शक्तियों की अन्तःक्रिया का परिणाम है । किसी भी मूर्त/सान्त (फाइनाइट) अस्तित्व का शून्य से गुणनफल शून्य ही होता है, लेकिन अनन्त और शून्य का गुणनफल एक मूर्त/सान्त अस्तित्व है (∞ × 0 = अ.) ।

36. अनन्त और शून्य की यही शक्तियाँ मूर्त संसार में क्रमशः विद्युत चुम्बकीय शक्ति (वर्चुअल पार्टिकल ऑफ स्पिन 1) और गुरूत्वाकर्षण शक्ति (वर्चुअल पार्टिकल ऑफ स्पिन 2) के रूप में प्रकट होती हैं । अपने शुद्ध रूप में एक यदि परिकल्पित रेखा है, तो दूसरी शक्ति एक परिकल्पित बिन्दु, और दोनों की अन्तःक्रिया का परिणाम एक कर्व्ड स्पेस है । इन्हीं शक्तियों की अन्तःक्रिया से ब्रह्माण्डों का भविष्य निर्धारित होता है । तीन स्थितियों की कल्पना की जा सकती है । पहली, दोनों शक्तियों के बीच एक संतुलन की स्थिति; दूसरी, गुरूत्वाकर्षण की शक्ति पर विद्युत्चुम्बकीय शक्ति के हावी होने की स्थिति जिसके परिणामस्वरूप निरन्तर दूर होते ब्रह्माण्डों (एक्सपेण्डिंग यूनिवर्स) की परिघटना सामने आती है; और तीसरी, गुरूत्वाकर्षण शक्ति का विद्युत्चुम्कीय शक्ति पर हावी होना जिसके कारण ब्रह्माण्डों का संकुचन (कांट्रेक्शन) होता है । कुछ मिश्रित स्थितियों की भी कल्पना की जा सकती है ।

37. गुरूत्वाकर्षण अपने चरम पर जाकर शून्य शक्ति में परिणत हो जाता है । और शून्य-शक्ति अनन्त-शक्ति में लय होने के साथ तिरोहित हो जाती है । दरअसल, गुरूत्वाकर्षण का चरम और शून्य-शक्ति की सिंगुलरिटी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । आजकल की प्रचलित भाषा में जिसे कृष्ण विवर (ब्लैक होल) कहा जाता है, वह शून्य की सिंगुलरिटी है, और महाविस्फोट (बिग बैंग) को अनन्त शक्ति में विच्युति के क्षण के रूप में देखा जा सकता है । चन्द्रशेखर सीमा20 को ध्यान में रखें तो ब्रह्माण्ड में अनेक कृष्ण विवरों की संभावना बनती है । यहाँ बीज और वृक्ष की उपमा समीचीन होगी । संभवतः बीज रूपी कृष्ण विवर ही महाविस्फोट रूपी वृक्ष के रूप में पुनरुत्पादित होता है, फिर यह महाविस्फोट पुनः अनेक बीज रूपी कृष्ण विवरों में । यह क्रिया अनन्त रूप से चलती रहती है । ‘श्यामाच्छबलं प्रपद्ये शबलाच्छ्यामं प्रपद्ये ।’21

38. कुल मिलाकर, ब्रह्माण्डों को हम अनन्त-शक्ति सागर में फैलते, अपेक्षाकृत संतुलन की अवस्था में रहते, संकुचित होकर पुनः अनन्त-शक्ति में लीन होते फेनिल बुलबुलों के रूप में देख सकते हैं ।

39. प्रचण्ड गुरूत्वाकर्षण जब ब्रह्माण्ड के सारे ग्रह-नक्षत्रों को, यहाँ तक कि विद्युत्चुम्बकीय शक्ति को भी लील रहा होता है, तब यह संभावना बनी रहती है कि कुछेक खगोलीय पिण्ड उसकी शक्ति के दायरे से बाहर रह जाएँ । अतः यह संभव है कि किसी ब्रह्माण्ड में कुछ ऐसे आवारा खगोलीय पिण्ड भी हों जिनकी उम्र सम्बन्धित ब्रह्माण्ड की उम्र से अधिक हो । पूर्ववर्ती ब्रह्माण्ड के ये अवशेष भी क्या ब्रह्माण्ड के विस्तार को एक सीमा में नियंत्रित रखने का काम करते हैं ?

40. बहरहाल अनन्त शक्ति – आत्म-पुनरुत्पादन की शक्ति – सूक्ष्म शक्ति/वस्तु कणों में भी अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती रहती है । हर अस्तित्व में आत्म-पुनरुत्पादन की तीव्रता (फ्रीक्वेंसी) और उसका चक्र (साइकल) अलग-अलग होता है । पहले से जहाँ अस्तित्व-रूप की विकास-प्रक्रिया निर्धारित होती है, वहीं दूसरे से उसका समय (टाइम) । दूसरे शब्दों में, आत्म-पुनरुत्पादन का एक चक्र अलग-अलग अस्तित्व-रूपों में अलग-अलग समय लेता है; और आत्म-पुनरुत्पादन के कुछ चक्रों के बाद हर अस्तित्व-रूप का अन्त हो जाता है । यानी सम्बन्धित अस्तित्व-रूपों का दूसरे अस्तित्व-रूपों में रूपान्तरण हो जाता है । हर अस्तित्व-रूप पुनरुत्पादन के एक निश्चित चक्र के बाद मर जाने (एक्सटिंक्ट) अथवा दूसरे अस्तित्व-रूपों में रूपान्तरित हो जाने के लिए प्रोग्रेम्ड होता है । इसी से हर अस्तित्व की अपनी सापेक्ष दिक्-काल सत्ता निर्धारित होती है । इस आधार पर ब्रह्माण्ड में ज्ञात अस्तित्व-रूपों का वर्गीकरण किया जा सकता है ।

