फ़ासीवाद और हिन्दुत्व

फ़ासीवाद और हिन्दुत्व

प्रसन्न कुमार चौधरी

प्रस्तावना

क. बीसवीं सदी का तीसरा और चौथा दशक ।महासमर (1914-1918) बीत चुका था । युरोप की धरती लहूलुहान थी और उसका मानस क्षत-विक्षत । युद्ध में करोड़ों लोग मारे गये थे । उत्पादक शक्तियों का ऐसा विनाश इतिहास ने शायद ही कभी देखा था । युद्ध भूमि से अपने-अपने देश लौटते सैनिकों के साथ फ्लू की वैश्विक महामारी (1918-1920) करोड़ों जानें ले चुकी थी । महाशक्तियों ने तो बहुत पहले ही (कुछ देशों को छोड़कर) पूरी दुनिया को आपस में बाँट रखा था – अपने-अपने युद्ध लड़ने के लिए इन महाशक्तियों ने अपने-अपने उपनिवेशों से ही बड़ी संख्या में सिपाही भर्ती किए थे । महायुद्ध के बाद विजयी महाशक्तियाँ युरोप में राष्ट्रों के बीच सीमाओं का मनमाना पुनर्निर्धारण कर रही थीं, नये राष्ट्र बनाये जा रहे थे और उपनिवेशों का भी पुनर्बंटवारा हो रहा था । एक आर्थिक महाआपदा (1929) मुँह बाये खड़ी थी ।

प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होते न होते युरोप की राजनीतिक व्यवस्था और उसका सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना भी बिखर चुका था । रूस की अक्टूबर क्रान्ति (1917) ने ज़ारशाही का अन्त कर दिया और एक नयी राजनीतिक व्यवस्था को केन्द्र कर एक नये राजनीतिक ध्रुवीकरण की नींव रखी । पराजित जर्मनी की असफल क्रान्ति (1919) और उसी क्रम में हुए रक्तपात के बाद जर्मनी की राजनीति में नये परिवर्तन घटित हो रहे थे । शताब्दियों के संघर्ष के बाद आयरलैंड को (खण्डित) आज़ादी मिली (1922) । उपनिवेशों में भी मुक्ति आन्दोलनों ने ज़ोर पकड़ा । उधर तुर्की में मुस्तफ़ा कमाल पाशा (1881-1938) के नेतृत्व में गणतांत्रिक क्रान्ति (1923) ने पहले से ही मरणासन्न ऑटोमन साम्राज्य (1299-1922) का अन्त कर दिया । जर्मनी की पराजय, ज़ारशाही और ऑटोमन साम्राज्य के अन्त, सोवियत संघ के गठन (1922) आदि ने युरोप में शक्ति-संतुलन के जिस नये दौर का आग़ाज़ किया, उसका अन्त तो आगे एक और विश्वयुद्ध में होना था । यही दौर था जब इटली में फ़ासीवाद (1922), जर्मनी में नाज़ीवाद, स्पेन में फ्रैंको की तानाशाही, जापान में सैन्यवाद आदि ने अपना चेहरा दिखाना शुरू कर दिया था ।

ख. महाविनाश ने जहाँ एक ओर मानवजाति की समस्त विकृतियों और बर्बरताओं को सतह पर ला दिया था, वहीं उसके गर्भ में मानव समुदायों के बीच पारस्परिक सम्मान और समानता, स्वतंत्रता और सहभागिता, तथा सहकार और सौहार्द की जो उदात्त सृजनात्मक परम्परा है, उसे भी परवान चढ़ाने का अवसर प्रदान किया ।

प्राचीन काल से ही मानवजाति में इन दो प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष चला आ रहा है । एक धारा मानव जाति को नस्ल, पंथ, संस्कृति, जाति, समुदाय आदि आधारों पर ‘श्रेष्ठ’ और ‘निम्न’ में बाँट कर ‘श्रेष्ठ’ द्वारा ‘निम्न’ के दमन-उत्पीड़न, बहिष्कार-निष्कासन और उसके संहार तथा उन्मूलन का पक्षपोषण करती है, और इसके लिए बर्बर हिंसात्मक अभियान चलाती है । ‘श्रेष्ठ’ और ‘निम्न’ की परिभाषाएँ अलग-अलग परिस्थितियों में बदलती रही हैं । कुल मिलाकर, समुदाय-आधारित भेदभाव, उत्पीड़न और विनाश का पक्षपोषण करने वाली यह वैचारिक-राजनीतिक धारा एक मानव-द्रोही धारा है, जिसके बर्बर अभियानों से मानवजाति के ही हिस्सों को इतिहास में बेइन्तहां ज़ुल्म और क़त्लेआम का सामना करना पड़ा है । दूसरी धारा मानव समुदाय के विभिन्न समुदायों के बीच परस्पर समानता और सम्मान का सम्बन्ध क़ायम करने पर ज़ोर देती है और इसके आधार के रूप में समुदायों के बीच आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक न्याय स्थापित करने का पक्षपोषण करती है । मानवजाति में जो मानवता है, वह इसी धारा की उपलब्धि है ।

ग. प्रथम विश्वयुद्ध, रूसी क्रान्ति, समाजवादी आन्दोलन, और आगे महामंदी (1929) की पृष्ठभूमि में जो उथल-पुथल की स्थिति पैदा हुई, उसमें मुख्य रूप से युरोप में और आम तौर पर पूरी दुनिया में एक खतरनाक, मानव-विरोधी वैचारिक-राजनीतिक धारा अस्तित्व में आई जिसने अपने संगठन, अपनी जन-गोलबंदी और अपने हिंसक आन्दोलनों के ज़रिये युरोप के कुछ प्रमुख देशों में सत्ता हासिल करने में भी सफलता पाई । इस वैचारिक-सांगठनिक-आन्दोलनात्मक धारा की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीः

1. सर्वसत्तावादः युरोप और पूरी दुनिया में फैले इस तरह के संगठन जनवादी गणतंत्र के विरोधी थे । वे अभिव्यक्ति की आज़ादी समेत तमाम जनवादी संगठनों तथा संस्थाओं को खत्म कर एक सर्वसत्तावादी राज्य-व्यवस्था के हिमायती थे । दरअसल 1848 की क्रान्तिकारी लहर के बाद, युरोप के विभिन्न देशों में दीर्घकालीन संघर्षों तथा अनेक कुर्बानियों के बाद जनवादी अधिकारों का विस्तार हुआ था – विभिन्न वर्गों तथा समुदायों को संगठन बनाने का अधिकार मिला, मताधिकार का विस्तार हुआ, श्रमिक वर्गों की कार्य-स्थितियों में अनेक सुधारों को मान्यता मिली, ट्रेड यूनियनों का प्रसार हुआ, सामाजिक-जनवादी दलों और अन्य श्रमिक दलों ने अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज़ की, महिलाओं के मताधिकार के आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा, और इस तरह, कुल मिलाकर समाज और राज्य के जनतांत्रीकरण की गति तेज़ हुई । सर्वसत्तावादी इस जनवादी-गणतांत्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति के प्रतिनिधि थे । वे समाज में अराजकता के लिए इसी जनतांत्रीकरण को दोषी ठहराते थे । ऐसे सभी संगठन उदारवाद, समाजवाद और कम्युनिज़्म के घोर विरोधी तो थे ही, समाज में ‘नयी व्यवस्था’ (न्यू ऑर्डर) कायम करने के लिए एक त्राणकर्ता अधिनायक, एक मसीहा, एक सम्राट के निरंकुश शासन का पक्षपोषण करते थे । ऐसे शासन की स्थापना के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहते थे । अलग-अलग देशों में इन अधिनायकों के अलग-अलग विरुद थे (जैसे, इटली में ‘ड्युस’, जर्मनी में ‘फ़्युरर’, और स्पेन में ‘कौडिलो’; आगे इसी तरह भारत में ‘वीर’ या ‘हिन्दू हृदय-सम्राट्’ जैसे विरुद का प्रचलन देखा जा सकता है) ।

2. नस्लवाद-उग्रराष्ट्रवादः इस वैचारिक धारा के लोग मानवजाति के विभिन्न समुदायों को नस्लीय या राष्ट्रीय-सांस्कृतिक आधार पर ‘श्रेष्ठ’-‘निम्न’, ‘उत्तम’-‘अधम’ के रूप में बाँटते थे, और ‘श्रेष्ठ’/’उत्तम’/ नस्ल/राष्ट्र/संस्कृति द्वारा ‘निम्न’/’अधम’ नस्लों/राष्ट्रों/संस्कृतियों पर शासन करने, उनका दमन करने, उन्हें अपने क्षेत्रों से निष्कासित करने, तथा उनके प्रति निरन्तर नफ़रत फैलाने का पक्षपोषण करते थे, और उनके क़त्लेआम तथा जनसंहार का जश्न मनाते थे । (इस लेख में अँग्रेजी ‘रेस’ के लिए नस्ल तथा ‘नेशन’ के लिए राष्ट्र और कहीं-कहीं जाति का प्रयोग किया गया है ।)

अपने-अपने क्षेत्रों में ये ‘श्रेष्ठ’ नस्ल/राष्ट्र/संस्कृति वाले ‘निम्न’ नस्ल/राष्ट्र/संस्कृति वालों को समाज की प्रगति में बाधक मानते थे और उन पर अपने आचरण से समाज को दूषित करने का आरोप लगाते थे ।

इस तरह, एक समुदाय के ख़िलाफ़ अपने कथित नस्ल/राष्ट्र को गोलबंद करने के ज़रिये ऐसे समूह अपने समाज/राष्ट्र की अन्दरूनी कमजोरियों, वर्ग-विरोधों तथा टकरावों का शमन करना चाहते थे । वर्ग संघर्षों से जूझते तथा समाजवादी आन्दोलन के प्रसार की स्थिति में उन दिनों के युरोप के शासक श्रेणियों के लिए नस्लीय/राष्ट्रीय एकजुटता का यह विकल्प ‘शान्ति-व्यवस्था’ क़ायम रखने के लिए कारगर लगता था । ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों के आन्दोलनों को, उदार-जनवादी तथा समाजवादी आन्दोलनों को ‘नस्ल-विरोधी’, ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दिया जा सकता था, और उनपर तरह-तरह की बन्दिशें लगाई जा सकती थीं (और लगाई गईं) ।

इतिहास में विभिन्न समुदायों और पंथों के बीच संघर्ष होते रहे हैं, और उनके बीच कई तरह के पूर्वाग्रह भी मौज़ूद रहे हैं – अतीत के इन संघर्षों और पूर्वाग्रहों को हवा देकर, दिन-रात कथित रूप से ‘निम्न और भिन्न’ समुदायों के प्रति विष वमन कर ऐसी शक्तियों को सामयिक रूप से अपने-अपने ‘राष्ट्रों’ को गोलबंद करने, इस तरह चिह्नित समुदायों के ख़िलाफ़ उन्हें उकसाने और हिंसा को अंजाम देने में सफलता भी मिली । अन्ततः ऐसे समुदायों के क़त्लेआम और जनसंहार का मार्ग प्रशस्त किया गया ।

कहने की ज़रूरत नहीं कि नस्ल/राष्ट्र का सारा श्रेणीकरण, उनकी परिभाषा तथा ‘उच्च’ और ‘निम्न’ में, ‘शुद्ध’ और ‘अशुद्ध’ में उनके वर्गीकरण का मानवजाति और उसके इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है – यह बीसवीं सदी के इन नस्लवादी/राष्ट्रवादी विचारकों द्वारा गढ़ा गया सिद्धान्त है । अपने वैचारिक-राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उन्होंने अपनी इस गढ़न्त को अपनी सुविधानुसार इतिहास पर थोप दिया । यही कारण है कि इस वैचारिक प्रवृत्ति के समर्थक अपने-अपने देशों की स्थिति के अनुरूप इस नस्लवादी वर्गीकरण में संशोधन करते रहे हैं ।

दरअसल, उच्च और निम्न में, शुद्ध और अशुद्ध में मानव समुदायों का वर्गीकरण स्वयं एक मानव-विरोधी कृत्य है । नस्लवाद (और उसके आधार पर श्रेष्ठ तथा निम्न नस्लों का वर्गीकरण) मानवजाति को एक अन्तहीन नस्लीय संघर्षों तथा युद्धों में झोंक देने की वैचारिकी है ।

3. पुरुष वर्चस्ववादः इन (नस्लवादी-उग्रराष्ट्रवादी) संगठनों का पूरा ढांचा ही पुरुष वर्चस्ववाद पर आधारित होता है । स्त्रियाँ उनके लिए नस्लीय प्रसार और श्रेष्ठता का ज़रिया होती हैं । अपने नस्ल के प्रसार में वे महिलाओं से संतानोत्पादन की क्षमता बढ़ाने की अपेक्षा रखते हैं – स्त्री-सम्बन्धी उनके विचार के केन्द्र में है स्त्रियों की प्रजनन-शक्ति । दूसरे नस्ल के पुरुषों से अपनी महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए वे उन पर बंदिशें लगाते हैं, वहीं अपने पुरुषों द्वारा दूसरे नस्ल की स्त्रियों से अधिक-से-अधिक बच्चे पैदा करने को वे उपलब्धि मानते हैं । जो शासक दूसरे समुदाय पर जीत हासिल करने के बावज़ूद ऐसा करने में असफल रहे, उनकी वे निंदा करते हैं (छिः) । उनके द्वारा किसी अन्य समुदाय के उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया उस समुदाय की स्त्रियों को अपने अधीन करने की प्रक्रिया के बिना पूरी नहीं होती ।

4. पूंजी का संरक्षण-संवर्धनः 1914-1945 के बीच की अवधि में अभूतपूर्व संकट से ग़ुजरते पूंजीवादी समाज में इस सर्वसत्तावादी-नस्लवादी विचारों और आन्दोलनों को सम्बन्धित देशों के बड़े पूंजीपतियों के प्रभावशाली धड़े का समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त था । इस समर्थन और प्रोत्साहन के बिना इन शक्तियों का सत्ता के शिखर तक पहुँचना संभव न था । सत्ता हासिल करने के बाद इन शक्तियों ने भी श्रमिकों पर हर तरह का प्रतिबंध लगाते हुए सार्वजनिक सम्पत्ति को पूंजी के हवाले करने में कोई देरी नहीं की । इस पर हम आगे और भी चर्चा करेंगे ।

5. पंचमांगी संगठनः इन सर्वसत्तावादी-नस्लवादी-उग्र राष्ट्रवादी संगठनों के अपने अर्ध-सैनिक, पंचमांगी दस्ते थे जिनका काम इस तरह की गोलबंदी सुनिश्चित करने के लिए चुनिंदा हिंसात्मक कार्रवाइयों को अंज़ाम देना था । कत्लों और जनसंहारों में उनकी भूमिका, ज़ाहिर है, अहम हो जाती थी । ऐसे संगठन गुप्त रूप से काम करते थे, अलग-अलग देशों में उनकी पहचान के अलग-अलग पहनावे, रंग और प्रतीक चिह्न थे । इटली में ये ब्लैक शर्ट्स (काले कुर्तेवाले) के नाम से जाने जाते थे, तो जर्मनी (और भारत) में ख़ाकी पैंट्स से । चीन में ब्लू शर्ट्स, तो ब्राज़ील तथा मिस्र में ग्रीन शर्ट्स, और दक्षिण अफ़्रीका में ग्रे शर्ट्स के नाम से ।

6. आक्रामक प्रचार-तंत्रः युरोप के सर्वसत्तावादी-नस्लवादी-उग्र राष्ट्रवादी संगठनों ने अपना एक आक्रामक प्रचार-तंत्र विकसित किया था जिसका लक्ष्य उग्र नस्लवादी-राष्ट्रवादी ध्रुवीकरण को अंज़ाम देना था । वही सूचना सूचना थी जो इस ध्रुवीकरण में सहायक हो । इतना ही नहीं, प्रत्येक सूचना का कायान्तरण कर उसे इसी ध्रुवीकरण का माध्यम बना दिया जाता था – इसके लिए शब्द तथा अर्थ का घालमेल किया जाता, और झूठ तथा अफ़वाहों का सहारा लिया जाता ।

कुल मिलाकर, बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक में उत्पन्न अभूतपूर्व आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की पृष्ठभूमि में युरोप तथा दुनिया के विभिन्न देशों में जो सर्वसत्तावादी-नस्लवादी-उग्र राष्ट्रवादी वैचारिक प्रवृत्ति और आन्दोलन सामने आया, वह विभिन्न देशों की विशिष्ट स्थितियों में विशिष्ट नामों के साथ अवतरित हुआ । हर जगह यह स्थापित-प्रचलित व्यवस्था और सत्तारूढ़ दलों के ख़िलाफ़ अभियान चलाते हुए, समाजवाद तथा कम्युनिज़्म से समाज की ‘रक्षा’ कर ‘नयी’ व्यवस्था बनाने, ‘नया’ इतिहास लिखने, और अपने-अपने राष्ट्र के पुराने गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करने के नारे के साथ सामने आया । यहाँ हम संक्षेप में कुछ प्रमुख देशों में इस प्रवृत्ति पर विहंगम दृष्टि डाल सकते हैं ।

इटलीः फ़ासीवाद

प्रथम विश्वयुद्ध के तुरत बाद यह प्रवृत्ति सबसे पहले इटली में बेनितो मुसोलिनी (1883-1945) के फ़ासिस्ट आन्दोलन के रूप मे सामने आई । वहाँ शीघ्र ही (1922 में) वह सत्ता पर भी काबिज़ हो गई । मुसोलिनी के साथ इस वैचारिकी के प्रस्तुतकर्ता थे जियोवन्नी जेंटाइल (1875-1944) । 1932 में मुसोलिनी की रचना ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ फ़ासिज़्म’ के लेखन में भी जेंटाइल का अहम योगदान माना जाता है ।

नस्ल-सम्बन्धी हिटलर की अवधारणा से दूसरे राष्ट्र के नेताओं तथा विचारकों का सहमत होना संभव नहीं था । हिटलर आर्यों की (नीली आँखों और सुनहले बालों वाली) नॉर्डिक शाखा को सबसे शुद्ध और श्रेष्ठ नस्ल मानते थे और इसी नस्ल के विश्व साम्राज्य के हिमायती थे (छिः) । इस लिहाज़ से आर्यों की ही अन्य सारी शाखाएँ मिश्रित और क्षुद्र थीं । इतालवी लोग आर्यों की भूमध्यसागरीय शाखा के माने जाते थे – नस्लीय आधार पर रोमन साम्राज्य के ज़माने से विभिन्न आर्य-गैर-आर्य समुदायों के साथ वैवाहिक सम्बन्धों के कारण भूमध्यसागरीय शाखा के लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता था ।

मुसोलिनी के लिए इसे स्वीकारना संभव नहीं था । वे ख़ुद को आधुनिक रोमन सम्राट मानते थे । उन्होंने इस नस्लीय सिद्धान्त में परिवर्तन करते हुए यह दावा किया कि जैविक आधार पर ‘श्रेष्ठ’ और ‘निम्न’, ‘उत्तम’ और ‘अधम’ का निर्धारण नहीं किया जा सकता । ‘सांस्कृतिक श्रेष्ठता’ ही इस तरह के निर्धारण का आधार हो सकती है; और रोमन लोग – भूमध्यसागरीय शाखा के लोग सांस्कृतिक रूप से अन्य समुदायों की तुलना में ‘श्रेष्ठ’ रहे हैं । रोम की गौरवशाली परम्परा की पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक रूप से ‘श्रेष्ठ’ इतालवियों को सांस्कृतिक रूप से ‘निम्न’ समुदायों पर शासन करने, उनके कर्तव्याकर्तव्यों का निर्णय लेने का अधिकार है । मुसोलिनी का यह सांस्कृतिक नस्लवाद-राष्ट्रवाद बाद में (भारत समेत) अन्य कई देशों के नस्लवादियों-राष्ट्रवादियों के लिए भी प्रेरणादायक साबित हुआ ।

1921 में ही अपने एक भाषण में मुसोलिनी ने यह कहा था कि फ़ासिज़्म भूमध्यसागरीय-आर्य नस्ल की चिरकालिक वृहत्तर ज़रूरत की उपज है । सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ इतालवियों के लिए यह ज़रूरी है कि वे इथियोपिया और पड़ोसी स्लोवेनिया तथा क्रोएशिया के स्लाव समुदायों की निकृष्ट संस्कृति को नष्ट कर दें । ‘पीढ़ियों की अनन्त श्रृंखला से उद्भूत, इस (इतालवी) नस्ल के तमाम भौतिक और अभौतिक मूल्यों के सर्वोच्च सम्मिलन से निर्मित इतालवी राष्ट्र एक जीवंत सत्ता है ।’ आधुनिक रोमन सम्राट के रूप में मुसोलिनी इतालवी साम्राज्य के सभी हिस्सों का इतालवीकरण करने की इच्छा रखते थे ।1

पूंजीवाद के गहराते संकट और समाजवादी आन्दोलन के प्रसार की पृष्ठभूमि में मुसोलिनी ने जो राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था प्रस्तावित की, वह कॉरपोरेटिज़्म कहलाती है । (यहाँ कॉरपोरेटिज़्म का मतलब बड़े व्यावसायिक घरानों के प्रभुत्व वाली राजनीतिक व्यवस्था से नहीं है ।) समाज के विभिन्न संघटक अंगों – यथा, उद्योग, कृषि, व्यवसाय, सेना, विज्ञान, शिल्प, श्रम, शिक्षा आदि के राष्ट्रीय संघों के बीच राज्य की मध्यस्थता से समन्वय और सामञ्जस्य स्थापित कर राजनीतिक व्यवस्था का संचालन – यह थी मुसोलिनी की कॉरपोरेटिस्ट व्यवस्था । इन सभी छोटे-बड़े संघों की एक राष्ट्रीय परिषद स्थापित की गई । इसी परिषद को नवम्बर 1933 में सम्बोधित करते हुए मुसोलिनी ने महामंदी (1929) की पृष्ठभूमि में पूंजीवाद के तीन युगों का ज़िक्र किया – पहला युग (1830-1870) पूंजीवाद का गतिशील, वीरगाथा (हेरोइक) काल था (हालांकि अब उस काल में लौटना मुमक़िन नहीं था) । दूसरा युग (1870-1914) पूंजीवाद का स्थिर युग था, और 1914 से शुरू होनेवाला तीसरा युग पतनशील पूंजीवाद का युग कहा गया, जिसे सुपरकैपिटलिज़्म भी कहा जाता था । इस पतनशील पूंजीवाद (के स्तरीकरण और उपभोक्तावाद) की आलोचना करते हुए मुसोलिनी अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप के बारे में अपना मत कुछ इस प्रकार रखते थे – कठिनाइयाँ उत्पन्न होने पर पूंजीवादी उद्यम मृत शरीर की तरह राज्य की बाँहों मे जा गिरते हैं । ऐसी स्थिति में राज्य का हस्तक्षेप अधिकाधिक ज़रूरी हो जाता है । जो कभी राज्य की परवाह नहीं करते थे, वही अधीरता के साथ राज्य का सहारा ढूँढ़ने लगते हैं । राज्य का हस्तक्षेप वहीं ज़रूरी है जहाँ निजी पूंजी का या तो अभाव है या वह अपरिपक्व और अक्षम है ।2 बहरहाल, ख़ुद मुसोलिनी की राजकीय स्वामित्व में कोई दिलचस्पी नहीं थी । वे मानते थे कि निजी सम्पत्ति मानवीय व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करती है; इसीलिए उनकी कॉरपोरेटिव अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी उद्योगों के स्वामी-संचालकों और उद्यमियों की सराहना तथा निजी सम्पत्ति के उसूल का सम्मान करते हुए, बड़े पैमाने पर राजकीय उद्यमों के निजीकरण की नीति लागू की गई । 1922-25 के बीच पहली फ़ासिस्ट सरकार ने जीवन बीमा कम्पनियों पर राजकीय एकाधिकार खत्म कर दिया, और राजकीय स्वामित्व वाले अधिकांश टेलिफ़ोन नेटवर्क तथा सेवाओं को निजी कम्पनियों के हाथों बेच दिया गया । राजकीय स्वामित्ववाले धातु मशीनरी के सबसे बड़े उद्योग का पुनः निजीकरण कर दिया गया, सड़कों के निर्माण तथा उनके परिचालन के क्षेत्र में निजी क्षेत्रों को काफ़ी रियायतें दी गईं आदि, आदि ।3

अपने कॉरपोरेटिस्ट अर्थव्यवस्था को ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ और ‘समाजवादी अर्थव्यवस्था’, दोनों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हुए, मुसोलिनी इसे सामूहिक राजनीतिक विचारधारा की संज्ञा देते थे, जिसके अन्तर्गत समाज के छोटे-बड़े सभी घटकों के संघ राज्य की मध्यस्थता से पूरे समाज का उसी प्रकार स्वस्थ, संतुलित और सामञ्जस्यपूर्ण संचालन करते हैं, जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग । उनका लोकप्रिय नारा था – ‘सबकुछ राज्य के अधीन, राज्य से परे और राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं ।’

यह था घोर मंदी के युग में तमाम जनवादी संस्थाओं को प्रतिबंधित करते हुए, और इतालवी जनता के तमाम संघर्षों तथा उनकी संघर्षशील एकजुटता को उग्र इतालवी नस्लवाद-राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ा कर, पूंजी के स्वामियों के खुले खेल का मार्ग प्रशस्त करनेवाली – ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाली – फ़ासिस्ट राजनीतिक व्यवस्था । (जर्मनी समेत) अनेक देशों के ऐसे अनेक समूहों के लिए मुसोलिनी का इटली कई अर्थों में प्रेरणा प्रदान करता था ।

सबका’ – यह मासूम शब्द, कुछ संदर्भों में, सर्वग्रासी, डरावना अर्थ भी ग्रहण कर लेता है । सबका, ऐसी स्थिति में, अनेको अन्यायों की पर्दादारी का पर्याय बन जाता है । (इसी तरह ‘एकात्म’ शब्द का भी कुछ ऐसा ही हश्र होता है ।) मानवजाति के विभिन्न समुदायों के बीच, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, ऐतिहासिक रूप से विकसित अनेक विषमताओं तथा विभेदों की पृष्ठभूमि में ‘सबका’, ‘एकात्म’ जैसे शब्दों का प्रयोग अत्यन्त सावधानी की मांग करता है । इन विषमताओं और विभेदों के मद्देनज़र, अनेक स्थितियों में, ‘सबका’ की जगह समुदाय-आधारित ‘पक्षपात’, ‘एकात्म’ की जगह ‘स्वतंत्रता तथा समानता पर आधारित बहुलता’ ज़रूरी हो जाती है ।

1938 में, जर्मनी का अनुसरण करते हुए इटली की मुसोलिनी सरकार ने भी यहूदी-विरोधी कानून पारित किए, और युद्ध के दौरान इतालवी यहूदियों की क़रीब बीस फ़ीसदी आबादी को जर्मनी के ‘मृत्यु शिविरों’ में भेज दिया !

28 अप्रैल, 1945 को इतालवी छापामारों ने मुसोलिनी और उनकी प्रेमिका की गोली मारकर हत्या कर दी और मिलानो के एक चौराहे पर उनके मृत शरीर को उल्टा लटका दिया । मुसोलिनी के क़रीबी, फ़ासिज़्म के दार्शनिक, इटली के शिक्षा मंत्री (1922-1924), सार्वजनिक शिक्षा की सुप्रीम कॉउन्सिल के अध्यक्ष (1926-1928), और फ़ासिस्ट ग्रैंड कॉउन्सिल के सदस्य (1925-26) ज़ियोवन्नी ज़ेंटाइल क़रीब एक साल पहले ही 15 अप्रैल, 1944 को कम्युनिस्ट छापामारों द्वारा मारे जा चुके थे । बीस से भी ज़्यादा वर्षों बाद इटली में जनतंत्र की बहाली हुई । 1948 के चुनावों में मुसोलिनी समर्थक नव-फ़ासिस्टों को दो प्रतिशत मत मिले ।

जर्मनीः नाज़ीवाद

जर्मनी में सर्वसत्तावादी-नस्लवादी-उग्रराष्ट्रवादी वैचारिक प्रवृत्ति नाज़ीवाद के रूप में अवतरित हुई । अडोल्फ़ हिटलर (1889-1945) के व्यक्तित्व में इसने मूर्तिमान रूप ग्रहण किया । ऐसे समूह प्रायः अपने समय में प्रचलित लोकप्रिय शब्दावली का प्रयोग अपनी परियाजना की स्वीकार्यता तथा उसके विस्तार के लिए करते हैं । 29 जुलाई, 1921 को नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी (नाज़ी पार्टी) के अध्यक्ष के रूप में हिटलर को सारी सत्ता सौंप दी गई थी । बारह वर्ष बाद, 1933 में, वे जर्मनी की सत्ता पर काबिज़ हुए और 1934 में सारी सत्ता अपने हाथ में लेते हुए ख़ुद को फ़्युरर घोषित कर दिया । हिटलर और नाज़ीवाद पर काफ़ी लिखा जा चुका है – दरअसल जर्मन नाज़ीवाद और इतालवी फ़ासीवाद इस वैचारिक-राजनीतिक प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त आम शब्दावली बन चुके हैं ।

नाज़ीवाद मानवजाति के इतिहास में संभवतः सबसे बड़े नस्लीय जनसंहार के लिए जाना जाता है । नाज़ियों के नस्लीय उन्माद में विभिन्न रूपों में (खासकर गैस चेम्बरों में) क़रीब साठ लाख यहूदी मारे गये ।

शुद्ध नस्ल की नॉर्डिक आबादी के प्रसार के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयोगों की चर्चा करना यहाँ ज़रूरी नहीं । ऐसे प्रयोग नारियों के लिए अत्यन्त अपमानजनक और दमनकारी होते हैं । उनके ऐसे प्रयोगों से बच्चे भी अछूते नहीं थे । 1942 में ‘ऑपरेशन हे’ के तहत पोलैण्ड में ‘जर्मन रक्त’ की रक्षा के नाम पर ‘नीली आँखों और सुनहले बालों वाले’ बच्चों के अपहरण की योजना बनाई गई । इन बच्चों को जर्मनी में ऐसे परिवारों को सौंपना था जो इन बच्चों के ‘अच्छे रक्त’ के प्रति प्यार के कारण इन्हें बिना किसी शर्त के (स्वेच्छा से ?) अपनाने को तैयार थे ! और सचमुच, जून 1944 में, जर्मनी की नौंवी सेना ने पोलैण्ड में ऐसे क़रीब चालीस से पचास हजार बच्चों का अपहरण कर उन्हें जर्मनी भेज दिया था ।4

बहरहाल, यहाँ इतना कहना ही काफ़ी है कि उग्र नस्लीय-पुरुष वर्चस्ववादी-राष्ट्रवाद और सैन्यीकरण ने जर्मन समाज और पूरे युरोपीय समाज के ताने-बाने पर जो क़हर बरपाया, उसकी भरपाई आज तक नहीं हो पाई है ।

इस सर्वसत्तावादी-नाज़ीवाद को भी तत्कालीन जर्मनी के प्रभावशाली पूंजीपतियों का समर्थन प्राप्त था । वह महामंदी का काल था (नाज़ी इस संकट के लिए यहूदी पूंजीपतियों तथा मध्यवर्ग को दोषी ठहराते थे) । उस समय अधिकांश पूंजीवादी देशों में मंदी से उबरने के लिए बड़े पैमाने पर राजकीय हस्तक्षेप का सहारा लिया जा रहा था । वह कीन्स, और रूज़वेल्ट की ‘न्यू डील’ का समय था । लेकिन जर्मनी की अर्थव्यवस्था इसकी उलट दिशा अपना रही थी – आर्थिक क्रियाकलापों में राजकीय हस्तक्षेप के विपरीत (इटली की तरह) सार्वजनिक उद्यमों का पुनर्निजीकरण किया जा रहा था । ऐसा कहा जाता है कि अँग्रेज़ी में प्राइवेटाइज़ेशन (अथवा री-प्राइवेटाइज़ेशन) शब्द का पहला प्रयोग 1930 के दशक में जर्मन नाज़ियों की आर्थिक नीतियों की व्याख्या के क्रम में हुआ । आम पूंजीवादी देशों की नीतियों के विपरीत, जर्मनी की नाज़ी सरकार सार्वजनिक स्वामित्व वाले उद्यमों को निजी क्षेत्र के हवाले कर रही थी (श्रमिक संगठनों तथा उनके क्रियाकलापों पर पाबंदी की स्थिति में ही ऐसा करना संभव हो सका था) । (जनवरी 1930 से नवम्बर 1933 के बीच) जर्मनी का शेयर बाजार भी अन्य पूंजीवादी देशों की तुलना में मज़बूत था । 1935 से 1941 के बीच पूंजी पर प्राप्ति (रिटर्न) काफ़ी अच्छी थी (12 से 18 प्रतिशत के बीच) ।5

लगता है, इन्हीं स्थितियों में, फ़्रैंकफ़ुर्ट स्कूल के संस्थापकों में से एक मैक्स होर्खाइमर ने द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्व बेला में यह टिप्पणी की थीः ‘यदि आप पूंजीवाद पर बात करने को इच्छुक नहीं हैं, तो बेहतर होगा कि फ़ासिज़्म के बारे में आप चुप ही रहें ।’6

मुसोलिनी के मारे जाने के दो दिन बाद (30 अप्रैल, 1945) को सोवियत लाल सेना द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए हिटलर ने अपनी प्रेमिका/पत्नी के साथ अपने बंकर में आत्महत्या कर ली ।

पूंजी के समस्त अन्यायों और अपराधों का घनीभूत रूप ही इस मानव-विरोधी फ़ासीवादी-नाज़ीवादी सत्ता में प्रकट हुआ – उपनिवेशों में सभी पूंजीवादी राष्ट्र यह खेल खेलते ही रहते थे; यही नस्लवादी-उग्र राष्ट्रवादी खेल अब उनके दरवाज़े पर जा पहुँचा था । करोड़ो लोगों की मौत और उत्पादक शक्तियों की अभूतपूर्व बर्बादी ने इतिहास की समस्त बर्बरताओं को पीछे छोड़ दिया था । (प्रसंगवश, यहाँ अमेरिकी महाद्वीप के क़रीब दो सौ वर्षों के उपनिवेशीकरण के दौरान युद्ध, महामारी और संसाधनों की लूट के ज़रिये उस महाद्वीप के स्थानीय जनों की क़रीब नब्बे प्रतिशत आबादी के बर्बर संहार को, और दास-व्यापार तथा अफ़्रीकी-अमेरिकनों के साथ नस्लीय भेदभाव, उनके उत्पीड़न और उनके हत्याकाण्डों को भी याद रखना चाहिए ।)

स्पेनः फ़्रैंको की तानाशाही

इतालवी फ़ासिस्टों, जर्मन नाज़ीवादियों और पुर्तगाल की मदद से 1 अक्टूबर, 1936 को जनरल फ़्रांसिस्को फ़्रैंको (1892-1975) ने स्पेन के जनवादी-प्रजातांत्रिक सरकार को अपदस्थ कर एक अधिनायकवादी-उग्र राष्ट्रवादी सत्ता की स्थापना की । बहरहाल, अपने अन्य राजतंत्रवादी, रूढ़िवादी सहयोगियों के साथ ये उग्र राष्ट्रवादी फ़ैलेंगिस्ट तब पूरे स्पेन को अपने नियंत्रण में लेने में कामयाब न हो सके । क़रीब तीन वर्षों तक (1936-39) स्पेनी फ़ासिस्टों और जनवादी-प्रजातांत्रिक शक्तियों के बीच गृहयुद्ध चलता रहा । इटली और जर्मनी की भारी मदद से 1 अप्रैल, 1939 को उन्हें पूरे स्पेन पर अपना आधिपत्य जमाने में कामयाबी मिली ।

इस गृहयुद्ध में एक ओर फ़्रैंको के सैन्य गिरोह के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी फैलेंगिस्ट और उनके कई राजतंत्रवादी, रूढ़िवादी, परम्परावादी सहयोगी थे, तो दूसरी ओर जनवादी गणतंत्र के पक्ष में समाजवादियों, कम्युनिस्टों, गणतंत्रवादियों आदि का संयुक्त मोर्चा, पोपुलर फ्रंट था । इस फ्रंट को सोवियत संघ और मेक्सिको का समर्थन प्राप्त था । गणतांत्रिक सरकार को मान्यता देने के बावज़ूद संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ़्रांस ने इस गृहयुद्ध में हस्तक्षेप न करने की नीति अपना रखी थी ।

इस गृहयुद्ध में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा स्थापित इंटरनेशनल ब्रिगेड के तहत 61 देशों के 35,000 वालंटियर्स ने गणतंत्रवादियों के पक्ष में हिस्सा लिया था । ऐसे समय में जब पूरे युरोप में उग्र राष्ट्रवाद-नाज़ीवाद-सर्वसत्तावाद अपने चरम पर था, तब 61 देशों की विभिन्न राष्ट्रीयताओं, पंथों और समुदायों के 35,000 लोगों का गणतंत्र के पक्ष में लड़ने के लिए स्पेन जाना एक अभूतपूर्व घटना थी । इनमे से हजारों लोग घायल हुए, बंदी बनाये गये और हजारों ने अपनी कुर्बानी दी । गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद, गणतंत्रवादियों के कब्जेवाले इलाकों में फ़्रैंको की सेना ने क़रीब 10,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया । फरवरी 1939 में फ़्रांस और ब्रिटेन की सरकार ने फ़्रैंको की सत्ता को मान्यता दे दी थी । इस गृहयुद्ध में स्पेन की सहायता के लिए लंदन में एक स्पेन-भारत समिति का भी गठन किया गया था । भारत से छः लोग इस गृहयुद्ध में शामिल हुए थे ।7

स्पेन में यहूदियों की कम संख्या होने के कारण स्पेनी उग्र राष्ट्रवादी हिटलर की तरह उनके खात्मे के बजाए, कैथोलिक पंथ में उनके धर्मांतरण पर ज़ोर देते थे ।

जापानः सैन्यवाद

1929 की महामंदी के आसपास जापानी शासकों के अच्छे-ख़ासे हल्कों में यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा था कि सैन्य आधिपत्य के जरिये ही जापान की आर्थिक समस्याओं का समाधान हो सकता है । मेज़ी सुधारों (1868) के बाद जापान में पूंजीवाद का तेजी से प्रसार हुआ, लेकिन तब तक दुनिया के और एशिया के पूर्वी हिस्से पर, अमेरिका समेत पश्चिम युरोप की शक्तियाँ अपना साम्राज्य क़ायम कर चुकी थीं । जापान ने 1910 में अनेक वर्षों की धमकियों तथा युद्ध के बाद कोरिया को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था (द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक वह जापान का ही अंग बना रहा) । 1931 में उसने उत्तर-पूर्व चीन (मंचुरिया) पर हमला कर दिया और 1937 तक उत्तर-पूर्वी चीन के एक बड़े भूभाग को अपने नियंत्रण में ले लिया था । अब वह समूचे पूर्वी एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के मंसूबे बाँध रहा था ।

