अनन्त का छंद – 4
प्रसन्न कुमार चौधरी
मनुष्य का अस्तित्व
क. सामान्य
45. मनुष्य के अस्तित्व की एक विलक्षणता यह है कि वह अपने विकसित मस्तिष्क के साथ जन्म ही नहीं ले सकता ।22 उसके मस्तिष्क का पूर्ण विकास जन्म के डेढ़-दो साल बाद जाकर सम्पन्न होता है । उसके अस्तित्व की इस विलक्षणता के कारण उसकी प्रोग्रेमिंग में एक फांक उत्पन्न हो जाती है । वह पूरी तरह नियोजित प्राणी नहीं है । नियोजन की यह कमी ही प्रकृति के बरक्स मनुष्य की स्वतंत्रता, उसकी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (फ्री विल) का बायस बनती है । प्रकृति और मनुष्य का द्वैत सामने आता है ।
46. लेकिन नियोजन की यह कमी एक दूसरी शक्ति के उद्भव का भी कारण बनती है – चेतना की शक्ति । इस शक्ति का सरोकार मूलतः उसकी जेनेटिक स्मृति – सूक्ष्म कणों से मनुष्य तक विकास की, अनन्त की स्मृति से है । जेनेटिक स्मृति अन्य प्राणियों में भी रहती है, लेकिन सुषुप्तावस्था में । मनुष्य के उद्भव की खास अवस्था में यह जागृत हो उठती है । चेतना मूलतः क्रियाशील, जाग्रत जेनेटिक स्मृति है । कम्प्यूटर की भाषा में इस स्मृति को हम रीड ओनली मेमोरी (आर.ओ.एम., रोम) कह सकते हैं । प्रकृति और मनुष्य का द्वैत चेतना और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति के द्वैत के रूप में सामने आता है ।
47. ऊपर हमने जिस चेतना का ज़िक्र किया है, वह ज्ञानेन्द्रियों के ज़रिये मस्तिष्क द्वारा हासिल संवेदनात्मक ज्ञान और ऐसे ज्ञान पर आधारित धारणाओं/विचार-प्रणालियों से भिन्न प्रवर्ग है । दरअसल वह मनोविश्लेषण में वर्णित सुषुप्ति/अचेतन अथवा इद की सक्रिय अवस्था के समकक्ष एक प्रवर्ग है । उसी तरह ऊपर हमने जिस जेनेटिक मेमोरी का ज़िक्र किया है, वह रोज़मर्रा की याद्दाश्त अथवा अपने व्यावहारिक जीवन अनुभवों के स्मरण से भिन्न प्रवर्ग है । वैसे व्यावहारिक स्मरण भी एक संश्लिष्ट प्रणाली है । दरअसल मनुष्य के मस्तिष्क में स्मरण की कोई एक प्रणाली (सिस्टम) नहीं – वह कई प्रणालियों का एक अनोखा समुच्चय है जिसमें विस्मरण की प्रणालियाँ भी शामिल हैं । खैर, इस तरह की मेमोरी को जिनका मस्तिष्क प्रायः उपयोग करता है, हम कम्प्यूटर शब्दावली में रैंडम एक्सेस मेमोरी (आर.ए.एम.) कह सकते हैं ।23
48. मन चेतना और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति, चेतना और मस्तिष्क की सह-क्रिया (सिनर्जी) है । इन शक्तियों की अन्तःक्रिया स्वभावतः नाना आयामों में अभिव्यक्ति पाती है । वहाँ अनन्त के साथ एकात्म होने की प्रवृत्ति है, और मस्तिष्क द्वारा ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त जानकारियों/सम्बन्धों का संसार भी । ‘निरपेक्ष/अमूर्त’, अन्तर्मन, सार्विक मानव-मूल्य जैसी श्रेणियों का विकास इसी सह-क्रिया का परिणाम है ।
49. चेतना मनुष्य को अनन्त के साथ एकात्म होने की ओर प्रवृत्त करती है । मानसिक रूप से मनुष्य आरम्भ से ही विभिन्न रूपों में ऐसा करने की – अनन्त होने की कोशिशें करता रहा है । उसकी यही वृत्ति आध्यात्मिक वृत्ति के रूप में जानी जाती है । यह आध्यात्मिकता उसे प्रकृत संसार को देखने की नई दृष्टि देती है ।
50. मानसिक स्तर पर मनुष्य की ये कोशिशें उसकी स्वतंत्र इच्छा-शक्ति के लिए भी चुनौती बन जाती है । वह न सिर्फ मानसिक तौर पर, बल्कि अपनी मस्तिष्क की शक्ति के ज़रिये भौतिक तौर पर भी इस अनन्त-शक्ति का साक्षात् करने, उसे पाने और ख़ुद स्रष्टा बनने की कोशिश करता रहा है । सका आज तक का इतिहास उसकी इन कोशिशों का भी इतिहास है । आदिकाल से ही वह अमरता की अवधारणा से सम्मोहित (ऑब्सेस्ड) रहा है । संसार का मिथकीय साहित्य इस सम्मोहन का प्रत्यक्ष गवाह है । मनुष्य की जितनी मिथकीय कल्पनाएँ हैं, विज्ञान आज उन्हें लगभग रूपायित कर रहा है । कल के मानसिक सम्मोहन आज की व्यावहारिक उपलब्धियों में साकार हो रहे हैं । विज्ञान और प्रविधि के ज़रिये वह आज अपने आप को मंज़िल के बहुत क़रीब पा रहा है । लेकिन क्या वह इस मंज़िल को पा सकेगा ? या फिर क्या उसे भौतिक रूप से ऐसा लक्ष्य रखना चाहिए ?