41. किसी भी अस्तित्व के पराभव (एक्सटिंक्शन) के लिए तीन कारक जिम्मेवार हैं । पहला, उनकी आत्म-पुनरुत्पादन शक्ति का ह्रास; दूसरा, उनमें व्यवहारजनित परिवर्तन जिससे उनकी अस्तित्वगत स्थितियाँ बाधित होती हैं; और तीसरा, बाह्य कारक । वैसे मूल कारण पहला कारक ही है, फिर भी बाद वाले कारकों के कारण पराभव की प्रक्रिया में गति आ जाती है और कुछ खास मामलों में वे कभी-कभी निर्णायक भी हो जाते हैं ।

42. अनन्त में विच्युति से शक्ति/वस्तु कणों का अस्तित्व सामने आता है । फिर इन कणों के संश्रयों की अनन्त संभावनाएँ उपस्थित होती हैं । ये कण निरन्तर आत्म-पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में होते हैं । आत्म-संगठन (सेल्फ-ऑर्गेनाइजेशन) भी आत्म-पुनरुत्पादन शक्ति की ही क्रिया (फंक्शन) है । कण इस रूप में आत्म-संगठित होते हैं कि आत्म-पुनरुत्पादन का मार्ग प्रशस्त हो । जब एक खास रूप में आत्म-पुनरुत्पादन असंभव होने लगता है, तब केऑस के एक संक्रमणकालीन दौर से ग़ुजरने के बाद कण/परमाणु/अणु नए रूप में आत्म-संगठित होते हैं और आत्म-पुनरुत्पादन का नया चक्र शुरू हो जाता है । परमाणुओं से लेकर मनुष्य के अस्तित्व तक की इस दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है । एक बार आत्म-पुनरुत्पादन शक्ति के सिद्धान्त को मान लेने से कणों की गति-प्रकृति, छाया-कणों (शेडो पार्टिकल्स) के अस्तित्व जैसे प्रश्नों को समझने में मदद मिल सकती है ।

43. दरअसल, आत्म-पुनरुत्पादक शक्ति को निर्जीव और सजीव पदार्थों के बीच निर्णायक विभाजक-रेखा माना जाता है । यह रूढ़िवादी सोच ही हमें शक्ति/वस्तु कणों में आत्म-पुनरुत्पादक शक्ति देखने से वंचित कर देती है । वैज्ञानिक अनुसंधानों से आज जो दुनिया उद्घाटित हुई है, उसकी व्याख्या के लिए यह सोच पूरी तरह अप्रासंगिक हो गई है ।

44. अनेक, एक के अस्तित्व का ढंग है । विविधता और एकता विरोधी श्रेणियाँ नहीं – विविधता एकता के अस्तित्व का ढंग है । अनगिनत भेदपूर्ण अस्तित्व-रूप अनन्त के अस्तित्व का ढंग है । एक अनन्त शक्ति – आत्म-पुनरुत्पादन की शक्ति – अनन्त अस्तित्व-रूपों में अभिव्यक्ति पाती है । एक अर्थ में, सृष्टि अनन्त का ही आत्म-प्रकटीकरण है ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 2

अनन्त का छंद – 2

प्रसन्न कुमार चौधरी

भारतीय चिन्तन विधि

13. दर्शन क्षण में अनन्त की स्मृति है, नश्वर में शाश्वत का शब्द है, मूर्त में अमूर्त का अभ्युदय है ।

सृष्टि – अदृश्य सूक्ष्म कणों से लेकर नीहारिकाओं तक, जीवाणुओं से लेकर मनुष्य तक – इसी सान्त और अनन्त के, नश्वर और अनश्वर के, वचनीय और अनिर्वचनीय के, मूर्त और अमूर्त के अन्तहीन अन्तःमिश्रण का सिलसिला है, प्रवाह है ।

सत्य सान्त को अनन्त से, ससीम को असीम से, वचनीय को अनिर्वचनीय से एकात्म करने का सतत् सन्धान है । तानि हवा एतानि त्रीण्यक्षराणि सतीयमिति तद्यत्सत्तदमृतमथ यत्ति तन्मर्त्यमथ यद्यं तेनोभे यच्छति यदनेनोभे यच्छति तस्माद्यामहरर्वा एवंवित्स्वर्गं लोकमेति ।9

धर्म प्रकृति और मानव जीवन में इसी सत्य की प्रतिष्ठापना है । धर्म सत्यनिष्ठ जीवन-दर्शन है और संस्कृति मानव जीवन में इसी सत्य की निष्पत्ति ।

14. सृष्टि अन्तहीन भेदों का संश्लिष्ट समुच्चय है । भेद सृष्टि का स्वभाव है और भेदों का अन्त सृष्टि का अन्त है । भेदों की दिक्काल सापेक्ष सत्ताओं की परस्पर निर्भरता और उनका संघर्ष ही यह सृष्टि है । भेदों की नई सत्ताएँ भेदों की पुरानी सत्ताओं की जगह लेती जाती है, यही सृष्टि का प्रवाह है ।

भेदपूर्ण सृष्टि में, प्रकृति और जीवन में भूतों और भावों में, अपने में अनिर्वचनीय अनन्त की अनुभूति ही विवेक है । यह विवेक ही मानव जीवन की विशिष्टता है । सामाजिकता (समूह-चेतना आदि) मानवेतर प्राणियों में भी देखी जा सकती है । मनुष्य सामाजिक ही नहीं, एक विवेकशील प्राणी भी है । विवेकप्रेरित सामाजिकता, यही उसकी लाक्षणिकता है ।

15. अनन्त के साथ एकात्मता – मूर्त, क्षणजीवी भूतों और भावों के सच्चे ज्ञान की आवश्यक शर्त है । देश-काल सापेक्ष इन भूतों और भावों का सच्चा ज्ञान तो देश-काल से परे अमूर्त, अक्षय, अनन्त प्रवाह के साथ एकात्म होकर ही प्राप्त किया जा सकता है । मूर्त की स्थिति से मूर्त का, क्षण की स्थिति से क्षण का ज्ञान निस्सन्देह एकांगी ज्ञान होगा ।