कच्चे माल (और खाद्यान्न) के लिए जापान आयात पर निर्भर था, लेकिन पश्चिमी देशों ने उसके आयात-निर्यात पर कई बंदिशें लगा रखी थीं । जापानियों को नस्लीय भेदभाव का भी सामना करना पड़ता था । जापान के पूंजीपतियों के प्रभावशाली हिस्सों को लगता था कि पूर्वी एशिया के देशों पर, जिनमें कई ब्रिटेन, हॉलैण्ड और फ़्रांस के उपनिवेश थे, सैन्य आधिपत्य क़ायम किए बिना उनकी अग्रगति संभव नहीं । जापानी मध्य वर्ग के अच्छे-ख़ासे समूह भी पूर्वी एशिया पर जापान के वर्चस्व को लेकर काफ़ी आकर्षित थे । एक आक्रामक सैन्य-सत्ता की स्थापना, और पूर्वी एशिया के देशों को उपनिवेश बनाने के लिए युद्ध छेड़े बिना यह मुमक़िन न था । (उत्तरी चीन और कोरिया पर आक्रमण, आधिपत्य और जनसंहार समेत अनेक बर्बर कृत्यों के कारण जापान पर कई प्रतिबंध भी लगे थे ।)

इस उग्र सैन्यवाद को समर्पित एक गुप्त संगठन – ब्लैक ड्रेगन सोसायटी – 1930 के दशक के जापान में काफ़ी सक्रिय था, और कई ज़ुनियर सैन्य अफ़सर भी इससे जुड़े थे । एक उग्र राष्ट्रवादी सैन्य सरकार की स्थापना के लिए इस संगठन ने कई हिंसात्मक घटनाओं को भी अंज़ाम दिया था । जापान ने नवम्बर 1936 में पहले जर्मनी, और फिर इटली के साथ एक कॉमिंटर्न-विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किया – इसी समझौते ने द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद त्रिपक्षीय समझौते का रूप लिया । जर्मनी और इटली ने एशिया में ‘न्यू ऑर्डर’ (नयी व्यवस्था) के नेता के रूप में जापान को मान्यता दी और युद्ध की स्थिति में हर तरह की सहायता का भरोसा दिया । बहरहाल, अक्टूबर 1941 में प्रधानमंत्री कोनू फ़ुमिमारो के इस्तीफे के बाद उनके युद्ध मंत्री तोजो हिदेकी (1884-1948) द्वारा सत्ता संभालने से जापानी सैन्यवाद को बड़ा आवेग मिला । फिर शुरू हुआ तोजो का पूर्वी एशिया पर आधिपत्य का उग्र अभियान । शुरुआती वर्षों में उसे काफ़ी सफलता मिली । जनवरी 1942 में मनीला (फ़िलीपीन) पर कब्जे के बाद फरवरी में सिंगापुर, फिर डच ईस्ट इंडीज़ (इंडोनेशिया) और रंगून (बर्मा) पर कब्जे ने पूर्वी एशिया पर जापान के प्रभुत्व को अभूतपूर्व विस्तार दिया । बहरहाल, 1944 बीतते-न-बीतते जापान के इस उग्र सैन्यवादी अभियान को झटका लगना शुरू हो गया ।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद, 1941-44 के दौरान प्रधानमंत्री रहे तोजो हिदेकी पर युद्ध अपराधों का मुकदमा चला और 23 दिसम्बर, 1948 को उसे फांसी दे दी गई ।

ब्राज़ीलः एकात्मवाद

ब्राज़ील में यह फ़ासिस्ट वैचारिक-राजनीतिक प्रवृत्ति एकात्मवादी (इंटेग्रलिस्ट) आन्दोलन के रूप में जानी जाती है । अक्टूबर 1932 में प्लिनिओ सालगाडो नामक लेखक ने इसकी स्थापना की थी और यह आन्दोलन दक्षिण पुर्तगाल में इसी नाम से चले आन्दोलन का ही ब्राज़ीलियन अवतार था । इतालवी फ़ासिज़्म से प्रभावित सालगाडो (जर्मन नस्लवाद का समर्थन नहीं करने के कारण) नाज़ीवाद से दूरी बनाकर रखते थे, हालांकि इस दल के कुछ प्रमुख नेता यहूदी-विरोधी थे । यह दल ब्राज़ीलियन एकात्मवादी दल (पुर्तगाली नाम के पहले अक्षरों को लेकर, ए.आई.बी) नाम से जाना जाता था । इसकी ग्रीन शर्ट्स (हरे कुर्तेवाले) नाम से एक अर्ध-सैनिक शाखा भी थी । मार्क्सवाद तथा उदारवाद के उग्र विरोधी इस एकात्मवादी दल ने ब्राज़ील में फ़ासिस्ट शैली के कई प्रदर्शन और पथ-संचलन (पैरेड) भी आयोजित किये थे । आज ब्राज़ील में इस एकात्मवादी विचारधारा से जुड़े दो छोटे दल हैं । 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में इन दलों ने जैर बोल्सोनारो का समर्थन किया था ।

प्रसंगवश, जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और इस पुर्तगाली-ब्राज़ीलियन एकात्मवाद में वैचारिक स्तर पर कई समानताएँ मिल जाएँगी ।

चीनः ब्लू शर्ट्स सोसायटी

इतालवी फ़ासिज़्म से प्रभावित चीन का उग्र राष्ट्रवादी संगठन क्वोमिंताङ के अन्दर ही गुप्त रूप से सक्रिय था और ब्लू शर्ट्स (नीले कुर्तेवाले) के नाम से जाना जाता था । चीन में इनके कुछ और समूह थे – जैसे, चाइना रिकंस्ट्रक्शन सोसायटी आदि । शुरू में इस ग्रुप के अधिकांश सदस्य एक सैनिक अकादमी (व्हैम्पाओ सैनिक अकादमी) से जुड़े थे । तीस के दशक के दौरान सैनिक और राजनीतिक क्षेत्र में इसका कुछ विस्तार तो हुआ; लेकिन, खासकर जापानी आक्रमण विरोधी प्रतिरोध युद्ध के दौरान, चीनी कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव के कारण इसे कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई ।

दक्षिण अफ़्रीकाः ग्रे शर्ट्स

दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के रूप में नस्लवाद पहले से ही संस्थाबद्ध था । तथापि, 1932 में जर्मन नाज़ियों से प्रेरित साउथ अफ़्रीकन जेंटाइल नेशनल सोशलिस्ट मूवमेंट की स्थापना की गई जिसे ग्रे शर्ट्स (भूरे कुर्तेवाले) नाम से भी जाना जाता था । इसी तरह के कुछ और भी दल थे । ऐसे ही एक ग्रुप न्यू ऑर्डर का गठन एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ओस्वाल पिरो ने 1940 में किया था ।

इसी तरह, संयुक्त राज्य अमेरिका, मिस्र, लीबिया आदि देशों में भी फ़ासीवादी-नाज़ीवादी संगठन सक्रिय थे । मिस्र में यह यंग ईज़िप्ट आन्दोलन के रूप में (अथवा ग्रीन शर्ट्स के नाम) से जाना जाता था । तब इटली के उपनिवेश लीबिया में मुसोलिनी ने ही लीबियन अरब फ़ासिस्ट पार्टी का गठन किया था । इटली के ही दूसरे उपनिवेश इथियोपिया में ऐसे प्रयासों को कड़े प्रतिरोध के कारण सफलता नहीं मिली । संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐसे तो कई संगठन थे, लेकिन सबसे प्रमुख नाज़ीवादी दल था जर्मन-अमेरिकन बुंद । 1936 में गठित इस नाज़ीवादी दल की सदस्यता सिर्फ जर्मन-मूल के अमेरिकी नागरिकों के लिए खुली थी । ये लोग रूज़वेल्ट प्रशासन की निन्दा करते थे, उनकी ‘न्यू डील’ को ‘ज्यू डील’ कहते थे, यहूदी-अमेरिकी ग्रुपों का विरोध करने के साथ-साथ कम्युनिज़्म तथा ट्रेड यूनियनों के ख़िलाफ़ भी अभियान चलाते थे । (वर्तमान में ऐसे कुछ समूह ट्रम्प के अभियान से जुड़े हैं ।)

बहरहाल, जिन देशों में ऐसे समूहों को पूंजीवादी घरानों के प्रभावशाली हिस्सों का समर्थन नहीं था, वहाँ वे हाशिए के समूह ही बने रहे । फिर भी, समाज में विभिन्न समुदायों के प्रति नफ़रत फैलाने, न्याय के आधार पर सामाजिक पुनर्रचना के प्रयासों में व्यापक जनता की एकजुटता में बाधा उत्पन्न कर वे अपनी विघटनकारी भूमिका निभाते रहे ।

भारतः हिन्दुत्व

सर्वसत्तावादी-नस्लवादी-उग्र राष्ट्रवादी यह वैचारिक-राजनीतिक प्रवृत्ति भारत में हिन्दुत्व की विचारधारा के रूप में सामने आई । औपनिवेशिक भारत में आज से सौ वर्ष पूर्व इस विचारधारा को मूर्त रूप देने का काम विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) ने 1923 में प्रकाशित अपनी रचना ‘हिन्दुत्व’ में किया । अपने बाद के लेखों तथा पुस्तकों में उन्होंने अपने इन विचारों को विस्तार दिया ।8

इन सभी रचनाओं में अपनी प्रस्थापनाओं की पुष्टि के लिए सावरकर युरोप के इतिहास की शरण लेते हैं, और वहीं से, खासकर इटली, जर्मनी और इंगलैण्ड के इतिहास से अपने साक्ष्य जुटाते हैं । हिन्दुत्व का प्रेरणास्रोत युरोप का आधुनिक नस्लवादी-उग्रराष्ट्रवादी इतिहास है ।

हिन्दुत्व का आशय (सावरकर के लिए भी) हिन्दू पंथ, दर्शन आदि से नहीं है; तथापि यह शब्द इस वैचारिक-राजनीतिक धारा के लोगों को (सावरकर को भी) अपनी सुविधानुसार इसे हिन्दू पंथ के साथ घुलामिला देने का अवसर प्रदान करता रहा है । (युरोप के ऐसे संगठन समाजवाद शब्द का प्रयोग किया करते थे । तब पूंजी के संकट की स्थिति में समाजवाद एक लोकप्रिय शब्द तथा आन्दोलन था ।) वैसे भी शब्दों और अर्थों का घालमेल तथा बाज़ीगरी इस वैचारिक धारा की पहचान रही है – जैसे, बजरंगबली और बजरंग दल ।

यहाँ यह याद रखना चाहिए कि समुदाय-आधारित भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा भारतीय समाज में पहले से जाति-प्रथा के रूप में संस्थाबद्ध था । भारतीय मिथकों में, पुराणों और अन्य साहित्य में समुदाय-आधारित हिंसा और संहार के किस्से प्रचलित थे । सबसे प्रचलित कथा (विष्णु के छठे अवतार) परशुराम द्वारा बाइस बार धरती को क्षत्रिय-विहीन करने की है । दूसरी कथा जनमेजय द्वारा नागों के विनाश की । (वैसे, ये कथाएँ किसी समुदाय विशेष के विनाश-अभियान की विफलता, और उनकी निर्रथकता की कथाएँ भी हैं ।)

हिन्दुत्व का विचारः हिन्दू नस्ल हिन्दुत्व का आविष्कार है; भारतीय प्रायद्वीप में, सिन्धु (नदी) से सिन्धु (समुद्र) तक इस कथित नस्ल के वर्चस्व और उपनिवेशीकरण का अख्यान है, और ‘हिन्दू राष्ट्र’ (तथा ‘हिन्दू साम्राज्य’) के लिए एक हिंसक अभियान का आह्वान है । सावरकर के लिए हिन्दुत्व का विचार एक ‘जीवंत सत्ता’ है, प्राचीन काल से ही इतिहास में सक्रिय एक ‘परम-तत्त्व’ है, तमाम उतार-चढ़ावों के बीच जिसकी पूर्णाहुति हिन्दू साम्राज्य की स्थापना में होनी है । इसी के साथ इतिहास का भी अन्त होना है । इतिहास में सक्रिय ‘परम तत्त्व’ अथवा ‘विचार’ के, और प्रशा के राज्य के रूप में उसकी उपलब्धि के हेगेल के विचार के साथ हिन्दुत्व के विचार का साम्य देखा जा सकता है । सावरकर, इतालवी फ़ासिस्ट विचारक ज़ेन्टाइल की तरह हेगेल के दर्शन से प्रभावित थे और उसे हिन्दुत्व के अपने सूत्रीकरण पर लागू कर रहे थे ।

बहरहाल, हेगेल के इस प्रभाव का एक कारण हेगेल का नस्लवाद भी था । हेगेल की ‘फ़िलोसॉफ़ी ऑफ़ हिस्ट्री’ का ज़िक्र करते हुए अफ़्रीकी विचारक न्गुगी वा थ्योंगो लिखते हैं कि हेगेल अफ़्रीकियों को मानवजाति का अंग नहीं मानते थे और उन्हें मानवजाति के निम्न स्तर तक लाने के लिए दास प्रथा को ज़रूरी समझते थे । ‘हेगेल वैसे तो दास प्रथा को अपने आप में अन्याय कहते थे, क्योंकि स्वतंत्रता मानवता का सार-तत्त्व है, लेकिन इस स्वतंत्रता के क़ाबिल होने के लिए वे पहले परिपक्व होना ज़रूरी समझते थे । इसीलिए दास प्रथा को एकबारगी खत्म करने के बजाए उसे क्रमिक रूप से खत्म करना उन्हें ज़्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण तथा उचित लगता था ।’ थ्योंगो बौद्धिक लिहाज़ से हेगेल को उन्नीसवीं सदी के हिटलर की संज्ञा देते हैं ।9

हिन्दुत्व में सावरकर द्वारा हिन्दू नस्ल (और राष्ट्र) की अवधारणा के प्रस्तुतीकरण में उन दिनों इस प्रश्न को लेकर युरोप में चल रहे विवादों का सीधा प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है । शुद्ध आर्य नस्ल की नाज़ीवादी प्रस्थापना मुसोलिनी की तरह सावरकर के लिए भी किसी काम की नहीं थी । भारत में यह नस्लीय सिद्धान्त (मुसोलिनी के) सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार पर प्रस्तावित किया जा सकता था । सावरकर के अनुसार, सिन्धु क्षेत्र के वैदिक आर्यों ने एक अत्यन्त विकसित संस्कृति की स्थापना की और कालक्रम में सिन्धु (नदी) से सिन्धु (समुद्र) तक के विशाल भारतीय प्रायद्वीप का उपनिवेशीकरण कर सिन्धु (हिन्दू) राष्ट्र की नींव रखी । उनकी नज़र में, दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इसी तरह विकसित जनों द्वारा अविकसित जनों के उपनिवेशीकरण के ज़रिये हिंसा और बर्बरता के साथ राष्ट्रों का निर्माण संपन्न हुआ है । विकसित संस्कृति के वाहक वैदिक आर्यों ने यहाँ के स्थानीय जनों के उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में अपनी संस्कृति, अपने देवी-देवता, अपने कर्मकाण्ड आदि उन पर थोप दिए । कुछेक क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ लगभग पूरे प्रायद्वीप में इन्हीं देवी-देवताओं की पूजा होने लगी, उन्हीं के नाम पर बच्चों के नाम रखे जाने लगे, उन्हीं की कहानियाँ सुनी-गुनी जाने लगी आदि । इस तरह इस पूरे भूभाग का सिन्धुकरण (हिन्दूकरण) करने के क्रम में  (स्मृति-ग्रंथों में वर्णित) अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों के परिणामस्वरूप पर्याप्त रक्त सम्मिश्रण हुआ । इस तरह के विवाह शास्त्रों द्वारा अनमोदित नहीं थे । बहरहाल, रीति-रिवाजों ने जो रुकावटें खड़ी कर रखी थीं, प्रकृति ने उन्हें तोड़ डाला । इस तरह उपनिवेशीकरण और हिंसा के ज़रिये विजेता आर्यों और पराजित स्थानीय जनों के मिश्रण से हिन्दू नस्ल अस्तित्व में आया । इस हिन्दू नस्ल के उद्भव के साथ पुराना नस्लीय भेद भी तिरोहित हो गया । इस हिन्दू नस्ल में न कोई आर्य रहा, न द्रविड़, न कोली, न भील आदि । यह नस्ल उन्नत वैदिक संस्कृति का उत्तराधिकारी है । इसी हिन्दू नस्ल की पितृभूमि और पुण्यभूमि है हिन्दुस्थान । फिर भी अगर कोई जन इस प्रक्रिया से अलग-थलग रह गया, तो भी उसे इसमें शामिल किया जा सकता है, अगर उसके देवी-देवता, पूजास्थल सभी यहीं हैं । [विभिन्न नस्लों के सम्मिश्रण से एक नस्ल/राष्ट्र के निर्माण के उदाहरण के रूप में सावरकर इंगलैण्ड को प्रस्तुत करते हैं । अन्तर्विवाहों पर नस्लीय पाबंदियों के बावज़ूद जिस तरह आइबेरियन, केल्ट, एंगल्स, सेक्सन, डेन, नारमन नस्ल के लोगों के मिश्रण से एक इंगलिश जाति (राष्ट्र) बनी, उसी तरह अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों को प्रोत्साहित नहीं करने के बावज़ूद अन्तर-नस्लीय विवाहों के ज़रिये हिन्दू नस्ल अस्तित्व में आया ।]10 इस हिन्दू नस्ल का ऐतिहासिक कार्यभार है क्षुद्र नस्लों/राष्ट्रों को, और राह में आई सारी बाधाओँ को कुचल कर हिन्दुओं का विश्व-साम्राज्य क़ायम करना । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिन्दुओं को एक सैन्य-नस्ल के रूप में संगठित करना है । प्राचीन हिन्दू साम्राज्य के पतन के बाद, इस्लामी तथा फिर युरोपीय साम्राज्यों का उत्थान हुआ, सावरकर अब हिन्दू साम्राज्य की पुनर्प्रतिष्ठा चाहते थे – चाहते थे हिन्दू राज्यों के साथ हिन्दुओं द्वारा पूरे विश्व का उपनिवेशीकरण ।  यह था सावरकर की हिन्दुत्व परियोजना का सार । सावरकर उपनिवेशवाद के विरोधी नहीं थे – वे तो ख़ुद एक साम्राज्य के निर्माण के पक्षधर थे । उन्हें इंगलैण्ड के साम्राज्य से कोई शिकवा नहीं था, वे तो एक छोटे से इंगलैण्ड द्वारा विश्व साम्राज्य क़ायम करने के उदाहरण से प्रेरणा प्राप्त करते थे – ‘..हमें इंगलैण्ड से उसके विजय को लेकर कोई शिकवा नहीं । एक अच्छे खिलाड़ी की तरह हम उसकी दक्षता और शक्ति की सराहना करते हैं । सागरों, महासागरों, देशों और महादेशों के ऊपर अपना हाथ फैलाते हुए, उसने हमारे संघर्षशील हाथों से भारतीय साम्राज्य छीन लिया, और उस बुनियाद पर एक शानदार विश्व-साम्राज्य खड़ा किया है – ऐसा साम्राज्य जिसका साक्ष्य इतिहास में विरले ही मिलता है ।’11

1921 में बोलोग्ना में दिए गए भाषण में मुसोलिनी ने जिस तरह ‘फ़ासिज़्म को आर्य और भूमध्यसागरीय नस्ल की गहन, चिरस्थायी ज़रूरत’ के रूप में पेश किया था, उसी तरह दो वर्षों बाद, 1923 में, प्रकाशित अपनी रचना ‘हिन्दुत्व’ में सावरकर हिन्दुत्व को हिन्दू नस्ल की गहन, चिरस्थायी ज़रूरत के रूप में प्रस्तुत करते हैं ।

इस तरह, कुल मिलाकर, सावरकर के अनुसार, “जनों और ज़मीन के उपनिवेशीकरण की प्रत्यक्ष परिणति के रूप में ये शब्द (‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुस्थान’) अस्तित्व में आये । उनके लिए यह एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया थी जिसके अन्तर्गत आधिपत्य और हिंसा के ज़रिये उपनिवेशक और उपनिवेशित, दोनों हिन्दू बने । इस प्रक्रिया में जो क्षेत्र बना, वह हिन्दुओं का क्षेत्र, अथवा हिन्दुस्थान था । एक क्षेत्र और एक नाम के अन्तर्गत हिन्दुओं की एकता का मतलब था भूमि के प्रचलित नामों की बहुलता को या तो येनकेन प्रकारेण महत्वहीन बना देना या फिर हिन्दुस्थान के अधीन उन्हें समाविष्ट कर लेना । .. हिन्दुओं का इतिहास एक ही साथ, जनों की बड़ी आबादी को जीतने और हिन्दू बनने की प्रक्रिया में इन जीते हुए जनों पर प्रभुता स्थापित करने का इतिहास है । इस प्रकार हिन्दू बनने (अथवा हिन्दू के रूप में रूपान्तरित होने) की प्रक्रिया ख़ुद एक हिंसात्मक प्रक्रिया ही थी ।12 .. हिन्दू के अर्थ में ही एक बुनियादी चरित्र-लक्षण के रूप में हिंसा के ज़रिये एकता मौज़ूद है ।”13

बहरहाल, इस हिन्दुत्व में मनुष्यत्व की कोई जगह नहीं है । मनुष्यता का यही अभाव हिन्दुत्व (और प्रत्येक नस्लवादी-उग्र-राष्ट्रवादी विचार) को बर्बर बनाता है, एक मानव समुदाय द्वारा दूसरे मानव समुदाय पर की गई हिंसा को औचित्य प्रदान करता है ।

मराठा प्रभुत्वः सावरकर की सभी प्रस्थापनाएँ जहाँ युरोप से प्रेरित हैं, वहीं बिना हिंसा और सैन्यीकरण के, बिना बर्बरताओं और जनसंहारों के उन प्रस्थापनाओं को कार्यरूप देने की उनके पास कोई गुंजाइश नहीं रहती । ‘हिन्दू पाद-पादशाही’ में वे अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दू राज्यों के एकीकरण की संभावना पर लिखते हुए जर्मनी और इटली का उदाहरण पेश करते हैं । उनके अनुसार, जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में प्रशा के राजतंत्र की भूमिका थी, और इटली के एकीकरण में पिडमोंट के राजतंत्र की, उसी तरह तब भारत छोटे-मंझोले हिन्दू राज्यों के एकीकरण में महाराष्ट्र का राजतंत्र वह भूमिका निभा सकता था ।14 एकीकरण की यह प्रक्रिया जर्मनी और इटली की तरह छोटे राज्यों के प्रति हिंसा के प्रयोग के बिना संभव नहीं थी । ऐसी हिंसा एकीकरण के वृहत्तर लक्ष्य के लिए ज़रूरी थी । इस तरह वे मराठों द्वारा दक्षिण बंगाल, उड़ीसा और अन्य जगहों पर ढाये गये ज़ुल्मों और जनसंहारों का बचाव करते हैं । (वैसे, 1818 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों मराठों की पराजय के साथ इस संभावना के दरवाजे बंद हो गये ।)

नारी के प्रति दृष्टिकोणः नारियों के प्रति ‘क्षात्रधर्म’ (दुर्बल रक्षा) के हिन्दू विचार को सावरकर नैतिकता की विकृत अवधारणा मानते थे । उनके अनुसार, ‘इसी आत्मघाती विचार के कारण मुस्लिम महिलाएँ उस कड़ी सज़ा से बच गईं जो उन्हें हिन्दू महिलाओं के प्रति किये गये वर्णनातीत पापों तथा अपराधों के लिए मिलनी चाहिए थीं । महिला होना ही उनकी सुरक्षा का पर्याप्त कारण बन गया । महिलाओं के प्रति क्षात्रधर्म का उन दिनों प्रचलित यह विकृत धार्मिक विचार अन्ततः हिन्दुओं के लिए अत्यन्त नुकसानदेह साबित हुआ ।’15 सावरकर इस विकृत नैतिकता के लिए शिवाजी और चिमाजी अप्पा को भी दोषी ठहराते हैं । उनके अनुसार, ‘इससे भी बदतर तो हिन्दुओं का वह हास्यास्पद विचार था जिसके तहत मुस्लिम महिलाओं को हिन्दू धर्म में धर्मान्तरित करना पाप माना जाता था । .. स्वभावतः हिन्दू राज्य और हिन्दू समुदाय के बीच रहते हुए भी हिन्दुओं द्वारा उन्हें अपहृत करने अथवा हिन्दू धर्म में उन्हें धर्मान्तरित करने के किसी भी प्रयास से वे सुरक्षित थीं ।’

सावरकर मानते थे कि इस्लाम-पूर्व भारत में नारियों के प्रति यह विकृत क्षात्रधर्म नहीं था । राम ने ताड़का का वध किया, लक्ष्मण ने शूर्पनखा की नाक काटी, और कृष्ण ने तो नरकासुर की कैद से सोलह हजार स्त्रियों को मुक्त कर उनका उद्धार किया (और इस तरह उन्हें असुर नस्ल के प्रसार का माध्यम बनने से बचा लिया) । विक्रमादित्य के शासन काल में शकों तथा हूणों की स्त्रियों का विवाह एवं अन्य तरीकों से हिन्दूकरण किया गया । हिन्दू नस्ल की स्त्रियों का शत्रुओं द्वारा अपने नस्ल का प्रसार न करने देने के लिए सावरकर ‘जौहर’ (आग में कूद कर जल जाने) का महिमामण्डन करते हैं ।

महिलाओं के प्रति यह वीभत्स नस्लवादी दृष्टि आज भी हिन्दुत्व के अनुयायियों में देखी जा सकती है । सामूहिक बलात्कार के दोषियों का रिहा किया जाना, रिहाई के बाद उनका फूलमालाओं तथा मिठाई से स्वागत करना, और उन्हें सदाचारी ब्राह्मण बताना – नारियों के प्रति उसी दृष्टि का प्रमाण है ।

बहरहाल, इन प्रसंगों में हम सावरकर के मनमाने इतिहास लेखन की, मिथकों की नस्लीय व्याख्या की, मिथक और इतिहास के घालमेल आदि की बानगी देख सकते हैं । आगे संभवतः यही इतिहास पाठ्यपुस्तकों में भी देखने को मिल सकती है !

हिन्दुत्व, बौद्ध धर्म, और अशोकः (व्यक्तिगत तौर पर बुद्ध के प्रति सम्मान व्यक्त करने के बावज़ूद) सावरकर बौद्ध धर्म के कतिपय उपदेशों तथा आचरणों को राष्ट्र-विरोधी करार देते हैं और बौद्धों पर भारतीय स्वतंत्रता तथा भारतीय साम्राज्य के हितों के साथ प्रायः विश्वासघात करने का आरोप लगाते हैं ।16 अशोक तो सावरकर के लिए भारतीय इतिहास के बड़े खलनायक हैं जिन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद, अहिंसा जैसे कुछ बौद्ध उसूलों का प्रचार कर भारत के राजनीतिक दृष्टिकोण, उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता और उसके साम्राज्य को काफ़ी क्षति पहुँचाई । ‘इससे शत्रुओं का मनोबल बढ़ा और वे भारत की सीमाओं पर पुनः आक्रमण करने लगे ।’ सावरकर के अनुसार, वैदिक धर्म को केन्द्र कर वैदिक काल से ही भारतीय सभ्यता फली-फूली थी और इस वैदिक धर्म का मुख्य आधार था बलि । ‘अशोक ने अहिंसा के नाम पर पूरे साम्राज्य में बलियों पर रोक लगा दी, और उन्हें दण्डनीय अपराध बना दिया । ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य वैदिक जनों से निर्मित आबादी के अस्सी प्रतिशत लोगों में इस प्रतिबंध से कितना रोष पैदा हुआ होगा, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है ।.. वैदिक धर्म में शिकार को क्षत्रियों का ज़रूरी कर्तव्य माना जाता था, लेकिन अशोक ने उसपर भी प्रतिबंध लगा रखा था ।’17

184 ईसा पूर्व में वैदिक धर्म के कट्टर समर्थक ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य सम्राट बृहदरथ की हत्या कर सत्ता संभाली तो समस्त वैदिक कर्मकाण्ड के साथ उन्हें भारत का सम्राट घोषित किया गया । सावरकर आगे लिखते हैः सम्राट पुष्यमित्र ने जब पाटलिपुत्र में अश्वमेध यज्ञ करने की घोषणा की तो, बौद्धों की अल्पसंख्यक जमात को छोड़कर, सारे देश में खुशी की लहर दौड़ गयी, लोग राष्ट्रीय गर्व और सैन्य-विजय के उल्लास में झूम उठे । सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता की बदौलत अशोक ने अपनी जिस राजधानी में वैदिक हिन्दुओं को धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित कर दिया था, उसी राजधानी में सम्राट पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया । पुष्यमित्र का यह अश्वमेध इस बात की सार्वजनिक शाही घोषणा थी कि वैदिक हिन्दुओं पर अशोक द्वारा लगाये गये सारे प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये हैं ।18

सावरकर पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल को भारतीय इतिहास का दूसरा गौरवशाली युग मानते हैं ।

यहाँ हम पिछले सौ वर्षों के दौरान हिन्दुत्व की विचारधारा, उसकी कार्यप्रणाली और उसके क्रियाकलापों की कोई समीक्षा नहीं कर सकते । तथापि उपर्युक्त विवरण से हमें उसकी गति-प्रकृति का अंदाज़ा तो लग ही सकता है । केन्द्र में पिछले नौ वर्षों से सत्तारूढ़ इस विचारधारा के अनुयायी जनवादी-समाजवादी-पंथ-निरपेक्ष भारतीय संवैधानिक प्रजातंत्र को विस्थापित कर किस ‘न्यू इंडिया’ की स्थापना की कोशिश में हैं, इन वर्षों के दौरान उनके क्रियाकलापों से यह सहज ही समझा जा सकता है ।

उपसंहार

संक्षेप में, यहाँ हम निम्नलिखित बातों पर गौर कर सकते हैः

1. हिन्दुत्व की पूरी थीसिस जहाँ एक ओर फ़ासीवाद से प्रेरित थी, वहीं दूसरी ओर वह महात्मा गांधी  और रबीन्द्रनाथ ठाकुर के राष्ट्रवाद-सम्बन्धी विचारों के खण्डन में रची गयी थी । 1909 में हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने और 1919 में अपने निबन्ध ऑन नेशनलिज़्म में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने जिस समावेशी राष्ट्रवाद का प्रतिपादन किया था, सावरकर का राष्ट्रवाद उसके ख़िलाफ़ एक विघटनकारी, संकीर्ण नस्लीय राष्ट्रवाद का उद्घोष था । समग्र रूप से देखें तो गांधी, रबीन्द्रनाथ, जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहेब आम्बेडकर, भगत सिंह के राष्ट्र-सम्बन्धी विचारों के बिल्कुल विपरीत हिन्दुत्व के पैरोकार औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ व्यापक जनसमुदाय की एकजुटता को मुस्लिमों के ख़िलाफ़ एक रक्तरञ्जित मुहिम में अधोपतित कर देना चाहते थे । एक ओर समावेशी, जनतांत्रिक स्वतंत्रता आन्दोलन था, दूसरी ओर इस आन्दोलन में समस्त भारतीयों की एकता को विघटित करनेवाली कथित हिन्दू नस्ल के वर्चस्ववाली मुस्लिम-विरोधी धारा थी ।

2. भारतीय समाज की अपनी अन्दरूनी बर्बरताएँ थी, भेदभाव तथा उत्पीड़न पर आधारित जाति-प्रथा थी, अस्पृश्य थे, साम्राज्य विस्तार के लिए राजाओं के युद्ध थे, इन युद्धों और संघर्षों की क्रूरताएँ थीं । हिन्दुत्व इन अन्दरूनी बर्बरताओं और संघर्षों पर पर्दा डालकर हिन्दुओं को कुछ समुदाय विशेष (भारतीय प्रायद्वीप के मुसलमानों तथा ईसाइयों) के ख़िलाफ़ गोलबंद करने की परियोजना है । (प्रायद्वीप के बाहर के मुसलमानों या ईसाइयों से इनका टकराव अमूमन तब होता है जब वे भारतीय मुस्लिमों या ईसाइयों के अधिकारों के हनन का विरोध करते हैं ।) उनके द्वारा इतिहास के पुनर्लेखन में यह दृष्टि दिशा-निर्देश के रूप में काम करती है ।

3. यहाँ यह याद रखना चाहिए कि इस तरह की विचारधारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पहले अपने समाज को ही बंदीगृह में तब्दील कर देती है – अपने समुदाय के लोगों के जनवादी अधिकारों का, उनकी स्वतंत्रता का हनन दूसरे समुदाय के दमन या उपनिवेशीकरण का अनिवार्य अंग होता है । दरअसल, अपने समुदाय/नस्ल/राष्ट्र के उद्धार के नाम पर सम्बन्धित समुदाय का अल्पसंख्यक अभिजात्य समूह अपना आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व बनाये रखने के लिए सारी सत्ता अपने हाथ में ले लेना चाहता है – ऐसे सर्वसत्तावादी समूह के त्राणकर्ता नेता को अपने ही समुदाय के स्वतंत्रचेता लोगों से डर लगता है, समुदाय का स्वनामधन्य हितैषी होने के उनके ढोंग और उनके वर्चस्व को चुनौती देने वाले समाज के जीवंत मेहनतकश सृजनशील वर्गों तथा तबकों से वे ख़ौफ़ खाते हैं । सर्वसत्तावाद जीवन के किसी भी क्षेत्र में स्वतंत्र पहलकदमी की इज़ाज़त नहीं देता, ऐसी किसी गतिविधि की इज़ाज़त नहीं देता जिसकी गति-प्रकृति पहले ही पूरी तरह स्पष्ट न हो ।19 प्रतिभा का स्थान क्रमशः जयजयकार तथा ताली बजानेवाली भक्तों की मंडली ले लेती है । हिन्दुत्व के ख़िलाफ़ संघर्ष इस अभिजात्य सर्वसत्तावाद से हिन्दुओं की मुक्ति का भी संघर्ष है ।

4. सत्ता के शीर्ष तक हिन्दुत्व के पहुँचने के पीछे अनेक कारक हैं (जिनका वर्णन यहाँ संभव नहीं) । बहरहाल, कॉरपोरेट पूंजी के समर्थन-संरक्षण-प्रोत्साहन के बिना इसका केन्द्रीय सत्ता में आना संभव न था । हिन्दू गोलबंदी के उनके रक्तपातपूर्ण प्रयासों और अभियानों की अपनी भूमिका तो है, लेकिन वे अपने आप में उन्हें सत्ता पर निर्णायक वर्चस्व नहीं दिला सकते थे – कॉरपोरेट घरानों के समर्थन ने यह संभव किया । मैक्स होर्खाइमर की शैली में कहें तो अगर आप कॉरपोरेट पूंजी के बारे में बात करना नहीं चाहते तो बेहतर है कि आप हिन्दुत्व के बारे में चुप ही रहें । कॉरपोरेट पूंजी को अपने विस्तार के लिए जिस सर्वसत्तावादी निज़ाम की ज़रूरत थी, वह उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों में हिन्दुत्व की शक्तियाँ ही प्रदान कर सकती थीं । बदले में सार्वजनिक सम्पत्ति पर इन घरानों के नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया, इसके लिए कानूनों में संशोधन-परिवर्धन किए गए, तथा जहाँ जो भी ज़रूरी समझा गया, किया गया । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद श्रमिकों, किसानों, आदिवासियों तथा वंचित समुदायों ने संघर्षों के ज़रिये जो अधिकार हासिल किये थे, उन्हें या तो निरस्त कर दिया गया या फिर काफ़ी कमज़ोर बना दिया गया । कॉरपोरेट पूंजी तथा हिन्दू अभिजातों के अत्यन्त अल्पसंख्यक समूह के हित में की गई यह प्रतिक्रान्ति अब क्रमशः शिक्षा, संस्कृति और जीवन के अन्य क्षेत्रों में विस्तार पा रही है । नफ़रत की राजनीति पर आधारित यह प्रतिक्रान्ति ‘न्यू इंडिया’ का सार है ।    

5. बहरहाल, भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही न्याय, सम्मान और समृद्धि के लिए शोषित-उत्पीड़ित-वंचित समुदायों, जातियों तथा वर्गों के संघर्षों, सुधारों और क्रान्तियों की भी अविरल धारा बहती चली आ रही है और इसने समय-समय पर जनएकता की अभूतपूर्व मिसालें क़ायम की हैं, सद्भाव एवं समन्वय के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, और भारतीय संस्कृति के निर्माण में गौरवशाली भूमिका निभायी है । आज के समय में भी हम विभिन्न आन्दोलनों में – भूमि-अधिग्रहण कानूनों में संशोधनों के ख़िलाफ संघर्षों से लेकर नागरिकता-कानून-विरोधी आन्दोलन और किसान आन्दोलन आदि में – उस धारा की उपस्थिति देख सकते हैं । हजारों साल पुरानी समन्वय, सद्भाव और सहकार की संघर्षशील और सृजनशील परम्परा पर हिन्दुत्व का यह सौ साल का निन्दनीय, विघटनकारी इतिहास कदापि हावी नहीं हो सकता । हिन्दू नस्ल/राष्ट्र यदि (सावरकर के लिए) भारतीय उपमहाद्वीप के उपनिवेशीकरण के परिणामस्वरूप सामने आया, तो भारतीय राष्ट्र हर उपनिवेशीकरण के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता, समानता तथा मैत्री पर आधारित भारतीय जनसमुदाय की संघर्षशील एकजुटता का प्रतीक है ।

अन्त में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर की यह चेतावनी याद रखनी चाहिएः “अगर हिन्दू राज हक़ीक़त बनता है तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा । .. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए ।”20

टिप्पणियाँ

1. जिल्लेट आरों (2001), ‘रेसियल थ्योरीज़ इन फ़ासिस्ट इटली’, राउटलेज़, लंदन, पृ. 11, 39. इस लेख में उद्धृत सभी अँग्रेज़ी उद्धरणों का हिन्दी भावानुवाद या रूपान्तर लेखक द्वारा ।

2. साल्वेमिनी गायतानो (2018), ‘अंडर द एक्स ऑफ़ फ़ासिज़्म’, क्रिस्टी ईबुक्स.

3. ज़र्मा बेल (2009), ‘फ़्रॉम पब्लिक टु प्राइवेटः प्राइवेटाइजेशन इन 1920ज फ़ासिस्ट इटली’, पीडाएफ. researchgate.net/publication/46447401_From_Public_to_Private_Privatization_in_1920’s_Fascist_Italy

4. हन्ना अरेंत (2017), ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ टोटलिटेरियनिज़्म’, अध्याय 11, ‘द टोटलिटेरियन मूवमेण्ट’, फुटनोट 3, पेंग्विन क्लासिक्स (किंडल संस्करण).

5. कोरी रोबिन (2014), ‘कैपिटलिज़्म एण्ड नाज़िज़्म’. jacobin.com/2014/04/capitalism-and-nazism

6. ब्रेडले मैकडोनाल्ड और कैथरीन ई. यंग (2021), ‘क्रिटिकल थ्योरी, फ़ासिज़्म एण्ड एंटी-फ़ासिज़्मः रिफ़्लेक्शंस फ़्रॉम ए डेमेज़्ड पोलिटी’, ‘इमेनसिपेशंसः ए जर्नल ऑफ़ क्रिटिकल सोशल एनेलिसिस’, खण्ड 1, अंक 1, ऑर्टिकल 3, सितम्बर 2021, स्कॉलर्स जंक्शन, पृ. 1. मैक्स होरख़ाइमर की रचना ‘द ज़्यूज एण्ड यूरोप’ (1938) से उद्धृत.