51. बहरहाल, भौतिक रूप से अनन्त होने की दिशा में वह एक हद तक अनजाने ही कदम बढ़ाता रहा है । फलतः अध्यात्म और ज्ञान का द्वैत प्रकट होता है । अपने जीविकोपार्जन के प्रयोजनों से प्रेरित होकर ही उसने औज़ारों का विकास-परिष्कार किया, अपने आसपास के संसार को जानने-समझने की कोशिश की । उसे इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करने के ज़रिये वह क्रमशः अपने आप के कृत्रिम पुनरुत्पादन की दिशा में – प्रकृति की सृष्टि के रूप में मनुष्य से क्रमशः मनुष्य की सृष्टि के रूप में मनुष्य, सृष्टि के मनुष्य से मनुष्य की सृष्टि की ओर कदम बढ़ा रहा है । (प्रसंगवश, कृत्रिम को प्रकृति से मनुष्य की निरपेक्ष स्वतंत्रता के रूप में नहीं देखा जा सकता । वह प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों और शक्तियों का मनुष्य द्वारा ज्ञानपूर्वक उपयोग है ।)
52. अपने आप का और इस क्रम में सृष्टि का पुनर्निर्माण – मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है, मनुष्य की ज्ञान-क्षमता का अपरिहार्य विकास-क्रम । उसकी ज्ञान-क्षमता इन्हीं प्रयासों में अंज़ाम पाती है । मनुष्य द्वारा अपनी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों का मशीनों द्वारा विस्थापन, रोबोटिक्स, कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स, ए.आई) का विकास, स्मार्ट वस्तुओं का निर्माण, जेनेटिक इंजीनियरिंग, मानव-क्लोनिंग, निरन्तर उच्च क्षमतावाली पार्टिकल एक्सेलरेटर्स का विकास, आदि उसी मूल वृत्ति की अनिवार्य परिणतियाँ हैं । कम्प्यूटरों ने इस प्रक्रिया को अभूतपूर्व आवेग प्रदान किया है । अब वह माया मानवों और माया ब्रह्माण्डों की डिज़ाइनिंग कर सकता है और उन्हें हासिल करने की दिशा में बढ़ सकता है । हम पत्थर के औज़ारों से डिज़ाइनर शिशुओं/डिज़ाइनर सृष्टि के ज़माने में आ चुके हैं । जिस दिन मनुष्य ने अपने दो मुक्त हाथों के ज़रिये पत्थर के औज़ारों का निर्माण किया, उसी दिन उसने अपने हाथों के विस्थापन की भी नींव रख दी – पहले हाथों के सहायक के रूप में औज़ारों का निर्णाण हुआ । पुनः काल-क्रम में हाथों को विस्थापित करने वाली मशीनों का आगमन हुआ । आज जब मस्तिष्क की शक्ति, ज्ञान की शक्ति प्रमुख उत्पादक-शक्ति बनती जा रही है, तब वह (मस्तिष्क के सहायक यन्त्रों के विकास से ग़ुजरते हुए) मस्तिष्क के विस्थापन में लगा है । समग्र तौर पर देखें तो मनुष्य के अन्दर क्रियाशील दोनों शक्तियाँ – चेतना-शक्ति और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति – एक-दूसरे को विस्थापित करने में लगी रही हैं । चेतना द्वारा अध्यात्म से स्वतंत्र इच्छा-शक्ति का, और स्वतंत्र इच्छा-शक्ति द्वारा ज्ञान से चेतना का विस्थापन – यह ज़द्दोज़हद मानव अस्तित्व का अब तक स्थायी तत्त्व रहा है ।