एकमात्र अनन्त के साथ एकात्मता की अवस्था में ही भेदों से परे जाया जा सकता है – वह अवस्था जहाँ भेद समाप्त हो जाते हैं, सृष्टि नहीं होती है और न होता है कर्म । मानव जीवन का चरम लक्ष्य इसी आध्यात्मिक अवस्था में जाना, फिर उस अवस्था से तमाम दिक्काल सापेक्ष भेदों को जानना, उन्हें यथोचित सम्मान देना तथा मानव जीवन में अस्तित्वमान इन तमाम भेदों की सत्ताओं को उनमें अन्तर्निहित अनन्त/अभेद की स्मृति से युक्त करना और उन्हें अपने-अपने सापेक्ष कर्मों के धर्मों का निर्वाह करने में सक्षम बनाना है । अनन्त की स स्मृति से युक्त न होने से भेदों की यह सत्ता अपनी दिक्काल सीमाओं से परे जाने की कोशिश करती है और उनकी यह कोशिश ही भ्रान्तियों और व्यर्थ के संघर्षों का कारण है । अनन्त की यह उपस्थिति अथवा स्मृति ही भेदों के बावज़ूद सृष्टि का संतुलन बनाए रखती है ।

16. भेद सभ्यता का स्रोत है, स्मृति संस्कृति का ।

17. एकात्मता की स्थिति में विवेक और स्मृति का भी अवसान घटित होता है । सान्त और अनन्त का विभेद/द्वैत भी खत्म हो जाता है । सान्त भी अनन्त की ही अभिव्यक्ति है । अनन्त का अंश भी अनन्त ही होता है । पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।10 अनन्त तो सान्त रूपों की अनन्त श्रृंखला में ही अस्तित्वमान होता है । इकाई और कुछ नहीं एक अनन्त ही है । हम सब मांहि सकल हम मांहि । हम थै और दूसरा नाहीं ।। (कबीर)

18. विवेक मनुष्यता का लक्षण है, तो अनन्त के साथ एकात्मता उसकी चरम परिणति । यही भारतीय चिन्तन की विशिष्टता है । वैदिक आत्मन्, उपनिषद का ब्रह्म, जैनियों की जिनावस्था (या कैवल्य), बौद्धों का निर्वाण, माध्यमिकों का शून्य, गीता का स्थितप्रज्ञ, मोक्ष आदि सभी अवधारणाएँ इसी अनन्त के साथ एकात्मता के मूल विचार को ही व्यक्त करती हैं । यही बात योग और सहजयानियों पर भी लागू होती है । ‘मैं वैं, वैं मैं, ये द्वै नांहीं । आपैं अकल सकल घट मांही ।’11

19. स्व का अवसान ही अनन्त के साथ एकात्म होना है । निजी आसक्तियों/चाहतों, निजी सम्पदा, निजी यश की चाहना – इन सबसे परे जाना । हमारा अस्तित्व प्राकृतिक/मानविक शक्तियों की देन है । यही देना – कोई चीज बनाने में अपना अस्तित्व विलीन कर देना – बलि है । यह बलि ही सृष्टि है । हमारे जीवन की सार्थकता भी देने में है, इसी बलि में है । निजत्व हमारे अन्दर की रचनात्मक संभावनाओं को पूरी तरह सामने आने से रोकता है, उन संभावनाओं को विकृत करता है ।

20. जो देता है, वही देवता है । इसीलिए हमारे यहाँ प्राकृतिक और मानविक शक्तियों को (हमारा अस्तित्व जिनकी देन है) देवता कहा जाता है । इन सबके प्रति हमारा रुख़ श्रद्धा का है । यह श्रद्धा अखण्ड है । अगर हम उन प्राकृतिक शक्तियों के प्रति श्रद्धामय नहीं हैं जिनसे हमारा जीवन संभव हुआ है, तब हम उन मानविक शक्तियों के प्रति भी कैसे श्रद्धामय रह सकते हैं जो हमारे अस्तित्व के लिए जिम्मेवार हैं (जैसे माता, पिता, गुरु आदि) । स्व का अन्त अखण्ड श्रद्धामय जीवन का प्रारम्भ है ।

21. दैनिक जीवन में हम ऐसी कई धारणाएँ बना कर चलते हैं जो हमारे होने में अनन्त के तत्व को ही अस्वीकार करती हैं । प्रत्यक्षतः ऐसी चेतना तर्क और बुद्धिसंगत भी लगती है, परन्तु ऐसी चंचल चेतनाओं से परे गए बिना अनन्त-चेतना का प्रादुर्भाव भी नहीं होता । ‘अक्षर बाडा सअल जगु, नाहि णिरक्खर कोइ । ताव से अक्खर घोलिअइ, जाव णिरक्खर होइ ।।’12

प्रचलित तर्क और बुद्धि स्व के, अहं के अस्तित्व का ढंग है, ऐसे तर्कवादी और बुद्धिवादी स्व का तर्क और बुद्धि से परे शून्य से काट ही अनन्त है । मौन अनन्त के अस्तित्व का ढंग है । परस्पर विरोधों का संघर्ष स्व का स्वभाव है, शान्ति अनन्त का । शान्ति भी अखण्ड होती है । स्व का अन्त अखण्ड शान्तिमय जीवन का प्रारम्भ है ।

22. स्व के अवसान के लिए मन का नियमन आवश्यक शर्त है । मन ही बांधता है और मन ही मुक्त करता है । मन ही इन्द्रियों में विचरनेवाला लौकिक भोगी भी है, और अनन्त का दिग्दर्शन कराने वाला दिव्य चक्षु भी । त्रिगुणात्मक प्रकृति और मानव जीवन में मन के जरिये इन्द्रिय-संयम का यत्न करते हुए सात्विक जीवन की साधना स्व के अवसान और अनन्त के साथ एकात्म होने की ज़मीन तैयार करती है । स्व का अनियंत्रित भोग और स्व का बलपूर्वक शमन दोनों व्यर्थहैं । सहज जीवन में सात्विकता के विकास के साथ स्व का स्वाभाविक अवसान ही अभीष्ट है । स्व का निषेध नहीं, अवसान । स्व का स्वाभाविक अवसान ही सार्विक आत्मा का अभ्युदय है ।