7. स्पेन के गृहयुद्ध में शामिल छः भारतीय थेः प्रख्यात लेखक मुल्कराज आनंद, डॉ. अटल मेंहनलाल, डॉ. अयूब अहमद खाँ नक्शबंदी, डॉ. मैनुएल पिंटो, एक छात्र रामसामी वीरपन, और गोपाल मुकुंद हुद्दार । गोपाल मुकुंद हुद्दार (1902-1981) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य थे । 1929 से 1931 के बीच वे आर.एस.एस के सरकार्यवाह (महासचिव) थे । शीघ्र ही उन्होंने आर.एस.एस के हिन्दू साम्प्रदायिक संकीर्ण विचारों के कारण उससे दूरी बना ली । कुछ दिनों तक बंगाल के क्रान्तिकारी संगठन ‘युगांतर’ से जुड़े रहे और शस्त्रास्त्र इकट्ठा करने के आरोप में बालाघाट षडयंत्र केस के अन्तर्गत गिरफ़्तार भी हुए । जेल से छूटने के बाद इंगलैण्ड चले गये जहाँ उनका सम्पर्क कम्युनिस्ट पार्टी से हुआ और वे कम्युनिस्ट गतिविधियों में सक्रिय हो गये । । उन्हीं दिनों उन्होंने स्पेन के गृहयुद्ध (1936) में भाग लिया और वहाँ गिरफ़्तार हुए । छूटने के बाद 1939 में वे भारत आ गये । औपचारिक रूप से वे 1940 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए । स्पेन में गणतंत्रवादियों के पक्ष में ‘इंटरनेशनल ब्रिगेड’ का गठन ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की पहल पर हुआ था । इस ब्रिगेड में शामिल ब्रिटिश बटालियन का नाम इंगलैण्ड में सक्रिय प्रख्यात भारतीय कम्युनिस्ट नेता शापुरजी सकलतवाला के नाम पर ‘सकलतवाला बटालियन’ रखा गया था । सकलतवाला का 1936 में निधन हो गया था । स्पेनी गणतंत्र के समर्थन में लंदन में स्पेन-इंडिया कमिटी का गठन किया गया था । इसी कमिटी के तहत सकलतवाला की 18-वर्षीय बेटी सेहरी सकलतवाला ने मार्च 1937 में एक कार्यक्रम आयोजित किया था – इस कार्यक्रम की एक वक्ता 19-वर्षीय इंदिरा नेहरू भी थीं । जवाहरलाल नेहरू इस फ़ासिस्ट खतरे से काफ़ी चिन्तित थे और लंदन में उन्होंने भारतीयों से इस गृहयुद्ध में गणतंत्रवादियों की ओर से शामिल होने का आह्वान किया था । 1938 में गणतंत्रवादियों के साथ अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए वे इंदिरा के साथ स्पेन भी गये थे ।

डॉ. अटल मेंहनलाल इस गृहयुद्ध में शामिल होने कनाडा से डॉ. नॉरमन बेथ्यून के साथ आये थे । डॉ. बैथ्यून इस गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चल रहे जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध में शामिल होने चीन चले गये ।

8. एक मराठा (1923), ‘हिन्दुत्व’, प्रकाशकः वी.वी. केलकर, नागपुर । विनायक दामोदर सावरकर की अन्य किताबें जिन्हें इस लेख में उद्धृत किया गया हैं, वे हैः ‘हिन्दू पाद-पादशाही ऑर ए क्रिटिकल रीव्यू ऑफ़ दि हिन्दू एम्पायर ऑफ़ महाराष्ट्र’ (1925), बी.जी. पॉल एण्ड कम्पनी, मद्रास, अनुवाद और सम्पादनः एस.टी. गोडबोले, और ‘सिक्स ग्लोरियस इपोक्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ (1971), प्रकाशकः बाल सावरकर, सावरकर सदन, बम्बई – 28, सहायक प्रकाशक और एकमात्र वितरकः राजधानी ग्रंथागार, लाजपत नगर, नई दिल्ली – 24, यह सावरकर की अन्तिम कृति थी और मरणोपरांत छपी थी ।

9. न्गुगी वा थ्योंगो (1986), ‘डिकोलोनाइज़िंग द माइंडः द पोलिटिक्स ऑफ़ लैंग्वेज़ इन अफ़्रीकन लिटरेचर’, जेम्स करी लिमिटेड, लंदन, फुटनोट 15.

10. एक मराठा (1923), ‘हिन्दुत्व’, प्रकाशकः वी.वी. केलकर, नागपुर, पृ. 107-108.

11. विनायक दामोदर सावरकर (1925), ‘हिन्दू पाद-पादशाहीः ए क्रिटिकल रीव्यू ऑफ़ दि हिन्दू एम्पायर ऑफ़ महाराष्ट्र’, बी.जी. पॉल एण्ड कम्पनी, मद्रास, अध्याय viii, ‘द कर्टेन फ़ॉल्स’, पृ. 287.

12. विनायक चतुर्वेदी (2022), ‘वी.डी. सावरकर एण्ड दि पोलिटिक्स ऑफ़ हिस्ट्री’, स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यू यार्क प्रेस, अल्बानी, पृ.125-6. प्रसंगवश, 1938 के आसपास सावरकर नाज़ी जर्मनी में भी नोटिस किये जाने लगे थे । 3 नवम्बर, 1938 को इंडिया फ़ॉरेन पॉलिसी शीर्षक लेख में सावरकर ने चेकोस्लोवाकिया के जर्मन-बहुल सुडेटनलैण्ड पर जर्मनी के कब्ज़े का स्वागत किया था और नाज़ीवाद की प्रशंसा की थी । ज़वाब में नाज़ियों के आधिकारिक समाचार-पत्र में सावरकर के प्रशंसास्वरूप उनका एक परिचय प्रकाशित हुआ था । जर्मन विदेश विभाग की ख़ुफ़िया रिपोर्टों में उनके नाम, उनके लेखों तथा भाषणों और उनकी गतिविधियों का उल्लेख होने लगा था । 1940 में जर्मन विदेश विभाग ने सावरकर की रचना द इंडियन वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस ऑफ़ 1857 का जर्मन अनुवाद भी प्रकाशित किया था । वही, ‘इंट्रोडक्शन’, पृ. 22-23.

13. वही, पृ. 123.

14. सावरकर, ‘हिन्दू पाद-पादशाही’, पृ. 154.

15. सावरकर, ‘सिक्स ग्लोरियस इपोक्स’, पृ. 179-80.

16. वहीं, पृ. 62, 86.

17. वही, पृ. 63-64.

18. वही, पृ. 79-80.

19. हन्ना अरेंत, ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ टोटलिटेरियनिज़्म’, अध्याय 10, ‘ए क्लासलेस सोसायटी’, किंडल संस्करण.

20. डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर (2014), ‘डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज’, खण्ड 8, ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’, सम्पादनः बसंत मून, महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित (26 जनवरी, 1990), डॉ. आम्बेडकर फॉउंडेशन, नई दिल्ली द्वारा पुनर्मुद्रित जनवरी 2014, पृ. 358.

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मई, 2023.

‘अमृत’ काल में विष

अमृत काल में विष

प्रसन्न कुमार चौधरी

1.

हिसाब-किताब की हिंसा

सभी समुदाय इतिहास में अपने ऊपर हुए कथित अन्याय-अत्याचार का हिसाब-किताब चुकता करने लगे तो उसका अन्त मानवजाति की सामूहिक तबाही में होगा । इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में और अलग-अलग क्षेत्रों में हम इस सामूहिक तबाही का साक्षात् कर चुके हैं, और आज भी कर रहे हैं ।

हजारो वर्षों के मानवजाति के इतिहास में प्रत्येक मानव-समुदाय के पास अपनी स्मृतियाँ हैं, गौरव के अपने क्षण हैं, अपने दुःख हैं, अपने शत्रु और मित्र हैं, अपने प्रेत हैं – कुल मिलाकर, अपने-अपने किस्से हैं जिनमें थोड़ा-बहुत इतिहास है, और बहुत-सारी अपनी-अपनी कुण्ठाएँ हैं, अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं ।

मनुष्य द्वारा मनुष्य का, समुदाय द्वारा समुदाय का शोषण-उत्पीड़न-दमन ; विरोधी कुलों, जनों, जातियों, वर्गों, राष्ट्रीयताओं का जनसंहार ; युद्ध ; श्रेष्ठ-निम्न का भाव ; आदि किसी एक मानव समाज की विशेषता नहीं रही है – (कुछेक अपवादों को छोड़कर) प्रायः सभी मानव समाजों में हम इन प्रवृतियों का साक्षात् कर सकते हैं ।

सैकड़ो वर्षों के दौरान कोई समुदाय एक ही अवस्था में नहीं रहता – विजेता समुदाय शिखर से च्युत होकर गुमनामी में जा चुके होते हैं, और कई अनजान अथवा विजित समुदाय अपनी गुमनामी या पराधीन अवस्था से निकल कर अपने विजय अभियान में संलग्न होते हैं । ऐतिहासिक अन्याय के प्रतिकार के वादे-नारे वर्तमान में अपने पक्ष को गोलबन्द करने, अपनी हिंसक कार्यवाहियों को ज़ायज़ ठहराने, और अपना वर्चस्व स्थापित करने का माध्यम होते हैं । इतिहास के नाम पर एक समुदाय दूसरे समुदाय पर बलपूर्वक अपना निर्णय थोप देता है, उसे उसके सम्मान, उसकी सम्पत्ति और सुकून से वंचित कर देता है ।

2.

पहचान

किसी व्यक्ति, संस्था, समुदाय, समाज और राष्ट्र की पहचान के मुख्यतः दो आधार रहे हैं । पहला,सम्बन्धित व्यक्ति, संस्था, समुदाय, समाज और राष्ट्र अपनी उपलब्धियों, नाकामियों और चुनौतियों के आधार पर अपनी पहचान स्थापित करता है । दूसरा, कोई व्यक्ति, संस्था, समुदाय, समाज और राष्ट्र किसी ‘अन्य’ व्यक्ति, संस्था, समुदाय, समाज और राष्ट्र के विरोध, उसके प्रति नफ़रत, सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन से उसके बहिष्कार तथा निष्कासन के आधार पर अपनी पहचान कायम करता है । इतिहास में हम पहचान के इन दोनों आधारों का साक्षात् करते हैं । अनेक मामलों में दोनों के मिले-जुले रूपों का भी, अथवा एक बड़े काल-खण्ड में हम किसी समाज को इन दोनों आधारों पर अपनी पहचान से ज़द्दोज़हद करते हुए भी देखते हैं ।

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हमारे नेताओं ने भारतीय समाज की पहचान के लिए पहला आधार चुना – स्वतंत्र भारत अपनी चुनौतियों, अपनी उपलब्धियों और नाकामियों से पहचाना जाएगा, न कि किसी ‘अन्य’ समुदाय, समाज या देश के प्रति नफ़रत से, न कि किसी ‘अन्य’ समुदाय के बहिष्कार और निष्कासन से । अँग्रेज़ भी ‘बहिष्कृत अन्य’ नहीं थे । मुस्लिम और ईसाई भी नहीं । दरअसल, यहाँ कोई ‘अन्य’ था ही नहीं । लम्बे औपनिवेशिक शासन तथा विभाजन की त्रासदी के बावज़ूद, स्वतंत्र भारत की भावी दिशा निर्देशित करने वाला यह ‘निर्णायक चुनाव’ था । इस चुनाव के पीछे अनेक समुदायों, पंथों और भाषाओं वाले हजारो वर्ष पुराने भारतीय समाज का ऐतिहासिक अनुभव था। ‘नियति से किया गया वादा था’ ।

पचहत्तर साल बाद इस चुनाव को गम्भीर चुनौती दी जा रही है और उस ऐतिहासिक निर्णय को पलटा जा रहा है । मुस्लिम ‘अन्य’ के विरोध, उसके प्रति नफ़रत और सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन से उसके बहिष्कार और निष्कासन की मुहिम एक धारा के रूप में पहले से मौज़ूद तो थी ही, अब वह शासक विचारधारा बन चुकी है और अनवरत् आक्रामक अभियान का रूप ले चुकी है ।

शताब्दियों से साथ-साथ रहनेवाले समुदायों के बीच सद्भाव और विवाद के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । तनाव और विवाद पैदा करने के अनेक मुद्दे बनाये और गढ़े जा सकते हैं । कोशिश यह है कि निरन्तर किसी-न-किसी बहाने मुस्लिम-विरोधी (ईसाई-विरोधी भी) शत्रु-भाव को भड़काते रहा जाए – हिन्दू समाज इस शत्रु-भाव के ज्वर में निरन्तर तपता रहे ताकि वर्चस्ववादी शक्तियों के हित में इसका तापमान इच्छानुसार बढ़ाया या घटाया जा सके ।

इन कोशिशों के दुष्परिणाम के रूप में पूरा भारतीय समाज अन्दरूनी तौर पर क्षय-रोग से ग्रसित होता जा रहा है । ‘अमृत’ काल में भारतीय समाज के शरीर में विष घोला जा रहा है ।

भारतीय समाज की पहचान के आधार को बदलने की यह प्रक्रिया भारतीय समाज के विघटन की, अन्दरूनी कलह की जिस प्रक्रिया को जन्म दे रही है, उसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता, समानता, मैत्री और समावेशी समृद्धि के आधार पर भारतीय समाज की पुनर्रचना की प्रक्रिया को ज़बर्दस्त आघात पहुँचा है ।

नफ़रत एक संक्रमणशील क्रिया है । वह किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं रह सकती । शासक वर्गों की राजनीतिक ज़रूरतों के अनुसार समाज की नयी श्रेणियाँ, नये समुदाय उसके आग़ोश में आते जाएँगे । मुस्लिम-विरोध पर आधारित हिन्दू गोलबन्दी कालक्रम में विभिन्न हिन्दू समुदायों के बीच पारस्परिक नफ़रत पर आधारित गिरोहबन्दियों में अधोपतित होने को बाध्य है ।

3.

पूंजी का प्रायोजन

स्वतंत्रता के साठ वर्षों के दौरान भारतीय पूंजी अपने विकास की जिस अवस्था में जा पहुँची थी, उससे आगे छलांग लगाने के लिए उसे देश के प्राकृतिक, सार्वजनिक और निजी संसाधनों पर अबाध नियंत्रण चाहिये था, और इस अबाध नियंत्रण के लिए चाहिये था श्रम कानून, भूमि-अधिग्रहण कानून, वनाधिकार कानून, प्रदूषण-पर्यावरण से सम्बन्धित कानून में निर्णायक बदलाव और कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट । कुल मिलाकर, इसका मतलब था मज़दूरों, किसानों, आदिवासियों और अन्य मेहनतकश-वंचित समुदायों के अर्जित अधिकारों को निरस्त करना – इन समुदायों के ख़िलाफ़ अघोषित युद्ध छेड़ना । ऐसा करना संविधान प्रदत्त बुनियादी अधिकारों का हनन किये बिना और मेहनतकश समुदायों के बीच विभाजन तथा कलह पैदा किये बिना संभव नहीं था । पूंजी की इन मांगों को पूरा करने में काँग्रेस की असमर्थता की स्थिति में कॉरपोरेट घरानों के प्रभावशाली हिस्से ने ऐतिहासिक रूप से उपलब्ध वैचारिक-राजनीतिक धाराओं में हिन्दुत्व की वैचारिक-राजनीतिक धारा पर अपना दाँव लगाया । सत्ता में आते ही इन नये शासकों ने कॉरपोरेट घरानों की मांगों को ‘फ़ास्ट ट्रैक’ पर डाल दिया ।

हिन्दुत्व की राजनीति के इस उभार के पीछे कॉरपोरेट घरानों के प्रभावशाली हिस्से का प्रायोजन है, उसकी अकूत धन-शक्ति है । सामाजिक-आर्थिक जीवन पर इन घरानों के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ आम मेहनतकश समुदाय की काट के रूप में अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति शत्रुभाव पर आधारित कथित आक्रामक हिन्दू गोलबन्दी है ।

स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर ‘नियति से किये गये वादे’ की जगह ‘कॉरपोरेट घरानों के साथ हिन्दुत्व की शक्तियों का किया गया वादा’ है ।

इसके साथ ही परिवर्तनकामी जीवन-मूल्यों पर भी प्रहार किया जा रहा है । कहा जा रहा है – मेहनतकश अवाम नहीं, कॉरपोरेट घराने ही अर्थव्यवस्था की चालक शक्तियाँ हैं, वही हमारी प्रेरणा हैं, हमारे ‘रोल मोडेल’ हैं ; उन्हें बिना किसी सार्वजनिक अथवा राजकीय नियंत्रण के, बेरोकटोक अपना कारोबार करने देना चाहिये ; देश में काले धन का असली स्रोत वे नहीं, आम मध्य वर्ग है ; धन, अधिक से अधिक धन, कमाना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिये ; इतिहास में न्याय कभी नहीं रहा, इसलिए न्याय की बात फ़िज़ूल है ; सरकार राशन दे रही है, मकान दे रही है, सबकी ज़ेब में स्मार्ट फ़ोन है ही, तो और क्या चाहिये ; अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की जगह किसी वैकल्पिक प्रणाली के बारे में बात करना, उसके बारे में सोचना और काम करना निरर्थक है; आदि, आदि । यथास्थितिवादी शक्तियाँ पहले भी इस तरह की बातें करती ही थीं ।

हक़ीक़त यह है कि आज सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में जो कुछ अच्छा है, वह किसी-न-किसी सपने, किसी-न-किसी संघर्ष और वैकल्पिक प्रयास का ही परिणाम है । हमारी स्वतंत्रता भी ।

सौहार्द, सम्मान, समता, सहकार, सह-भागिता, स्वतंत्रता कोरे शब्द नहीं है । ये मानवजाति की चेतना में अन्तर्निहित चिर-स्थायी भाव हैं, नफ़रत से कहीं अधिक प्रभावशाली । नफ़रत की आँधियों, अनगिनत युद्धों और बर्बरताओं के बावज़ूद मानवजाति का अपनी सृजनात्मक ऊर्जा के साथ बना रहना इसका जीवंत प्रमाण है । भारतीय समाज भी इसका साक्षी है, और आगे भी रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं ।

4.

पुनर्रचना की प्रतिक्रिया

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही भारतीय समाज की पुनर्रचना का प्रयास और आन्दोलन भी आरम्भ हो चुका था । स्वतंत्रता के बाद इन प्रयासों और आन्दोलनों ने प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया और भारतीय समाज की पुनर्रचना की यह प्रक्रिया जारी रही – भले ही उसकी रफ़्तार धीमी और उसकी उपलब्धियाँ आधी-अधूरी ही क्यों न रही हों ।

इस पुनर्रचना की प्रक्रिया में परम्परागत रूप से वर्चस्व का सुख भोगनेवाले अभिजात्य समूहों को पीछे हटना पड़ा । इन समूहों ने महिलाओं, वंचित समुदायों, श्रमिकों, किसानों आदि के पक्ष में उठाये गये सकारात्मक कदमों और सुधारों को कभी मन से स्वीकार नहीं किया । वे अपना बदला लेने की ताक में तो थे ही – हिन्दुत्व के बैनर तले अब वे अपने विरोधियों से निपटने की साध पूरी कर सकते थे, और सारे सुधारों को ‘युरोप से प्रेरित’ और उसकी ‘नकल’ बता कर उसे हिन्दू-विरोधी, भारत-विरोधी क़रार दे सकते थे । भाँति-भाँति के इन विक्षुब्ध समूहों में सती-प्रथा के उन्मादी समर्थकों से लेकर भूमि-श्रम-पूंजी के बाज़ार को पूरी तरह खोल देने को लेकर बेताब तथा काँग्रेस से उम्मीद खो बैठे कॉरपोरेट घरानों की प्रभावशाली लॉबी तक शामिल थी । इसमें सवर्ण अभिजात्यों के वे समूह थे जो सार्वजनिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं, ‘शूद्रों’ और आदिवासियों की उत्तरोत्तर बढ़ती भागीदारी तथा दावेदारी से मन-ही-मन आग बबूला हो रहे थे । इसमें सम्मान, पद, पुरस्कार आदि से वंचित रह गये साहित्यकार, बुद्धिजीवी, प्राध्यापक आदि भी शामिल थे, भारत माता की वन्दना में और जगद्गुरु भारत की प्रशस्ति में लिखा जिनका प्रबन्ध काव्य तथा शोध-ग्रंथ पाठ्य-पुस्तकों में स्थान नहीं पा सका था, प्राचीन भारत में मस्तिष्क के सफल प्रत्यारोपण जैसे विषयों पर जिनके अति-महत्वपूर्ण शोध-कार्यों को न तो कोई प्रोत्साहन मिल पाया था और न ही कोई प्रायोजक । (कोई व्यवस्था परिपूर्ण, निर्दोष नहीं होती । इन विक्षुब्धों की कुछ शिकायतें सही भी हो सकती हैं, अथवा थीं, लेकिन अब वे और प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे और उपलब्ध मौके का पूरा फ़ायदा उठा लेना चाहते थे ।)

स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर अब ये विक्षुब्ध नहीं शासक समूह बन चुके हैं । उनके ‘शोध-कार्यों’ को अब सत्ता का प्रोत्साहन मिल रहा है ; सम्मान, पद, पुरस्कार की सारी कोर-कसर पूरी की जा रही है ; सार्वजनिक सम्पत्ति और बचत पर कॉरपोरेट घरानों का अब पुख़्ता नियंत्रण है ; श्रमिकों, किसानों तथा आदिवासियों को उनकी औकात बतायी जा रही है ।

पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर भारतीय समाज सामाजिक पुनर्रचना से सशक्त हुए समुदायों, और उसी प्रक्रिया के क्रम में विक्षुब्ध हुए किन्तु अब सत्तासीन समूहों के बीच निर्णायक संघर्ष से ग़ुजर रहा है ।

सामाजिक पुनर्रचना के लिए चले आन्दोलन कालक्रम में सम्प्रदायों का रूप ले लेते हैं । वर्चस्वशाली शक्तियाँ उनके नायकों तथा प्रतीकों का अपहरण कर लेती हैं और इन नायकों तथा प्रतीकों को उनके परिवर्तनकारी सार से वंचित कर उन्हें पत्थर और कंक्रीट के बेज़ान स्मारकों में तब्दील कर देती हैं ।

5.

अन्यता

‘अन्यता’ युरोपीय अवधारणा नहीं है । ‘अन्य’ की अवधारणा भारतीय समाज में इस क़दर हावी रही कि उसने ‘भारतीय’ होने के बोध को ही कमोबेश नामुमक़िन बना दिया । शूद्र-अन्त्यज-असुर के रूप में ‘अन्दरूनी अन्य’ तथा म्लेच्छों के रूप में ‘बाह्य अन्य’ – भारतीय ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था की अस्मिता इन्हीं ‘बहिष्कृत अन्यों’ के संदर्भ द्वारा परिभाषित होती थी । (इतिहास के अलग-अलग दौर में अलग-अलग समुदाय म्लेच्छ के रूप में चिह्नित किये गये ।) आर्य-ब्राह्मणों का आर्यावर्त्त/भारतवर्ष ‘अन्यों’ का – अछूतों, शूद्रों, असुरों का भारत नहीं बन सका ।

युरोप भी (प्रति या विरोधी के रूप में) ‘अन्य’ नहीं है । भारत और युरोप दोनों जगह मनुष्य ही रहते हैं – मानवजाति की चारित्रिक विशिष्टताएँ दोनों जगहों के मानव-समाजों में पायी जाती हैं। प्रकृति-प्रदत्त सीमाओं के परे जाने की उद्यमिता, आविष्कार-अन्वेषण-नवाचार की प्रवृत्ति, और (जैसाकि हम पहले बता चुके हैं) मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण-उत्पीड़न-दमन, श्रेष्ठ-निम्न का भाव, युद्ध, जनसंहार आदि – प्राय: सभी मानव समाजों में ये प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं । अलग-अलग समयों और क्षेत्रों में अलग-अलग मानव-समाजों में इनका अनुपात अलग-अलग होता है । विभिन्न क्षेत्रों में बसनेवाले समाजों का विकास ताल मिलाकर नहीं होता ।

तथापि यह सही है कि पिछले क़रीब पाँच सौ सालों में वाणिज्यिक-औद्योगिक-वित्तीय पूंजीवाद के दौरान युरोप के देशों द्वारा जिस तरह प्रकृति का दोहन किया गया, अमेरिका से लेकर अफ़्रीका और एशिया के समाजों को जिस बर्बरता के साथ रौंदा और लूटा गया, जितना लोमहर्षक अत्याचार तथा जनसंहार किया गया, दास-प्रथा के रूप में तथा औपनिवेशिक प्रणाली के तहत सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में जो क़हर ढ़ाया गया, उसकी तुलना अतीत के किसी भी दौर के साथ नहीं की जा सकती । (विश्व-युद्धों तथा हिरोशिमा-नागासाकी के परमाणु संहार की बात हम यहाँ नहीं करेंगे ।) वैसे, हिन्दुत्ववादी शक्तियों की दिलचस्पी युरोपीय शक्तियों की इन बर्बरताओं तथा जनसंहारों में नहीं, उनकी दिलचस्पी मुसलमानों को सबसे बर्बर साबित करने में है ।

प्रत्येक दौर में, और प्राय: हर समाज में ऐसे व्यक्ति, ऐसे विचार और ऐसे आन्दोलन भी होते रहे हैं जो विभिन्न रूपों में मनुष्य द्वारा मनुष्य और समुदाय द्वारा समुदाय के शोषण-उत्पीड़न, श्रेष्ठ-निम्न के भाव, जनसंहारों आदि का प्रतिरोध, तथा मनुष्यों और समुदायों के बीच परस्पर सम्मान, सद्भाव तथा समानता का पक्षपोषण करते रहे हैं । भारत में भी प्राचीन काल से ही ऐसे विचारों और आन्दोलनों की लम्बी परम्परा रही है ।

6.

समावेशी मैत्री

‘अन्य’ की अनुपस्थिति का अर्थ है सब की स्वीकृति । यही एक समावेशी समाज की बुनियाद है ।

राजमहल के षडयंत्रों और युद्धों से ग़ुजरने के बाद तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अशोक ने अपने गुफा-लेख में यही उत्कीर्ण कराया : समवाय एव साधु । मैत्री ही स्तुत्य है ।

बाबासाहब आम्बेडकर हिन्दुओं के दार्शनिक तथा पंथ-सम्बन्धी विचारों को तीन धाराओं में बाँटते हैं और उन्हें क्रमश: (क) ब्रह्मवाद, (ख) वेदान्त, और (ग) ब्राह्मणवाद नाम देते हैं । उपनिषदों के महावाक्य1 (यथा, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि) को ब्रह्मवाद का सार बताते हुए वे लिखते हैं कि ब्रह्म के इस सिद्धान्त के निश्चित सामाजिक निहितार्थ हैं जिनका जनतंत्र के आधार के रूप में भारी महत्व है । अगर सभी व्यक्ति ब्रह्म के ही अंश हैं तो सभी समान हैं और सभी को समान स्वतंत्रता का उपभोग करना चाहिये । इस लिहाज़ से, उनके अनुसार, इस बात में रत्ती भी संदेह नहीं हो सकता कि कोई सिद्धान्त जनतंत्र का उतना मज़बूत आधार प्रदान नहीं करता जितना ब्रह्म का सिद्धान्त । वे आगे लिखते हैं, “जनतंत्र के पश्चिमी अध्येताओं ने यह विश्वास फैलाया है कि जनतंत्र का उद्भव या तो ईसाई मत से हुआ है या प्लेटो से, और इनके अलावा जनतंत्र का कोई दूसरा प्रेरणा-स्रोत नहीं रहा है । अगर उन्हें यह पता होता कि भारत ने भी ब्रह्मवाद का सिद्धान्त विकसित किया था जो जनतंत्र को बेहतर आधार प्रदान करता है, तो (इस मामले मे) वे इतने कट्टर नहीं होते ।”

बहरहाल, अन्य की अनुपस्थिति तथा एक समावेशी जनतांत्रिक समाज के लिए बेहतर बुनियाद प्रस्तुत करने वाले ब्रह्म के सिद्धान्त की उपस्थिति के बावज़ूद उसे धर्म का आधार नहीं बनाने और एक नये समाज के निर्माण में विफल होने को वे एक बड़ी पहेली बताते हैं । उनके अनुसार, “इसका परिणाम यह हुआ कि एक ओर हमारे पास ब्रह्मवाद का सबसे जनवादी उसूल था, और दूसरी ओर जातियों, उपजातियों, अछूतों, आदिम जनजातियों, अपराधी जनजातियों से भरा-पड़ा समाज ।”2

जनतंत्र की बुनियाद है भाईचारा । राज्य का कानून स्वतंत्रता और समानता को कायम नहीं रखता । उसे कायम रखता है समाज में भाईचारा । आम्बेडकर फ़्रासीसी क्रान्तिकारियों द्वारा प्रयुक्त फ़्रेटरनिटी (भाईचारा) शब्द की जगह बुद्ध के शब्द ‘मैत्री’ को उपयुक्त मानते हैं । यह समाज में मैत्री है जो स्वतंत्रता और समानता को आधार प्रदान करती है – “मैत्री की अनुपस्थिति में स्वतंत्रता समानता को, और समानता स्वतंत्रता को नष्ट कर देगी ।” (रैदास की वाणी में यह मित्र-भाव मीतु-भाव है : ‘जो हम सहरी सु मीतु हमारा’ ।)

क़रीब डेढ़ हजार वर्षों तक (ईसा पूर्व 500 से ईस्वी सन् 1000 तक) वैचारिक जगत में बौद्ध-मत की बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उपस्थिति काफ़ी प्रभावकारी थी । लेकिन ब्राह्मणवादी मीमांसकों के लिए बौद्ध-मत ‘बहिष्कृत अन्य’ था । आज तक ब्राह्मण साहित्य में उस काल की जो चर्चा मिलती है, उसमें या तो उसे अत्यन्त गौण स्थान दिया गया है या फिर उसकी बिल्कुल उपेक्षा की गई है ।3 ब्राह्मण टोलों में बौद्ध ग्रंथों का पठन-पाठन निषिद्ध था ।

कहने की ज़रूरत नहीं कि स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के समय हमारे समाज के महत्वपूर्ण घटकों के प्रति मैत्री-भाव को सुनियोजित रूप से नष्ट किया जा रहा है ।

7.

प्रामाणिक आत्म का मायाजाल

भारत की समावेशी पहचान को चुनौती देने के बौद्धिक प्रयास अब काफ़ी तेज हो गये हैं । एक लेखक भारत के ‘प्रामाणिक आत्म की पहचान’ और ‘अतीत के भारत के सनातन मूल्यबोध के पुनराविष्कार’ के लिए ‘प्रामाणिक संस्कृतात्मा के प्रत्यभिज्ञान की कार्ययोजना’4 प्रस्तावित करते हैं । भारत के ‘प्रामाणिक आत्म’ की खोज उन्हें दो हजार वर्ष पहले की दुनिया में ले जाती है : “पिछले दो हजार वर्षों के दौरान विदेशी आक्रमणों, ऐतिहासिक उथल-पुथल और विशेषकर औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने भारत के सांस्कृतिक-साभ्यतिक बोध को धूमिल, कलुषित और अन्यथा नहीं कर दिया ? इससे उसके स्वरूप और ऐतिहासिक क्रियान्वयन की सातत्यता ही मानो छिन्न-भिन्न हो गयी है ।” हाइडेगर के ‘प्रोजेक्ट ऑफ़ थॉट’ से प्रेरित यह बौद्धिक परियोजना भारत के नवनिर्माण की ‘राजाराममोहनीय योजना जिसमें भारत की आत्मा को खोजने के बजाय युरोप की आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई’ के लिए पण्डित जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेवार ठहराती है और ‘उग्र हिन्दू रिवायवलिज़्म’ का निम्नलिखित शब्दों में समर्थन करती है, “एक दूसरी विचारधारा ‘नान्य: पंथा’ के रूप में उपनिवेशवाद का समाधान हिन्दू रिवायवलिज़्म में देखती है । आजकल इसे दक्षिणपंथ कहा जाता है । इस विचारधारा को अपने ही देश में बहुत भर्त्सना का सामना करना पड़ा है । यहाँ तक कि सम्प्रति इसे फ़ासीवाद कहा जाता है । यद्यपि इनमें कुछ भी ऐसा नहीं है । चूँकि स्वतंत्रता से निकट पूर्व और पश्चात् जिन विजातीय और विधर्मी विचारधाराओं ने भारत पर शासन किया और अपने लाभ के लिए इस देश की बहुसंख्यक हिन्दू-अस्मिता के साथ न्याय नहीं किया, इस कारण इस विचारधारा में उग्रता का पुट आना स्वाभाविक था । अन्यथा इसका चरित्र राजनीतिक कम और सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी अधिक है ।”

भारत के प्रामाणिक आत्म की खोज में लेखक दो हजार वर्ष पहले के भारत में तो जाते ही हैं, साथ ही सगर्व यह दावा भी करते हैं, “भारतीयों की अन्य संस्कृतियों के प्रति ज्ञानात्मक उदासीनता के दो कारण –इनमें पहला यह कि भारतीयों ने पहले ही एक ऐसी आत्मनिर्भर और आत्मपूरित व्यवस्था तैयार कर ली थी जो जीवन और जगत् की तमाम ज़रूरतों, जिज्ञासाओं का समाधान करने में सक्षम थी । अत: उन्हें दूसरी संस्कृतियों से कुछ सीखने की आवश्यकता जान नहीं पड़ी । दूसरा एक और गम्भीर कारण यह कि भारतीयों के लिए अपनी अस्मिता को परिभाषित करने का संदर्भ कभी ‘अन्य’ रहा ही नहीं, जैसे कि युरोपियों के लिए यह सदैव रहा है । आत्म को हमेशा यहाँ आत्म-संदर्भी रूप में स्वीकार किया गया है ।”

बहरहाल, प्रामाणिक संस्कृतात्मा के प्रत्यभिज्ञान की बौद्धिक परियौजना के संदर्भ में फ़िलहाल इतना कहना ही पर्याप्त है :

क. सारे प्रमाण दिक्-काल सापेक्ष हैं, शर्तों से बँधे हैं – निरपेक्ष रूप से, अन्तिम तौर पर कुछ भी प्रामाणिक नहीं है । प्रामाणिक को संदिग्ध बनाना विचार और विज्ञान का प्राथमिक कार्यभार है – विचार और विज्ञान का विकास प्रामाणिक को संदिग्ध बनाने की प्रक्रिया में ही होता है, और यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है ।

उपनिवेश बनने से पहले, या दो हजार वर्ष पहले भी, कोई ‘प्रामाणिक भारत’ नहीं था । ‘प्रामाणिक संस्कृतात्मा’ दार्शनिक लिहाज़ से एक निरर्थक, शाब्दिक बाज़ीग़री है ।

ख. ‘अन्य’ की अवधारणा युरोपीय अवधारणा नहीं है (सम्बन्धित लेख में ‘युरोप’, ‘विधर्मी’/ ‘विजातीय’ विचारधारा का प्रयोग ‘अन्य’ के अर्थ में किया गया है ।) पहले हम इस विषय पर चर्चा कर चुके हैं ।

ग. सृष्टि और समाज में कहीं भी, कभी भी आत्मपूरित और आत्मनिर्भर व्यवस्था नहीं रही है । दरअसल ऐसी किसी व्यवस्था के अस्तित्व का विचार जड़ता तथा आत्म-विनाश का मार्ग प्रशस्त करता है, अपनी कूपमंडूक अहमन्यता का भोंडा प्रदर्शन है, और अपनी दासता का आमंत्रण है । क्या शानदार ‘आत्मनिर्भर और आत्मपूरित व्यवस्था थी’ जिसने शताब्दियों तक उपनिवेशीकरण का मार्ग प्रशस्त कर दिया !

विकासमान, सतत् परिवर्तनशील सृष्टि और समाज में सारी व्यवस्थाएँ शर्तों से बँधी, सापेक्ष और अपूर्ण हैं, परस्पर निर्भरशील हैं ; जीवन और जगत की जरूरतों, जिज्ञासाओं के सारे समाधान दिक्-काल से बँधे हैं, संक्रमणशील हैं । जिन्हें दूसरों से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, वे दूसरों की दासता की जंजीरों में जकड़े जाते हैं ।

दूसरों से कुछ नहीं सीखने और बहिष्कृत अन्यों की उपस्थिति ने कालक्रम में उपनिवेशीकरण की राह आसान कर दी ।

8.