53. इसी ज़द्दोज़हद में मानव अस्तित्व की बहुचर्चित बिडम्बना सामने आती है, और उसका चिरकाल से चला आ रहा नैतिक धर्मसंकट प्रकट होता है । क्या अपनी विकास-प्रक्रिया में मनुष्य अपने जीवन-स्रोतों का विनाश करता जा रहा है ? अगर किसी खगोलीय दुर्घटना में उसका असामयिक अन्त न भी हो, तो क्या अपने जीवन स्रोतों के विनाश के कारण अथवा अपनी वर्चस्व वृत्ति के कारण, वह अकाल-मृत्यु का शिकार होगा ? सभी प्राणियों में हम प्रायः कई श्रेणियाँ पाते हैं । लेकिन होमो सेपियन नामक हमारी प्रजाति इसका अपवाद है । क्या जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिये अपनी प्रजाति की विविधता हम स्वयं रचेंगे ? कृत्रिम प्रजनन के द्वारा (आज से कुछ सौ अथवा हजार वर्षों बाद) मनुष्य के हाथों मनुष्य इतना बदल दिया जाएगा कि वह पहचाना भी नहीं जा सके ? (जैसा कि अतीत में हमने अन्नों और पालतू पशुओं के साथ किया ।) और ऐसा होता है तो हर्ज़ ही क्या है ? आख़िर अपने किसी ख़ास रूप-गुण से चिपके रहना हमारी प्रजातिगत जड़ता नहीं है ? और यही जड़ता हमारे विनाश का कारण नहीं बन सकती ? क्या मनुष्य में इस जड़ता का अतिक्रमण करने की क्षमता नहीं ? और अगर है तो वह उसका उपयोग क्यों न करे ?
54. मनुष्य का नैतिक धर्मसंकट कुछ इस तरह प्रकट होता हैः
पहला पक्ष – एक मूर्त अस्तित्व के रूप में मनुष्य की आत्म-पुनरुत्पादक शक्ति एक सापेक्ष शक्ति है । उसे अपने अस्तित्व की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए । अनन्त बनने की कोशिश में वह ख़ुद अपने आत्म-संहार को न्यौता देगा ।
दूसरा पक्ष – मनुष्य का जन्म ही अस्तित्व का अतिक्रमण है । अतिक्रमण ही उसके अस्तित्व की गारंटी है । माना कि वह अनन्त शक्ति से सम्पन्न नहीं हो सकता । लेकिन इस शक्ति से सम्पन्न होने की निरन्तर कोशिश ही उसके अस्तित्व की शर्त है । शिशु के रूप में उसके समय से पूर्व जन्म की क्षतिपूर्ति समय से परे जीने की उसकी लालसा में होती है । अतिक्रमण मनुष्य का स्वभाव है ।
पहला पक्ष – सही है कि मनुष्य में अतिक्रमण की क्षमता है, परन्तु उसका मनुष्यत्व इस बात में है कि वह इस क्षमता के बावज़ूद सचेत रूप से ऐसा न करे । यही मर्यादा है । अगर यह क्षमता न होती तो यह प्रश्न ही नहीं उठता ।
कुल मिलाकर, एक पक्ष मनुष्य को मानसिक रूप से अनन्त के साथ एकात्म कर सृष्टि के तमाम अस्तित्वों की सापेक्ष दिक्काल सत्ताओं का साक्षात् कराता है और मनुष्य को भी अपनी दिक्काल सत्ता में स्थापित करने का यत्न करता है, वहीं दूसरा पक्ष मनुष्य को अपनी दिक्काल सत्ता का अतिक्रमण कर ख़ुद स्रष्टा बनाने का यत्न करता है । एक के केन्द्र में सृष्टि है, सृष्टि के अन्य अस्तित्वों के सहभागी के रूप में मनुष्य है, अन्य अस्तित्वों की स्वीकृति है, सार्विक प्रेमभाव है । दूसरे के केन्द्र में मनुष्य है, अन्य अस्तित्वों की बलि है, वर्चस्व है । एक में मनुष्य बलि देता है, दूसरे में वह बलि लेता है ।
इस तरह, उत्पादन के ज़रिये जीविकोपार्जन के माध्यम से अपने विस्तारित पुनरुत्पादन के क्रम में मनुष्य सदा से इन दबावों का – मर्यादा (अध्यात्म) और अतिक्रमण24 का सामना करता है । यद्यपि दोनों वृत्तियाँ मनुष्य की अनन्त से एकात्म होने की मूल वृत्ति का ही प्रतिफलन है, तथापि इनकी व्यावहारिक परिणति दो विपरीत दबावों के रूप में सामने आती है ।