23. अनन्त के साथ यह एकात्मकता ही अनासक्त कर्म की, निःस्वार्थ अनुसंधान की बुनियाद है ।यह दर्शन व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों, सभ्यताओं और पंथों के परस्पर टकराव के बीच निर्वैयक्तिक व्यक्ति, समाजोत्तर समाज, राष्ट्रोपरि राष्ट्र, संस्कृत सभ्यता और पंथ-निरपेक्ष धर्म का आदर्श प्रस्तुत करता है और उसके लिए प्रेरक का काम करता है । वही व्यर्थ को अर्थ देता है, निरुद्देश्य को सोद्देश्य बनाता है । वही कर्त्तव्यों और नैतिकता का अक्षय स्रोत है ।

क्षण की अपने-आप-में कोई उपयोगिता, कोई मर्यादा, कोई नैतिकता नहीं होती । उसी तरह व्यक्ति-अपने-आप-में, परिवार-अपने-आप-में, समाज-अपने-आप-में, राष्ट्र-अपने-आप-में, सभ्यता-अपने-आप-में, पंथ-अपने-आप-में, अनुपयोगी, अमर्यादित और अनैतिक होता है । अनन्त से ही उसकी उपयोगिता, मर्यादा, नैतिकता निर्धारित होती है ।

24. विवेक-स्मृति-एकात्मता और फिर एकात्मता से निर्वैयक्तिक-निष्काम कर्म की ओर वापसी – जीवन के सभी क्षेत्रों में नेतृत्व की यह आवश्यक शर्त है । कर्म चयन की स्वतंत्रता और फिर सम्बन्धित कर्म के धर्म का निरूपण और उसका निर्वाह इसी के अनुषंगी हैं । यही भारतीय जीवन का आदर्श है । यही आदर्श हर तरह के कर्म को सृष्टि के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने में समर्थ होता है । तब ही सापेक्ष कर्म के सापेक्ष धर्म का निरूपण भी संभव हो पाता है ।

25. इस जीवन दर्शन और पद्धति की विशेषता यह है कि इसे किताब पढ़कर हासिल नहीं किया जा सकता । यह सामान्य, सूचनात्मक ज्ञान नहीं है । इसे कठोर साधना के जरिये ही हासिल किया जा सकता है । ज्ञान, कर्म, सहज/भक्ति की कठिन साधना ही वह मार्ग है जो हमें इस अवस्था में ले जा सकता है । भारतीय मनीषियों ने इस साधना का, इन मार्गों का बड़ा ही व्यापक अध्ययन प्रस्तुत किया है ।

अनन्त अनिर्वचनीय है, अज्ञेय नहीं । फिर यह ज्ञेयता के प्रचलित, शास्त्रीय अर्थों में ज्ञेय भी नहीं है । यह जाना नहीं जा सकता, लेकिन हुआ जा सकता है । यह अनुभव किया जा सकता है, इसका साक्षात्कार होता है और इसके साथ लय हुआ जा सकता है । ‘आवुस! मैंने ज्ञान को देखा है ।’ (बुद्ध) ‘असली धर्म तो साक्षात्कार ही है ।’ (विवेकानन्द) कबीर भी अपने सतगुरु की अनन्त महिमा बखानते हुए यही कहते हैं, ‘लोचन अनन्त उघाड़िया अनन्त दिखावन हार ।।’13

26. यह जीवन दर्शन वस्तु और विचार के द्वैत पर आधारित नहीं है, बल्कि वस्तु और विचार से परे उस अनन्त पर आधारित है जिसमें तमाम वस्तु और विचार, तमाम ज्ञात-अज्ञात, जन्मे-अजन्मे वस्तु-रूप और विचार-रूप समाहित हैं । यह उस अनन्त की स्थिति से तमाम वस्तु-रूपों और विचार-रूपों – भौतिकवादी/भाववादी/अज्ञेयवादी/प्रत्यक्षवादी.. विचार प्रणालियों – की दिक्काल सापेक्ष सत्ता, उनके उद्भव-विकास-अवसान का अध्ययन करता है और अपनी प्रासंगिकता के अनुरूप उन्हें यथोचित सम्मान देता है । दर्शन तो एक ही हो सकता है और उसका कोई वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । विचार-प्रणालियाँ अनगिनत हो सकती हैं और अपनी-अपनी मूल प्रस्थापनाओं के अनुरूप उनका अलग-अलग वर्गीकरण किया जा सकता है ।

27. कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में कला और विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के महत्वपूर्ण ग्रंथ इसी दर्शन को प्रस्थान-बिन्दु मानकर चलते हैं । सान्त और अनन्त के बीच भेदाभेद का विवेक, अनन्त की स्मृति और उसके साथ एकात्मता तथा उस अवस्था से दिक्काल सापेक्ष भूतों और भावों का आकलन-विश्लेषण-मार्गदर्शन – यही भारतीय चिन्तन की लाक्षणिक विधि रही है । यही पाखण्ड रहित ज्ञान की आधारभूमि है । भाषा विज्ञान के क्षेत्र में इसी विधि का अनुसरण कर भारतीय मनीषियों ने सबसे ‘वैज्ञानिक’ व्याकरण की रचना की । प्रकृत ने संस्कृत का रूप लिया । भरत का नाट्यशास्त्र हो या भास्कराचार्य की लीलावती – सभी ने इसी को प्रस्थान-बिन्दु बनाकर अपने-अपने क्षेत्रों में अनुसंधान और ज्ञान के प्रतिमान कायम किये । चरक संहिता में भी आयुर्विज्ञान अध्ययन करते हुए इसी दृष्टि को आधार बनाया गया हैः लोकेविततमात्मानं लोकं चात्मनि पश्यतः परावरदृशः शांतिर्ज्ञानमूला न नश्यति ।14 अनेकान्तवादी स्थिति, पूरी सृष्टि में व्याप्त शक्ति/ऊर्जा की अवधारणा, शून्य और अनन्त का निरूपण – इसी विधि की अनिवार्य परिणतियाँ हैं ।15