हिन्दुत्व और हिन्दी

हिन्दी को हिन्दुत्व के साथ नत्थी करने का अपना एक इतिहास रहा है । कोई भाषा अपने स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया में सतत् समावेशी समुदाय की रचना करती चलती है । हिन्दी को हिन्दुत्व के साथ नत्थी करने के प्रयासों ने हिन्दी की इस स्वाभाविक विकास प्रक्रिया को बाधित किया है । इससे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच का सौहार्द भंग हुआ है और समय-समय पर इसने सामाजिक तनावों को जन्म दिया है ।

आज जब हिन्दुत्व की शक्तियाँ सत्ता में आने के बाद अपनी आक्रामक मुहिम में जुटी हुई हैं, हिन्दी को सर्वप्रथम हिन्दुत्व के साथ नत्थी किये जाने के प्रयासों से छुटकारा पाना होगा और उसे हिन्दुत्व के प्रतिरोध की अग्रणी भाषा बननी होगी – आज यह हिन्दी तथा हिन्दी समुदाय के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है । इस प्रतिरोध का भी अपना एक इतिहास रहा है ।

टिप्पणियाँ

1. पाँच औपनिषद महावाक्य : (क) अहं ब्रह्मस्मि (मैं ब्रह्म हूँ) – बृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.10), (ख) तत्त्वमसि (वह तुम हो) – छान्दोग्य उपनिषद् (6.8.7), (ग) सर्वं खल्विदं ब्रह्म (यह समस्त जगत ब्रह्म ही है) – छान्दोग्य उपनिषद् (3.14.1), (घ) अयम् आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है) – माण्डुक्य उपनिषद् (1.2), और (ङ) प्रज्ञानं ब्रह्म (सम्यक ज्ञान ही ब्रह्म है) – ऐतरेय उपनिषद् (1.2)

2. बी. आर. आम्बेडकर, ‘रिड्ल्स इन हिन्दुइज़्म : रिड्ल नं. 22’, किंडल संस्करण, वर्ष और प्रकाशक का नाम नहीं । सारे उद्धरण इसी पुस्तक से लिये गये हैं । हिन्दी भावानुवाद लेखक द्वारा ।

3. दया कृष्ण, 2001, ‘न्यू पर्सपेक्टिव इन इंडियन फ़िलोसॉफ़ी’, रावत पब्लिकेशंस, जयपुर और नयी दिल्ली, पृष्ठ 21 । और देखें, शैल मायाराम (सं), 2014, ‘फ़िलोसॉफ़ी एज़ सम्वाद एण्ड स्वराज : डायलोजिकल मेडिटेशंस ऑन दयाकृष्ण एण्ड रामचन्द्र गांधी’, सेज पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली में मुस्तफ़ा ख़वाज़ा का लेख ‘द डायलोग मस्ट कण्टीन्यू’, पृष्ठ 110 ।

4. अम्बिकादत्त शर्मा, 2018, ‘भारतीय मानस का वि-औपनिवेशीकरण : प्रामाणिक संस्कृतात्मा के प्रत्यभिज्ञान की कार्य योजना’, प्रतिमान, वर्ष 6, अंक 12, जुलाई-दिसम्बर, 2018, पृष्ठ 53-68 । सारे उद्धरण इसी लेख से हैं ।

जून, 2022

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नवज्योति की नव-मीमांसा

नवज्योति की नव-मीमांसा

हिन्दुत्व का दार्शनिक विमर्श

प्रसन्न कुमार चौधरी

1. परम्परा और आधुनिकता

युरोपीय आधुनिकता और गैर-युरोपीय परम्पराओं के बीच सम्बन्ध, उनके बीच टकराव और उनकी अन्तःक्रियाएँ पिछली दो शताब्दियों में बौद्धिक विमर्श का अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय रही हैं । दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों ने इस विषय पर समग्रता में, और अपने-अपने देशों के संदर्भ में, गहन मंथन किया है और इस विषय पर विपुल साहित्य भी उपलब्ध है । बहरहाल, यह सिर्फ बौद्धिक विमर्श तक ही सीमित नहीं रहा है ; यह प्रश्न इन शताब्दियों में चले सभी राष्ट्रीय मुक्ति अथवा स्वतंत्रता संग्रामों और सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आन्दोलनों का भी केन्द्रीय प्रश्न रहा है और आज भी है । हमारा आज का समाज इन्हीं अन्तःक्रियाओं का प्रतिफल है । इसके विस्तार में जाने के बजाय एशिया के तीन प्रमुख देशों (जापान, चीन और भारत – जिन्होंने युरोपीय आधुनिकता के सम्मुख तीन अलग-अलग मार्ग अपनाये) का तुलनात्मक अध्ययन हमारे लिए काफ़ी शिक्षाप्रद हो सकता है ।

विचरण* में नवज्योति सिंह के साथ उदयन वाजपेयी का संवाद भी इसी बहुप्रचलित विषय पर केन्द्रित है । वैसे इसमें आधुनिकता कम, परम्परा के सूत्र पर ज़्यादा ज़ोर है । नवज्योति युरोपीय परम्परा का उत्स ग्रीक परम्परा में देखते हैं, और इस तरह संवाद ग्रीक और भारतीय परम्परा में फ़र्क को रेखांकित करने तथा इस फ़र्क के कारण उत्पन्न सभ्यतागत विभेदों के निरूपण पर केन्द्रित हो जाता है – हम और वे पर । ‘पहला रास्ता यूनानी नगर का है, दूसरा सामी सभ्यताओं का और तीसरा हमारी सनातनी व्यवस्था । .. सनातनी सभ्यता स्मृतिमूलक और असुरों से देवताओं के संघर्ष को लेकर बनी है ।’ (पृष्ठ 38)

पुस्तक के आरम्भ में ही नवज्योति अपनी केन्द्रीय चिन्ता स्पष्ट कर देते हैं और पूरी बातचीत इसी चिन्ता के इर्द-गिर्द घूमती है : ‘अभी तो मुख्य धाराएँ यूनान और आधुनिक युरोप की हैं, जिनमें विधायक शक्ति है । ये धाराएँ हर जगह की वैचारिकी बन रही हैं । .. हमारी धारा में विधायक शक्ति का अभाव हो गया है । हमारे यहाँ पूरा वाङ्मय है, जीवन शैली है, पर विधायक शक्ति नहीं है । .. इस धारा में विधायक शक्ति कैसे लायी जाय ? इसके लिए आवश्यक है कि यह धारा यूनान और आधुनिक युरोप की दृष्टियों से संवाद करे ।’ (पृ. 14)

परम्परा के सूत्र पकड़ कर आधुनिकता से संवाद कोई नई बात नहीं है । पिछले दो सौ वर्षों के दौरान सभी विचारकों/आन्दोलनों ने ऐसा ही करने का दावा किया है । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किसने परम्परा का कौन-सा सूत्र पकड़ कर आधुनिकता की किस धारा के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश की है और उसकी क्या उपलब्धि है । विवाद का प्रश्न यही है ।

इसलिए सबसे पहले यह देखना ज़रूरी है कि नवज्योति की नज़र में भारतीय परम्परा क्या है और किस परम्परा में वे विधायक शक्ति लाना चाहते हैं ।

2. आईना एक चेहरे अनेक

भारतीय परम्परा एक ऐसा आईना है जिसमें झाँकने से हजार चेहरों का अक़्श उभर आता है । इसमें वेदों-उपनिषदों के ऋषि-मुनि हैं, न्याय के गौतम हैं, वैशेषिक के कणाद हैं, सांख्य के कपिल हैं, योग के पतञ्जलि हैं, पूर्व-मीमांसा के जैमिनि हैं, और उत्तर-मीमांसा (अथवा वेदान्त) के बादरायण । इसमें आजीवक हैं, तीर्थंकर महावीर हैं, गौतम बुद्ध हैं, चार्वाक या लोकायत के अनुयायी हैं । इसमें तिरुवल्लुवर हैं, आलवार संत हैं, चौरासी सिद्ध हैं, तान्त्रिक सम्प्रदायों के अधिष्ठाता हैं, वसव हैं, शूद्रों तथा अन्त्यज समुदायों से निकले अनेक समाज-सुधारक संतों-कवियों के चेहरे हैं । (मध्यकाल और आधुनिक काल को छोड़ दीजिए, सिर्फ़) प्राचीन भारत की विचार परम्परा में ही इतनी विविधता है कि उसकी कोई संक्षिप्त झाँकी भी यहाँ प्रस्तुत नहीं की जा सकती । गणितज्ञों, शिल्पकारों, आयुष वैज्ञानिकों, खगोलविदों, भाषाशास्त्रियों आदि की तो बात ही छोड़िए । अगर आप प्राचीन काल में विभन्न विचार-सम्प्रदायों के विचारकों को एक जगह इकट्ठा देखना चाहते हैं तो हम आपको हर्षकालीन बौद्ध भिक्षु (मैत्रायणी शाखा के ब्राह्मण) दिवाकर मित्र के आश्रम में लिए चलते हैं । हर्ष जब अपनी बहन राज्यश्री की खोज में एक शबर युवक निर्घात की मदद से विन्ध्यवटी स्थित दिवाकर मित्र के आश्रम में पहुँचे तो उस समय निम्नलिखित सम्प्रदायों के दार्शनिक, भिक्षु वहाँ मौजूद थे :

1. आर्हत, 2. मस्करी (पाशुपत), 3. श्वेतपट (सेवड़ा, श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय), 4. पांडुरि भिक्षु (उस युग में आजीवक पांडरि भिक्षु कहलाते थे), 5. भागवत, 6. वर्णी (नैष्ठिक ब्रह्मचारी साधु), 7. केशलुंचन (केशों को लुंच करनेवाले जैन साधु), 8. कापिल (कपिल-मतानुयायी सांख्य), 9. बौद्ध मतानुयायी शाक्य भिक्षु, 10. लोकायतिक (चार्वाक), 11. कणाद (वैशेषिक), 12. औपनिषद (उपनिषद् या वेदान्त दर्शन के ब्रह्मवादी दार्शनिक), 13. ऐश्वरकारणिक (नैयायिक, प्राचीन पाली साहित्य में भी ‘इस्सर कारणिक’ नाम आया है), 14. कारन्धमी (धातुवादी या रसायन बनानेवाले), 15. धर्मशास्त्री (मन्वादि स्मृतियों के अनुयायी), 16. पौराणिक, 17. सप्ततन्तव (सप्ततन्तु अर्थात् यज्ञवादी मीमांसक), 18. शाब्द (व्याकरण दर्शन वा शब्द-ब्रह्म के अनुयायी, जिनके विचारों का परिपाक भर्तृहरि के वाक्यपदीय में मिलता है), 19. पांचरात्रिक (पंचरात्र-संज्ञक प्राचीन वैष्णव मत के अनुयायी) । इसके अतिरिक्त और भी मत-मतान्तरों के माननेवाले वहाँ एकत्र थे ।1

बहरहाल, प्राचीन भारत सिर्फ़ आर्य-जनों का वास-स्थान नहीं था । प्राचीन काल से ही अनार्य जनों – द्राविड़, नाग, संताल-मुण्डा, निषाद, शबर, किरात, असुर, गोंड, भील, मेघ आदि जनों ने अपने श्रम और रक्त से इस भूमि को सींचा है । उनका अपना जीवन-मूल्य और जीवन-दर्शन रहा है, अपनी सृष्टि-कथाएँ रही हैं । इन जनों की वाज़िब शिकायत रही है कि जब भी भारत की विचार-परम्परा की बात होती है तब इस परम्परा के निर्माण में उनके योगदान का ज़िक्र तक नहीं किया जाता है । यह स्वीकार ही नहीं किया जाता कि उनकी भी समृद्ध वैचारिक विरासत है – सारी चर्चा ब्राह्मण दर्शनों और बौद्धों के दर्शन की चारदीवारी में सिमट कर रह जाती है ।

इस तरह हम परम्परा नहीं, परम्पराओं वाले लोग हैं । परम्पराओं की बहुलता तथा विविधता का स्रोत यह है कि प्राचीन काल से ही यह देश अनेक जनों का क्रियास्थल रहा है । शताब्दियों के दौरान इन जनों के बीच अनेक स्तरों पर सम्बन्ध बने ; उनके विचारों, जीवन-मूल्यों, रीति-रिवाजों आदि का आदान-प्रदान हुआ । विभिन्न जनों के इसी समागम के क्रम में शताब्दियों के दौरान इन जनों के पराग-कणों से भारतीय जनों की मधु-संस्कृति विकसित हुई ।

बहरहाल, इसी समागम के क्रम में जनों, समुदायों-जातियों, वर्गों के बीच से समय-समय पर वर्चस्वशाली शक्तियों का भी उदय हुआ – एक अथवा कुछेक जनों-समुदायों-जातियों-वर्गों ने अपना विचार, अपनी परम्परा, रीति-रिवाज, अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था अन्य जनों-जातियों-वर्गों पर थोप दिया । यह एक के एकमात्र होने की वर्चस्वशाली विष-संस्कृति है जिससे हमारा समाज (स्वरूप में परिवर्तनों के बावज़ूद) आज तक आक्रांत है । हमारा समाज मधु और विष की इसी अन्तःक्रिया का साक्षी रहा है । हमारे समाज में पहले से ही फैला यह ज़हर नीलकण्ठ की तरह बाँधा जानेवाला ज़हर नहीं है – यह हमारी परम्परा की अन्दरूनी अन्धकारमयता का, उसकी गतिरुद्धता तथा बाह्य अन्धकारमयता के समक्ष उसके समर्पण का वास्तविक स्रोत है ।

हमारे इतिहास में ऐसे सम्राट् और राजा भी हुए जिन्होंने किसी एक विचार-परम्परा के प्रति अपनी निजी पसंद के बावज़ूद उसे सब पर थोपने की कोशिश नहीं की, और विभिन्न मतावलम्बियों को अपने-अपने मत का प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता प्रदान की तथा उनके बीच संवाद को बढ़ावा दिया । इतिहास के ऐसे दौर ही सबसे सृजनात्मक दौर भी रहे ।

अपनी परम्परा पर विचार करते समय हमें निम्नलिखित तथ्यों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए :

. लगभग सभी विचार-शाखाओं की अपनी-अपनी वंशावली रही है, उनके बीच वाद-विवाद का भी काफ़ी समृद्ध इतिहास है, और समय-समय पर कुछ विचारकों ने सभी विचार-शाखाओं का सार-संग्रह भी प्रस्तुत किया है ।

. भले ही किसी विचार-शाखा की उत्पत्ति किसी खास स्थान पर हुई हो, अपने विकास-क्रम में शताब्दियों के दौरान उनका प्रसार लगभग पूरे देश में हो जाता रहा है । विचारक और उनके शिष्य प्रायः विचरण करते रहते, पाण्डुलिपियाँ तैयार की जाती रहीं और उनका आदान-प्रदान भी चलता रहता । इस दौरान मूल विचार-शाखा की नयी-नयी उप-शाखाएँ बनती रहतीं । हर विचार-शाखा के मूल पाठ पर भाष्य, टीकाएँ आदि लिखी जाती रहीं, इन टीकाओं पर वाद-विवाद चलता रहता और नये-नये सम्प्रदाय भी बनते रहते – मूल पाठ पर अपनी टीका लिखते-लिखते टीकाकार स्वभावतः अपनी नयी प्रस्थापनाओं के साथ उपस्थित होता, भाष्य एक स्वतंत्र रचना और एक नये सम्प्रदाय के मूल पाठ का स्थान ग्रहण कर लेता । (वैसे समय बीतने के साथ इन टीकाओं-उपटीकाओं की गुणवत्ता का प्रायः ह्रास ही होता गया ।)

ग. अपने समय के अनेक ब्राह्मण और बौद्ध विचारक सम्राटों तथा प्रभावशाली राजाओं के शिक्षक, मार्गदर्शक अथवा मित्र रहे थे । इस तरह राज-साम्राज्य के नीति-निर्माण में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी । चाणक्य मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के मार्गदर्शक थे तो महान बौद्ध (स्थविरवादी) दार्शनिक, अभिधर्म की पुस्तक कथावत्थु में वर्णित 214 कथावस्तुओं में 73 के रचनाकार मोग्गलिपुत्त तिस्स सम्राट अशोक के गुरु थे । बौद्ध दार्शनिक नागसेन ग्रीक राजा मिनान्दर के गुरु थे, तो नागार्जुन तीन समुद्रों के स्वामी शातवाहन गौतमीपुत्र यज्ञश्री के सुहृद थे और वसुबन्धु गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शिक्षक ।

घ. इस दार्शनिक विमर्श में लगभग सभी-के-सभी दार्शनिक ब्राह्मण-क्षत्रिय पुरुष थे – आबादी की विशाल बहुसंख्या इस विमर्श से बाहर थी । उनके लिए पढ़ना-लिखना निषिद्ध था – किसी दार्शनिक विमर्श का भागीदार होने का तो सवाल ही नहीं उठता ।

वेद और आरम्भिक उपनिषदों के रचनाकाल में जब वर्ण-जाति व्यवस्था सुदृढ़ नहीं हुई थी तब इस मामले में शिथिलता जरूर दिख जाती है – कुछ स्त्रियों के दार्शनिक विमर्श का हिस्सा होने का प्रसंग तो ज्ञात है ही, वर्णों के बीच एक वर्ण से दूसरे वर्ण में शामिल होने, पिता के नाम से अनजान अपनी माताओं के नाम से विख्यात ऋषियों के प्रमाण भी मिलते हैं । वर्ण-जाति व्यवस्था योजना बनाकर किसी एक दिन मध्यरात्रि से अस्तित्व में नहीं आई । उसे जड़ीभूत होने में शताब्दियाँ लगी और इस दरम्यान उसमें जो शिथिलता दिखाई देती है, उसका उदाहरण देकर अनेक विचारक उसके अस्तित्व को ही नकारते रहे हैं ।

बहरहाल, सिद्धार्थ गौतम के रंगमंच पर आने के समय तक वर्ण-जाति व्यवस्था जड़ रूप ले चुकी थी । इसलिए उन्हें यह कहना पड़ा कि जातिभेद प्राकृतिक नहीं है (वासिष्ठ-सुत्त) ; कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से प्रकट होने का जो दावा करते हैं, वह गलत है (अस्सलायन-सुत्त) ; कि ब्राह्मणों को कोई अधिकार नहीं कि वे दूसरे वर्णों के कर्त्तव्याकर्त्तव्य निश्चित किया करें (एसुकारि-सुत्त) ; और कि नैतिक एवं आर्थिक दृष्टि से जाति-भेद की कल्पना विडम्बना-मात्र है (मधुर-सुत्त, महाकात्यायन) ।2 बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद और जाति-व्यवस्था पर उसके प्रहार के फलस्वरूप (बौद्ध दार्शनिकों-विचारकों के बीच) वैश्य तथा शूद्र जातियों से कुछेक महत्वपूर्ण विचारकों की उपस्थिति देखी जा सकती है । आगे चलकर तांत्रिक सम्प्रदायों में भी ऐसा देखने को मिलता है ।

अनेक दार्शनिक-कवि-संतों द्वारा लोकभाषा में रचित दोहों के जरिये विभिन्न दार्शनिक सूत्रों का लोक में भी प्रचार-प्रसार हुआ । दार्शनिक सूत्रों को कम-से-कम शब्दों में सहजता के साथ व्यक्त तथा कंठस्थ करने के माध्यम के रूप में सूत्र, कारिका और दोहा की शैली भाषा में विकसित की जा चुकी थी ।3 अपने-अपने समय के वर्चस्वशाली विचारों तथा कर्मकाण्डों-रीतिरिवाजों का ‘युगीन विचार-रीतिरिवाज’ के रूप में आम जनों तक विस्तार होता रहता ।

ङ. प्राचीन काल की कोई भी विचार-परम्परा आज हमारा मार्गदर्शक नहीं हो सकती । प्रत्येक पीढ़ी को अपना मार्गदर्शक विचार, नीति-आचार आदि ख़ुद ही विकसित करने होते हैं । प्राचीन काल के दार्शनिक विमर्श से हम काफ़ी कुछ सीख सकते हैं, अनेक विचारकों तथा उनके कर्मों और आन्दोलनों से हम प्रेरणा ले सकते हैं, लेकिन वे हमें अपने आज के दायित्व से मुक्त नहीं कर सकते ।

च. आज भी हमारे समाज के विभिन्न समुदाय, जाति, वर्ग आदि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप से भिन्न-भिन्न स्थितियों में हैं ; उनके बीच के सम्बन्ध समानता, सम्मान और समुचित भागीदारी पर आधारित नहीं हैं । इसलिए, स्वाभाविक है कि आज भी अपनी अग्रगति के लिए प्रयासरत इन समुदायों, जातियों और वर्गों के लोग परम्पराओं की बहुलता के बीच (बौद्ध विज्ञानवादियों की शब्दावली में आलय-परम्परा से) अपने-अपने प्रेरणा-सूत्रों का चुनाव करेंपरम्परा का कोई एक सूत्र सभी का प्रेरणा-सूत्र नहीं हो सकता आलय-परम्परा अलग-अलग समूहों को अपने-अपने प्रेरणा-सूत्र चुनने का अवसर प्रदान करती है

छ. भारतीय परम्परा की तरह युरोपीय आधुनिकता की भी कई धाराएँ हैं । इस प्रकार परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व से जूझते अलग-अलग समुदायों, जातियों तथा वर्गों को न सिर्फ़ अपनी परम्परा की बहुलता से बल्कि युरोपीय आधुनिकता की विभिन्न शाखाओं से भी अपना-अपना प्रेरणा-सूत्र चुनना होता है । आधुनिकता की भी कोई एक धारा सभी का प्रेरणा-स्रोत नहीं हो सकती

ज. एक ही समय में कोई व्यक्ति, संगठन अथवा आन्दोलन अपने विभिन्न कार्यभारों के क्रियान्वयन के दौरान अलग-अलग परम्पराओं से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है, भले ही अपने काल में इन परम्पराओं के प्रवर्त्तकों के बीच गंभीर मतभेद रहे हों । खगोलविद्या के क्षेत्र में काम करनेवाले आर्यभट से या वराहमिहिर से प्रेरणा ले सकते हैं ; तर्कशास्त्री अथवा मशीन लर्निंग के क्षेत्र में काम करनेवाले नैयायिकों के बीच से अपनी पसंद के नैयायिक चुन सकते हैं ; उच्च कार्बन फुटप्रिंटवाली (अमेरिकी) जीवनशैली का विकल्प ढूँढ़नेवाले आदिवासी समुदायों के जीवन-दर्शन में अपने लिए महत्वपूर्ण सूत्र पा सकते हैं, आदि । कुल मिलाकर, शताब्दियों की दूरी के कारण हमारे लिए परम्पराओं के महासागर में गोते लगाकर अपनी-अपनी पसंद के मोती चुनना संभव हुआ है ।

इसलिए देखना यह है कि हमारे समाज का कौन समूह हमारी परम्पराओं के बीच किस ख़ास परम्परा अथवा किन-किन परम्पराओं के सूत्र लेकर आधुनिकता की किस धारा अथवा किन-किन धाराओं के साथ उसे या उन्हें संयुक्त करना चाहता है और इस सम्मिलन का हमारे समाज की सृजनात्मकता पर क्या प्रभाव पड़ता है – वह हमें अन्दरूनी और बाह्य अन्धकारमयता से मुक्त कर समाज में व्यक्तियों और समुदायों के बीच समानता, पारस्परिक सम्मान, भागीदारी को संभव बनाते हुए वैज्ञानिक प्रगति, समावेशी आर्थिक समृद्धि और सामाजिक-राजनीतिक जीवन के जनतांत्रीकरण में किस हद तक कामयाब हो पाता है । परम्परा के विभिन्न सूत्रों के साथ आधुनिकता की विभिन्न धाराओं की अन्तःक्रिया पिछले करीब दो सौ वर्षों से हमारे वैचारिक-सांस्कृतिक-आन्दोलनात्मक जीवन का अभिन्न अंग रही है । इसकी अपनी उपलब्धियाँ हैं, साथ ही अपनी समस्याएँ भी । बहरहाल, यह अन्तःक्रिया कोई नई बात नहीं है और इसके लिए उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं है ।

विचरण में नवज्योति सिंह के लिए भारतीय परम्परा का अर्थ मीमांसा की परम्परा है और वे मीमांसा का सूत्र थामकर ‘आधुनिकता के बैल को उसके सींगों से पकड़ने’ (पृ. 21-22) का प्रयत्न करते हैं ।

बहरहाल, भारतीय परम्परा को मीमांसा की परम्परा तक सीमित कर देना परम्परा का अतिसंकुचन है । मीमांसा की परम्परा में भी कई उप-धाराएँ हैं, लेकिन नवज्योति की पसंद वैशेषिक मीमांसा (पृष्ठ 66) है । इस पुस्तक में उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किया है, वह उन्हें पुरानी जैमिनीय मीमांसा के काफ़ी क़रीब ले जाते हैं ।

3. मीमांसा के साथ अन्याय

पूरे साक्षात्कार में नवज्योति इस बात पर बार-बार ज़ोर देते हैं कि हमारी आज की समस्याओं का कारण मीमांसा की परम्परा के साथ किया गया अन्याय है । वे जब-जब परम्परा, श्रेष्ठता, पाण्डित्य की चर्चा करते हैं तो उसका सम्बन्ध मीमांसा से ही होता है । साक्षात्कार के अन्तिम दस-बारह पृष्ठों में वे अपनी मीमांसा दृष्टि का कुछ विस्तार से ख़ुलासा करते हैं । पहले अन्याय की बातें :

‘यह परम्परा क्षीण कैसे हो गई ? यह सबको दिखता है । सबसे अन्याय की बात यह है कि श्रेष्ठता और कुशलता को सुनने-समझनेवाला कोई न बचे । इससे बड़ा अन्याय कोई नहीं है । चूँकि परम्परा में श्रेष्ठता को समझने, उसे थामने, उसे आगे चलाने पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, परम्परा क्षीण होती चली गई । ..’ (पृ. 17) बनारस में मीमांसा के पण्डित पट्टाभिराम शास्त्री का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं : ‘यह पाण्डित्य के संकुचन का दृष्टांत है । इस संकुचन में बहुत बड़ा अन्याय दिखता है । ..’ (पृ. 18-19)

नवद्वीप में (जहाँ रघुनाथ न्याय शिरोमणि हुए थे) टोल-आधारित शिक्षा प्रणाली के ह्रास और आधुनिक कॉलेज-आधारित शिक्षा प्रणाली के विकास से नवज्योति काफ़ी व्यथित हैं । ‘.. इस तरह पाण्डित्य का संकुचन हुआ है । इसी संकुचन की नींव के ऊपर गांधीजी और अन्य लोग आये हैं । इस तरह श्रेण्ठता के साथ अन्याय हुआ है । यह (अ)न्याय आज भी जारी है । ..’ (पृ. 21)

‘गांधीजी का कहना यह था कि आप जो भी काम करो, उससे पहले अपनी आवश्यकता की पूर्ति करो .. उनका इस किस्म का सामी विचार था । यहाँ दो तरह की विचार भंगिमाओं में टकराव था । माँ पहले बच्चों को खिलाएगी फिर ख़ुद खाएगी । उसी तरह मिस्त्री सबसे बढ़िया घर अपना नहीं, दूसरों का बनाएगा । इसी तरह बुनकर बढ़िया कपड़ा यजमान को बेचेगा । अगर वह सबसे अच्छा कपड़ा ख़ुद पहनने लगा, उसकी कला ख़त्म हो जाएगी, उसका शास्त्र ख़त्म हो जाएगा । पर गांधीजी का कहना था कि पहले अपने लिए करो फिर जो बच जाय उससे दूसरे का । ..’ (पृ. 34)

‘बड़ी संख्या में कारीगर और पण्डित स्वतंत्रता आन्दोलन से दूर रहते आये । यह सच है कि पण्डित मदनमोहन मालवीय जैसे पण्डित राष्ट्रीय आन्दोलन में थे, पर उदाहरण के लिए कोई मीमांसक या इस किस्म का कोई आचार्य उसमें नहीं था, न ही कोई कारीगर थे । ..’ (पृ. 35)

‘हमारे यहाँ गांधीजी या नेहरू ने परम्परा को कमजोर विचार में ग्रहण किया । इस कमजोर विचार से अन्याय हुआ । इसके फलस्वरूप यहाँ की अध्येतावृत्ति समाप्त हो गई । यहाँ श्रेष्ठता का सम्मान नहीं है । .. श्रेष्ठता शिष्टता पर खड़ी होती है, वह हो नहीं पाती । ..’ (पृ. 52)

‘मुझे वैशेषिक मीमांसा पसंद है । इसी वैशेषिक का विस्तार समाज और विधि तक हो जाता है । ..’ (पृ. 66)

‘न्याय मीमांसात्मक होता है ।’ (पृ. 76)

‘पुराने ज़माने में कुछ ऐसे लोगों की कल्पना की जाती थी, जो अपने कुकर्मों के कारण अद्विज हो जाते थे, आधुनिक काल में अँग्रेजों के आने के बाद इन्हें ही दलित कहा जाने लगा । अँग्रेजों के झूठे इतिहास में ये अद्विज चिरकाल से सताये गये दलित बन गये हैं और इसी तरह जाति प्रथा बन गई, बिल्कुल स्थिर ठहरी हुई । ..’ (पृ. 79)

अब नवज्योति की मीमांसा-दृष्टि जिसके जरिये वे उपर्युक्त अन्याय का समाधान करना चाहते हैं :

‘सभी समाजों के लोग यह समझते हैं कि समाज में सम्प्रभुता के सृजन में शिष्टता हो । अशिष्ट व्यवहार की आलोचना हर जगह है । हर समाज में शिष्ट व्यक्ति बनेगा, वह उस समाज की नैतिक बुनावट को सम्भाल कर रखता है । वह उदाहरण बन जाता है । हमारे यहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम की धारणा में यही मिलता है । .. इसका आधार हम सनातन परम्परा में से, विशेषकर मीमांसा शास्त्र से दे सकते हैं । उसके अनुसार मानवीय कर्म का विश्लेषण करने से शिष्टता का बोध उत्पन्न किया जा सकता है । ..’ (पृ. 69)

‘कार्यान्त में शरीर आता है, कार्य के आरम्भ में अन्तःकरण होता है । जिसमें संकल्प और प्रयोजन आदि होते हैं, पर कार्य के अन्त में शरीर आ जाता है । इसके बगैर क्रिया का अनुष्ठान नहीं हो सकता । क्रिया की समाप्ति पर उसके फल की सृष्टि हो जाती है, उसका असर अलग-अलग लोगों पर भविष्य में होता है । इसमें समय का एक अन्तराल आता है । जब भी आप कोई क्रिया करते हैं, उसका फल किसी और परिस्थिति, देशकाल में होता है । वह तुरन्त नहीं होता । इसके कारण अन्तर्विरोध उत्पन्न हो जाते हैं, किसी को किसी की क्रिया बुरी लग सकती है । यह अन्तर्विरोध किस आधार पर सुलझाये जा सकेंगे ? .. अगर आप यह मान लें कि इनमें से कुछ अन्तर्विरोध कभी और कहीं और सुलझे थे । आप एक वैचारिक प्रयोग करें कि जब-जब और जहाँ-जहाँ भी न्याय हुआ, जिस किसी समय में, जिस किसी जगह पर उन सबको एकत्र कर लें । अगर हम एक ऐसा समुच्चय बनाते हैं, हम पाएँगे जो न्याय एक जगह हुआ वह दूसरी जगह हुए न्याय से अलग था । .. मैंने यह प्रश्न उठाया कि किस परिस्थिति में न्याय अभिन्न हो सकता है ? अगर दो बातें स्वीकार कर ली जाएँ, तो यह समुच्चय अभिन्न बना रहता है । .. एक परासिद्धान्त के तहत आपको यह मानना ही होगा कि सभी विवाद सिद्धान्ततः समाधेय हैं । .. इसी से जुड़ा हुआ एक और सिद्धान्त आपको मानना होगा कि किसी भी विवाद के पीछे की परिस्थिति और कथ्य ज्ञेय है क्योंकि अगर कोई पूरी तरह गुप्त कर्म है और वह विवाद उत्पन्न कर रहा है, आप उसका समाधान नहीं कर सकते । इसलिए दूसरा सिद्धान्त यह है कि ऐसा कोई कर्म नहीं है, जो आत्यन्तिक रूप से गुप्त हो । .. अगर ये दो परासिद्धान्त स्वीकृत होते हैं यानी अगर यह स्वीकृत होता है कि सभी विवादों में न्याय संभव है और सभी कर्म ज्ञेय हैं, तो जिस समुच्चय की बात हम कर रहे हैं वह अन्तर्विष्ठ हो सकता है । .. यह समुच्चय सार्वभौमिक है । मीमांसा की दृष्टि से हम यह कहते हैं कि हर कर्म के पीछे कुछ विधियाँ होती हैं, उन्हीं से वह घटित होता है और उन्हीं से वह समझ में आता है । .. इसलिए उक्त समुच्चय के भीतर ऐसी विधियाँ होनी चाहिए जिनकी संगति इस समुच्चय के दोनों सिद्धान्तों से हो :  हर विवाद समाधेय है और कोई भी कर्म पूरी तरह गुप्त नहीं हो सकता । ये वो विधियाँ नहीं होंगी जो किसी व्यक्ति ने तैयार की हों । ये विधियाँ किसी भी व्यक्ति से स्वायत्त होनी चाहिए । ये विधियाँ कालबद्ध भी नहीं होनी चाहिए । इन्हें अनादि होना चाहिए । दूसरे शब्दों में, ये विधियाँ अपौरुषेय और अनादि होनी चाहिए । अपौरुषेय और अनादि विधियों की संहिता को वेद कहा जाता है । इस तरह इस समुच्चय की विधियों से वेद बन जाते हैं । यह वेद हर व्यक्ति में स्वायत्ततः उपलब्ध है । ..’ (पृ. 70-71)

न्याय मीमांसात्मक होता है । .. इसके कुछ परासिद्धान्त होते हैं । दरअसल, अनुष्ठित वेद तो वेद का शरीर भर है । मीमांसक इसे अर्थवाद कहते हैं । ..’ (पृ. 76-77)

जिसने भी मीमांसा-दर्शन के बारे में थोड़ा-बहुत पढ़ रखा है, वह आपको तुरत बतला देगा कि नवज्योति की इन सूक्तियों में नया कुछ नहीं है । मीमांसा साहित्य में ये सारी बातें काफ़ी विस्तार में उपलब्ध हैं । नवज्योति भी स्वीकार करते हैं : ‘इस व्याख्या में सारी शब्दावली मीमांसा की नहीं है, आधुनिक भी है, पर इससे यह सब निकल आता है ।’ (पृ. 73) बहरहाल, यहाँ (पूर्व-)मीमांसा दर्शन की संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है ।

4. अथातो मीमांसां व्याख्यास्यामः

पूर्व-मीमांसा वेद-आधारित छः ब्राह्मण दर्शनों (सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा) में से एक है । (वैसे कुछ विद्वान सांख्य और योग को बहुत हद तक वेद से स्वायत्त मानते हैं । आगे से पूर्व मीमांसा के लिए सिर्फ़ मीमांसा और उत्तर-मीमांसा के लिए वेदान्त का प्रयोग किया जाएगा ।) वेदों को दो भागों में बाँटकर देखा जाता है – ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड । वेदान्त कर्मकाण्ड का निषेध किये बिना ज्ञानकाण्ड पर ज़ोर देता है, वहीं मीमांसा ज्ञानकाण्ड को अर्थवाद घोषित कर कर्मकाण्ड की बुनियाद पर अपनी इमारत खड़ी करता है । नवज्योति भी इसी मीमांसक दृष्टि का पक्षपोषण करते हुए लिखते हैं, ‘दरअसल अनुष्ठित वेद तो वेद का शरीर भर है । मीमांसक इसे अर्थवाद कहते हैं । निश्चय ही उसकी स्मृति बनाये रखना एक विशेष कार्य है । उसका उच्चारण भी वही बनाये रखा गया है । यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य था जिसका सम्मान होना चाहिए ।’ (पृ. 77)

वेद-संहिताओं की रचना के परवर्तीकाल में विभिन्न ऋषियों द्वारा यज्ञ-कर्मकाण्ड की विधि तथा व्याख्या के लिए कई पीढ़ियों तक ब्राह्मण-ग्रंथों (शतपथ, ऐतरेय, तैत्तिरीय, षड्विंश, गोपथ आदि) का प्रणनयन किया जाता रहा – इन्हीं ब्राह्मण-ग्रंथों में से कुछ के अन्तिम भाग आरण्यक और उपनिषद् हैं (वैसे ईश उपनिषद् यजुर्वेद का ही अन्तिम चालीसवां अध्याय है) ।

प्राचीन काल के पुरोहितों के लिए यह एक बड़ी समस्या थी कि वेद के किन-किन मंत्रों के साथ कौन-कौन यज्ञ सम्पन्न किये जायें और उनकी प्रक्रियाएँ क्या हों – ये विधियाँ विभिन्न ब्राह्मण-ग्रंथों में बिखरी हुई थीं । इन विधि-विधानों को सूत्रबद्ध करने की भी एक परम्परा बनी, कितने ग्रंथ रचे गये जिन्हें कल्प-सूत्र अथवा प्रयोगशास्त्र कहा जाता है । कल्प-सूत्रों में श्रौत-सूत्रों के जरिये यज्ञों की सारी प्रक्रियाओं को व्यवस्थित रूप देने की कोशिश की गई (जैसे, यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत-सूत्र) । जाहिर है, इस सूत्रीकरण के क्रम में मतभेद भी उभरे और पुरोहितों की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ । सूत्रीकरण की इसी परम्परा में मीमांसा-दर्शन के प्रवर्तक जैमिनि के मीमांसा-सूत्र को देखा जाता है । जैमिनि के समय को लेकर विद्वानों में काफ़ी मतभेद है – राधाकृष्णन उनका समय ईसापूर्व चौथी सदी मानते हैं तो राहुल सांकृत्यायन ईस्वी सन् चौथी सदी में (300 ई. के आसपास) ।

क़रीब 2500 सूत्रों और बारह अध्यायों में विभक्त जैमिनि के मीमांसा-सूत्र में सिर्फ़ पहले अध्याय में दार्शनिक महत्व के कुछ सूत्र हैं – शेष सभी अध्यायों में यज्ञ-कर्मकाण्डों का, बलियों और उनके उद्देश्यों तथा फलों का वर्णन है । मीमांसा-सूत्र के पहले सूत्र में ही जैमिनि अपना उद्देश्य स्पष्ट कर देते हैं – ‘अथातो धर्मजिज्ञासा (‘अब यहाँ से धर्म की जिज्ञासा आरम्भ होती है ।’ वाचस्पति मिश्र ने जिज्ञासा को परिभाषित करते हुए ‘भामती में लिखा है, ‘जिज्ञासया संदेहप्रयोजने सूचयति । इस तरह मीमांसा-सूत्र का उद्देश्य धर्म के बारे में उत्पन्न शंकाओं का समाधान करना है ।) दूसरे सूत्र में धर्म की परिभाषा है – ‘चोदनालक्षणार्थो धर्मः अर्थात् वेद की प्रेरणा (चोदना या विधि) से किया गया कर्म ही धर्म है । ब्राह्मण-ग्रंथों में ऐसे प्रेरणा-वाक्य सत्तर के क़रीब हैं जिनमें यज्ञों का विधान किया गया है और उनसे प्राप्त होनेवाले फलों का वर्णन है । जैमिनि के लिए शास्त्र अथवा वेद इन सत्तर के क़रीब उत्पत्ति-विधियों का संग्रह है । ये अपने-आप में कर्मकाण्डों का सबसे बड़ा प्रमाण हैं और इनको विधिपूर्वक संपन्न कर इच्छित फल प्राप्त किया जा सकता है । जैमिनि के अनुसार, वेद नित्य है ; वर्ण नित्य, अविकारी द्रव्य हैं , शब्द-अर्थ का सम्बन्ध नित्य है ; वेद के शब्द स्वतःप्रमाण हैं (शब्दप्रमाणवाद) ।

आधुनिक शब्दावली में कहें तो (जैसे हमारे शरीर में अरबों अक्षरोंवाला जेनेटिक कोड है जिससे हमारा शरीर संचालित होता है, कुछ उसी तरह) सारा संसार एक शब्द-कोड से संचालित है – जो था, जो है और जो होगा, सब कुछ इस कोड में समाहित है । इस कोड का, जिसे वेद कहते हैं, कोई रचयिता नहीं ; वह अकृत है, नित्य और अविकारी है । इसलिए पुरानी मीमांसा अनीश्वरवादी है (बाद में मीमांसा में ईश्वर का भी प्रवेश हो गया, तब भी वेद की सर्वोच्चता बरकरार रही) ।

वेद अनादि और अपौरुषेय है । पुरुष में कमियाँ हो सकती हैं, राग-द्वेष के कारण उसके वचन पूर्वाग्रहयुक्त या गलत हो सकते हैं, वे विकारग्रस्त हो सकते हैं । वेद नित्य और अविकारी हैं, इसलिए अपौरुषेय हैं । वे गुरु-शिष्य परम्परा से आये हैं, उनके कर्त्ता का कुछ अता-पता नहीं चलता, इसलिए वे अनादि हैं । वेद-मंत्रों में ऋषियों के जो नाम आते हैं या जो भी नाम आते हैं, वे सब प्रतीकात्मक हैं, व्याकरण के धातु-प्रत्ययों के आधार पर उनकी व्याख्या की जानी चाहिए । विश्वामित्र का अर्थ है सार्विक मैत्रीभाव । प्रावाहणि किसी प्रवहण के पुत्र का नाम नहीं, बहनेवाली हवा का नाम है । ये ऋषि मंत्रों के रचयिता नहीं, उनके द्रष्टा हैं । इस आधार पर नवज्योति किसी व्यक्ति का नाम नहीं, मीमांसा पर नया प्रकाश है । वे रचयिता नहीं, उन्होंने जो पहले से ही था उसे बस प्रकाशित किया है ।

मीमांसा के अनुसार, यह वेद तो पूरे जगत में, हमारे अन्दर भी व्याप्त है, लेकिन उसके प्रति हम सजग नहीं होते, अन्तःप्रज्ञा के रूप में रहने के बावज़ूद वह समय-समय पर ही अभिव्यक्त होता है अथवा प्रकाशित होता है – वेद के अनुसार विधिपूर्वक कर्म करनेवाले ऋषि-मुनियों के समक्ष ही वह कभी-कभी प्रकट होता है । शुद्ध उच्चारण के साथ वेद-मंत्रों का पाठ शब्दों को पैदा नहीं करता, बल्कि प्रकाशित करता है ।

यह नित्य वेद प्रत्येक युग में – कृत, त्रेता, द्वापर, कलयुग में – रहा है, और आगे भी रहेगा । वेद की कितनी ही शाखाएँ अब अगर प्राप्य नहीं हैं तो इसका मतलब यह है कि वे अब प्रकाशित नहीं हैं ; नित्य होने के कारण वह शब्दराशि कहीं-न-कहीं तो है ही । स्मृति और शिष्टाचार अगर वेद-विरुद्ध न हों तो उन्हें भी धर्म मानना चाहिए – भले ही वे अब प्रकाशित न हों, किन्हीं ऋषियों द्वारा किसी युग में वे वेद-वाक्य प्रकाशित हुए होंगे और अब वे ऋषियों द्वारा रचित ग्रंथों में और सदाचार में सुरक्षित हैं ।

ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका वेद में समाधान नहीं और ऐसा कोई ज्ञान अथवा कर्म नहीं जो गुप्त हो । नवज्योति मीमांसा के इसी वैचारिक सूत्र को दो परासिद्धान्त कहते हैं ।

दर्शन की तुलना में मीमांसा का ज़ोर कर्मकाण्ड और वेद की नित्यता और सार्वभौमिकता पर है । पुरोहित वर्ग मीमांसा का सामाजिक आधार है और पुरोहितों की इस बात में दिलचस्पी नहीं होती कि उनके यजमानों की विचारधारा क्या है जबतक वे कर्मकाण्ड संपन्न करते रहते हैं और पुरोहितों को समुचित दान-दक्षिणा देते रहते हैं – यजमान वैशेषिक हो सकते हैं, योग, सांख्य, न्याय या वेदान्त दर्शन के अनुयायी हो सकते हैं । मीमांसा वेदान्तियों अथवा अन्य रहस्यवादियों के विपरीत जगत को मिथ्या या कोई रहस्य नहीं मानता, बल्कि उसे हमारी इच्छाओं से स्वतंत्र वस्तुगत सच्चाई मानता है । दुनिया वैसी ही है जैसा हमारी स्थूल इन्द्रियों को दिखाई देती है । लोग प्रायः सांसारिक फलों की इच्छा से ही कर्मकाण्ड संपन्न करते हैं, इसलिए मीमांसक पुरोहित संसार-विमुख कैसे हो सकते ?