55. कोई भी वृत्ति एकआयामी होकर नहीं रहती । अगर हम बाह्य संसार में अन्य अस्तित्वों को स्वीकार करते हैं और उनका सम्मान करते हैं तो यह वृत्ति मानव समाज के भीतर और व्यक्ति के अपने जीवन में भी सार्विक प्रेमभाव में अभिव्यक्ति पाएगी । वहीं दूसरी ओर यदि हम बाह्य संसार में अन्य अस्तित्वों का हनन करते हैं, अतिक्रमण करते हैं, तो मनुष्य के सामाजिक और व्यक्तिपरक सम्बन्धों में भी अतिक्रमण और वर्चस्व की कार्रवाइयाँ होंगी । अगर हम प्रकृति में मनुष्य को श्रेष्ठ और अन्य अस्तित्वों को निम्न मानेंगे, तो अपने समाज में भी श्रेष्ठ-निम्न की श्रेणियाँ बनेंगी और निम्न पर श्रेष्ठ के वर्चस्व के दावे होंगे ।
56. सार्विक, निरपेक्ष, अमूर्त जैसे मानसिक प्रवर्गों के विकास ने जहाँ एक ओर विशिष्ट, सापेक्ष और मूर्त के ज्ञान को जबर्दस्त आवेग प्रदान किया, वहीं उसके नकारात्मक परिणाम भी सामने आये । निरपेक्ष रूप से श्रेष्ठ अथवा निम्न की अवधारणाएँ बनीं – मनुष्य श्रेष्ठ, अन्य प्राणी निम्न, अमुक समुदाय श्रेष्ठ, अमुक निम्न । इसने वर्चस्व वृत्ति को सशक्त वैचारिक आधार प्रदान किया । इतिहास में हम श्रेष्ठ-निम्न का विभिन्न रूपों में साक्षात् करते हैं । भिन्न का एकत्व श्रेष्ठ-निम्न के द्वैत द्वारा विस्थापित होता है । भिन्नता (विविधता) अनन्त के अस्तित्व का ढंग है । श्रेष्ठ-निम्न की अवधारणा वर्चस्व के अस्तित्व का ढंग है ।
57. अतिक्रमण और अध्यात्म के अलावा मनुष्य की एक और वृत्ति है – अनुकरण जो वह प्राणी जगत से विरासत में प्राप्त करता है । हाँ, उसकी विशिष्टता यह है कि वह अनुकरण की प्रक्रिया में प्रयुक्त सामग्रियों/उपकरणों का प्रयोग करते-करते अन्वेषण की दिशा में आगे बढ़ जाता है । अनुकरण के ज़रिये अन्वेषण का पुनः सार्विकरण होता है । गुफाओं और पक्षियों के घोंसलों का अनुकरण कर उसने मिट्टी और पत्तों से अपने प्रारम्भिक घरों का निर्माण किया । मिट्टी और खर-पत्तों का इस्तेमाल करते-करते वास्तुशिल्प, मूर्तिकला, बर्तन-निर्माण आदि का उसने अन्वेषण किया । फिर अनुकरण के ज़रिये इस अन्वेषण का भी सार्विकरण हुआ । अनुकरण-अन्वेषण-अनुकरण की यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है ।
58. इस तरह, कुल मिलाकर मनुष्य के अस्तित्व के साथ तीन वृत्तियाँ अभिन्न रूप से जुड़ी हैं – अनुकरण, अतिक्रमण और अध्यात्म । इन्हीं वृत्तियों के आपस में घुले-मिले अस्तित्व की वज़ह से हर काल में हमारा सामना तीन तरह के लोगों से होता है – अन्वेषक/आध्यात्मिक, अनुकर्ता और अपकर्ता । अथवा संन्यासी/अन्वेषक, गृहस्थ और आवारा । पहले और तीसरे किस्म के लोगों की तादाद काफ़ी कम होती है । इनका एक-दूसरे में रूपान्तरण भी होता रहता है । अक्सर आवारा किस्म के लोग भी अन्वेषक अथवा आध्यात्मिक होते देखे गये हैं ।
59. अनुकरण, अतिक्रमण और अध्यात्म की मूल वृत्तियाँ और उनका एक-दूसरे में रूपान्तरण समाज के अन्दर, और एक व्यक्ति के अन्दर भी, निरन्तर चलने वाली क्रिया है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग-अलग जीवन-स्थितियों में अपने ढंग से उसका साक्षात् करता है ।
(जारी)
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