भारतीय मनीषा, इस प्रकार, धर्म-दर्शन-कला-विज्ञान के किसी द्वैत, परस्पर विरोधी सम्बन्ध को अस्वीकार करती है । वह न तो धर्म और दर्शन के बीच किसी ‘निर्जन प्रदेश’16 को ही स्वीकारती है और न ही धर्म-विज्ञान, धर्म-कला, कला-विज्ञान के किसी वैरभाव को । मनुष्य का जीवन-कर्म विविध रूपों में इन सबका अनोखा समुच्चय है ।

28. विवेक तर्क की स्वाभाविक परिणति है । स्मृति विवेकयुक्त साधना की, और एकात्मता साधनायुक्त स्मृति की । तर्क विवेक तक ले जाता है । स्मृति अपने उत्स की ओर लौटना है । एकात्मता वह अवस्था है जहाँ आने-जाने, जन्मने और मरने, लुप्त हो जाने और फिर उभरने का द्वैतभाव ही समाप्त हो जाता है । यह एक का अनन्त में, मूर्त का अमूर्त में, आवागमन का चिरन्तन प्रवाह में लय हो जाना है ।

एकात्मता की अवस्था से निष्काम कर्म में वापसी अनन्त का अनेक एक में, अमूर्त का अनासक्त मूर्त में, चिरन्तन प्रवाह का निर्लिप्त आवागमन में लौटना है ।17 कुल मिलाकर, भारतीय चिन्तन विधि का यही सार है । इसे समझे बगैर भारतीय चिन्तन के निष्कर्षों को, और उसके चरित-नायकों को, भलीभाँति नहीं समझा जा सकता ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 1

अनन्त का छंद – 1

एक तत्वशास्त्रीय विमर्श

प्रसन्न कुमार चौधरी

एक पूर्वावलोकन

1. बीसवीं सदी में जहाँ अध्ययन की विभिन्न शाखाओं का पर्याप्त प्रसार हुआ, वहीं तत्वशास्त्र को काफ़ी हद तक अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी । पूंजीवादी विश्व में परिणामवाद और तार्किक प्रत्यक्षवाद के प्रादुर्भाव के साथ तो तत्वशास्त्र मानो गहरी नींद सो गया । समाजवादी विश्व के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद आखिरी खोज थी । सवाल महज उसकी सही व्याख्या का रह गया । और उसकी उतनी ही व्याख्याएँ उपलब्ध हैं जितनी कि कम्युनिस्ट पार्टियाँ अथवा समाजवाद की किस्में । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद अपने आप में एक विशुद्ध अमूर्तन है – (हेगेल के) ‘निरपेक्ष विचार’ की तरह – जिसके प्रति तमाम कम्युनिस्ट अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं । काण्ट के ‘वस्तु-अपने-आप-में’ की तरह यह अज्ञेय है । वास्तविक जीवन में हम जिस चीज का साक्षात् करते हैं, वह इस द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की एक या दूसरी किस्म है । वैसे सिद्धान्ततः कम्युनिस्ट भी अध्ययन की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में तत्वशास्त्र के क्रमशः पतन के हिमायती हैं ।1 देङ के आधुनिकीकरण और गोर्बाचेव के सुधारों के काल में तो तत्वशास्त्र ने सचमुच पीछे की सीट ग्रहण कर ली है ।

2. अपने देश में, तत्वशास्त्रीय अध्ययन विवरण, व्याख्या, अनुसंधान और ध्यान की चारदीवारी में सीमाबद्ध रहा है । हमारे राष्ट्रीय मन के निर्माण में इन सब का अपना-अपना योगदान तो है, फिर भी ये अध्ययन की उस श्रेणी में नहीं आते जिन्हें हम अभिनव प्रवर्तन अथवा एक कवि के शब्दों में ‘जीवंत स्रष्टा मन की नव नवतर परिणति’2 की संज्ञा दे सकें । प्रत्येक युग में, किसी भी राष्ट्र के ‘भाग्य से किए वायदे’ की सच्ची शुरुआत तो अभिनव मन से ही होती है और उस वायदे को निभाने के लिए उसे अपने एक युग प्रवर्तक तत्वचिन्तन के साथ सामने आना होता है ।

3. पूंजीवादी विश्वः पर्यावरण असंतुलन, प्रदूषण, आण्विक युद्ध के खतरे, जैव-तकनीकी अनुसंधानों के भयावह संकेत, नशीली दवाओं का फैलता साम्राज्य, एड्स, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, आदि – इन समस्याओं से आज पश्चिमी मन आक्रान्त है । लेकिन ये अलग-अलग समस्याएँ नहीं हैं और इन्हें मानवजाति की विराट अग्रगति के अनिवार्य दुष्परिणाम कहकर हल्के रूप में ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता । इनका स्वाभाविक सम्बन्ध विश्व के प्रति परिणामवादी रवैये से है । परिणामवाद की सीमाएँ और उसके खतरनाक परिणाम अब जगजाहिर हैं । एक समय इसी परिणामवाद ने पश्चिमी समाज को विविध क्षेत्रों में विराट गतिशीलता प्रदान की थी । आज वही अपवृद्धि की शिकार हो गया है । पश्चिमी मन को अब एक ऐसी सुसंगत दृष्टि की तलाश है जो परिणामवाद के घावों पर मरहम-पट्टी कर सके; ‘एक दीया जो बेहतर, अधिक सुरक्षित भविष्य की ओर तमाम विज्ञानों का मार्ग रोशन कर सके ।’3