वेद स्वतःप्रमाण है । इसलिए वेद यदि कहता है कि अग्निष्टोम यज्ञ से स्वर्ग प्राप्त होता है तो यज्ञ करानेवाला व्यक्ति अवश्य स्वर्ग जाएगा । इसी तरह, धन-ऐश्वर्य-प्राप्ति, रोग-मुक्ति, विश्व-शान्ति आदि किसी लौकिक इष्ट की कामना के साथ यदि आप उपयुक्त वैदिक मंत्रों और विधियों के साथ यज्ञ/मंत्रजाप संपन्न करते हैं तो फल अवश्य प्राप्त होगा । अगर फल प्राप्त नहीं हुआ तो इसका एकमात्र कारण यह होगा कि मंत्रों के उच्चारण अथवा विधियों में कोई त्रुटि रह गई होगी या उनमें कोई विघ्न उपस्थित हो गया होगा । उन त्रुटियों तथा विघ्नों के निराकरण के लिए भी कर्मकाण्ड है ।

हमारे देश में ऐसी कई दार्शनिक शाखाएँ हैं जो यह मानती हैं कि ‘सत्य’ हमारे शरीर में अन्तर्विष्ठ है – जो बाहर है, वही शरीर के भीतर भी है4 ; पिण्ड में ब्रह्माण्ड है । एक ‘यथार्थ गीता’ भी है जिसके अनुसार हमारा शरीर ही कुरुक्षेत्र का मैदान है, महाभारत के विभिन्न पात्र हमारे मन की विभिन्न वृत्तियाँ हैं और हमारे अन्दर महाभारत की लड़ाई अहर्निश चलती रहती है । वेदान्ती भी मानते हैं कि ब्रह्म तो हमारे भीतर है : ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ ; ‘अहं ब्रह्मास्मि’ 5। इसी तरह मीमांसक भी मानते हैं कि वेद हमारे भीतर है जिसके प्रति हम प्रायः अनजान रहते हैं, लेकिन औचित्य-अनौचित्य के बोध के रूप में वह हमारे अन्दर हमेशा मौजूद रहता है । इसे नवज्योति इस रूप में व्यक्त करते हैं : ‘यदि स्वायत्तता का एक अर्थ शक्ति का स्रोत भी है, तो वह इसी में है कि आपको उचित और अनुचित का सर्वथा अद्वितीय विवेक उपलब्ध है ।’ (पृ. 72)

वैदिक रीति से यदि कर्मकाण्डों की पूरी प्रक्रिया संपन्न की जाये तो उसका फल अवश्य प्राप्त होता है । बहरहाल, कर्म और फल के बीच एक अन्तराल है । इस अन्तराल के बीच अपूर्व सक्रिय होता है जो फल उत्पन्न करता है । (वैशेषिक दर्शन में इससे मिलता-जुलता पद अदृष्ट है ।) यज्ञ-क्रिया अनेक भागों में विभक्त होती है और प्रत्येक भाग के संपन्न होने के बाद आंशिक फल प्राप्त होता है जिसे भाग-अपूर्व कहते हैं । पूरी प्रक्रिया की समाप्ति के बाद ही सम्पूर्ण फल उत्पन्न होता है जिसे समाहार-अपूर्व कहते हैं । [यज्ञ-क्रिया का फल यज्ञ-कर्ता और पुरोहित दोनों को प्राप्त होता है – स्वर्ग प्राप्ति के लिए किये जानेवाले ज्योतिष्टोम यज्ञ में उद्गात्र (उद्गाता पुरोहित) बारह मंत्र (उद्गीत) गाता है । पहले तीन मंत्रों के गायन का फल यजमान को मिलता है (जिसे पवमान कहते हैं), शेष नौ मंत्रों के गायन का फल पुरोहित को मिलता है ।]

मीमांसकों की वेद की इस दुनिया से आबादी की बहुसंख्या बहिष्कृत थी – इस जन्म में द्विजों की ‘विधिपूर्वक’ सेवा करने के बाद ही उन्हें अगले जन्म में किसी सुधार की उम्मीद थी । ‘सो जो यहाँ रमणीय (= अच्छे) आचरणवाले हैं, यह जरूरी है कि वह रमणीय योनि – ब्राह्मण योनि, या क्षत्रिय-योनि, या वैश्य योनि – को प्राप्त हों । और जो बुरे आचारवाले हैं, यह जरूरी है कि वह बुरी योनि – कुत्ता-योनि, सूकर-योनि, या चांडाल-योनि को प्राप्त हों ।’6

मीमांसकों के लिए यज्ञ के रूपक में मानवजीवन का प्रत्येक कर्म समाहित है – प्रत्येक कर्म का अपना एक अनुष्ठान है, उसमें विभिन्न तत्वों की बलि दी जाती है, और प्रत्येक क्रिया सही-सही संपन्न करने से अन्त में उसका फल अवश्य प्राप्त होता है । उदाहरण के लिए, एक लौह-कर्मी अथवा काष्ठ-कर्मी के अन्दर धातु अथवा काष्ठ की कोई सामग्री बनाने का ज्ञान अन्तर्निहित है । वैदिक रीति से विधिपूर्वक मंत्रोच्चार कर, अपने उपकरणों को उपयुक्त मंत्रों से अभिमंत्रित कर, जब वह निर्माण करना शुरू करता है तो उसका वह अन्तर्निहित ज्ञान सक्रिय हो जाता है, अपने निर्माण-प्रक्रिया के दौरान वह जरूरी सामग्रियों (धातु, काष्ठ, अपनी श्रमशक्ति आदि) की बलि देता है और अन्त में निर्मित वस्तु (इस्पात, मेज़ आदि) के रूप में फल की प्राप्ति होती है । विलक्षण प्रतिभा के ऐसे कारीगरों के बारे में कहा जाता है कि उसके अन्दर विश्वकर्मा का वास है । विश्वकर्मा से यहाँ आशय विश्व का निर्माण करने के (वैदिक) ज्ञान से संपन्न होना है ।

इस तरह हर कर्म की विधि बनी हुई है । अगर वैदिक विधि-विधान के अनुसार भूमि-पूजन कर आप भवन-निर्माण करेंगे तो शान्ति और समृद्धि देनेवाला भवन आपको फल के रूप में प्राप्त होगा । (सी बी आई की आन्तरिक कलह का कारण यह है कि उसके कार्यालय-भवन का निर्माण वैदिक रीति से नहीं हुआ और उसमें वास्तु-दोष है !!) इसी तरह, यदि आप विधिपूर्वक नियत अवधि तक सही उच्चारण के साथ महामृत्युञ्जय अथवा गायत्री मंत्र का जाप करेंगे, नर्मदा स्तोत्र अथवा देवी स्तोत्र का पाठ करेंगे तो इन मंत्रों और पाठों से सम्बन्धित फल आपको अवश्य मिलेगा ।

इस मीमांसा की लम्बी वंशावली7 है और इस वंशावली से कई शाखाएँ तथा उपशाखाएँ फूटती हैं ।

विचरण में नवज्योति सिंह के विचारों की तुलना मीमांसा की उपर्युक्त प्रस्थापनाओं से कीजिए तो आप पाएँगे कि नवज्योति ऐसी कोई नई बात नहीं कहते जो मीमांसा में पहले ही नहीं कही जा चुकी हैं । हाँ, शब्दावली कुछ आधुनिक लग सकती है । थोड़ी-बहुत जानकारी रखनेवाले पुरोहित भी आपको ये सारी बातें बता सकते हैं ।

हिन्दुओं के धार्मिक कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज चूँकि वेदों पर आधारित हैं और चूँकि मीमांसा का प्रयोजन सम्बन्धित कर्मों के अनुरूप वेद-मंत्रों तथा विधियों को सुव्यवस्थित करना था, इसलिए हिन्दू समाज में द्विजों के बीच मीमांसक विचारों की व्याप्ति आज भी सहज ही देखी जा सकती है । अद्विज यद्यपि वेद पढ़ने और वैदिक कर्मकाण्डों से बहिष्कृत थे, फिर भी वर्चस्वशाली विचार-प्रणाली होने के कारण मीमांसा का उनके ऊपर भी प्रभाव था (और है) । ‘श्रेष्ठ’ का अनुकरण करने की प्रवृत्ति के कारण अद्विजों के कर्मकाण्डों तथा रीतिरिवाजों पर मीमांसा की छाप लक्षित की जा सकती है । हमारी दिनचर्या में, हमारे मुहावरों और बोलचाल में मीमांसा की दृश्य-अदृश्य उपस्थिति आसानी से रेखांकित की जा सकती है । जब कोई कहता है कि ‘जो लिखा है, वही होगा’ तो यह मीमांसा से आया मुहावरा ही है ।

वेद से परे कुछ नहीं है – इसलिए जितनी भी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं अथवा होनेवाली हैं, वे सब पहले से ही मौज़ूद हैं । वेद का वह अंश भले ही हमारे लिए लुप्तप्राय हो गया हो, कहीं दूसरी जगह, दूसरे काल में वह अवश्य प्रकट हुआ होगा अथवा उसे किसी ने चुरा लिया होगा । गणेशजी की प्लास्टिक सर्जरी, वेद में वैमानिकी, महाभारत काल में इंटरनेट तथा जेनेटिक्स, दश दिशाओं में एक-साथ प्रहार करनेवाले उन्नत प्रक्षेपास्त्र, सारी सृष्टि का विनाश करने में सक्षम ब्रह्मास्त्र, अतीत तथा वर्तमान में आवागमन (टाइम-ट्रेवेल) आदि जो भी दावे आज शीर्ष ‘पीठाधिकारियों’ द्वारा किये जा रहे हैं, उनपर गैर-मीमांसक भले ही हँसे, मीमांसकों के लिए सहज ‘आस्था’ के प्रश्न हैं । ‘मीमांसा के साथ घोर अन्याय हुआ, श्रेष्ठता को पूछनेवाला कोई नहीं रहा, हमारी आज की दुर्दशा का यही मूल कारण है ।’

मीमांसा की वैचारिक व्याप्ति : मीमांसा की वैचारिकता का मूल सूत्र इस प्रकार है : नित्य शब्दों की एक संहिता है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य की सारी समस्याओं का समाधान है और जिसके लिए कोई ज्ञान अथवा कर्म गुप्त नहीं है । इसी सार्वभौम नित्य शब्द संहिता के कुछ अंश समय-समय पर प्रकट अथवा प्रकाशित होते रहते हैं – ऋषि-मुनि, दार्शनिक, विचारक आदि इन सत्यों के स्रष्टा नहीं, बल्कि द्रष्टा हैं । इस वैचारिक सूत्र के आधार पर यदि आप मानते हैं कि वैशेषिक दर्शन में सभी समस्याओं का समाधान है, ‘दुनिया की पूरी व्यवस्था इस दर्शन में बनी हुई है’ (पृ. 62), और यह कि ‘आधुनिक विज्ञान भी जिस समस्या में फँसी हुई है, उसे वैशेषिक दर्शन के सहारे बाहर निकाला जा सकता है और विज्ञान का उद्धार किया जा सकता है’ (पृ. 67) तो आप वैशेषिक मीमांसक कहलाएँगे । आइन्सटीन अपना समीकरण लिखने के पहले चित्र के रूप में उसे देख लेते थे – वे भी सापेक्षता के सिद्धान्त के स्रष्टा नहीं, द्रष्टा थे और उनके द्वारा प्रकाशित मंत्र है E = mc2एडम स्मिथ ने बाजार के अदृश्य हाथ की बात कही थी । कार्ल मार्क्स ने अपने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त के जरिये उस अदृश्य को दृश्य में ला दिया । वे भी उस सिद्धान्त के स्रष्टा नहीं, द्रष्टा थे । (प्रसंगवश, गायत्री परिवार ने मार्क्स की दो सौवीं वर्षगांठ पर ‘महर्षि मार्क्स शीर्षक से एक पुस्तिका भी निकाली है । मज़दूर बस्तियों में इस परिवार के काफ़ी अनुयायी हैं और समय-समय पर उसके अनेक कार्यक्रम भी आयोजित होते रहते हैं । पुस्तिका के कवर पर दाढ़ीवाले मार्क्स की भव्य छवि कैलेंडर आर्ट में बनाये गये भारतीय ऋषि-मुनियों के चित्रों पर भी भारी पड़ती है ।)

प्रोफेसर एस एन दासगुप्त वैशेषिक दर्शन को पुरानी मीमांसा मानते थे ।8 वैशेषिक का पहला सूत्र है : ‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः । बहरहाल, वैशेषिक परमाणु और पदार्थों की दुनिया में इतना खो गये कि धर्म की व्याख्या पीछे छूट गई । भारतीय दर्शन पर लिखनेवाले दूसरे कई विद्वान दासगुप्त के इस मंतव्य से सहमत नहीं हैं । अनेक समानताओं के बावज़ूद वेद की नित्यता तथा स्वतःप्रामाण्यता के प्रश्न पर वैशेषिकों का मत मीमांसकों से भिन्न है ।

इसी प्रकार, यदि आप मानते हैं कि बुद्ध वचन में सारी समस्याओं का समाधान है और उसके लिए कुछ भी गुप्त ज्ञान और कर्म नहीं है तो आप बौद्ध मीमांसक कहलाएँगे । (दरअसल, बौद्ध दार्शनिकों द्वारा मीमांसा की आलोचना के ज़वाब में कुछ मीमांसकों का यही कहना था – ‘आप वेद को नित्य और स्वतःप्रामाण्य नहीं मानते हैं, लेकिन आप बुद्धवचन को तो नित्य और स्वतःप्रामाण्य मानते ही हैं ।’) भले विभिन्न विचार-शाखाओं के प्रवर्तक ऐसा दावा न करें, लेकिन कालक्रम में उनके अनुयायी सम्बन्धित विचार-शाखाओं को एक सम्प्रदाय का रूप दे देते हैं । बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सख़्त हिदायत दी थी कि वे किसी भी बात को, यहाँ तक कि शास्ता के वचनों को भी बिना जाँचे-परखे, बिना अनुभव और तर्क की कसौटी पर कसे स्वीकार न करें । उन्होंने आनन्द को आप्प दीपो भव का उपदेश दिया था । तथापि कालक्रम में बौद्धों के भी कई सम्प्रदाय बन गये ।

मीमांसा के मूल वैचारिक सूत्र के आधार पर अनेक वैचारिक सम्प्रदाय बन जाते हैं । कोई यहूदी, ईसाई और इस्लामी मीमांसक हो सकता है । न्याय, योग और वेदान्ती मीमांसक भी । अगर आप यह मानते हैं कि मार्क्स की नित्य शब्द संहिता में भूत, वर्तमान और भविष्य की सारी समस्याओं का समाधान है और उसके लिए कोई ज्ञान अथवा कर्म गुप्त नहीं है तो आप मार्क्सवादी मीमांसक हैं । इसी तरह आप आम्बेडकरवादी और लोहियावादी मीमांसक भी हो सकते हैं ।

जहाँ तक कर्मकाण्डों की बात है तो जब वैचारिक मीमांसक सम्प्रदाय बन जाते हैं तब इन सम्प्रदायों के अपने-अपने कर्मकाण्ड भी आ जाते हैं । आगे चलकर इन कर्मकाण्डों को लेकर बारीक मतभेद नये-नये उप-सम्प्रदायों के बनने का आधार प्रदान करते हैं । अपने आस-पास वैचारिक सम्प्रदायों पर नज़र डालते ही आप इसका साक्षात् कर सकते हैं ।

जिस तरह कोई रोग होने पर डाक्टर उचित दवा लेने की हिदायत देते हैं, सर्जन जरूरी सर्जरी का उपाय बताते हैं, न्यूट्रीशनिस्ट आपको खान-पान से सम्बन्धित डाइट-चार्ट थमा देते हैं, वास्तुशास्त्री वास्तुदोष का समाधान सुझाते हैं, रत्न-विशेषज्ञ आपको पुख़राज या मूँगा धारण करने की सलाह देते हैं, उसी तरह मीमांसक पुरोहित के पास भी आपकी सभी समस्याओं – रोगनिवारण से लेकर आतंकवाद से मुक्ति तक – के समाधान के लिए समुचित यज्ञ-अनुष्ठान और मंत्रजाप का विधान है । करोड़ों लोग इसी विधि से अपनी समस्याओं का ‘निराकरण’ करते हैं (अथवा एक साथ कई विधियाँ आज़माते देखे जा सकते हैं) – विशेषज्ञ पंचसितारा पुरोहितों की दक्षिणा पंचसितारा निजी अस्पतालों के विशेषज्ञ डाक्टरों की फ़ीस से कम नहीं होती ।

‘पश्चिम’ को कोसनेवाले मीमांसक पश्चिम में अपने बाजार का विस्तार करने को सबसे ज्यादा लालायित रहते हैं । वहाँ मिली अपनी प्रशंसा का इश्तेहार वे ऑलम्पिक तमगे की तरह प्रदर्शित करते मिलेंगे । अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में एक उम्मीदवार ने ज़रा मुस्कुराकर ‘हिन्दू’, ‘हिन्दू’ क्या कह दिया, यहाँ कुछ मीमांसकों ने उनकी जीत के लिए यज्ञ का अनुष्ठान कर डाला और उन्हें विजयश्री दिलाकर ही दम लिया । अमेरिका के डेमोक्रेट्स ट्रम्प की जीत के लिए नाहक पुतिन के पीछे पड़े हैं ! ट्रम्प की जीत नित्य, सार्वभौम, अपूर्व वेद-शक्ति का जीता-जागता प्रमाण है !!

इसी तरह इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय भारत के गांवों, शहरों, महानगरों में हजारों स्थानों पर महिलाएँ कलश-यात्राएँ कर रही होंगी, तम्बू गाड़े जा रहे होंगे, यज्ञ-वेदियों के लिए गिन-गिन कर पवित्र ईंटें रखी जा रही होंगी, मुख्य पुरोहित के साथ सहयोगी तथा प्रशिक्षु पुरोहितों का दल यज्ञ की तैयारियों का ज़ायज़ा ले रहा होगा, यज्ञ-सामग्रियों की आपूर्ति करनेवाले व्यवसायी, बिजली की सज़ावट करनेवाले .. सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त होंगे । मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, नौकरशाहों के दौरे हो रहे होंगे । मई 2014 के बाद ऐसे आयोजनों की वृद्धि दर जीडीपी की वृद्धि दर से कई गुणा ज़्यादा है । वित्त मंत्रालय रोज़गार के आँकड़े देते समय शायद इन आयोजनों में रोज़गार-सृजन के आँकड़े देना भूल गया, अन्यथा दो करोड़ रोज़गार देने के आँकड़े के क़रीब पहुँच जा सकता था !   

5. अन्धं तमः ..

मीमांसा की आलोचना के लिए युरोप जाने की जरूरत नहीं है । हमारी दार्शनिक परम्परा में ही इसकी विस्तृत आलोचना उपलब्ध है । मीमांसा एक नित्यतावादी दर्शन है – एक नित्य, अविकारी शब्द-सत्ता (प्रकाशित अथवा अप्रकाशित) है जिससे सारा संसार संचालित है । हमारा काम सिर्फ़ प्रकाशित शब्दों का विधिपूर्वक पालन करना है और अप्रकाशित (अदृष्ट) को प्रकाशित करना (दृश्य में लाना) है । यह अप्रकाशित (अदृष्ट) भी कभी कहीं प्रकाशित था – बस किसी कारण अब अप्राप्य हो गया । जो प्रकाशित है, उसका विधिपूर्वक अनुगमन करने से ही अदृष्ट को दृश्य में लाने का मार्ग प्रशस्त होगा । [अपने पूर्व जन्म में वैदिक रीति से विधिपूर्वक जीवन बिताने के कारण अगले जन्म में प्रजापति को ‘हिरण्यगर्भ’ (अव्यक्त) और ‘विराट्/विराज’ (व्यक्त सृष्टि) होने का अवसर प्राप्त हुआ । मूल बात है वैदिक विधि-विधान के अनुसार जीवन जीना – इसी पर यह निर्भर करता है कि हम अगले जन्म में किस योनि में जन्म लेंगे ।]

नित्य एक निष्क्रिय श्रेणी है (सांख्य के पुरुष की तरह) । वह किसी के साथ कोई क्रिया नहीं करती – क्रिया करने से ही उसमें विकार उत्पन्न होगा और वह नित्य नहीं रहेगी । इस प्रकार, नित्य एक निष्क्रिय, अपरिवर्तनीय, अन्तःक्रिया में असमर्थ, गतिहीन, जड़ श्रेणी है । यह मानवीय उद्यमिता का, किसी भी प्रकार के नवप्रवर्तन का, नवोन्मेष का अस्वीकार है । वैशेषिक दर्शन में भी विशेष, समवाय आदि नित्य श्रेणियाँ हैं । यह भारतीय समाज की अन्दरूनी जड़ता का, जातीय सोपान पर आधारित गतिरुद्ध समाज-व्यवस्था का, उसकी अन्दरूनी अन्धकारमयता का वैचारिक आधार है ।

एक निष्क्रिय श्रेणी होने के कारण मीमांसा बाह्य अन्धकारमयता के साथ भी किसी क्रियात्मक सम्बन्ध में जाने में असमर्थ है । फलतः मीमांसा के वर्चस्ववाला समाज बाह्य अन्धकारमयता का प्रतिरोध करने की स्थिति में तो नहीं ही होता, उल्टे वह उसका निष्क्रिय उपभोक्ता बनकर उसकी व्याप्ति का आधार बन जाता है । अपनी नित्य शब्द-सत्ता के खोल में सिमटे, विश्व-गुरु होने के आत्म-मुग्ध ख़यालों में खोये मीमांसकों के लिए कोई भी चीज उसके बाहर हो ही नहीं सकती – जो चीज बाहर से आ रही है, वह तो वही चीज है जो यहाँ लुप्त हो गई थी, कहीं दूसरी जगह प्रकाशित हुई अथवा चुरा ली गई, और वही अपना प्रकाश वापस हमें उपलब्ध हो रहा है । यह अन्धकार नहीं, लुप्त प्रकाश का पुनरागमन है । मीमांसकों के लिए यह ‘नूतनत्व में नित्यता का आभास है’ (पृ. 73) । इस तरह, वैशेषिक शब्दावली में कहें तो मीमांसा और आधुनिकता की वर्चस्वशाली धारा (अन्धकारमयता) के बीच आधार-आधेय का सम्बन्ध बनता है ।

यहाँ यह स्पष्ट देना जरूरी है कि मीमांसकों के ‘देखने’ और अन्य दार्शनिकों/आध्यात्मिक संतों के ‘देखने’ में गुणात्मक फ़र्क है । मीमांसकों का ‘देखना’ (जैसाकि हम पहले बता चुके हैं) नित्य को ‘देखना’ है, जबकि अन्य दार्शनिकों/आध्यात्मिक संतों का ‘देखना’ एक निजी अनुभव है जो अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग रूपों में घटित होता है – यह सार्विक एकत्व की अनुभूति है जो अनासक्त ज्ञान का आधार है, जो विभिन्न अस्तित्व-रूपों को उनकी उत्पत्ति, उनके विकास और उनके संहार/अवसान में देखना है । बुद्ध भी ज्ञान को ‘देखते’ हैं – लेकिन यह ‘देखना’ अनित्यता को, प्रतीत्य-समुत्पाद को देखना है । इसी तरह कबीर भी ‘लोचन अनन्त उघाड़िया’ की बात करते हैं । यह देखना सम्प्रदायों की बन्द, अन्तर्विष्ठ, नित्य दुनिया का निषेध है ।

मीमांसा की नित्य दुनिया आस्था की मांग करती है, और आस्था दार्शनिक विमर्श की गुंजाइश नहीं छोड़ती है । आस्था का आधार-वाक्य है ‘मानना होगा’ ।

दार्शनिक विमर्श की बुनियाद है संशय, ज्ञानोन्मुख संशय, और संशय का आधार-वाक्य है ‘जानना होगा’ । बहुत कुछ जान लेने के बाद भी यह संशय बरकरार रहता है : वेद यदि वा न वेद ? कौन जानता है ?

आस्था मौके-बेमौके आहत होती है, और ‘मानना होगा’ का अन्त सड़कों पर हिंसा और रक्तपात में होता है । संशय साहस की अपेक्षा करता है, अनजान लोकों में विचरणे का साहस । ‘जानना होगा’ सार्थक, सृजनात्मक विमर्श की ओर ले जाता है ।

हमारी परम्परा में मीमांसा की विचारधारा और कर्मकाण्ड की आलोचना की सशक्त उपस्थिति रही है । मीमांसा-दृष्टि वेद-आधारित होने का दावा तो करती है, लेकिन सारतः वह ऋग्वेद के दशम मण्डल के नासदीय सूक्त9 में व्यक्त संशयात्मक दृष्टि का निषेध है । (कोई आश्चर्य नहीं कि विधि-वाक्यों को छोड़कर शेष वैदिक संहिता को मीमांसक अर्थवाद कहकर ख़ारिज कर देते हैं ।)

वेदान्त में यूँ तो कर्मकाण्ड का विरोध नहीं है, लेकिन कर्मकाण्ड के स्थान पर ब्रह्मज्ञान को वरीयता दी गई है । बादरायण का ‘वेदान्त-सूत्र (ब्रह्म-सूत्र) ‘अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा से आरम्भ होता है और उसका उद्देश्य ब्रह्म से सम्बन्धित शंकाओं का समाधान करना है । वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्मज्ञान के बिना किये गये कर्मकाण्ड का फल अस्थायी होता है और उससे ‘मुक्ति’ की आशा करना व्यर्थ है । जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पर ध्यान करता है, वह ब्रह्म हो जाता है, देवता भी उसे ऐसा होने से नहीं रोक सकते । ब्रह्मज्ञानियों की पैठ देवताओं की आत्मा तक हो जाती है । इसलिए देवता भी नहीं चाहते कि मनुष्य ब्रह्मज्ञान (आत्मज्ञान) हासिल करे ।10 कुछ उपनिषद् में कर्मकाण्डों की खिल्ली भी उड़ाई गई है । बृहदारण्यक उपनिषद् में कर्मकाण्डों की उपासना करनेवालों और उसीमें ध्यान लगानेवालों के लिए देखिये कितनी कड़ी टिप्पणी की गई है :

अन्धं तमः प्रविशन्ति येSविद्यामुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः ।। (4.4.10)11

लोकायत/चार्वाक मत में तो मीमांसकों और उनके कर्मकाण्डों की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी गईं । सर्वदर्शन-संग्रह में चार्वाक दर्शन के मतों को उद्धृत करते हुए लिख गया है :

‘न स्वर्ग है, न अपवर्ग, न परलोक में जानेवाली आत्मा । वर्ण और आश्रम आदि की (सारी) क्रियाएँ निष्फल हैं । अग्निहोत्र, तीनो वेद .. बुद्धि और पौरुष से हीन लोगों की जीविका है । .. यदि ज्योतिष्टोम (यज्ञ) में मारा पशु स्वर्ग जायेगा तो उसके लिए यजमान अपने बाप को क्यों नहीं मारता । .. मृतक श्राद्ध आदि को ब्राह्मणों ने जीविकोपाय बनाया है । .. सुख-दुख से संयुक्त होने के कारण विषय का संसर्ग त्याज्य है, यह मूर्खों का विचार है । कौन हितार्थी है जो सफेद बढ़िया चावलवाले धान को भूसी से लिपटी होने के कारण छोड़ देगा ।’12

बहरहाल, नित्य शब्दवादी मीमांसकों पर सबसे जबर्दस्त प्रहार अनित्य अनात्मवादी बौद्ध दार्शनिकों ने किया – दोनों खेमों के बीच ईस्वी सन् की प्रथम सहस्राब्दी में क़रीब छः शताब्दियों तक गंभीर वाद-विवाद चलता रहा । यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि इस वाद-विवाद में शामिल प्रमुख बौद्ध दार्शनिक – दिग्नाग (425 ई. के आसपास) और धर्मकीर्त्ति (600 ई.) का जन्म ब्राह्मण परिवारों में हुआ था और उनका लालन-पालन ब्राह्मण कर्मकाण्डों के बीच ही हुआ था । वे ब्राह्मण शास्त्रों में निष्णात थे और उनका खण्डन कर ही बौद्ध हुए थे ।

तमिल प्रदेश में काञ्ची के पास सिंहवक्र नामक गाँव में जन्मे दिग्नाग अपने ग्रंथ प्रमाणसमुच्चय में नित्यता की अवधारणा का खण्डन करते हुए लिखते हैं : ‘कारणं विकृतिं गच्छज्जायतSन्यस्य कारणम् ।13 कारण स्वयं विकार को प्राप्त होकर ही दूसरी चीज का कारण हो सकता है ।’ नित्य वस्तु में यह बात नहीं हो सकती, अतः जो नित्य पदार्थ हैं, उनसे कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती । बहरहाल, मीमांसकों की एक-एक प्रस्थापना का विस्तार से खण्डन धर्मकीर्त्ति की प्रमाणवार्त्तिक में मिलता है । धर्मकीर्त्ति का जन्म भी उत्तर तमिल (चोळ) के तिरुमलै गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । यहाँ संक्षेप में उनकी कुछ प्रमुख मान्यताओं की चर्चा की जा सकती है :

अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थ सत् ।’ अर्थवाली (सार्थक) क्रिया करने में समर्थ वस्तु ही परमार्थ-सत् है । नित्य में विकार का सर्वथा अभाव होने से क्रिया हो ही नहीं सकती ।

शब्द-प्रमाण/अपौरुषेयता का खण्डन : ‘किन्हीं वचनों के सत्य होने हेतु (ज्ञान, अराग, अद्वेष आदि) गुण पुरुष में रहनेवाले हैं, इसलिए जो वचन पुरुष के नहीं हैं, वे सत्य कैसे हो सकते हैं ? अतः जो पौरुषेय है, वही सत्यार्थ हो सकते हैं । शब्द के अर्थ को समझाने का साधन है संकेत और वह संकेत पुरुष के ही आश्रय से रहता है (पौरुषेय है) । इस संकेत के पौरुषेय होने से वचनों के अपौरुषेय होने पर भी उनके झूठे होने का दोष संभव है ।’ .. चूँकि वेद-वचनों के कर्त्ता पुरुष याद नहीं इसलिए वह अनादि/अपौरुषेय हैं – ‘ऐसे भी ढीठ बोलनेवाले हैं ! धिक्कार है (जगत् में) छाये (इस जड़ता के) अन्धकार को । .. गुरुओं की परम्परा का अन्त न होने से वेद अनादि/अपौरुषेय हैं, तो अन्य कई ग्रंथों के रचयिताओं के बारे में पता नहीं चलता और वे भी गुरु-शिष्य परम्परा से ही चले आ रहे हैं, इसलिए उन्हें भी अनादि/अपौरुषेय मानना होगा । नास्तिकों के वचनों को भी । .. वेद-वचन का यह अर्थ है, यह अर्थ नहीं है, यह वेद के शब्द (ख़ुद) नहीं कहते । शब्द का यह अर्थ तो पुरुष कल्पित करते हैं और वे रागादि-युक्त होते हैं । उन्हीं रागादि युक्त पुरुषों के बीच जैमिनि वेदार्थ का तत्त्ववेत्ता है ! वह एक जैमिनि ही तत्त्ववेत्ता है, दूसरा नहीं, यह भेद क्यों ? .. आप कहते हैं, चूँकि पुरुष स्वयं रागादिवाला है, इसलिए वेद के अर्थ को नहीं जानता, और उसी कारण वह दूसरे पुरुष से भी नहीं जाना जा सकता । बेचारा वेद तो स्वयं अपना अर्थ जतलाता नहीं, फिर वेदार्थ की क्या गति होगी ? इस गड़बड़ी से तो ‘स्वर्ग चाहनेवाला अग्निहोत्र होम करे’ इस श्रुति का अर्थ ‘कुत्ते का मांस भक्षण करे’ नहीं है इसका क्या प्रमाण है ?’ .. वेद की एक बात सच होने से सारा वेद सच नहीं : वेद का एक वाक्य है ‘अग्निर्हिमस्य भेषजं’ (आग सर्दी की दवा है) इसे लेकर मीमासंक कहते हैं – चूँकि यह वाक्य बिल्कुल सत्य (= प्रत्यक्ष सिद्ध) है, उसी तरह ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग कामः’ (स्वर्ग चाहनेवाला अग्निहोत्र होम करे), इस दूसरे वचन को भी उसी वेद का एक अंश होने के कारण प्रमाण मानना चाहिए । इसके उत्तर में – ‘यदि इस तरह (एक बात की सच्चाई से) प्रमाण सिद्ध होता, तो फिर यहाँ अ-प्रमाण क्या है ? बहुभाषी झूठे पुरुष की एक बात भी सच्ची न हो, यह तो है नहीं । ..’14 (प्रमाणवार्त्तिक, 1/333-338)

मीमांसा के बारे में प्रयुक्त ‘अन्धं तमः’ की प्रतिध्वनि धर्मकीर्त्ति के ‘जड़ता के अन्धकार’ में सुनी जा सकती है । इन विवरणों की पृष्ठभूमि में यह आसानी से देखा जा सकता है कि नवज्योति भारतीय परम्परा को जब महज मीमांसा तक सीमित कर देते हैं तो वे इस समृद्ध परम्परा के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रहे होते हैं ।

नवज्योति छिन्दित पंक्ति (पृ. 64) और सत्तावत् शून्य (पृ. 62) की जब बात करते होते हैं तो पाठकों को लग सकता है कि वे बौद्धों के विच्छिन्न प्रवाह और शून्य की बात तो नहीं कर रहे । बहरहाल, इस शब्दावली का बौद्ध दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं है । छिन्दित पंक्ति के सारे घटक नित्य हैं और ध्वनियों तथा शब्दों के नित्य सम्बन्धों के बीच शून्य एक ‘अलगाव भर’ है । यह बुद्ध के ‘अस्मिन् सति इदं भवति’ (‘इसके होने पर यह होता है’ : एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति, प्रतीत्यसमुत्पाद ; मज्झिम निकाय, 1/4/8) वाला या ज्ञानश्री (700 ई.) के ‘यत् सत् तत् क्षणिकं (जो सत् है, वह क्षणिक है ; क्षणभंग, 1/1)15 वाला विच्छिन्न प्रवाह कतई नहीं है । इसके बारे में कुछ चर्चा हम आगे भी करेंगे ।

नवज्योति ग्रीको-युरोपियन परम्परा और भारतीय परम्परा में भेद दिखाने के क्रम में कतिपय प्रवर्गों और अवधारणाओं को पश्चिम के खाते में डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं । अपनी परम्परा के जो विचार ‘अच्छे’ नहीं लगते, उन्हें प्रायः ‘पश्चिम’ के मत्थे मढ़ कर छुट्टी पा ली जाती है । खासकर गैर-मीमांसक परम्पराओं के कई प्रवर्ग इस मनमाने विभाजन के परिणामस्वरूप पश्चिम के खाते में डाल दिये जाते हैं । अटूटता ‘आधुनिक मिथक’ नहीं, काफ़ी प्राचीन मिथक है और इस पर सिर्फ़ पश्चिम का एकाधिकार नहीं रहा है । युग, युग-चक्र, चतुर्युग, कर्मफल-आधारित जन्म-पुनर्जन्म की अवधारणा, अवतार आदि के जरिये भारतीय परम्परा में अटूटता का एक ढाँचा वास्तविकता पर आरोपित कर दिया गया ‘जिसपर आदमी कभी ठीक से बैठ नहीं पाया’ । मीमांसा ख़ुद एक अटूट विन्यास है । नित्य, सनातन अटूटता के द्योतक शब्द ही हैं ।

6. विरोधी प्रवर्गों की दुनिया

दार्शनिक विमर्श में पहला कार्य विरोधी प्रवर्गों की पहचान है । यह अपेक्षाकृत सरल कार्य है – हम प्रायः विरोधी प्रवर्गों में बात करने के आदी हैं – हम बनाम वे, मित्र बनाम शत्रु, देवता बनाम असुर, अहिंसा बनाम हिंसा, शासक बनाम शासित, वर्चस्व बनाम वंचना, सफेद बनाम स्याह आदि । दार्शनिक विमर्श का दूसरा कार्य कुछ जटिल है । इस मुकाम पर आकर हम यह देखते हें कि विरोधी प्रवर्ग किस रूप में एक दूसरे से क्रिया करते हैं । ऐसी कौन-सी विधि है और वह कौन-सा माध्यम है जो इन विरोधी प्रवर्गों की अन्तःक्रिया को, एक-दूसरे में उनके स्थानान्तरण को संभव बनाता है । दार्शनिक विमर्श का महत्वपूर्ण अंश इसी प्रश्न पर केन्द्रित होता है । दार्शनिक विमर्श का तीसरा चरण सबसे विवादास्पद और जटिल चरण है । इस चरण में हम यह देखते हैं कि विरोधी प्रवर्गों के बीच अन्तःक्रिया के जरिये, एक-दूसरे में उनके स्थानान्तरण के परिणामस्वरूप कौन-सी नई श्रेणियाँ अस्तित्व में आईं – इन नई श्रेणियों का चरित्र, उनके उद्भव से उत्पन्न संभावनाओं और चुनौतियों का विवेचन-विश्लेषण और भावी द्वन्द्वों का आकलन-मूल्यांकन, यही हमारे वैचारिक क्रिया-कलापों का प्रमुख सरोकार होता है । इस आधार पर हम किसी कालखण्ड में (उदाहरण के लिए, स्वातंत्र्योत्तर भारत में) समाज, राजनीति, कला-साहित्य आदि क्षेत्रों में होनेवाले परिवर्तनों की व्याख्या कर सकते हैं और इस परिवर्तन-प्रक्रिया में अपने-अपने ढ़ंग से भागीदारी भी निभा सकते हैं ।

विचरण में नवज्योति सिंह अनेक विरोधी प्रवर्गों की शिनाख़्त करते हैं और ख़ुद को इन विरोधी प्रवर्गों में से एक पक्ष के साथ शामिल करते हैं : परम्परा बनाम आधुनिकता, ग्रीको-युरोपियन परम्परा बनाम भारतीय परम्परा, युरोपियन विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी बनाम पोट्रियॉटिक (संस्कारनिष्ठ) विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी, टोल-आधारित शिक्षा-प्रणाली बनाम आधुनिक कॉलेज-आधारित शिक्षा-प्रणाली, पेशों का नैतिक (यजमानी) सिद्धान्त बनाम ‘पहले अपने लिए करो’ का सामी सिद्धान्त, एक अकेले व्यक्ति की श्रेष्ठता प्राप्त करने की सनातनी व्यवस्था बनाम दूसरों को आधार बनाकर श्रेष्ठता हासिल करनेवाली व्यवस्था, शिष्टता बनाम अशिष्टता, इतिहास बनाम हिस्ट्री, रैशनलिटी बनाम व्याकरण, अकर्मक बनाम सकर्मक क्रिया (अस्ति बनाम भवति), आदि, आदि । इन विरोधी प्रवर्गों के बीच वे ख़ुद एक पक्ष हैं – वे ग्रीको-युरोपियन परम्परा के विरुद्ध मीमांसा की भारतीय परम्परा के पक्षधर हैं, और मीमांसा को विधायी शक्ति से सम्पन्न करना चाहते हैं ; वे टोल-आधारित शिक्षा-प्रणाली के अवसान से व्यथित हैं ; वे पेट्रियॉटिक विज्ञान के हिमायती हैं, यजमानी प्रथा के समर्थक और एक अकेले व्यक्ति की श्रेष्ठता प्राप्त करने की सनातनी व्यवस्था के प्रति आश्वस्त हैं ; वे हिस्ट्री के विरुद्ध इतिहास और गाथाओं की महिमा बखानते हैं ; व्याकरण को मूल रैशनलिटी मानते हैं ; और अकर्मक अस्ति के विरुद्ध सकर्मक भवति का गुणगान करते हैं । ये सारे विरोधी प्रवर्ग नित्य प्रवर्ग हैं ।

यह दार्शनिक विमर्श का पहला चरण है । बहरहाल, वे इसी चरण में अटक कर रह जाते हैं । वे विमर्श के दूसरे और तीसरे चरण में उतरने से बचते दिखते हैं – उन्हें इन चरणों का आभास है, कहीं-कहीं इस दिशा में वे प्रयास करते भी हैं, लेकिन उनकी मीमांसक दृष्टि उन्हें समग्रता में ऐसे किसी गंभीर प्रयास से रोक देती है । जैसाकि हम पहले मीमांसा की परम्परा पर चर्चा के दौरान ज़िक्र कर चुके हैं, नित्य शब्दों और प्रवर्गों की मीमांसक दुनिया अनित्य, चंचल प्रवर्गों की अन्तःक्रिया के किसी विमर्श में गहराई से जाने में सर्वथा असमर्थ है – वह ऐसे विमर्श को अर्थवाद कहकर ख़ारिज़ करती रही है । साक्ष्यों और लिखित से उसका बैर काफ़ी पुराना है ।

बहरहाल, भारतीय विचार-परम्परा में, हर क्षेत्र में, विमर्श के तीनों चरणों की भव्य उपस्थिति देखी जा सकती है । (हमारी परम्परा में मौज़ूद) विरोधी प्रवर्गों की अन्तःक्रिया और एक-दूसरे में उनके स्थानान्तरण के माध्यमों और उनकी विधियों के कुछ उदाहरण यहाँ रखे जा सकते हैं : ओंकार (प्रणव) में अ (अनन्त) और म (सान्त) की अन्तःक्रिया का माध्यम मध्य स्वर है ; साधना में वह मौन16 है ; आसनों में वह शवासन है ; श्वास और प्रश्वास के बीच वह अन्तर्कुम्भक तथा बहिर्कुम्भक है ; इड़ा और पिंगला के बीच वह सुषम्ना है ; मनोविज्ञान में जाग्रत और सुषुप्ति के बीच वह स्वप्न है ; उच्चारण में वह सम17है ; छंदों में वह लय18है ; विभिन्न पंथों के बीच विवाद में वह अध्यात्म19है ; वाद और विवाद के बीच वह संवाद है ; गणतांत्रिक लोकतंत्र में विभिन्न सामाजिक समूहों तथा वर्गों के बीच विवाद में वह संविधान है ; विज्ञान की सभी शाखाओं में ऐसे माध्यमों तथा विधियों के ढेरों उदाहरण दिये जा सकते हैं .. । समाज-राजनीति से लेकर कला-साहित्य और धर्मों तक विरोधी प्रवर्गों की इन अन्तःक्रियाओं से क्या नई स्थितियाँ बनती हैं, कौन-सी नई शक्तियाँ सामने आती हैं और वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में क्या-क्या परिवर्तन लाती हैं, इसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जा सकते । लेकिन पिछले दो सौ वर्षों के दौरान परम्परा और आधुनिकता की परस्पर अन्तःक्रिया के कारण हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, आर्थिक क्रियाकलापों में, कला-साहित्य के क्षेत्र में, जीवन-मूल्यों और धार्मिक आचरणों में क्या-क्या परिवर्तन हुए, उसे आप आस-पास नज़र दौरा कर महसूस कर सकते हैं । कला-साहित्य के क्षेत्र में चले आन्दोलनों और उनमें उभरी नई-नई प्रवृत्तियों में उसका साक्षात् कर सकते हैं । न्यायालयों के फ़ैसलों में भी आप उसकी उपस्थिति देख सकते हैं । पिछले सात-आठ दशकों में परस्पर विरोधी सामाजिक शक्तियों तथा राजनीतिक दलों के टूटने-बनने, नये-नये समूहों-दलों के उभरने और बदलते सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों में उसे लक्षित कर सकते हैं ।

इस विषय की कुछ और चर्चा हम व्याकरण वाले संदर्भ में करेंगे । लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि सारे विरोधी प्रवर्ग अनित्य, चंचल श्रेणियाँ हैं और उनके बीच अन्तःक्रिया तथा नई-नई श्रेणियों का उत्थान-अवसान एक निरंतर चलनेवाली क्रिया है और यही क्रिया सामाजिक गतिशीलता कहलाती है । अगर आप विचार अथवा वस्तु के किसी एक रूप पर ठहर जाते हैं या उसके बंदी हो जाते हैं तो फिर आप एक जड़ श्रेणी के रूप में इस गतिशीलता के मार्ग में अवरोधक बन जाते हैं । नित्य शब्दवादी मीमांसा के साथ यही बात है ।

नवज्योति सिंह जिन विरोधी प्रवर्गों की चर्चा करते हैं उन पर विस्तार में जाना संभव नहीं । फिर भी कुछ संक्षिप्त टिप्पणियाँ यहाँ अपेक्षित हैं ।

क. ग्रीको-युरोपियन परम्परा और भारतीय परम्परा : प्राचीन काल में इन दोनों परम्पराओं का मिलन-स्थल गंधार था । नवज्योति लिखते हैं, ‘गंधार को समझने से ही भविष्य की गुत्थी सुलझेगी ।’ (पृ. 42) वे गंधार को समझने के लिए नाटक करने की बात करते हैं क्योंकि ‘नाटक में वास्तविकता से अधिक वास्तविकता हुआ करती है ।’ (पृ. 11) बहरहाल, गंधार को समझने के लिए मीमांसा से नहीं, बौद्ध दार्शनिकों से मदद मिलेगी – क़रीब पाँच सौ वर्षों तक भारतीय और ग्रीक विचार-प्रणालियों के समागम में बौद्ध दार्शनिकों के अतुलनीय योगदान को भला कौन भुला सकता है ? इन दोनों परम्पराओं की अन्तःक्रिया ने भारतीय विचार-परम्परा को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इसने विज्ञान और कला-संस्कृति के क्षेत्र में नयी-नयी अवधारणाओं का भी मार्ग प्रशस्त किया । जरा इन तथ्यों पर ग़ौर फ़रमाइए । बौद्ध दार्शनिक नागसेन का जन्म क़रीब 150 ई. पू. भारतीय तथा यूनानी साम्राज्यों के प्रमुख मिलन-स्थल स्यालकोट में हुआ । मिलिन्द-नागसेन संवाद हमारी वैचारिक विरासत का महत्वपूर्ण अंग है । महान बौद्ध दार्शनिक, कवि और नाटककार अश्वघोष का कर्मक्षेत्र इसी अंचल में पेशावर था । क़रीब 50 ई. पू. यूनानी नाटकों की भाँति भारतीय नाटकों की नींव रखने का श्रेय उन्हें ही जाता है – उनके संस्कृत काव्य-नाटक ‘बुद्धचरित, ‘सौन्दरानन्द और ‘सारिपुत्र प्रकरण हमारी वैचारिक-सांस्कृतिक परम्परा में मूल्यवान योगदान हैं । ईसा की पहली सदी में शक सम्राट् कनिष्क (जिनका साम्राज्य उत्तर भारत से मध्य एशिया के विशाल भूभाग में फैला था) ने त्रिपिटक की व्याख्या के लिए सर्वास्तिवादी (स्थविर) बौद्ध आचार्यों की परिषद बुलाई थी, और उन आचार्यों को चैत्य बनाकर अर्पित किया था । पेशावर में ही 350 ई. के आसपास प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक असंग और वसुबन्धु का जन्म हुआ था । ब्राह्मण परिवार में जन्मे इन दो भाइयों का बौद्ध विचार-परम्परा में कितना अहम् स्थान है, इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वसुबन्धु एक ओर सुदूर दक्षिण तमिल प्रदेश के बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग के गुरु थे, तो दूसरी ओर गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के भी शिक्षक थे । इस लेख के आरम्भ में प्रयुक्त शब्द आलय-परम्परा दरअसल क्षणिक विज्ञानवादी असंग द्वारा प्रयुक्त आलय-विज्ञान से ही प्रेरित है – असंग के अनुसार, आलय-विज्ञान वह तरंगित समुद्र है, जिससे तरंगों की भाँति विश्व की सारी जड़-चेतन वस्तुएँ प्रकट और विलीन होती रहती हैं ।

कुल मिलाकर, गंधार क्षेत्र में ई. पू. 150 से ईस्वी सन् 350 तक की क़रीब पाँच शताब्दियों के दौरान अत्यन्त समृद्ध बौद्ध वैचारिक-सांस्कृतिक परम्परा को समझे बिना गंधार को समझना नामुमकिन है । कहने की जरूरत नहीं कि ये सभी बौद्ध दार्शनिक, कवि और नाटककार मीमांसक विचारों तथा कर्मकाण्डों के कट्टर विरोधी थे । इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धर्मकीर्त्ति ने अपनी ‘प्रमाणवार्त्तिक’ में जैमिनि की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी थी । धर्मकीर्त्ति चोळ प्रदेश से नालंदा आ गये थे और महान दार्शनिक तथा नालंदा विश्वविद्यालय के प्रधान (संघ-स्थविर) धर्मपाल के शिष्य बन भिक्षु-संघ में शामिल हो गये थे ।

ख. टोल-आधारित बनाम कॉलेज-आधारित शिक्षा प्रणाली : नवज्योति की पसंद टोल-आधारित शिक्षा प्रणाली है । टोलों की बात हो तो स्वभावतः मिथिला के टोलों की याद आती है – इन टोलों को भारत में टोल-आधारित शिक्षा प्रथा के (अगर सर्वश्रेष्ठ नहीं तो एक) बेहतरीन नमूने के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । मिथिला के गाँवों में संचालित इन टोलों (या चौपाड़ियों/चतुष्पाठियों) के आधार पर इनकी निम्नलिखित विशेषताएँ चिह्नित की जा सकती हैं :

I. इन टोलों के लगभग सभी-के-सभी छात्र और अध्यापक एक ही जाति – ब्राह्मण जाति के पुरुष थे । मिथिला की 95 % से भी अधिक आबादी के लिए इन टोलों के दरवाजे बन्द थे । मीमांसा में शूद्रों का वेद पढ़ना-सुनना निषिद्ध था और इन टोलों में इसका कड़ाई से पालन किया जाता था । शिक्षकों की तीन श्रेणियाँ थीं – उपाध्याय, महोपाध्याय और महामहोपाध्याय । इन टोलों में शिक्षा का माध्यम संस्कृत था ।

II. इन टोलों में वेद, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद आदि विषयों की पढ़ाई होती थी । कुछ टोल खास-खास विषयों की पढ़ाई के लिए विख्यात थे और उनमें मिथिला के बाहर के छात्र भी आकर पढ़ते थे । आज भी कुछ गाँवों के नाम इसकी याद दिलाते हैं : रीगा (ऋग्वेद की शिक्षा के लिए), जजुआर (यजुर्वेद की शिक्षा के लिए), अथरी (अथर्ववेद की शिक्षा के लिए), भट्टसिम्मरि एवं भट्टपुर (मीमांसा के भट्ट मत के लिए), माउबहेट (माध्यनन्दिनी शाखा के लिए), कुथुमा (कौथुमी शाखा के लिए), शकरी (शकारी शाखा के लिए) आदि ।20

कुछ टोलों में फलित (ज्योतिष) और गणित सिद्धान्त, दोनों विषयों के ग्रंथ पठन-पाठन में थे । फलित में रामाचार्य की मुहूर्त्त चिन्तामणि ; वराहमिहिर की लघुजातक, वृहज्जातक ; नीलकण्ठ की नीलकण्ठी ; श्रीपति की जातक पद्धति ; तथा केशव की केशवी – इतने ग्रंथ पढ़ाये जाते थे । गणित में भास्कराचार्य की लीलावती और बीजगणित ; सिद्धान्त में उन्हीं की सिद्धान्तशिरोमणि तथा सूर्यसिद्धान्त ; कमलाकर का सिद्धान्ततत्वविवेक ; और गणेश का ग्रहलाघव – इतने पाठ्यग्रंथ थे ।21

ब्राह्मणों के लिए हल चलाना, उत्पादक शारीरिक श्रम में भाग लेना निषिद्ध था, समुद्री यात्रा भी । क्या शारीरिक श्रम करना है, क्या नहीं करना है ; क्या छूना है, क्या नहीं छूना ; इन मामलों में कठोर विधि-विधान थे । इस कारण हाथ से किये जानेवाले श्रम और प्रयोगों के अवसर अत्यन्त सीमित थे । फलित और गणित सिद्धान्त के अलावा प्रायोगिक विज्ञान-तकनीक का अवसर इन टोलों में उपलब्ध नहीं था । (वैसे, ऋग्वेद, 10/60/12 में हाथ के श्रम की महिमा का बखान करते हुए इसे भगवान से भी श्रेष्ठ बताया गया है । हाथ समस्त रोगों की औषधि है ; यह जिसका भी स्पर्श कर देता है, वह शिव हो जाता है : ‘अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्व भेष्जोSयं शिवामि मर्शनः ।।’ लेकिन मीमांसकों के लिए यह अर्थवाद है । जिस हाथ के स्पर्श से सबकुछ शिव हो जाता है, उसी हाथ को अस्पृश्य बना दिया गया ।)

छात्रों का प्रमुख काम पाठ्य-पुस्तक के रूप में अनुशंसित ग्रंथों का अध्ययन करना, उनको कण्ठस्थ करना, शिक्षकों की देखरेख में पाण्डुलिपियों की नकल उतारना, उन पर टीकाएँ लिखना आदि था । इन टोलों में छः ब्राह्मण दर्शन के अलावा गैर-वैदिक विचार-परम्पराओं (खासकर बौद्ध दार्शनिक ग्रंथों) के पठन-पाठन की कोई व्यवस्था नहीं थी (या कह सकते हैं, उनका पठन-पाठन निषिद्ध था ) । मीमांसा में विचार, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में मौलिक शोध-अनुसंधान की गुंजाइश नहीं रहती ।

III. इन टोलों का आर्थिक ख़र्च राजा, जमींदार आदि जमीन या गाँव दान कर उठाते थे । जमीन से प्राप्त राजस्व से इन टोलों का संचालन होता था । मिथिला में इन टोलों के सबसे बड़े प्रायोजक दरभंगा महाराज थे । आचार्यों तथा मेधावी छात्रों को भी जमीन दान में दी जाती थी । इसी तरह अनेक ब्राह्मण पुरोहित और पण्डित समृद्ध भूस्वामियों में बदल गये । राजा प्रताप सिंह (1760-75) ने (स्मार्ता धर्मज्ञ तर्क मीमांशा वेदान्तालङ्कार) पंडित भवानीनाथ शर्मा को टोल चलाने के लिए आलापुर परगना का जगतपुर गाँव ही दान में दे दिया था । इसी तरह के और भी कई उदाहरण हैं ।

मिथिला की कृषि-व्यवस्था वहिया-प्रथा (भूदास/बँधुआ प्रथा) पर आधारित थी । दरभंगा राज के हाथ जहाँ ब्राह्मण पंडितों/पुरोहितों/मंदिरों को गाँव/भूमि दान के लिए खुले थे, वहीं शूद्र वहिया के लिए न सिर्फ़ बन्द थे, बल्कि उनके द्वारा किसी भी दावे की स्थिति में हिंसात्मक प्रहार के लिए तत्पर रहते थे ।22

IV. परीक्षा-प्रणाली : मिथिला में तीन तरह की परीक्षा-प्रणाली का विवरण मिलता है । धौत परीक्षा – इस परीक्षा-प्रणाली को शुरू करने का श्रेय खंडवला वंश (दरभंगा राज) के संस्थापक महेश ठाकुर को जाता है (संभवतः 1570 के दशक में) । इसमें महाराजा और उनकी विद्वत्मण्डली के समक्ष पंडितों को शास्त्रार्थ में भाग लेना होता था । इस शास्त्रार्थ में सफल पंडितों को एक जोड़ी धोती दी जाती थी – नैयायिकों को लाल, और वैदिकों, वैयाकरणों तथा अन्य को पीली धोती । इस परीक्षा में मिथिला के बाहर के पण्डित भी भाग लेते थे । बीसवीं सदी में डॉ. गंगानाथ झा कीदेखरेख में धौत-परीक्षा का एक पाठ्यक्रम (सिलेबस) भी प्रकाशित किया गया । धौत-परीक्षोतीर्ण एक सम्मानित डिग्री मानी जाती थी । (ऐसा कहा जाता है कि विद्वानों के अलावा, चोरों के लिए भी परीक्षा होती थी । चौर्य-कला की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक परीक्षा में उत्तीर्ण चोर को काली धोती दी जाती थी । वैसे कई विद्वान इस तथ्य की पुष्टि नहीं करते ।)23 शलाका परीक्षा – पाण्डुलिपि के पृष्ठों में विद्यार्थी (आजकल के बुकमार्क की तरह) सुई (शलाका) घोंप कर रखते थे । इस परीक्षा में इन पृष्ठों में से किसी भी विषय पर कहीं से शास्त्रार्थ शुरू की जाती थी । इसमें परीक्षार्थियों को पाण्डुलिपि अथवा पुस्तक साथ में रखने की छूट दी जाती थी । शास्त्रार्थ में सफल छात्रों को स्नातकत्व का प्रमाण-पत्र दिया जाता था । षड्यन्त्र – इस परीक्षा-प्रणाली में छात्रों को जनता के बीच अपनी विद्वता का प्रदर्शन करना पड़ता था, और उनके प्रश्नों का ज़वाब देना पड़ता था ।23

मिथिला की परम्परा में ऐसा माना जाता है कि रघुनाथ शिरोमणि मिथिला-विजय की आकांक्षा लेकर मिथिला आये थे, लेकिन यहाँ पक्षधर मिश्र के शिष्यों से हारकर तृतीय श्रेणी के छात्र के रूप में पक्षधर से पढ़ने लगे । (नव्य-न्याय के केन्द्र के रूप में मिथिला की ख्याति तब तक पूरे भारतवर्ष में फैल चुकी थी और विभिन्न अंचलों से छात्र विद्याध्ययन के लिए मिथिला आने लगे थे । न्याय तथा वैशेषिक के मेल से नव्य-न्याय की सैद्धान्तिकी का विकास तो 1000 ई. के आसपास उदयनाचार्य से ही हो गया था, लेकिन उसे दार्शनिक विमर्श के केन्द्र में लाने का श्रेय जाता है 1200 ई. के आसपास गंगेश उपाध्याय और उनकी रचना तत्त्वचिंतामणि को । दो सौ वर्षों के भीतर ही उसकी गूँज विजयनगर साम्राज्य में भी सुनाई देने लगी । नव्य न्याय के अनुयायी भी मीमांसा की कई प्रस्थापनाओं के आलोचक थे, यद्यपि यहाँ हम उस पर चर्चा नहीं करेंगे ।)  पक्षधर का असली नाम जयदेव था, और शास्त्रार्थों में हारते हुए पक्ष का साथ देकर उन्हें जितानेवाले के रूप में उनकी ख्याति के कारण उन्हें पक्षधर कहा जाने लगा । उनका एक नाम पीयूष वर्ष भी था, और वे विद्यापति के समकालीन थे । कुछ ही दिनों में रघुनाथ ने पक्षधर के शिष्य के रूप में अपनी प्रतिभा का, अपनी विद्वता का झण्डा गाड़ दिया । यहीं से उन्होंने बंगदेश (नदिया) जाकर नव्य-न्याय का प्रचार किया और न्याय शिरोमणि के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की । मिथिला में रघुनाथ शिरोमणि के और भी किस्से हैं, लेकिन उन्हें यहाँ देना ज़रूरी नहीं । (संभवतः कुछ बंगाली बुद्धिजीवी इन विवरणों पर आपत्ति दर्ज़ कर सकते हैं । मिथिला और बंगाल के बुद्धिजीवियों के बीच ऐसे कुछ विषयों पर मतान्तर रहा है । मिथिला के कई बुद्धिजीवी डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के कतिपय निष्कर्षों से इत्तेफ़ाक नहीं रखते ।)24

V. इन टोलों से शिक्षित ब्राह्मण स्नातक राजाओं/जमींदारों के पुरोहित, ज्योतिषी, अध्यापक, वैद्य, मंत्री के रूप में अथवा अन्य प्रशासनिक/शैक्षणिक सेवाओं में नियुक्ति पाते थे । मिथिला के ब्राह्मण स्नातकों की देश के विभिन्न रजवाड़ों में अच्छी मांग थी । इन मैथिल पण्डितों का कुछ विवरण इस प्रकार है – महेश ठाकुर के ज्येष्ठ भ्राता दामोदर ठाकुर गढ़ मंडला के राजा संग्राम शाह के पुरोहित थे । सचल मिश्र के नाम से लोकप्रिय महामहोपाध्याय भवानीनाथ पुणे में पेशवा माधवराव नारायण के दरबारी थे – पेशवा ने जबलपुर जिले के दो गाँव उन्हें दान में दिया था । नागपुर के भोंसलाओं के प्रधानमंत्री देवजी पुरुषोत्तम कृष्णदत्त मैथिल के संरक्षक थे । कविराज भानुदत्त मध्य भारत के कई राजाओं के दरबार में रहे और उन्होंने गढ़ मंडला के राजा संग्राम शाह, बांधवगढ़ (रेवा राज की राजधानी) के वघेला राजकुमार वीरभान, अहमदनगर के राजा निज़ाम शाह, और राजा शेरशाह की विरुदावली लिखी थी । गोविन्द ठाकुर बंगाल के कृष्णनगर राज के संस्थापक भवानंद राय के दरबारी थे, गंगानन्द बीकानेर के राजा कर्ण, और गोकुलनाथ उपाध्याय गढ़वाल के राजा फ़तेह शाही के दरबारी थे ।25

VI. 1835 में लार्ड बेंटिक ने अँग़्रेजी शिक्षा के प्रसार के अपने महत्वपूर्ण प्रस्ताव की घोषणा की । इस प्रस्ताव के अन्तर्गत आधुनिक एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल-कॉलेज़ों की स्थापना की जानी थी (इसे ही मेकॉले की शिक्षा-पद्धति के नाम से जाना जाता है) । बिहार में पहला एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल मुजफ्फरपुर में खोला गया । इसके लिए कुल बारह हजार रुपये जुटाये गये – इन बारह हजार रुपयों में सात हजार रुपये दरभंगा राज परिवार ने दान में दिया था (महाराजा रुद्र सिंह ने पाँच हजार और उनके छोटे भाई ने दो हजार रुपये दिये थे) । स्कूल के लिए जरूरी ज़मीन का पट्टा भी दरभंगा महाराज ने दान में दिया था । इसी तरह दरभंगा और मुंगेर में स्कूलों की स्थापना के लिए भी दरभंगा राज परिवार ने धनराशि और ज़मीन दी थी । आगे चलकर आधुनिक शिक्षा-पद्धति के अन्तर्गत स्थापित स्कूलों, कॉलेज़ों और विश्वविद्यालयों को दरभंगा महाराज की ओर से ज़मीन, भवन और धनराशि दी जाती रही । इस प्रकार टोल-आधारित शिक्षा-प्रणाली और आधुनिक कॉलेज़-आधारित शिक्षा-प्रणाली – दोनों के प्रमुख प्रायोजक दरभंगा महाराज ही थे । टोलों से निकले कई आचार्य स्कूलों, कॉलेज़ों और विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अध्यापकों के रूप में नियुक्त हुए । मुग़ल बादशाहों और सुल्तानों को अपनी विद्वता से प्रभावित कर पुरस्कार पाने, उनकी विरुदावली रच कर ज़ागीर तथा ज़मीन के पट्टे पाने को लालायित रहनेवाले पण्डित अब रानी विक्टोरिया और अँग्रेज़ लाटों की विरुदावली रचने और उनसे पद, सम्मान, उपाधि प्राप्त करने को तैयार थे ।26

मीमांसा मैकाले में अपने लिए नई संभावनाएँ तलाश रही थी । टोल-आधारित शिक्षा-पद्धति मूलतः ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वर्चस्व को बनाये रखनेवाली शिक्षा-पद्धति थी । मैकाले की शिक्षा-प्रणाली अँग्रेज़ों के औपनिवेशिक वर्चस्व की ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से संचालित थी । दोनों के अपने अन्तर्सम्बन्ध थे और अपने अन्तर्द्वन्द्व भी ।

टोल-व्यवस्था अत्यन्त संकुचित व्यवस्था थी जिसमें आबादी की विशाल बहुसंख्या का प्रवेश निषिद्ध था, कुछ चुनिन्दा प्राचीन ग्रंथों को रटने और उनपर टीकाएँ लिखने के अतिरिक्त उसमें नव-प्रवर्तन और अनुसंधान की गुंजाइश नहीं थी, जहाँ हाथ और श्रम की कोई मर्यादा नहीं थी । कुछ प्राचीन पाण्डुलिपियों के संरक्षण में उसकी भूमिका तो थी, लेकिन बाद में यह काम भी रॉयल एशिएटिक सोसाइटी तथा आधुनिक अभिलेखागारों ने ले लिया । निरन्तर संकुचित होती इस शिक्षा प्रणाली के लिए अपनी सिमटी-सिकुड़ी दुनिया में साँस लेना भी दूभर हो गया ।

इस बीच नयी सामाजिक शक्तियाँ ज्ञान के क्षेत्र में अपनी दावेदारी के साथ मैदान में उतरने लगी थीं – वे मीमांसा और मैकाले से परे शिक्षा के क्षेत्र में नई पहलकदमी ले रही थीं । वे एक सार्विक, सर्वसुलभ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली की स्थापना के लिए प्रयासरत थीं – ऐसी व्यावहारिक प्रणाली जो हाथ तथा श्रम की मर्यादा पर आधारित हो और जो छात्रों की अभिनव प्रवर्तनकारी सृजनात्मक क्षमता को उन्मुक्त करने में सक्षम हो । पिछले दो सौ वर्षों के दौरान समाज सुधार तथा स्वतंत्रता आन्दोलनों के प्रमुख प्रतिनिधियों की चिंता के केन्द्र में मीमांसा और मैकाले के वर्चस्व के बीच से शिक्षा का कोई तीसरा माध्यम खोजना था । अनेक उतार-चढ़ाव के बीच (संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्त में दर्ज़) यह सार्विक, सर्वसुलभ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा आज भी वैचारिक विमर्श का अतिमहत्वपूर्ण विषय बना हुआ है जिसकी झलक आप प्रतिमान 11 में प्रकाशित परिचर्चा में देख सकते हैं ।

नवज्योति मीमांसा बनाम मैकाले के विरोधी प्रवर्गों में अटक कर रह जाते हैं ; उनके बीच अन्तःक्रिया, एक-दूसरे में उनके स्थानान्तरण और नई सामाजिक शक्तियों के उत्थान की प्रक्रिया से अनजान बने रहते हैं ।

ग. पेट्रियॉटिक साइंस बनाम युरोपियन साइंस : नवज्योति मीमांसा का सूत्र थामकर ‘आधुनिकता के बैल को उसके सींग से पकड़ने’ की बात करते हैं :

‘आधुनिकता के बैल का सबसे सशक्त सींग विज्ञान है । उसी से नई-नई टेक्नोलॉजी और नई जीवनशैलियाँ आ रही हैं । पश्चिम की सबसे सशक्त विधायक शक्ति विज्ञान और टेक्नोलॉजी से आ रही है । प्रश्न यह है कि विज्ञान, टेक्नोलॉजी और परम्परा का क्या सम्बन्ध बनता है । .. हमने विचार किया कि महत्वपूर्ण काम विज्ञान और टेक्नोलॉजी को घरेलू बनाने का है । इस प्रक्रिया के दो बिन्दु हैं ; पहला यह कि ये संस्कारनिष्ठ हों ; हमारी परम्परा के जो संस्कार आ रहे हैं ; विज्ञान और टेक्नोलॉजी हमारे संस्कारों से बँधे हों । और दूसरा यह कि इससे जुड़ा जो उपनिवेशवादी अभिजात्य है, वह उससे मुक्त हो । वह लोकव्यापी हो । .. इसके लिए हम कुछ लोगों ने एक संस्था बनाई थी पी. पी. एस. टी (पेट्रियॉटिक एण्ड पीपल ओरिएंटेड साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी) । हमारे यहाँ पेट्रियॉटिक का अर्थ राष्ट्र से सम्बद्ध न होकर संस्कारनिष्ठता है । लोकव्यापीकरण का अर्थ है वही ज्ञान उचित है जो लोक में व्यापक हो पाए । (पृ. 21-22) .. इसके साथ ही विज्ञान और टेक्नोलॉजी से जुड़ी अपनी परम्पराओं का एक आधुनिक मंच भी तैयार किया गया : कांग्रेस ऑफ़ ट्रेडीशनल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी । पहली कांग्रेस मुम्बई आई. आई. टी. में हुई । ऐसी पाँच कांग्रेस अलग-अलग जगहों पर हुई । (पृ. 23) ..’ बहरहाल, ये प्रयास ज़्यादा आगे नहीं बढ़ सके । ‘लोकव्यापी संस्कारनिष्ठ मंच तैयार करने की कहानी यहाँ आकर समाप्त हो गई । लोग थक गये । (पृ. 28) .. इस प्रयोग से मुझे भी कुछ सोचने का अवसर मिला । .. मुझे लगा कि हम परम्परा में विज्ञान और टेक्नोलॉजी क्यों खोज़ रहे हैं, यह एक दोष था । हम यह खोज़ छोड़कर मानव-शास्त्र की ओर आ गये । (पृ. 31)’

‘पेट्रियॉटिज़्म’, जैसाकि सैमुएल ज़ॉन्सन ने कहा था, ‘दुष्टों की अन्तिम शरणस्थली’ हो न हो, पेट्रियॉटिक साइंस नीम-हकीमों की अन्तिम शरणस्थली ज़रूर है । वह विज्ञान ही क्या जो संस्कारों में सेंधमारी न करे । युरोप में विज्ञान-टेक्नोलॉजी ने जो स्वायत्तता हासिल की, उसके लिए उसे क़रीब दो शताब्दियों से भी ज़्यादा समय तक संस्कारनिष्ठता में ज़बर्दस्त सेंध लगानी पड़ी, रोमन चर्च के इनक्विज़ीशन का सामना करना पड़ा, उसके अग्रिम प्रतिनिधियों को ज़िंदा जलाया गया, उन्हें निर्वासन और नज़रबंदी की सज़ा भुगतनी पड़ी ।

हाँ, विभिन्न देशों अथवा अंचलों की भौगोलिक स्थिति, उनका भू-परिदृश्य, ज्ञान-विज्ञान का उनका इतिहास, उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्था एक जैसी नहीं होतीं । इसलिए अलग-अगल देशों-अंचलों में विज्ञान-टेक्नोलॉजी का विकास अलग-अलग विशिष्टताओं के साथ उपस्थित होता है जिसे संस्कारनिष्ठ विज्ञान कहने के बजाए देश-काल सापेक्ष विशिष्ट विज्ञान कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा । अमेरिकी इसे ‘साइंस टाइप’ कहते हैं ।

कहने की ज़रूरत नहीं कि समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों में जो विज्ञान-तकनीक विकसित होगी, वही रेगिस्तान में रहनेवाले समुदायों के विज्ञान से भिन्न होगी । भूपरिवेष्ठित पहाड़ी अंचलों की विज्ञान-तकनीक समतली इलाकों से अलग होगी । इस प्रकार, अलग-अलग अंचलों में ऐतिहासिक रूप से विकसित विज्ञान-तकनीक की अच्छी समझ विज्ञान-तकनीक-सम्बन्धी नीति निर्धारण और कार्यक्रम-कार्यान्वयन के लिए ज़रूरी शर्त है । भारत जैसे विशाल देश में जहाँ पर्याप्त भौगोलिक विविधता है, अलग-अलग अंचलों में ऐतिहासिक रूप से विकसित ऐसे विशिष्ट विज्ञान (‘साइंस टाइप’) के अनेक उदाहरण मिलेंगे । बहरहाल, यहाँ हम समुद्र-तटवर्ती क्षेत्रों में जहाजरानी उद्योगों के विकास, राजस्थान में जल-संरक्षण की विशिष्ट प्रणाली, गंगा-जमुना या कृष्णा-गोदावरी के मैदानों में कृषि-तकनीकों, गारो-खासी-जयंतिया तथा असम की जनजातियों द्वारा विकसित विशिष्ट तकनीकों आदि के ब्यौरों में नहीं जाएँगे । इन सब पर विज्ञान के क्षेत्र में काम करनेवाले अनेक विद्वानों की महत्वपूर्ण रचनाएँ मौज़ूद हैं । कम्प्यूटरों के विकास के बाद इन विशिष्ट तकनीकों का डॉक्युमेंटेशन भी हुआ है ।

यह ‘साइंस टाइप’ भी कोई रूढ़ श्रेणी नहीं है । विभिन्न अंचलों के बीच आदान-प्रदान चलता रहता है और किसी एक क्षेत्र की कोई ख़ास तकनीक दूसरे क्षेत्र के लिए भी उपयोगी साबित होती है । इतना ही नहीं, बाहर से आई कोई तकनीक अगर उपयोगी लगती है तो परम्परागत कारीगर शुरुआती ना-नुकर के बाद उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं । आसपास देखिए – लगभग सभी कारीगर, धातुकर्मी, काष्ठकर्मी, मिस्त्री, रसोइये आदि अब विद्युत-चालित उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं, हालांकि बिज़ली का विज्ञान और तकनीक बाहर से आई है । कम्प्यूटर, नेट के विकास ने साइंस-टाइप-आधारित विभाजनों को काफ़ी हद तक पाट दिया है ।

नवज्योति सिंह और उनके साथियों ने संस्कारनिष्ठ विज्ञान के विकास के लिए जो रास्ता चुना, उसकी विफलता तो शुरुआत से ही लिखी थी । परम्परागत कारीगरों का सम्मेलन आयोजित कर आप ‘आधुनिकता की सबसे बड़ी विधायक शक्ति’, उसके विज्ञान और उसकी टेक्नोलॉजी से लोहा नहीं ले सकते । इस मामले में कारीगर ज़्यादा चतुर निकले । वे जानते थे कि इन आयोजनों से पश्चिमी विज्ञान-टेक्नोलॉजी का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता । इसलिए उन्होंने इन मंचों का इस्तेमाल अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मांगों को उठाने के लिए किया, और यहाँ तक कि अपने बाल-बच्चों के ब्याह के लिए भी । परम्परागत रूप से उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया था, इसलिए वे चाहते थे कि उनके बच्चों को प्राथमिक से लेकर उच्चतर स्तर तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध हो ; उनके लोगों का सरकारी नौकरियों में, विधान-सभाओं तथा संसद में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, इसलिए वे इन संस्थाओं में अपनी समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते थे ; बुन्देलखण्ड में शामिल लोगों की मुख्य दिलचस्पी पृथक बुन्देलखण्ड प्रदेश के निर्माण में थी, न कि पेट्रियॉटिक साइंस में । इस तरह, पेट्रियॉटिक साइंस की दिशा में आयोजित सम्मेलनों और काँग्रेसों में आरक्षण, भागीदारी, पृथक प्रदेश, रिश्तेदारी जैसे विषय छाये रहे ।

इस प्रकार, कारीगरों ने पेट्रियॉटिक साइंस को साइंस के क्षेत्र से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया । मीमांसक दृष्टि ने पश्चिमी विज्ञान से हार मानकर अपने हथियार डाल दिये :  पेट्रियॉटिक साइंस की खोज छोड़कर वे मानव-शास्त्र की ओर चले गये ।

घ. पेशों का नैतिक (यजमानी) सिद्धान्त बनाम पहले अपने लिए करो का गांधीजी का सामी सिद्धान्त :

पहले यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि इस प्रसंग में नवज्योति गांधीजी के विचारों को जिस रूप में प्रस्तुत करते हैं, वह उनके विचारों का मनमाना सरलीकरण है । नवज्योति कारीगरों और यजमानों के सम्बन्ध को माँ और बेटे के सम्बन्ध के रूप में प्रस्तुत करते हैं । (पृ. 34)  कारीगरों तथा यजमानों का सम्बन्ध बेगार-प्रथा पर आधारित एक ब्राह्मणवादी-सामंती सम्बन्ध था, यह कारीगरों के उत्पीड़न पर आधारित (अनैतिक) सामाजिक सम्बन्ध था, जिसकी जकड़न को तोड़कर हर कारीगर आज़ाद होना (या रैदास की शब्दावली में बेगमपुरा जाना) चाहता था । ‘अपने लिए करो’ का मतलब था मालिक के लिए बेगार मत करो । मीमांसा में बेगार श्रम को एक नैतिक, धार्मिक, कर्मकाण्डीय महिमा प्रदान की गई है । मीमांसा की इस सनातनी दृष्टि का आज भी कोई दार्शनिक इस तरह खुलकर पक्षपोषण कर सकता है, यह ख़ुद आश्चर्य की बात है ।

इसी तरह जाति और दलित-प्रश्न पर नवज्योति के विचार काफ़ी घिसे-पिटे मीमांसक विचार हैं । यहाँ मैं जाति और वर्ण के किसी सैद्धान्तिक बहस में जाना नहीं चाहूँगा । जातियों की गणना और इन जातियों को चतुर्वर्ण की श्रेणियों में समायोजित करने का काम प्राचीन काल से चलता आया है – मिथिला में (13वीं सदी के अन्त अथवा 14वीं सदी के आरम्भ में) ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित वर्णरत्नाकर27 में आप यह सूची देख सकते हैं, और उसके पहले धर्मशास्त्रों तथा स्मृति-ग्रंथों में । लेकिन पहले नवज्योति के विचारों पर नज़र डाल लेते हैं :

‘पुराने जमाने में कुछ ऐसे लोगों की कल्पना की जाती थी, जो अपने कुकर्मों के कारण अद्विज हो जाते थे, आधुनिक काल में इन्हें ही दलित कहा जाने लगा । अँग्रेजों के झूठे इतिहास में ये अद्विज चिरकाल से सताये गये दलित बन गये हैं और इस तरह जाति प्रथा बन गयी, बिल्कुल स्थिर ठहरी हुई । .. हमारे यहाँ तो पारिवारिक स्मृति सात जन्मों से पहले जाती नहीं है । .. अँग्रेजों की थी । वे अपने को बाहरवीं सदी के नार्मन विजय से जोड़ते हैं ।’ (पृ. 79) .. ‘इसीलिए उन्होंने भारतीयों के विषय में भी इसी तरह सोचा और दलित और सवर्ण उत्पन्न कर दिये, जो बाद में सचमुच उसी तरह व्यवहार करने लगे । दरअसल, अद्विजों के अपराध की कोई स्मृति नहीं है क्योंकि तीन पीढ़ियों से अधिक की यहाँ पारिवारिक स्मृति नहीं रहती ।’ (पृ. 80) .. ‘अँग्रेजों की तैयार की गयी जाति प्रथा जनगणना के कारण अस्तित्व में आयी । उन्हें तो दफ़्तरों में बैठकर तैयार किया गया ।’ (पृ. 39)

क्या ये विचार किसी गंभीर चर्चा की मांग करते हैं ? अँग्रेजों ने दफ़्तरों में बैठकर दलित और सवर्ण उत्पन्न कर दिया और भारत के लोग सचमुच उसी तरह व्यवहार करने लगे ? क्या भारत के लोगों के प्रति इससे बड़ी कोई अपमानजनक टिप्पणी हो सकती है ? दाद देनी होगी इस दुस्साहस को !