4. पूर्व-उपनिवेश/ग़रीब देश (तीसरी दुनिया): इन समाजों की बिडम्बना यह है कि एक ओर अपने अतीत से इनका नाता बुरी तरह कमज़ोर पड़ चुका है और दूसरी ओर वे भविष्य के साथ कोई सार्थक संवाद भी नहीं बना पाए हैं । एक ओर अतीत के अन्धविश्वासों का कुआं है, तो दूसरी ओर इन समाजों के नए अभिजात तबकों द्वारा पश्चिमी अथवा आधुनिक समझी जानेवाली प्रवृत्तियों के विकृत नकल की खाई । इन दो ध्रुवों के बीच पिस रहे ये समाज पहचान के गम्भीर संकट से ग़ुजर रहे हैं । यह संकट भी दूरगामी तौर पर ख़ुद उनके स्वाधीन सामाजिक विकास से जुड़ा मसला है । वे न तो अतीत में शरण ले सकते हैं और न ही पश्चिमी देशों के आइने में अपना भविष्य निहार सकते हैं ।

5. समाजवादी देशः देङ के आधुनिकीकरण, गोर्बाचेव के सुधारों और सोवियत संघ के पतन ने तो भानुमति का पिटारा ही खोलकर रख दिया है । नए संशयात्मक रुख़ ने पुरानी आस्था की जगह ले ली है । बहुतेरे सैद्धान्तिक और राजनीतिक प्रश्न जिन्हें कभी हल हो गया समझ लिया गया था, रंगमंच पर पुनः वापस आ गए हैं । इन सबके परिणामस्वरूप समाजवादी विश्व के मार्गदर्शक द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की आलोचनात्मक समीक्षा भी अपेक्षित लगती है, जिसका सिद्धान्त और व्यवहार में अमल करने का दावा किया जाता है ।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक ऐतिहासिक उपज है, और प्रत्येक ऐतिहासिक उपज की तरह इसका पतन भी लाज़िमी है । रूढ़िवादी मार्क्सवादी इस खास तत्वशास्त्रीय प्रवृत्ति (जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोप में सामने आई और जिसने बीसवीं सदी में क्यूबा से लेकर वियतनाम तक कम्युनिस्ट-शासित राज्यों में मार्गदर्शक तत्वशास्त्र के रूप में राज किया) की ऐतिहासिकता को नज़रअंदाज़ कर विचार-पूजा का शिकार हो जाते हैं ।

लेनिनवाद भी एक विशिष्ट रूसी परिघटना थी – जारशाही रूस में चल रहे सैद्धान्तिक और राजनीतिक संघर्षों का एक विशिष्ट परिणाम । तत्कालीन पश्चिमी यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन के कुछ हल्कों में प्रचलित मार्क्सवाद उसका बस एक स्रोत था । उसके अन्य स्रोत तत्कालीन रूसी समाज में मौज़ूद थे । दिसम्बर विद्रोह (1825 ई.) के दिनों से ही चली आ रही रैडिकल अन्तर्धारा और नरोद्निकों के यूटोपियन अराजकतावाद ने पहली रूसी क्रान्ति (1905-07) की पूर्व बेला में और स्तोलीपिन सुधारों के काल में अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व और सुसंगत क्रान्तिकारी सिद्धान्त के लिए ज़मीन तैयार की । लेनिन एक विशिष्ट रूसी उपज थे – निकोलाई चेर्नीशेव्स्की और यहाँ तक कि प्लेखानोव से भी अधिक रैडिकल और नरोद्निकों से कम यूटोपियन ।

चीनः चीनी विशिष्टताओं के साथ समाजवाद का निर्माण करने के लिए मार्क्सवादी भौतिकवाद को कन्फ्यूशियन नैतिकता और परिणामवादी गतिशीलता से जोड़ा जा रहा है । देङ की प्रख्यात सूक्तियों – ‘व्यवहार ही सत्य की एकमात्र कसौटी है’ और ‘तथ्यों से सत्य का पता लगाओ’ – को जेम्सियन परिणामवाद अपनाने के चीनी तरीके के रूप में देखा जा सकता है । इस क्रम में यह भी कहा जा सकता है कि सारसंग्रहवाद उतनी बुरी चीज नहीं जैसा कि रूढ़िवादी द्वन्द्ववादी उसे बताते हैं । पुराने समाज की रूढ़ श्रेणियों से मस्तिष्क की मुक्ति की प्रक्रिया में सारसंग्रहवाद अथवा परिणामवाद एक लाभदायक संक्रमण काल साबित हो सकता है । आख़िरकार मस्तिष्क की मुक्ति किसी प्रयोगशाला में तो हासिल नहीं की जा सकती !

6. ‘दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की विभिन्न रूपों में व्याख्या की है । सवाल तो उसे बदलने का है ।’ कार्ल मार्क्स की इस उक्ति के डेढ़ सौ से भी अधिक साल ग़ुजर जाने के बाद हम दुनिया को कई अर्थों में वाकई काफ़ी बदला हुआ पाते हैं । इतना कि इसकी नए सिरे से व्याख्या ज़रूरी मालूम पड़ती है ।

‘व्याख्या’ और ‘बदलने’ के बीच कोई चीन की दीवार नहीं । ‘बदलने’ की प्रत्येक कार्यवाही पहले कुछ व्याख्याओं की अपेक्षा रखती है और प्रत्येक ‘व्याख्या’ अपने अन्दर बदलाव के पहलू लिए होती है । व्यावहारिक जीवन में हम अक्सर व्याख्या को बदलाव की कार्यवाही में और बदलाव की प्रत्येक कार्यवाही को व्याख्या में रूपान्तरित होते देखते हैं । फिर भी अलग-अलग दौर में इन दोनों में से किसी एक पहलू पर अधिक ज़ोर दिए जाने के महत्व को नकारा नहीं जा सकता ।

दुनिया की एक निश्चित व्याख्या से लैस होकर उसे बदलने की प्रक्रिया में संसार भर के मार्क्सवादियों को आज ऐसे सवालों से रू-ब-रू होना पड़ रहा है जिनका जवाब दुनिया की एक नई व्याख्या ही हो सकती है । ऐसी स्थिति में दुनिया को बदलने का नारा दुहराते रहना दुनिया की नई व्याख्या पेश करने में अपनी अक्षमता को ही ज़ाहिर करना है ।

बदलने की जगह व्याख्या के पहलू पर ज़ोर देने से अन्य तत्वशास्त्रीय श्रेणियों की तत्सम्बन्धी स्थितियों में भी तब्दीलियाँ आ जाती हैं । मसलन, जब ज़ोर दुनिया को बदलने पर होता है, तब हम ज्ञान की प्रामाणिकता पर, उसकी सच्चाई पर अधिक बल देते हैं । इस क्रम में हम उन व्यावहारिक परिणामों पर अधिक ध्यान रखते हैं जो हमारे ज्ञान की सच्चाई की पुष्टि करते हैं । लेकिन जब ज़ोर दुनिया की नई व्याख्या पर होता है, तो हम संशयात्मक रुख अपनाते हैं, उन पहलुओं की ओर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो हमारे ज्ञान से मेल नहीं खाते । यह संशयात्मक रुख हमें एकबारगी उन्हीं मूलभूत प्रश्नों तक ले जाता है, जिन्हें हम कल तक हल हो गया समझ बैठे थे ।

7. भौतिकवादी दृष्टिकोण ने हममे इस आत्मविश्वास का संचार किया था कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और हमारा यह ज्ञान हमें प्रकृति का स्वामी बना सकता है । औद्योगिक और वैज्ञानिक-तकनालॉजिकल क्रान्तियों की विस्मयकारी उपलब्धियों ने हमारे इस आत्मविश्वास की पुष्टि की । प्राकृतिक शक्तियों को अपना सेवक बनाने का ऐसा अभियान चला कि बस पूछिए मत । आत्ममुग्घ हो हम ख़ुद अपनी कामयाबी पर इठलाने लगे ।

बहरहाल, स्वामित्व की हमारी धारणा इस शब्द की आम सामाजिक समझ से ऊपर नहीं उठ सकी । फलतः स्वामी-सेवक सम्बन्ध की तमाम सामाजिक विकृतियाँ मनुष्य-प्रकृति सम्बन्धों में भी प्रकट होने लगीं । बहिष्कृत मध्य के नियम पर आधारित द्वन्द्वात्मक विधि ने भी स्वामी-सेवक सम्बन्ध से परे किसी समझ का मार्ग प्रशस्त नहीं किया । अब इस सम्बन्ध की विकृतियों ने ऐसा भयानक रूप धारण कर लिया है कि हमारे रोंगटे खड़े होने लगे हैं । कल हम आत्ममुग्धता में मदहोश थे, आज हमारे चेहरे पर भय की लकीरें उभर आई हैं ।4

क्या प्रकृति सचमुच इतनी ज्ञेय है ? क्या हम सचमुच उस पर स्वामीवत शासन कर सकते हैं ?

8. आधुनिक भौतिकवाद के आदिपुरुष माने जाने वाले सर फ़्रांसिस बेकन के लिए प्रकृति इतनी ज्ञेय थी और यह ज्ञान मनुष्य को इतनी शक्ति देता था कि वह प्रकृति को अपने ऊपर हावी होने देने के बजाय उसे अपनी सेवा में लगा सके और अपनी दासी बना सके । प्रकृति को उसकी प्राकृतिक अवस्था से बाहर निकाल लाना और उसे ठोक-पीटकर मनचाहा रूप देना – उनकी नज़र में मानवजाति का यही असली कार्यभार था । (प्रसंगवश, वे उन दिनों यूरोपीय शक्तियों द्वारा चलाये जा रहे बर्बर औपनिवेशिक अभियान के भी उत्साही समर्थकों में थे । और तो और, वे प्रकृति को वश में करने के अभियान को नारी-जाति को वश में करने के अभियान के साथ जोड़कर देखते थे ।)5

9. बहरहाल, वस्तु-रूपों की सापेक्ष ज्ञेयता और प्रकृति की ज्ञेयता एक ही चीज नहीं है । अनन्त, सतत् प्रवहमान वस्तु-रूपों का एक सम्मिलित सम्बोधन है प्रकृति । न इसका आदि ज्ञेय है, न अन्त । यह तो आदि-अन्त की सीमाओं से परे है । प्रकृति की अज्ञेयता का यह आकर्षण ही मानवीय ज्ञान प्रयासों का प्रस्थान-बिन्दु है । प्रकृति की इस अज्ञेयता से मानवीय ज्ञान-प्रयासों की सीमाहीनता निर्धारित होती है । ज्ञात का क्षेत्र बढ़ने से अज्ञात का क्षेत्र घटता नहीं, वह ज्यों का त्यों बना रहता है; बल्कि अज्ञात के भी नये-नये आयाम उद्घाटित होते रहते हैं । प्रकृति के प्रति निरपेक्ष ज्ञेयता का रुख़ उच्छृंखलता या उद्दण्डता को जन्म देता है और ज्ञान प्रयासों में भटकाव लाता है ।

10. प्रकृति की अज्ञेयता मनुष्यमें निस्सहाय होने का भाव भी पैदा करती है और यह उसे अकर्मण्य बना दे सकती है । लेकिन साथ ही असहाय अवस्था मनुष्य को अपने अस्तित्व के लिए सहायक खोजने के लिए भी बाध्य करती है – मानसिक और भौतिक दोनों । मनुष्य संभाव्यता की श्रेणी से कभी छुटकारा नहीं पा सकता । लेकिन इससे छुटकारा पाये बिना उसे चैन भी नहीं मिलता । इसीलिए उसका इतिहास इस श्रेणी से मानसिक और भौतिक दोनों धरातल पर छुटकारा पाने के उसके प्रयासों का इतिहास है ।