बहरहाल, भारत में ऐसे कई समुदाय हैं जिनका वंश-वृक्ष नार्मन विजय से भी पहले तक जाता है – उन्हें मैथिल ब्राह्मणों के बारे में ही पता कर लेना चाहिए था । इसलिए तथ्यतः उनका तर्क गलत है । इसके अलावा, तीन या सात पीढ़ियों की पारिवारिक स्मृति स्मृति का बस एक आयाम है । किसी भाषा का साहित्य उस समाज की स्मृति का आगार होता है । इसलिए प्राचीन संस्कृत साहित्य में ही कोई वर्ण-जाति व्यवस्था का सहज ही साक्षात् कर सकता है । नवज्योति मनमाने ढंग से तीन पीढ़ी की पारिवारिक स्मृति का हवाला देकर उत्पीड़क वर्ण-जाति व्यवस्था की जिम्मेवारी अँग्रेज़ों पर थोपकर भारतीय समाज में उसकी उपस्थिति को सिरे से ख़ारिज करने का हास्यास्पद प्रयास करते हैं ।

इस बात से कोई इन्कार नहीं करता कि 1871-72 में अँग्रेजों द्वारा शुरू की गई जनगणना ने भारतीय जाति-व्यवस्था में हलचल पैदा की, नई स्थितियों में जातियाँ नये सिरे से संगठित होने लगीं, वंचित शूद्र समुदायों ने अपनी दावेदारी पेश करनी शुरू की, और विभिन्न क्षेत्रों में अपने समकक्ष समूहों के साथ अपना सामाजिक-राजनीतिक सम्बन्ध बनाना शुरू किया । जाति संगठन और आन्दोलन के प्रारम्भिक दौर में जनेऊ आन्दोलन के जरिये अद्विज जातियों ने द्विज होने का दावा ठोका और आगे चलकर दलित तथा पिछड़ा वर्ग के रूप में अपने आन्दोलन को विस्तार दिया । हम यहाँ इन परिघटनाओं की तफ़्सील में नहीं जाएँगे । इन विषयों पर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है । हमारा उद्देश्य सिर्फ़ यह दिखाना है कि औपनिवेशिक काल में जातियों की यह गतिशीलता प्राचीन काल से चली आ रही श्रेष्ठ-निम्न के सोपान पर आधारित उत्पीड़क जाति-व्यवस्था से मुक्त होने की छटपटाहट ही थी, कि अँग्रेजों ने यह व्यवस्था नहीं बनाई थी, कि अद्विज-पंचम की श्रेणियाँ ही नई स्थितियों में पिछड़ा-दलित वर्गों के रूप में द्विजों (सवर्णों) के ख़िलाफ़ संगठित हो रही थी और उनके वर्चस्व को चुनौती दे रही थीं । यहाँ भी जातियों के अपने समकक्ष समुदायों के साथ मिलकर अखिल भारतीय संगठन बनाने के संदर्भ में नवज्योति की दृष्टि सिर्फ़ यादवों तक गई । अखिल भारतीय स्तर पर इस तरह संघबद्ध होने में ब्राह्मण और उनकी उपजातियाँ पीछे नहीं थीं । बिहार तथा उत्तरप्रदेश में इस दिशा में पहल कायस्थों ने की थी । गोप सभा तो बाद में बनी थी ।

प्राचीन संस्कृत साहित्य का कोई पृष्ठ पलटिये – आर्य बस्तियों में आपका सामना शूद्रों, चाण्डालों से होगा, उनपर होनेवाले अत्याचारों का लोमहर्षक विवरण मिलेगा, और इन अत्याचारों का अनेक जगहों पर शास्त्रीय-कर्मकाण्डीय महिमामण्डन भी । इन आर्य-बस्तियों से जैसे ही आप बाहर आइएगा, आपकी मुलाकात द्राविड़ों, नागों, निषादों, शबरों, किरातों, भीलों, असुरों आदि से होगा । इसके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं ।

बहरहाल, यह कोई किताबी बात नहीं है । अगर आप भारत में रहते हैं तो यह रोज़मर्रे के अनुभव की बात है ।

किसी से मिलने पर पहले जाति पूछने को लेकर बेवज़ह बिहारियों को दोष दिया जाता है । राजा दुष्यन्त ने कण्व आश्रम में पहली बार शकुंतला को देखा तो उनके मन में सबसे पहले यही प्रश्न उठा था, ‘आखिर यह किस वर्ण की स्त्री है ?’ :

‘अपि नाम कुलपतेरियमसवर्णक्षेत्रसंभवा स्यात् । अथवा कृतं संदेहेन । असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदार्थमस्यभिलाषि मे मनः । सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।। तथापि तत्त्वत एनामुपलप्स्ये ।’28 (यह ऋषि की कन्या कहीं दूसरे वर्ण की स्त्री से तो उत्पन्न नहीं हुई है । पर संदेह किया ही क्यों जाय क्योंकि – जब मेरा शुद्ध मन भी इस पर रीझ उठा है तब यह निश्चय है कि इसका क्षत्रिय से विवाह हो सकता है । क्योंकि सज्जनों के मन में जिस बात पर शंका हो वहाँ जो कुछ उसका मन कहे वही ठीक मान लेना चाहिए ।। फिर भी मैं इसका ठीक-ठीक पता लगाता हूँ ।

स्वयंवर में द्रौपदी को जीत कर पाण्डव जब जा रहे थे, तब राजा द्रुपद के मन में क्या हलचल मची थी :

‘कच्चिन्न शूद्रेण न हीनजेन/ वैश्येन वा करदेनोपपन्ना । कच्चित् पदं मूर्ध्नि न पङ्कदिग्धं/ कच्चिन्न माला पतिता श्मशाने ।। कच्चित् सवर्णप्रवरो मनुष्य/ उद्रिक्तपर्णोप्युत एव कच्चित् । कच्चिन्न वामो मम मूर्ध्नि पादः/ कृष्णाभिमर्शेन कृतोद्य पुत्र ।।’29 (कहीं किसी शूद्र ने अथवा नीच जाति के पुरुष द्वारा ऊँची जाति की स्त्री से उत्पन्न मनुष्य ने या कर देनेवाले वैश्य ने तो मेरी पुत्री को प्राप्त नहीं कर लिया ?  और इस प्रकार उन्होंने मेरे सिर पर अपना कीचड़ से सना पाँव तो नहीं रख दिया ? माला के समान सुकुमारी और हृदय पर धारण करने योग्य मेरी लाडली पुत्री श्मशान के समान अपवित्र किसी पुरुष के हाथ में तो नहीं पड़ गयी ? क्या द्रौपदी को पानेवाला मनुष्य अपने समान वर्ण (क्षत्रिय कुल) का ही कोई श्रेष्ठ पुरुष है ? अथवा वह अपने से भी श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल का है ? बेटा ! मेरी कृष्णा का स्पर्श कर किसी निम्न वर्णवाले मनुष्य ने आज मेरे मस्तक पर अपना बायाँ पैर तो नहीं रख दिया ?)

ऐसे ढेरों उदाहरण संस्कृत साहित्य से दिये जा सकते हैं । वेदव्यास और कालिदास अँग्रेज नहीं थे । इसी तरह गैर-आर्य जनों और उनके प्रति ब्राह्मणवादी सोच तथा व्यवहार के उदाहरण भी भरे-पड़े हैं ।

बहरहाल, ऐसे उदाहरणों की ज़रूरत भी नहीं है । जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैं, अगर आप भारत में रहते हैं तो जाति-प्रथा के बारे में, गैर-आर्य जनों के बारे में किताबों से जानने की ज़रूरत ही नहीं है – यह हमारे रोज़मर्रे के जीवन का यथार्थ है ।

अपने नित्य शब्दलोक में जीनेवाले मीमांसकों के लिए यथार्थलोक प्रायः पराये का षडयंत्रलोक होता है । यथार्थ के षडयंत्र का दमन कर शब्द की सत्ता स्थापित करने का अभियान चलाया जाता है । यथार्थ शब्द के ख़िलाफ़ षडयंत्र है ; शब्द से परे कोई यथार्थ नहीं ; शब्द ही मूल यथार्थ है । (व्याकरण ही मूल रैशनलिटी है । (पृ. 84) यही मीमांसा की तर्कप्रणाली है ।

ङ. इतिहास बनाम हिस्ट्री : इतिहास और हिस्ट्री की अवधारणाओं और उनके बीच फ़र्क को रेखांकित करते हुए देशी-विदेशी अनेक विद्वानों ने क़ाफी कुछ लिख रखा है । हिन्दी में भी इस विषय पर विद्यानिवास मिश्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा आदि की रचनाओं में विस्तृत चर्चा मिलती है । यहाँ हमारा उद्देश्य इस चर्चा में जाना नहीं है, बल्कि इस विषय पर ‘विचरण’ में नवज्योति के विचारों में जो असंगति है, उसे दर्शाना है ।

नवज्योति इतिहास को ‘न्याय की स्मृति’ और हिस्ट्री को ‘अन्याय की स्मृति’ के रूप में वर्णित करते हैं (पृ. 58) । इस आधार पर वे मार्क्स, हीगेल और रोमिला थापर (पृ. 59-60) की आलोचना करते हैं तथा तथ्यों और साक्ष्यों के महत्व को सिरे से ख़ारिज़ कर देते हैं । इस सूत्रीकरण के बावज़ूद अपने पूरे साक्षात्कार में वे हिस्ट्री की पद्धति का ही अनुसरण करते हैं । पूरा साक्षात्कार मीमांसा की परम्परा के साथ अन्याय की स्मृति पर ही केन्द्रित है ।

इस तरह न्याय की स्मृति और अन्याय की स्मृति को परस्पर विरोधी प्रवर्ग में रखकर वे निश्चिंत हो जाते हैं और इन प्रवर्गों के बीच की अन्तःक्रिया के विश्लेषण में जाने की कोई कोशिश नहीं करते । दरअसल, न्याय की स्मृति में अन्याय की विस्मृति भी अन्तर्निहित है और अन्याय की स्मृति न्याय के संधान और उसकी प्राप्ति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी है

एकलव्य’ फ़िल्म को लेकर वे जो कुछ कहते हैं, वही तो उसका पारम्परिक पाठ है – उसने स्वेच्छा से गुरु-दक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा दान कर दिया । इसलिए उसके साथ कोई अन्याय नहीं हुआ । बहरहाल, जब वंचित आदिवासी30 समुदाय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अपनी दावेदारी के साथ सामने आने लगे, तो इस पारम्परिक पाठ को चुनौती मिलनी शुरू हुई । एकलव्य के साथ अन्याय हुआ, इस अन्याय को विस्मृत कर देने की वर्चस्ववादी कोशिशों के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठने लगीं, और उसके साथ न्याय के संधान और उसकी प्राप्ति के प्रयास भी । अनेक जनों, समुदायों, वर्गों आदि में बँटे समाज में न तो आख्यानों का कोई एकल पाठ होता है, और न ही नैतिक परीक्षण की कोई एक प्रक्रिया । इस मामले में नवज्योति सजग ज़रूर हैं, लेकिन उनका झुकाव एकल पाठ और नैतिक परीक्षण की एकल प्रक्रिया की ओर अधिक है । यह गाथाओं के प्रसंग में भी दिखता है ।

नवज्योति के अनुसार ‘पश्चिम में विमर्श बहुत अधिक है’ और इस विमर्श में ‘गाथाओं को लाना है’ (पृ. 82) । हमलोग गाथाओं वाले लोग हैं, पश्चिमवाले इतिहास-देवता-गाथाविहीन विमर्शवाले । फिर वही ‘हम’ और ‘वे’ की नित्य दुनिया । (बहरहाल, भारत में कितना विमर्श है, इसे भारतीय विचार-परम्परा का नया अध्येता भी आसानी से लक्षित कर सकता है । इस लेख में ही पहले हम इसकी कुछ झलक दे चुके हैं ।)

गाथाएँ मानवजाति के अस्तित्व का अभिन्न अंग रही हैं ; कोई भी मानव-समुदाय नहीं जिसके पास गाथाएँ नहीं । हम सब गाथाओं के महासागर में डूबने-उतरानेवाले प्राणी हैं । कौन कहता है कि युरोप के पास गाथाएँ नहीं हैं ? युरोप नाम एक गाथा से जुड़ा नाम ही है – युरोपा फीनीशियन मूल की रानी थी, क्रीट के राजा मिनोस की माँ । ग्रीक देवता जिउस ने बृषभ का रूप धर कर उसका अपहरण किया था । ग्रीक, रोमन, नोर्स, जर्मन, आइरिश, लिथुआनियन आदि गाथाओं से युरोप का साहित्य और जनजीवन सराबोर रहा है । आज के कई उपकरणों, सॉफ्टवेयर आदि के नाम इन्हीं गाथाओं से लिये गये हैं । मौज़ूदा समय की महाकाय टेक कम्पनियों में से एक एपल का नाम और लोगो (थोड़ा चखा हुआ सेब) एक गाथा की ही याद दिलाता है – यह हमारे होने की गाथा है, वर्जना के अतिक्रमण की, निषिद्ध के संधान की गाथा । अमेज़न की वर्चुअल एसिस्टेंट अलेक्सा का नाम अलेक्जेंड्रिया (मिस्र) के प्रख्यात पुस्तकालय पर आधारित है – यह इतिहास-प्रसिद्ध पुस्तकालय कला की नौ देवियों को समर्पित था । ऐसे उदाहरणों को पूरी एक किताब में समेटना भी संभव नहीं ।

बहरहाल, हर युग में वर्चस्वशाली सामाजिक शक्तियाँ अपने स्वार्थ में कथाओं की बहुलता के बीच से किसी एक कथा को, किसी एक आख्यान को एकमात्र महाआख्यान में बदलने की कोशिश करती हैं । इसके परिणामस्वरूप गाथाएँ कथाओं के धागों से जो महाजाल बुनती हैं, वह टूट कर बिखर जाता है और समाज विघटन का शिकार हो जाता है । एक आख्यान का एकमात्र महाआख्यान में परिवर्तन गाथा का मृत्युलेख है । समाज को इसका क्या परिणाम भुगतना पड़ता है इसे आप बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में जर्मनी में आर्य-गाथाओं से ‘ट्युटोनिक नस्ल का महाआख्यान’ रचने के परिणास्वरूप होनेवाले जनसंहारों तथा युद्धों में देख सकते हैं ।

च. एक अकेले व्यक्ति की श्रेष्ठता प्राप्त करने की सनातनी व्यवस्था बनाम दूसरों को आधार बनाकर श्रेष्ठता हासिल करनेवाली व्यवस्था :

‘नवज्योति : एक झाड़ के नीचे बैठकर मनुष्य श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अकेला, बिना किसी अधिसंरचना के । दूसरी दृष्टि यह है कि श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए उसे अन्य लोगों को आधार बनाना आवश्यक है । .. मूलतः बात यह है कि एक अकेला व्यक्ति अपने आप में श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकता है ।

उदयन : यह सनातन दृष्टि है ।

नवज्योति : इसे कुछ लोग असामाजिक कह रहे हैं, पर ऐसा है नहीं । भविष्य में ऐसी व्यवस्था बनेगी ।

उदयन : यह सम्भावना सनातन दृष्टि के कारण बनेगी ।’ (पृ. 40)

नवज्योति इन दो ध्रुवों के बीच एक तीसरी अवस्था की संभावना को देखने में फिर असमर्थ साबित होते हैं । इतिहास में व्यक्तियों, जनों, समुदायों, राष्ट्रों के बीच परस्पर सहयोग, सहभागिता और पारस्परिक लाभ के आधार पर श्रेष्ठता हासिल करने के अनेक उदाहरण मिलेंगे और आज भी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इसी माध्यम से अनेक बहुमूल्य उपलब्धियाँ हासिल हो रही हैं ।

दरअसल, मानवजाति के लिहाज़ से देखें तो एक अकेले व्यक्ति के लिए श्रेष्ठता हासिल करना तो दूर, अपना अस्तित्व बनाये रखना भी संभव नहीं, और दूसरों को आधार बनाकर श्रेष्ठता हासिल करनेवाली व्यवस्था वास्तव में बहुसंख्या की सृजनात्मकता को कुंद करनेवाली व्यवस्था है जो निरन्तर आन्तरिक संघर्ष और युद्धों से जूझती रहती है ।

छ. शिष्टता बनाम अशिष्टता : इस साक्षात्कार में नवज्योति ने इतनी बार ‘शिष्टता’ का प्रयोग किया है कि शिष्ट से शिष्ट व्यक्ति का मन भी ‘अशिष्ट’ होने के लिए मचल उठे ।31 (84 पृष्ठों की किताब में पृष्ठ 55 के बाद ही क़रीब 52 बार यह शब्द आया है । इसके पहले भी कई जगह है । यहाँ हमने इस गणना में ‘सद्गुण’, ‘संस्कारनिष्ठ’ जैसे शब्दों को शामिल नहीं किया है ।)

बहरहाल, वह कौन-सी सबसे बड़ी अशिष्टता है जो आजतक मानवजाति के साथ जुड़ी हुई है ? वह है, लिंग, नस्ल, रंग, जाति, वर्ग आदि पर आधारित भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा । मानवजाति की बहुसंख्या इस अशिष्टता का भुक्तभोगी रही है । अनेक विचार-प्रणालियों में इस अशिष्टता को वैधता प्रदान की गई है । मीमांसा भी उन्हीं विचार-प्रणालियों में से एक है – इसमें पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धान्त के आधार पर शूद्रों-अन्त्यजों और अनार्य जनों के प्रति संगठित अशिष्टता और हिंसा का महिमामण्डन किया गया है । (दलितवाले प्रसंग में हम इसका ज़िक्र कर चुके हैं ।) इस तरह, नवज्योति की शिष्टता इस संगठित अशिष्टता की पर्दादारी की नाकाम कोशिश है । वह भी एक ऐसे समय में जब हमारे तथा दुनिया के अनेक देशों के संविधानों में, संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में इस संगठित अशिष्टता के विरुद्ध मानव-मानव के बीच परस्पर सम्मान और समानता पर आधारित सम्बन्ध कायम करने का पक्षपोषण किया गया है, और इस अशिष्टता को, इस अशिष्टता-जनित भेदभाव, उत्पीड़न तथा हिंसा को संज्ञेय अपराध माना गया है ।

ज. कृषि समाज बनाम औद्योगिक समाज : नवज्योति लिखते हैं, ‘भारत गाँवों में रहता है और हम कृषि प्रधान देश हैं, यह एक मिथक है । भारत को कृषि प्रधान कहना एक तरह की निर्मिति थी । भारत चिरकाल से औद्योगिक देश रहा है । कृषि यहाँ का दूसरे नम्बर का पेशा रहा है । हम औद्योगिक और पेशेवर समाज रहे हैं । .. यह देश कृषि प्रधान औपनिवेशिक होने के बाद बना है । भारत में खेती कभी भी मुख्य कार्य नहीं रहा । यह तो अधिकतर झल्ले किया करते थे । .. ’ (पृ. 38-39-40)

अगर भारत चिरकाल से एक औद्योगिक देश रहा है तो विचारणीय विषय यह होना चाहिए था कि औद्योगिक देश होने के बावज़ूद आज हम जितने उपकरणों से घिरे हैं, और रोज़मर्रे के जीवन में जिनका इस्तेमाल करते हैं, उनमें से लगभग किसी भी चीज का आविष्कार हमारे यहाँ क्यों नहीं हुआ । नवज्योति इस प्रश्न का सामना ही नहीं करते ।

इस विषय पर विस्तार में गये बिना निम्नलिखित बातों पर ग़ौर करना चाहिए :

i.  ग्रामीण समाज कृषि तथा दस्तकारी के आवयविक सम्बन्ध पर ही आधारित था । उद्योग-धंधे, कार्य-कौशल, विनिमय-व्यवसाय आदि प्राचीन जन-समाजों के काल से ही चले आ रहे हैं । विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में विशिष्ट उद्योग-धंधों, कार्य-कौशल, विनिमय आदि के विकास का भी इतिहास काफ़ी पुराना है । सम्राटों, राजाओं तथा सामंतों की राजधानी में बड़ी-बड़ी कार्यशालाएँ होती थीं जहाँ राज्य भर से चुनिंदा कारीगरों तथा प्रशिक्षु कारीगरों द्वारा सामंतों के इस्तेमाल की सामग्रियों, उपकरणों, हथियारों आदि का बड़े पैमाने पर निर्माण किया जाता था । समुद्र तटवर्ती इलाकों में समुद्रपारीय व्यवसाय, कारीगरों की बस्तियों का भी काफ़ी प्राचीन इतिहास है । बहरहाल, कोई समाज कृषि प्रधान है या नहीं, यह इस बात से तय होता है कि उस समाज की सम्पत्ति का, उस देश की आय का मुख्य स्रोत क्या है  ? भारत के विशाल भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न राजतंत्रों तथा साम्राज्यों की आय का मुख्य स्रोत भूमि से, कृषि से प्राप्त राजस्व ही था । यहाँ तक कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के राजस्व का भी । यह सही है कि 1813, तथा खासकर 1830 के चार्टर एक्ट के बाद जब भारत का बाजार ब्रिटिश कपड़ा मिलों के लिए खोल दिया गया तो भारतीय उद्योगों (खासकर वस्त्र-उद्योग) को भारी तबाही का सामना करना पड़ा और कृषि पर बोझ काफ़ी बढ़ गया, जिसे हम ‘डि-इंडस्ट्रियलाइजेशन’ की परिघटना के रूप में जानते हैं । सामंती सेनाओं के विघटन ने भी इसमें अपना योगदान दिया । लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसके पहले भारत कृषि प्रधान देश नहीं था । मौर्यों, गुप्तों, मुग़लों और अन्य भारतीय राजाओं की आमदनी का मुख्य स्रोत भू-राजस्व ही था । सामंत ही वर्चस्वशाली वर्ग थे और बहुसंख्या कृषि पर ही निर्भर थी । व्यापारियों ने ऋण-बॉण्डों अथवा युद्ध-बॉण्डों के जरिये उन्हें तब भी सोने की जंजीरों में बाँध नहीं रखा था । ईस्ट इंडिया कम्पनी इसी भू-राजस्व से न सिर्फ़ अपना प्रशासनिक ख़र्च वहन करती थी, बल्कि अपना व्यवसाय भी इसी आय से चलाती थी ।

ii. कोई वास्तुशिल्पी, मूर्तिकार, चित्रकार भारत में आकर यहाँ के मंदिरों, राजमहलों, मूर्ति-शिल्पों तथा कलाकृतियों को देखकर यह कहे कि भारत वास्तुशिल्पियों और कलाकारों का देश है तो यह कोई गलत बात नहीं होगी । लेकिन इससे वह निष्कर्ष निकाले कि भारत कृषि-प्रधान नहीं, कला-प्रधान देश है तथा कला ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है तो यह गलत होगा । राजमहलों, मंदिरों आदि का निर्माण कारीगर/श्रमिक करते थे, लेकिन उनका ख़र्च किसानों को ही वहन करना पड़ता था ।

1850 के दशक में भारत में तीन सर्वथा नये उद्यमों की शुरुआत हुई – रेल, टेलिग्राफ़ और आधुनिक कपड़ा मिल । इन कार्यों के लिए प्रबंधक, इंजीनियर, अतिकुशल श्रमिक तो इंगलैंड और अन्य युरोपीय देशों से लाये गये थे, लेकिन स्थानीय तौर भी अर्ध-कुशल, अकुशल मज़दूरों की ज़रूरत थी । इस मामले में अँग्रेज़ों ने ख़ुद सर्वे कराया और पाया कि ‘भारतीयों में अपने को बिल्कुल नये ढंग के काम के अनुकूल ढाल लेने और मशीनों को चलाने के लिए आवश्यक जानकारी हासिल कर लेने की विशेष योग्यता होती है ।’ अँग्रेज़ इतिहासकार जी. कैम्पबेल ने ठीक वही बात 1852 में लिखी जो नवज्योति सिंह ने 2018 में, ‘भारत की अधिकांश जनता में महान औद्योगिक शक्ति है, पूँजी इकट्ठा करने की क्षमता है, गणित के लिए उसका मस्तिष्क विलक्षण रूप से साफ है, और सांख्यिकी तथा तथ्य विज्ञानों के लिए उसमें मेधा है । .. उनकी बुद्धि बहुत अच्छी है ।’ बहरहाल, कैम्पबेल के इस उद्धरण को उद्धृत करने के तुरत बाद मार्क्स उस बात को कहना नहीं भूले जिससे नवज्योति साफ कन्नी काटकर निकल गये । भारतीयों की महान औद्योगिक शक्ति के साकार होने की राह में उन्होंने ‘उस पुस्तैनी श्रम विभाजन’ को ज़िम्मेवार ठहराया जिसपर ‘भारत की जात-पांत व्यवस्था खड़ी है और जो भारत की उन्नति तथा शक्ति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है ।’32

iii. युरोप में शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के शुरुआती काल में कई प्रमुख अर्थशास्त्री (‘फिज़ियोक्रैट्स’) कृषि को ही सारी सम्पत्ति का मूल स्रोत बताते थे और खेतिहरों को छोड़कर बाकी सभी वर्गों को परजीवी मानते थे । औद्योगिक क्रान्ति तथा औद्योगिक पूँजीवाद के विकास, राष्ट्रीय आय में कृषि की निरन्तर घटती हिस्सेदारी और कृषि आबादी में ह्रास के क्रम में कृषि का महत्व घटने लगा और कृषि समाज के प्रति दृष्टि भी । वर्तमान में ऐसे कई विचारक हैं जो कृषि युग की तुलना में शिकारी-फल-संग्राहक समाजों का महिमामण्डन करते हैं । युवल नोआ हरारी (2014) तो अपनी बहुचर्चित किताब ‘सेपियन्स : अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ ह्युमनकाइण्ड’ में ‘कृषि क्रान्ति को इतिहास के सबसे बड़े फ़्रॉड’ की संज्ञा देते हैं – किताब के पाँचवें अध्याय का शीर्षक ही है ‘हिस्ट्रीज़ बीगेस्ट फ़्रॉड’ । मेरी समझ से मानवजाति के क़रीब दस हजार वर्षों के एक पूरे युग के बारे में इस तरह का नैतिक फ़ैसला सुनाना कहीं से भी उचित नहीं है । शिकारी-फल-संग्राहक युग की उपलब्धियों तथा विशेषताओं को सामने लाने के लिए कृषि युग को बिल्कुल नकारात्मक रूप में पेश करना ज़रूरी नहीं है ।

इस प्रकार नवज्योति किसानों के बारे में जो कुछ कहते हैं, उसमें नया कुछ नहीं है । कृषि तो झल्ले किया करते थे – यह कथन मानव जाति के दस हजार वर्षों के सबसे बड़े उत्पादक वर्ग के प्रति घोर अपमानजनक टिप्पणी है । उद्योग-धंधों तथा कारीगरों का महत्व सामने लाने के लिए कृषि-कर्म का अवमूल्यन करना ज़रूरी नहीं ।

दरअसल, कृषि और दस्तकारी की एकता पर आधारित ग्रामीण समाज में जाति की सोपानमूलक संरचना में अन्तर्निहित (जातियों के बीच) भेदभाव के बावज़ूद प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक समय-समय पर ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्षों तथा आन्दोलनों में किसान और कारीगर एकजुट होते रहे हैं, और शूद्र जातियों के सुधारक-संतों के सामाजिक आधार रहे हैं ।   

विरोधी प्रवर्गों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा हम अलग से करेंगे । लेकिन आगे बढ़ने से पहले कुछ अन्य विषयों पर संक्षिप्त टिप्पणी अपेक्षित है :

क. आधुनिकता की सबसे बड़ी विधायक शक्ति : नवज्योति के अनुसार, आधुनिकता की सबसे बड़ी विधायक शक्ति विज्ञान-टेक्नोलॉजी है । क्या यह सही है  ? आधुनिकता के कई संघटक तत्व हैं – पुनर्जागरण और प्रबोधन की पृष्ठभूमि में कला-साहित्य और विचार-दर्शन के क्षेत्र में नव-प्रवर्तनकारी धाराओं का अभ्युदय, धर्मसुधार आन्दोलन, वैज्ञानिक क्रान्ति, पवित्र रोमन साम्राज्य का विघटन और राष्ट्र-राज्यों का उत्थान, सम्प्रभुता के नये सिद्धान्तों और प्रणालियों का जन्म, व्यापारिक और फिर औद्योगिक क्रान्ति, औपनिवेशिक प्रणाली तथा दास-प्रथा, फ़्रांसीसी राज्य-क्रान्ति और संवैधानिक प्रजातंत्रों की स्थापना, लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास, नारी आन्दोलन, मज़दूर तथा समाजवादी आन्दोलन, सार्विक मताधिकार आदि । इन सारे संघटक तत्वों की अपनी स्वायत्तता भी रही है । अलग-अलग युरोपीय देशों में यह प्रक्रिया अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ आविर्भूत हुई । बहरहाल, वह कौन-सी सर्वग्रासी शक्ति है जिसने इन सारे संघटक तत्वों को अपने अधीन कर सम्पूर्ण विश्व को अपने आग़ोश में ले लिया और जिसके सर्वग्रासी वर्चस्व से कई संघटक तत्व आज भी जूझ रहे हैं । वह है पूँजी – पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक प्रणाली

मीमांसक दृष्टि बाह्य अंधकारमयता की इस विधायक शक्ति को नज़रअंदाज़ कर दरअसल उसके प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त करती है । विज्ञान-टेक्नोलॉजी अपने-आप में अन्धकारमयता की वाहक नहीं, उसे तो ख़ुद अपने स्वायत्त विकास के लिए मुनाफ़ा-चालित पूँजी की ताकत से जूझना पड़ रहा है । नवज्योति के पूरे साक्षात्कार में बाह्य अन्धकारमयता की इस विधायक शक्ति का ज़िक्र तक नहीं है ।

ख. संविधान :विचरण  में नवज्योति एक न्यायाधीश महोदय के कथित संस्मरण के सहारे भारतीय संविधान को अधूरा, खण्डित संविधान बताकर उसे ख़ारिज़ करते हैं । भारतीय संविधान की रचना-प्रक्रिया और उसके चित्रांकन पर देशी-विदेशी अनेक विद्वानों ने क़ाफी कुछ लिख रखा है, उसके विस्तार में मैं यहाँ नहीं जाउँगा । बहरहाल, नवज्योति जिस तरह से संविधान को ख़ारिज़ करते हैं, वह न सिर्फ़ हास्यास्पद, बचकाना और किसी भी गंभीर चर्चा के बिल्कुल अयोग्य है, बल्कि एक ख़तरनाक प्रवृत्ति का अनुमोदन भी । हिन्दुत्ववादी शक्तियों की गोष्ठियों में इसी तरह की कानाफूसी और अपुष्ट संस्मरण बाहर समाज में अविश्वास तथा उन्माद पैदा करने के एज़ेण्डे का चिरपरिचित तरीका है । ‘किसी न्यायाधीश महोदय को जब वे इलाहाबाद में वकील थे तो उनके एक मुसलमान मुवक्किल ने आनन्द भवन से लाकर उन्हें संविधान की मूल प्रति दिखलाई, उसमें उन्होंने अनेक चित्रांकन देखा, उस चित्रांकन में श्रीराम का चित्र श्रीराम को संवैधानिक चरित्र प्रदान करता है, और इसलिए शासन का यह दायित्व है कि वह श्रीराम की मूर्ति की सुरक्षा करे । ..’ (पृ. 48-49-50) अगर न्यायाधीश इस तरह फ़ैसले सुनाने लगें, तो न्याय व्यवस्था का क्या होगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं । अगर किसी न्यायाधीश को लगता है कि वर्तमान संविधान खण्डित संविधान है, जिसे वे नहीं मानते हैं, तो उन्हें इस्तीफ़ा देकर सर्वप्रथम संविधान की स्थिति स्पष्ट करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाना चाहिए, न कि अपने संस्मरण के आधार पर फ़ैसला सुनाने का गैर-संवैधानिक तरीका अपनाना चाहिए । नवज्योति राष्ट्रीय चरित्र उद्घाटित करने के लिए इन चित्रांकनों में गौमाता और श्रवणकुमार का चित्रांकन शामिल करने के सुझावों का भी ज़िक्र करते हैं ।

ग. एक्ज़ेक्ट ह्युमेनिटीज़ : नवज्योति इण्टरनेशनल इंस्टीट्युट ऑफ़ इनफ़ॉरमेशन टेक्नोलॉज़ी, हैदराबाद में एक्ज़ेक्ट ह्युमेनिटीज़ विभाग के संस्थापक-अध्यक्ष थे । मेरी समझ से ह्युमेनिटीज़ के साथ एक्ज़ेक्ट विशेषण संलग्न करना सही नहीं है ।

इंज़ीनियरिंग में डिज़ाइन का एक्ज़ेक्ट अनुपालन (अथवा कार्यान्वयन) ज़रूरी है । रत्ती भर हेर-फेर से भी निर्माणाधीन फ्लाइओवर का स्लैब गिर जा सकता है, ब्लास्ट फ़रनेस में विस्फोट हो सकता है, और इस तरह जान-माल की भारी क्षति हो सकती है । मीमांसा के कर्मकाण्डों में विधि-विधानों का एक्ज़ेक्ट अनुपालन ज़रूरी माना जाता है, अन्यथा यज्ञ से अपेक्षित फल प्राप्त नहीं होने, यहाँ तक कि उसका अनिष्टकारी परिणाम होने की बात कही जाती है । इस प्रकार, नवज्योति के एक्ज़ेक्ट शब्द के दो स्रोत हैं – इंजीनियरिंग (आइ. आइ. टी.) और जैमिनीय मीमांसा

बहरहाल, मानव समाज की विशिष्टता यह है कि उसकी कोई एक्ज़ेक्ट डिज़ाइन नहीं बनायी जा सकती, और ही उसके नियमन का कोई तयशुदा विधि-विधान ही हो सकता है । जब-जब ऐसी कोशिश की गई, तब-तब समाज को जनसंहारों, युद्धों, हिंसक अभियानों के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी है ।

ऐतिहासिक रूप से विकसित समाजों में इन समाजों की अचूक डिज़ाइन आख़िर कौन तैयार करेगा  ? अल्पसंख्यक समुदाय चार प्रतिशत से अधिक होने से अगर राष्ट्र अस्थिर हो जाता है, तो चार प्रतिशत की सीमा के पार रहनेवाले समुदाय के नागरिकों के साथ क्या सलूक़ किया जाएगा – क्या उन्हें येन-केन-प्रकारेण प्रताड़ित कर निष्कासित किया जाएगा, जनसंहार के जरिये, या ‘आउत्शविज़’ के गैस-चेम्बर में भेज कर सही अनुपात स्थापित किया जाएगा ? क्या यह सामाजिक डिज़ाइन जनसंहारों के एक आत्मघाती सिलसिले को औचित्य प्रदान नहीं करेगा ?