11. विभिन्न गति-रूपों में प्रवहमान वस्तु-रूपों की अनन्त श्रृंखला ही हमारी इच्छा से परे अस्तित्वमान प्रकृति है । मस्तिष्क चिन्तनशील भूत है और कामना उसकी अभिन्न पहचान । दूसरे शब्दों में, कामना चिन्तनशील भूत के अस्तित्व का ढंग है । कामस्तदग्रे समवर्तताधिमनसो रेतः प्रथमं यदामीत ।6

जानने की कामना – इस क्रम में मस्तिष्क कुछ ऐसे प्रवर्गों की रचना करता है जिसके बिना विभिन्न गति-रूपों में प्रवहमान वस्तु-रूपों को समझना असंभव है । ऐसे प्रवर्गों की रचना अचेत भूत की तुलना में चिन्तनशील भूत की प्रथम स्वाधीन क्रिया होती है । ये प्रवर्ग मनोगत होते हैं, लेकिन इन मनोगत प्रवर्गों के बिना वस्तुगत रूपों की समझ हासिल नहीं की जा सकती ।

हम जो देखते हैं, जिनका अनुभव करते हैं, वे परिघटनात्मक रूप हैं – गति-रूप/वस्तु-रूप । गति-अपने-आप-में/वस्तु-अपने-आप-में (सार रूप में सामान्य का प्रवर्ग) मनोगत प्रवर्ग हैं । (‘यदि तमाम मूर्त रूपों का सार निकाला जाए तो अमूर्त वस्तु शेष बचता है । वस्तु एक विशुद्ध अमूर्तन है – वस्तु को न तो देखा जा सकता है और न ही महसूस किया जा सकता है …. जो देखा और महसूस किया जा सकता है, वह एक मूर्त वस्तु है, यानि वस्तु और रूप की एकता …. वस्तु-अपने-आप-में और कुछ नहीं, तमाम मूर्त वस्तुओं का निरा अमूर्तन है जिसके बारे में यह मान लिया जाता है कि कुछ नहीं जाना जा सकता …. जिसे हम दुनिया कहते हैं, वह अनेक रूपों की रूपहीन समग्रता है …. ’)7

नित्य/गति/वस्तु – ये मनोगत प्रवर्ग हर जगह विद्यमान हैं, हालांकि वस्तुगत रूप से उनका कहीं अस्तित्व नहीं है । उनके बिना अनित्य, विभिन्न गति-रूपों में प्रवहमान वस्तु-रूपों को जानना संभव नहीं । मन के ये प्रवर्ग वस्तुगत दुनिया को जानने में अपरिहार्य वस्तुगत भूमिका अदा करते हैं । विज्ञान की प्रत्येक शाखा उनका वस्तुगत उपकरणों के रूप में प्रयोग करती है । इस तरह गतिशील वस्तु-रूपों से नित्य/सार्विक वस्तु-अपने-आप-में के प्रवर्ग का विकास तत्वशास्त्र का पहला ठोस कदम है ।

12. वस्तु (यह एक सामान्य प्रवर्ग है, और इसीलिए वस्तु-रूप से भिन्न है) तथा चेतना (यह भी एक सामान्य प्रवर्ग है, और इसीलिए विभिन्न वस्तु-रूपों के ठोस ज्ञान से भिन्न है) के बीच का सम्बन्ध तत्वशास्त्र का बुनियादी सवाल माना जाता है । लेकिन प्रश्न का यह प्रस्तुतीकरण ही भ्रामक है ।

विभिन्न गति-रूपों में प्रवहमान विभिन्न वस्तु-रूपों का वस्तुगत अस्तित्व और नित्य/गति-अपने-आप-में/वस्तु-अपने-आप-में के प्रवर्गों का मनोगत अस्तित्व – इन प्रत्यक्षतः परस्पर विरोधी पहलुओं की, और एक दूसरे में उनके रूपान्तरण की सही समझ तत्वशास्त्र की सर्वप्रमुख समस्या रही है । दूसरे शब्दों में, अज्ञेय प्रकृति का (सापेक्ष रूप से) ज्ञेय वस्तु-रूपों में और ज्ञेय वस्तु-रूपों का अज्ञेय प्रकृति में, तथा वस्तु-रूपों के वस्तुगत अस्तित्व का मनोगत परिकल्पना में और वस्तु-अपने-आप-में की मनोगत परिकल्पना का वस्तुगत अस्तित्व में रूपान्तरण – कुल मिलाकर, अनन्त और सान्त तथा विभिन्न सान्त अस्तित्वों के बीच सम्बन्ध और एक दूसरे में उनके रूपान्तरण का प्रश्न तत्वशास्त्र का मूल प्रश्न है ।

इस प्रसंग का अन्त हम फ़्रेडरिक एंगेल्स के निम्नलिखित उद्धरण से करना चाहेंगेः ‘…. प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्म-प्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि वह हर ऐसी विजय का हमसे प्रतिशोध लेती है । यह सही है कि प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त हुए जिनका हमने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उसके बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित परिणाम हुए, जिनसे अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहा । मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्होंने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आद्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं …. यूरोप में आलू का प्रचार करनेवालों को यह ज्ञात नहीं था कि इस मंडमय कन्द को फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफ़ुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं । अतः हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं हैः बल्कि रक्त, मांस और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उसके ही मध्य है …. ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उनके नियमों को अधिकाधिक सही ढंग से सीखते जाते हैं और प्रकृति के परम्परागत प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप से अधिक तात्कालिक परिणामों के साथ उसके अधिक दूरवर्ती परिणामों को भी देखने लगे हैं …. लेकिन जितना ही ज़्यादा ऐसा होगा उतना ही ज़्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता का न केवल बोध करेंगे बल्कि उसे कार्यरूप भी देंगे । यूरोप के प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत होनेवाली और ईसाई मत में सबसे अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली, मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की निरर्थक एवं अप्राकृतिक धारणा उतनी ही अधिक असंभव होती जाएगी ….’8

(जारी)

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