नवज्योति नाटकों के माध्यम से वास्तविकता को प्रकट करने के इच्छुक हैं, इसलिए पाठक यह देखना चाहेंगे कि ‘विचरण’ में निम्नलिखित वक्तव्य रखते वक़्त उनकी आंगिक भाव-भंगिमा कैसी थी, क्या उनके चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान थी ? – ‘युरोप में भी यह दृष्टि रही है कि अगर कोई अल्पसंख्यक समुदाय चार प्रतिशत से अधिक होता है तो राष्ट्र अस्थिर हो जाता है । यह युरोप की व्यावहारिक व्यवस्था है । तमाम प्रवासी नियम और जनसंख्या को रोकने की नीतियाँ इसी नियम पर आधारित हैं । इसीलिए जर्मनी में तुर्की अल्पसंख्यक चार प्रतिशत नहीं हैं । यह ध्यान रखा जाता है कि कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय चार प्रतिशत से अधिक न हो । भारत में यह प्रतिशत लगभग अठारह से बीस है, पर तब भी सब कुछ अच्छी तरह से चलता है । ..’ (पृ. 53) वैसे उपर्युक्त वक्तव्य हिन्दुत्ववादी शक्तियों तथा उनकी देखरेख में ‘राष्ट्रीय नागरिकता रज़िस्टर’ तैयार करनेवालों के लिए एक तरह का दिशा-निर्देश है ।

7. पीठतंत्र बनाम लोकतंत्र

लगभग सभी दार्शनिक साहित्य में राज्य, सम्पत्ति और सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति से सम्बन्धित व्याख्याएँ मिलती हैं । मिथकों-पुराणों आदि में भी इससे जुड़ी कथाएँ देखी जा सकती हैं । चार बड़ी सामाजिक श्रेणियाँ – विचारकों/नीतिनिर्माताओं/पुरोहितों की श्रेणी, शासकों/भूस्वामियों की श्रेणी, व्यवसायियों की श्रेणी, और श्रमिकों/सेवकों की श्रेणी – प्राचीन काल से आजतक समाज में तथा विभिन्न संस्थाओं में पायी जाती हैं । इन सामाजिक श्रेणियों की उत्पत्ति और सामाजिक विकास के अलग-अलग चरणों में उनमें होनेवाले परिवर्तनों का विश्लेषण प्रायः प्रत्येक दार्शनिक विमर्श का प्रचलित विषय होता है । नवज्योति सिंह ने ‘विचरण’ में इस प्रश्न पर अपना जो विचार प्रकट किया है, वह संक्षेप में इस प्रकार है :

‘यह वेद हर व्यक्ति में स्वायत्ततः उपलब्ध है । .. यदि स्वायत्तता का एक अर्थ शक्ति का स्रोत भी है, तो वह इसी में है कि आपको उचित और अनुचित का सर्वथा अद्वितीय विवेक उपलब्ध है । .. पर ऐसा होता है कि लाघव के कारण यानी किसी विशेष फल की प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपनी स्वायत्तता का उपयोग नहीं करता, वह उसे दूसरों पर छोड़ देता है । .. प्रभुता का जन्म इसी तरह होता है, जब आपके स्थान पर कोई और आपका निर्णय लेता है । .. चूँकि व्यक्ति स्वयं निर्णय नहीं ले पा रहा होता है, इसलिए वह अपनी स्वायत्तता, प्रभुता-संपन्न व्यक्ति को सौंप देता है । शक्ति के केन्द्रों का निर्माण इसी तरह होता है । .. आप वित्तविषयक निर्णय अन्यों पर छोड़ देते हैं, इससे वित्तपीठ बन जाती है । जब आप यह निर्णय कि बच्चों को क्या सिखाना है .. शिक्षकों पर छोड़ देते हैं, तब .. विद्यापीठ या संस्कृति पीठ बनते हैं । दण्ड देना भी जब अन्यों पर छोड़ दिया जाता है, तो इससे राजपीठ बनती है । इसी तरह आपको द्वन्द्वों से कैसे निपटना है, इसका दायित्व जब आप अन्यों पर छोड़ देते हैं, इससे धर्मपीठ तैयार हो जाती है । ये कुल मिलाकर चार पीठें हैं । इन्हें ही चतुर्वर्ण कहा गया है । इस व्याख्या में सारी शब्दावली मीमांसा की नहीं है, आधुनिक भी है, पर इससे यह सब निकल आता है । इन पीठों के पीठाधिकारियों का यह दायित्व है कि जिन लोगों ने भी उसके आगे अपनी स्वायत्तता समर्पित की है उनकी ओर से विवेकपूर्ण निर्णय ले, न्यायपूर्ण निर्णय ले । .. अगर पीठाधिपति यह सोचे कि मुझे अपनी रक्षा करनी है, तो वह राक्षस प्रवृत्ति का पालन कर रहा है । यही कुछ आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में हो रहा है । .. राक्षसों और देवताओं का संघर्ष अन्तःकरण में हमेशा होता आ रहा है । .. यहाँ एक विचार यह है कि हर व्यक्ति सार्वभौमिक स्तर पर न्याय कर सकता है । (मीमांसा में यह विचार आता है) इसलिए उसे ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती । चूँकि हर व्यक्ति की सीमाएँ हैं, उसका शरीर सीमाबद्ध है इसलिए उसे दूसरे पर भरोसा करना होता है, उसे कुछ चीजें दूसरों पर छोड़नी पड़ती है । यह नैसर्गिक है। शक्ति के स्वरूप इस तरह अपने आप बनते रहते हैं । ..’ (पृ. 71-72-73)

थोड़ा ग़ौर करने से ही इन विचारों में अन्तर्निहित असंगति दिख जाएगी ।

1. प्रभुता के उद्भव की व्याख्या का दावा करने के बावज़ूद इस तर्कप्रणाली में प्रभुता के जन्म की कोई व्याख्या नहीं है । यह विश्लेषण प्रभुता-संपन्न व्यक्तियों अथवा प्रभुता के केन्द्रों के अस्तित्व की पूर्वापेक्षा करता है, जिन्हें शरीर की सीमाओं के कारण लोगों को अपनी स्वायत्तता समर्पित करनी पड़ती है । पीठों की यह नैसर्गिक व्यवस्था पहले से ही बनी हुई है ।

2. यदि वेद हर व्यक्ति में स्वायत्ततः उपलब्ध है, यदि आपको उचित और अनुचित का सर्वथा अद्वितीय विवेक हासिल है, तो इसका सीधा अर्थ है कि हर व्यक्ति में स्वायत्ततः उपलब्ध यह वेद-शक्ति अहस्तांतरणीय  है । जिस व्यक्ति को यह समर्पित करने की बात कही जा रही है, उस व्यक्ति के पास भी सर्वथा अद्वितीय यह वेद-शक्ति उपलब्ध है । (मीमांसक न्याय परम्परा में जैमिनि तीन प्रमाणों – प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द – को मानते थे । प्रभाकर इसमें दो और प्रमाणों को जोड़ते हैं – उपमान और अर्थापत्ति । प्रभाकर के अर्थापत्ति वाले प्रमाण को ही लें तो इससे यह निकल आता है कि जो सर्वथा अद्वितीय विवेक है, वह अहस्तांतरणीय है । अद्वितीय अर्थात अहस्तांतरणीय । इस प्रकार, प्रभाकर के मीमांसात्मक न्याय से ही नवज्योति का तर्क खण्डित हो जाता है ।) अगर लाघव के कारण अथवा किसी भी कारण यह हस्तांतरित की जा सकती है, दूसरों को समर्पित अथवा सौंपी जा सकती है, तो यह अद्वितीय वेद-शक्ति तो नहीं ही हो सकती, कोलगेट वेदशक्ति जैसी कोई चीज भले हो सकती है ।

इसका मतलब है कि प्रभुता और शक्ति के केन्द्रों के जन्म की कोई दूसरी व्याख्या आपको करनी पड़ेगी । इस व्याख्या में मैं अभी नहीं जाऊँगा – दार्शनिक साहित्य के जानकार पाठक इन व्याख्याओं से परिचित होंगे । कुल मिलाकर आपको उन सामाजिक स्थितियों के विश्लेषण में जाना पड़ेगा जिनके अन्तर्गत प्रभुता और दासता के सम्बन्ध विकसित होते हैं और शक्ति के केन्द्रों का निर्माण होता है । व्यक्तियों के लाघव पर सारी जिम्मेवारी डालकर आप इस समस्या से पल्ला नहीं झाड़ सकते ।

नवज्योति के अनुसार, इसी लाघव के कारण (अथवा शरीर की सीमा के कारण) लोगों द्वारा अपनी स्वायत्त शक्ति के समर्पण से समाज में विभिन्न पीठों का निर्माण होता है – धर्मपीठ, राजपीठ, वित्तपीठ, विद्यापीठ आदि । ये पीठ, ‘शक्ति के केन्द्र हर समाज में हैं और उसी तरह समाजों में स्वाभाविक रूप से रहते हैं जैसे आग में तेज । इन पीठों में ही विधायक शक्ति होती है । .. यह नैसर्गिक है ।’ (पृ. 73)

इस प्रकार, नवज्योति विधायक शक्ति-संपन्न नैसर्गिक पीठतंत्र का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं । उनके अनुसार, इन पीठों में देवासुर संग्राम चलता रहता है और हमारा काम इन पीठों से राक्षसों को हटाकर देवताओं को पीठाधिपति के रूप में स्थापित करना है । (मीमांसा के साहित्य में सांसारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तर्क-बुद्धिसंगत ज्ञान के आधार पर कर्म करनेवाले असुर और शास्त्रोक्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए शास्त्र-सम्मत विधियों के आधार पर कर्म करनेवाले देवता माने जाते हैं ।) कुलमिलाकर, आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं के मुक़ाबले देवताओं की सरपरस्तीवाले पीठतंत्र की नैसर्गिक, सनातनी व्यवस्था का यह है नवज्योति सिंह का सिद्धान्त । हिन्दुत्व की राजनीतिक परियोजना के अन्तर्गत किस तरह की राजनीतिक व्यवस्था कायम की जानी है, इसे आप यहाँ देख सकते हैं ।

1925 में धर्मपीठ बन चुकी है और देवता ही उसके पीठाधिकारी हैं । क़रीब 90 वर्षों बाद केन्द्रीय राजपीठ पर 2014 में देवताओं का नेतृत्व कायम हुआ जिसे कायम रखना है और जिसका पूरे देश में, प्रत्येक प्रदेश में विस्तार करना है । वित्त पीठ (रिज़र्व बैंक तथा विभिन्न वित्तीय संस्थाओं) पर नियंत्रण के लिए भी हर मुमकिन कोशिश जारी है । विद्यापीठों में देवासुर संग्राम चल रहा है और असुर-सेक्यूलरों को हटाकर देवताओं को पीठाधिपति बनाने का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है ।

8. अस्- बनाम भू-

नवज्योति के दार्शनिक विमर्श में अगर कुछ ऐसा है जिसपर थोड़ी गंभीर चर्चा अपेक्षित है तो वह व्याकरण तथा सामान्य क्रिया के निरूपण सम्बन्धी उनके विचार हैं । वैसे, आगे हम देखेंगे कि कैसे उनके ये विचार भी मौलिक नहीं हैं और सीधे प्राचीन मीमांसा से ही लिए गये हैं, तथापि उनके प्रस्तुतीकरण में, ग्रीको-युरोपियन परम्परा के साथ उसके तुलनात्मक अध्ययन में वे कुछ नवीनता लाने की कोशिश करते हैं और उसे आधुनिक शब्दावली में ‘प्रकट’ करते हैं । दरअसल, इस ‘प्रकटीकरण’ के अभाव में, उनके दार्शनिक विचारों को मैं नव-मीमांसा की संज्ञा देने से भी परहेज करता । चूँकि इस सम्बन्ध में ‘विचरण’ में उन्होंने बहुत ही संक्षिप्त चर्चा की है, इसलिए इसपर टिप्पणी के लिए मैंने ‘प्रतिमान’ (अंक 11, जनवरी-जून 2018) में प्रकाशित उनके लेख ‘अंधकारमयता का अन्वेषण ग्रीको-युरोपियन ज्ञानोदय के स्थानान्तरण की समस्या’ के कुछ अंशों का उपयोग किया है । इस लेख में प्रस्तुत उनकी कतिपय मान्यताओं का ब्यौरेबार खण्डन करने की जगह मैंने उन मान्यताओं के समानान्तर अपनी कुछ बातें रखी हैं (ब्यौरेबार खण्डन में काफ़ी विस्तार में जाना पड़ता) । पाठक दोनों की तुलना कर दो दृष्टियों के फ़र्क को आसानी से रेखांकित कर सकते हैं ।

आगे बढ़ने से पहले व्याकरण के सम्बन्ध में उनके विचारों पर कुछ चर्चा अपेक्षित है ।

क. नवज्योति लिखते हैं, ‘हम व्याकरणवाले लोग हैं । रैशनलिटी अलग चीज है, व्याकरण अलग । पर एक समय था जब व्याकरण वाले लोग सारी दुनिया में फैल गये थे, कि व्याकरण ही मूल रैशनलिटी है, कि सृष्टि की समझ व्याकरण से ही अधिक होती है ।’ (पृ. 84)

यहाँ यही बताना पर्याप्त है कि हम व्याकरणवाले नहीं, व्याकरणोंवाले लोग हैं । परम्परावाले संदर्भ की तरह यहाँ भी उनकी दृष्टि आर्य-जनों तक ही सीमित रह जाती है – भारत की इस अतिसंकुचित दृष्टि में संस्कृत से इतर द्राविड़, आग्नेय, भोट आदि भाषा-परिवारों और उनके व्याकरणों की कोई जगह नहीं है । यहाँ तक कि आर्य भाषा-परिवार की भाषाओं – संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश – के व्याकरणों में कई भिन्नताएँ हैं । गुप्त काल में कातंत्रिक वैयाकरणों और पाणिनीय वैयाकरणों के बीच नोंक-झोंक का भी विवरण मिलता है ।33 इस पर कुछ चर्चा हम आगे करेंगे ।

ख. बिना किसी अतिरिक्त व्याख्या के यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है कि हम सिर्फ़ व्याकरणवाले लोग ही नहीं, रैशनलिटीवाले लोग भी हैं, और वे भी सिर्फ़ रैशनलिटीवाले नहीं, व्याकरणवाले लोग हैं ।

इस संक्षिप्त स्पष्टीकरण के बाद हम मूल विषय पर आते हैं । सामान्य क्रिया के प्रश्न पर प्राचीन ग्रीक और प्राचीन भारतीय वैयाकरणों के बीच भेद को रेखांकित करते हुए वे लिखते है :

“सामान्य क्रिया की खोज का प्राचीन ग्रीक ज़वाब यही है – होना (टू बी, बीइंग) .. होने की क्रिया एक परमाणु जैसा है । इस क्रिया का परमाणु स्वरूप और इसकी सार्वभौमिकता इसकी अनुमति नहीं देता कि इसके अर्थ का समावेश अन्य क्रियारूपों में हो सके, यहाँ तक कि क्रिया रूप ‘बन जाने’ में भी नहीं । .. क्रिया शब्द ‘होना’ या ‘टू बी’ एक ऐसी धुरी बन जाती है, जिसके इर्द-गिर्द ग्रीको-युरोपियन ज्ञानोदय की विश्लेषणात्मक शक्ति मँडराती रहती है । .. पतंजलि (महाभाष्य) .. ‘भवते’ (घटित होना) ही वास्तव में सामान्य क्रिया है । ‘अस्ति’ में सकर्मक भाव नहीं है (अकर्मक होने के कारण उसमें कर्म का भाव नहीं है), जो कि ‘भवते’ में है । .. इस प्रकार के अकाट्य तर्क के आधार पर पतंजलि इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ‘भवते’ ही सामान्य क्रिया है, ‘अस्ति’ नहीं । भारतीय सैद्धान्तिकी में ‘भवते’ के विश्लेषणात्मक जगत के लिए प्रतिबद्धता है, न कि ‘होने’ के विश्लेषणात्मक जगत के लिए । ..” (प्रतिमान, अंक 11, पृ. 6-7)

प्राचीन भारतीय विचार-परम्परा में मीमांसकों तथा वैयाकरणों की घनिष्ठता एक ज्ञात तथ्य है । क्रिया के प्रश्न पर मीमांसक-वैयाकरण और नैयायिक विपरीत मत रखते थे – एक ओर, मीमांसकों-वैयाकरणों का मानना था कि क्रिया ही वाक्य की धुरी है, और क्रियाविहीन वाक्य निरर्थक होता है (कोई अर्थ सम्प्रेषित नहीं करता), वहीं दूसरी ओर, नैयायिक वाक्य में क्रिया की कोई भूमिका नहीं मानते थे । नैयायिकों के अनुसार, कोई प्रतिज्ञप्ति पदसमूहों से बनती है और इन पदसमूहों से ही वाक्य का समग्र अर्थ खुलता है, भले ही वाक्य में क्रिया हो या न हो । इस प्रकार नवज्योति इस प्रश्न पर नैयायिकों की जगह स्वभावतः मीमांसक-वैयाकरण परम्परा के प्रति अपनी निष्ठा का प्रदर्शन कर रहे हैं ।

जहाँ तक अकर्मक अस्ति बनाम सकर्मक भवति का प्रश्न है, तो ग्रीको-युरोपियन परम्परा में ही नहीं, भारतीय भाषा-परिवारों में ही इस मामले में कई भिन्नताएँ मिल जाती हैं । उदाहरण के लिए, संताली भाषा के व्याकरण में अकर्मक और सकर्मक क्रिया बनाम के रूप में उपस्थित नहीं होती :

‘संताली धातु (क्रिया-मूल) प्रायः अपने-आप में अकर्मक या सकर्मक नहीं होते हैं, अपितु एक ही धातु या क्रिया-मूल, भिन्न-भिन्न काल-प्रत्ययों के अनुसार, अकर्मक या सकर्मक हुआ करता है । .. संताली में काल-प्रत्ययों के भेद से एक ही क्रिया मात्र अकर्मक या सकर्मक ही नहीं, अपितु द्विकर्मक, निजार्थक, विशेषार्थक, पारस्परिक, प्रेरणार्थक आदि हो जाया करती है । यह संताली की मौलिक विशेषता है ।’34

अब आइये, भारतीय विचार-परम्परा में ही अकर्मक अस्ति और सकर्मक भवति के एक दूसरे में रूपान्तरण का ज़ायज़ा लेते हैं । अकर्मक अस्ति को सकर्मक भवति में रूपान्तरित करना प्राचीन भारतीय विचारकों के लिए भी कम चुनौतिपूर्ण नहीं था । आरम्भ में अस्ति था – सृजन में सर्वथा असमर्थ । उन्होंने अस्ति के गर्भ में कामना का बीज रख दिया35, और फिर क्या था ? अस्ति भवति में, सृष्टि की उत्सवलीला36 में परिणत हो गया । अस्ति में भाव-प्रत्यय लगाने से अस्तित्व बनता है और अस्तित्व के रूप में उसकी व्याप्ति नाना रूपों में संपन्न होती है । (अस्ति के भवति में रूपान्तरण की कुछ और व्याख्याएँ आपको उपनिषदों में मिल जाएँगी ।)

इस तरह, एक शानदार अकेलेपन में खड़ी होने की अविघटनीय क्रिया कामना की मध्यस्थता से भवति में विघटित होकर हर क्रिया को अनुप्राणित करती है और सृष्टि में परिणत हो जाती हैप्रकृत अस्ति विकृत भवति में खुलती है, हिरण्यगर्भ का अन्तःक्षेत्र (अस्ति) विराट्/विराज (भवति) में स्थानातीत प्रसार पाता है ।

अब उलट रूप में इस विषय का ज़ायज़ा लेते हैं – ‘भवति के अस्ति में रूपान्तरण का ज़ायज़ा । बलि से सृष्टि प्राचीन विचार-परम्परा की एक अत्यन्त उल्लेखनीय अवधारणा है । हर सृजन के मूल में बलि है – सृष्टि बलि और सृजन की अनवरत् प्रक्रिया है ।

विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों की बलि से संसार की (जड़-चेतन) सभी चीजों की सृष्टि हुई – यह एक विराट् घटना (भवति) है । बहरहाल, बलि से जन्मे सारे अस्ति(त्व)-रूप नित्य रूप थे – अपने घेरों में बंद, एक-दूसरे में स्थानान्तरण की किसी संभावना से वंचित । पैरों से जन्म लेनेवाले कभी मुख से जन्म नहीं ले सकते थे और मुख से जन्म लेनेवाले कभी पैरों से । यह नित्य अस्तित्व-रूपों की सदा के लिए स्थिर, जड़ दुनिया थी । यह एकमात्र और अन्तिम बलि थी, अन्तिम सृजन, जहाँ प्रत्येक अस्तित्व-रूप की सदा के लिए एक निश्चित जगह तय कर दी गई थी । अगर कोई बदलाव होना ही था तो वह किसी अगले जन्म, अगले युग, अगले मन्वंतर में ही संभव था । कुल मिलाकर, यह बलि से सृजन की अनवरत् प्रक्रिया के रूप में सृष्टि के मूल विचार का ही निषेध है भवति की सकर्मक क्रिया का नित्य, परमाणु-सरीखे अस्ति(त्व)-रूपों में पतन घटित होता है ।

नवज्योति लिखते हैं, “ ‘भवति’ से बदलाव-मात्र का वो अल्पतम भाव मिलता है जो हर क्रिया को अनुप्राणित करता है । किसी बदलाव या परिवर्तन का परमाणु-स्वरूप है ‘भाव’ ।” वे वैशेषिक मीमांसक हैं, इसलिए प्रयुक्त परमाणु-स्वरूप शब्द भी वैशेषिक से ही प्रेरित है – और वैशेषिक दर्शन में परमाणु एक अविकारी, नित्य श्रेणी है ।

नवज्योति के अनुसार, “ किसी दो असमान तत्त्वों/अवस्थाओं/दशाओं को किसी ख़ास संदर्भ में संलग्न करनेवाले रूप को भाव कहते हैं । यह दो असमान सत्ताओं को एक सम्बन्धपरक प्रसंग में, संस्पर्श में लाने का एक उपकरण है । इस रूप को मैं ‘विराम-चिह्न’ कहकर सम्बोधित करता हूँ ।” .. ‘विराम-चिह्न एक ऐसे रूप का विचार है जिसकी विषय-वस्तु रूप के बाहर होती है । (प्रतिमान 11, पृ. 7) .. यह एक गैर-वस्तु है, एक रूप है जो वस्तुओं का संयोजन करता है । .. उन वस्तुओं पर इसका कोई नियंत्रण नहीं है जिनके बीच यह विराम-चिह्न लगाता है ।’ (वही, पृ. 9)

चूँकि सारे तत्त्व/अवस्थाएँ/दशाएँ अपने-आप में बन्द, जड़ श्रेणियाँ हैं, इसलिए उन्हें सिर्फ़ संलग्न किया जा सकता है (जैसे हम कागज के अलग-अलग पन्नों को नत्थी करते हैं), उन्हें (अगल-बगल रखकर) संबंधपरक प्रसंग में देखा जा सकता है, या उन्हें एक-दूसरे के साथ संस्पर्श में लाया जा सकता है, लेकिन उनके बीच किसी संक्रिया को साकार नहीं किया जा सकता । इस प्रकार, नवज्योति का विराम-चिह्न एक निष्क्रिय श्रेणी है, किसी नवीन सृजन में सर्वथा असमर्थ – यह नाकतलेवाले अन्धकार का भी स्रोत है और बाह्य अन्धकारमयता के प्रति समर्पण का भी । बहरहाल, यह विराम-चिह्न की एकमात्र व्याख्या नहीं है, लेकिन उसकी अन्य व्याख्याओं में यहाँ नहीं जाऊँगा । वैसे छंदों में प्रयुक्त यति (विराम-चिह्न) ऐसी निष्क्रिय श्रेणी नहीं है, वह पदों पर मात्रात्मक सत्ता स्थापित करती है, और यह सत्ता ही उनकी लयात्मकता में साकार होती है ।37

इस प्रकार, अस्ति और भवति के विरोधी प्रवर्ग की बुनियाद पर नवज्योति ने जो इमारत खड़ी की है, अस्ति और भवति के एक-दूसरे में रूपान्तरण की उपर्युक्त स्थिति में वह भहराकर गिर जाती है

पंक्ति की अवधारणा : पंक्ति आरम्भिक वैदिक छंदों के सात प्रकारों में से एक प्रकार है – यह पंचपात् (पाँच पदोंवाला) छंद है जिसके प्रत्येक चरण (पद) में आठ वर्ण होते हैं । वैसे, यह ऋग्वेद का प्रचलित छंद नहीं है – ऋग्वेद की सबसे अधिक ऋचाएँ त्रिष्टुप तथा गायत्री छंद में हैं । तीसरा अधिक प्रचलित छंद जगती है ।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि वैदिक छंद अविकारी, जड़ श्रेणियाँ नहीं हैं – छंदों में एक या दो वर्ण न्यून या अधिक पाये जाते हैं । छंदों के अवांतर भेद भी मिलते हैं । पंक्ति का अवांतर भेद प्रस्तार पंक्ति कहलाता है । इतना ही नहीं, किसी एक छंद के कुछ पदों के साथ अन्य छंदों के पद मिलाकर छंदःसांकर्य भी उपस्थित किया जाता है जिसे प्रगाथ कहते हैं ।38

पंक्ति में पाँच पद हैं । यज्ञ में भी पाँच संघटक तत्त्व हैं (यज्ञकर्ता, उसकी पत्नी, उसका पुत्र, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति), महासंहिताएँ भी पाँच हैं (अधिलोकमधिज्योतिषमअधिविद्यामधिप्रजमध्यात्मम् । ता महासंहिता इत्याचक्षते ।।)39 .. जो भी अस्तित्वमान है, सबके पाँच कारक हैं । इस तरह, उपनिषदों में पाँच (पंक्ति) को विशेष महिमा प्रदान की गयी है – पंक्ति ही बलि (यज्ञ) है, पंक्ति में ही सारा कुछ समाहित है, जो इसे जान लेता है, वह सबकुछ प्राप्त कर लेता है । .. ‘स एष पाङ्क्तो यज्ञः, .. पाङ्क्तमिदं सर्वं यदिदं किञ्च ; तदिदं सर्वमाप्नोति य एवं वेद ।।’40

इस प्रकार एक जीवंत वैदिक छंद उपनिषदों में आकर पवित्र बलि (यज्ञ) में रूपान्तरित हो जाता है । मीमांसकों को यज्ञ पसंद है, और इसलिए नवज्योति को पंक्ति । लेकिन देखिए उनके हाथों पंक्ति का क्या हश्र होता है । पंक्ति की बलि पंक्ति को शून्यता में रूपान्तरित कर देती है । नवज्योति लिखते हैं : “पंक्ति पृथक वस्तुओं का एक क्रम में संयोजन है । ‘पंक्ति’ और ‘पंक्टम’ एक ही धातु √पंक्त से आते हैं । पंक्ति और कुछ नहीं बस दो (या अधिक) वस्तुओं को एक बिन्दु के द्वारा संयोजन में लाना ही है । .. यह एक ग़ैर-वस्तु है, एक रूप है जो वस्तुओं का संयोजन करता है । यह एक शून्यता है, जो वास्तविकता की बनावट को प्रगट करता है । उन वस्तुओं पर इसका कोई नियंत्रण नहीं है जिनके बीच यह विरामचिह्न लगाता है । .. तर्कवाक्य और समुच्चय उस पदार्थ पर, जिसे वे अपने विषयवस्तु के रूप में प्रवेश की अनुमति देते हैं, उन पर एक तात्विकीय भार डालते हैं, उन पर सत्ता संबंधी शर्तों के कारण । इस प्रकार का तात्विकीय भार अंधकारमयता में परिवर्तित हो जाता है, जब इन रूपों का स्थानान्तरण या विस्थापन होता है । पश्चिम के सारे सारतत्त्ववादी दावे तर्कवाक्य रूप में हैं । पश्चिम के सारे रचनावादीसंरचनावादी दावे समुच्चय रूप में हैं । स्थानान्तरण ग्रीको-युरोपियन उपस्थिति में एक अघोष व्यंजन की तरह है । ..” (प्रतिमान 11, पृ. 8-9)

इस प्रसंग में बस दो बातों की ओर ध्यान आकृष्ट करना ज़रूरी है : पहला, पंक्ति पृथक वस्तुओं का एक क्रम में महज़ संयोजन नहीं है । वह एक ऐसा विन्यास जो नये को जन्म देता है । वह बलि और सृजन की अनवरत् प्रक्रिया है । दूसरा, नवज्योति के पास वास्तविकता को प्रगट करने के दो ही माध्यम हैं – एक, दो या अधिक वस्तुओं का एक बिन्दु द्वारा संयोजन ; उन वस्तुओं पर इसका कोई नियंत्रण नहीं जिनके बीच यह विराम-चिह्न लगाता है । दूसरा, तर्कवाक्य और समुच्चय के जरिये वास्तविकता को प्रगट करना ; तर्कवाक्य और समुच्चय उस पदार्थ पर, जिसे वे अपनी विषयवस्तु के रूप में प्रवेश की अनुमति देते हैं, उन पर एक तात्विक भार डालते हैं, उन पर सत्ता-संबंधी शर्तों के कारण ।

बहरहाल, ग़ौर कीजिए । वास्तविकता को प्रगट करने के दोनों माध्यमों में बेचारा पदार्थ कोई क्रिया ही नहीं करता । वह या तो पंक्ति में बिन्दु के द्वारा संयोजित होता है, एक पंगत में बैठा दिया जाता है, या उसके ऊपर तर्कवाक्य और समुच्चय के जरिये एक तात्विक भार डाल दिया जाता है । इस प्रकार, वास्तविकता को प्रगट करने के जिन दो माध्यमों को वे परस्पर विरोधी प्रवर्गों के रूप में पेश कर रहे हैं, उन दो माध्यमों के बीच वस्तुतः पदार्थ के प्रति दृष्टि के मामले में एकरूपता है, एक आंतरिक एकता है । यह पदार्थ के प्रति वैशेषिक दृष्टि है ।

इसके अलावा, पदार्थों का एक पंक्ति में संयोजन स्वयं एक तार्किक क्रिया है – दरअसल, संयोजन एक तार्किक प्रवर्ग ही है । अपने आसपास बननेवाली किसी भी पंक्ति को देखिए – संयोजन की तार्किक संरचना आप आसानी से देख सकते हैं । दूसरी ओर, तर्कवाक्य और समुच्चय के जरिये पदार्थ पर डाले गये तात्विक भार की परिणति के रूप में हमें पंक्ति ही प्राप्त होती है ।

ख़ैर, पदार्थ को बेचारा समझने की भूल किसी को भी वास्तविकता को प्रगट करना तो दूर, उसके आसपास फटकने से भी वंचित कर देगी । पदार्थ को बिन्दु के द्वारा पंक्ति में संयोजित करने का कोई प्रयास पदार्थों की अन्तःक्रिया को आधार प्रदान करता है और यह अन्तःक्रिया पंक्तियों की नयी श्रृंखलाओं को जन्म देती है । इस तरह, पदार्थ पंक्ति को शून्यता से, उसकी मृत्यु से, बलि से बचा लेता है, और उसे पुनः सृजनात्मक छंद का गौरव प्रदान करता है । पदार्थों की ख़ासियत है कि अधिक देर तक पंगत में वे चुपचाप बैठे नहीं रह सकते ।

दूसरी तरफ, पदार्थों की दूसरी विशेषता यह है कि वे तात्विक भार डालने के प्रत्येक प्रयास को उसकी सीमा बता देते हैं – तर्कवाक्यों और समुच्चय के जरिये पदार्थों की वास्तविकता प्रगट करने की सारी कोशिशें अस्थायी, अन्तरिम साबित होती है । पदार्थों के गर्भ में अनन्त संभावनाएँ पलती हैं । स्थानान्तरण और विस्थापन की स्थिति में तात्विक भार की अंधकारमयता की काट भी इन्हीं संभावनाओं में निहित है ।

कुल मिलाकर, जैसा कि हम पहले भी देख चुके हैं, नवज्योति के दर्शन में सृजनात्मक अन्तःक्रिया, और इस अन्तःक्रिया से खुलनेवाली संभावनाओं के नये द्वारों की गुंजाइश लगभग अनुपस्थित है ।

9. मीमांसा और मास्टर ऐलगोरिद्म

पैट्रियॉटिक साइंस की कहानी खत्म होने के बाद नवज्योति बताते हैं, ‘लोग थक गये । जो दूसरा कार्य था गणित, तर्क और भाषा विज्ञान आदि में वह आज भी चल रहा है । इसका कारण यह है कि यह कार्य वैचारिक है । ..’ (पृ. 28)

हमलोग आज ऐलगोरिद्म-चालित डिज़िटल दुनिया के वासी हैं । कम्प्यूटर या स्मार्टफोन के माध्यम से ही हम आजकल अपना ज़्यादातर काम निपटाते हैं – मैन्युफैक्चरिंग, सेवा, व्यवसाय से लेकर अपने निजी जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों में कम्प्यूटर/स्मार्टफोन ने निर्णायक स्थान ग्रहण कर लिया है । इन विशिष्ट क्रियाकलापों को सम्पन्न करने के लिए कम्प्यूटर/स्मार्टफोन विशिष्ट ऐलगोरिद्म का उपयोग करते हैं, और ऐलगोरिद्म तर्क-गणित-भाषाविज्ञान पर आधारित होते हैं । अपार आँकड़ों के बीच किसी विशिष्ट कार्य को सम्पन्न करने के लिए ज़रूरी आँकड़ों का श्रेणीकरण और आँकड़ों के बीच सह-संबंध कायम करना, सम्भावित विकल्प सुझाना आदि तार्किक प्रणाली पर आधारित होते हैं । संबंधित कार्यों की गुणवत्ता उन्नत करने के लिए इस तार्किक प्रणाली का निरन्तर परिष्कार ज़रूरी होता है । ऑनलाइन शॉपिंग करते, गेम खेलते, सर्च करते, पढ़ते-लिखते, संगीत सुनते, फ़िल्म देखते, सोशल मीडिया पर स्टेटस अपडेट करते, चैटिंग करते, फ़ोटो अपलोड करते, ब्लॉग लिखते आदि – हम हर समय किसी-न-किसी ऐलगोरिद्म का ही इस्तेमाल कर रहे होते हैं । बैंक, हवाईजहाज, कारखाने, व्यवसाय अब ऐलगोरिद्म से संचालित होते हैं । रोगियों के डेटाबेस से रोगों की शिनाख़्त भी अब ऐलगोरिद्म ही करते हैं । कृत्रिम बुद्धि (ए आई), तथा वर्चुअल रियलिटी (वी आर) टेक्नोलॉज़ी के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधानों और प्रयोगों ने तर्क-भाषा-आधारित ऐलगोरिद्म के सतत् विकास को विज्ञान की अगली पंक्ति में ला खड़ा किया है । ‘मशीन लर्निंग’, ‘लर्नर’, ‘इन्फ़ेरेंस इंजिन’, ‘फ़ॉरवर्ड और बैकवार्ड लर्निंग मैकेनिज़्म’, ‘डाटा साइंस’, ‘डाटा माइनिंग’ आदि इस विज्ञान की प्रचलित शब्दावलियाँ हैं । मशीन लर्निंग की प्रमुख शाखाओं में से एक ‘सिम्बोलिस्ट शाखा’ दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र और मनोविज्ञान के विचारों का उपयोग करती है, जबकि ‘एनेलॉगाइज़र शाखा’ गणित और मनोविज्ञान का ।

यहाँ मीमांसा की परम्परा के कुछ सूत्र और आधुनिक विज्ञान-टेक्नोलॉज़ी के बीच संवाद की कुछ संभावना बनती है । भारतीय तार्किक परम्परा में मीमांसक नैयायिकों तथा वैयाकरणों की भी एक भूमिका रही है । उदाहरण के लिए, (ख़ासकर भारतीय भाषाओं के संदर्भ में) ‘सर्च’, ‘ट्रांसलेशन’, और ‘स्पीच-रिकॉग्नीशन’ के ऐलगोरिद्म के विकास में मीमांसक-वैयाकरणों के कुछ सूत्र उपयोगी हो सकते हैं । वैयाकरणों के स्फोट सिद्धान्त की कम-से-कम तीन शाखाएँ हैं – पहले अक्षर के उच्चारण, पहले शब्द और पूरे वाक्य के आधार पर अर्थ-ग्रहण के सिद्धान्त । वैदिक ऋचाओं का पाठ ध्वनि, शब्द और आंगिक भंगिमा के तालमेल पर आधारित है और इस संबंध में परम्परा से चला आ रहा अपना शास्त्र है । इसके अलावा, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के महाकाव्यों तथा अन्य कृतियों में स्वर और व्यञ्जन अक्षरों के संभावित सह-संबंधों के मॉडेल विकसित किये जा सकते हैं । इसके डिज़िटल डेटाबेस का उपर्युक्त ‘सर्च’, ‘ट्रांसलेशन’ तथा ‘स्पीच-रिकॉग्नीशन’ ऐलगोरिद्म में उपयोग किया जा सकता है । हिन्दी मे तथा अन्य भारतीय भाषाओं में सटीक और बेहतर अनुवाद के ऐलगोरिद्म के विकास-परिष्कार के क्षेत्र में काफ़ी कुछ किया जाना है । किसी विशिष्ट कार्य को सम्पन्न करनेवाले ऐलगोरिद्म के कालक्रम में अन्य क्षेत्रों में उपयोग की संभावना भी बनी रहती है ।

यहाँ एक उदारहण दिया जा सकता है । 1913 मे रूसी गणितज्ञ आन्द्रेइ मार्कोव ने महान रूसी उपन्यासकार पुश्किन के क्लासिक काव्य-उपन्यास ‘यूज़ीन ओनेगिन (Eugene Onegin) को आधार बनाकर स्वर और व्यञ्जन अक्षरों के संभावित सह-संबंधों का एक मॉडेल तैयार किया । उन दिनों उनका यह मॉडेल ज़्यादा चर्चित नहीं हुआ । बहरहाल, कम्प्यूटर युग में आकर इसे पर्याप्त ख्याति मिली और मशीन लर्निंग का यह अभिन्न अंग बन गया । यह मॉडेल अब ‘मार्कोव चेन’ के नाम से जाना जाता है । जिस ऐलगोरिद्म ‘PageRank’ ने गूगल को जन्म दिया, वह मार्कोव चेन ही है । ‘गूगल ट्रांसलेट’, अथवा मशीन अनुवाद-प्रणालियों के पीछे भी यही मॉडेल है । ‘स्पीच-रिकॉग्नीशन’ प्रणाली ‘सिरि’ (Siri) ‘हिडन मार्कोव मॉडेल’ (एच एम एम) के आधार पर ही काम करती है । अपने मोबाइल पर जब भी हम बात कर रहे होते हैं तो हम इसी मॉडेल का इस्तेमाल कर रहे होते हैं । गणित समेत अन्य कई क्षेत्रों में भी इसका उपयोग होता है ।41

दरअसल, मशीन लर्निंग के क्षेत्र में आजकल भारतीय विचार-परम्परा की विभिन्न तार्किक प्रणालियों का उपयोग करने की दिशा में अनुसंधान चल रहा है जिसमें कुछ भारतीय शोधकर्ता भी शामिल हैं – हालांकि इनमें से ज़्यादातर अमेरिकी विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में कार्यरत हैं । युरोप में जहाँ अरस्तू की तीन पदोंवाले तर्कवाक्य प्रचलित थे, वहीं भारत में पाँच पदोंवाले (पंचावयवयुक्त) तर्कवाक्य । मशीन लर्निंग से संबंधित रचनाएँ पढ़ने पर आपको अनेक भारतीय बौद्ध, जैन, नव्य-न्याय से जुड़े दार्शनिकों और उनकी तार्किक प्रणालियों का ज़िक्र मिल जाएगा । उनमें अरस्तू ही नहीं, बल्कि दिग्नाग (बौद्ध), धर्मकीर्ति (बौद्ध), सामंतभद्र (जैन), गंगेश (नव्य-न्याय) आदि के नाम और उनकी तार्किक प्रणालियों का वर्णन, उनकी विशिष्टता तथा उन तार्किक प्रणालियों के आधार पर ऐलगोरिद्म के विकास की संभावनाओं पर कई आलेख तथा शोध-पत्र मिलेंगे । इस मामले में भी मीमांसक नैयायिकों की तुलना में बौद्ध-जैन-नव्य-नैयायिक काफ़ी आगे हैं । यहाँ इन तार्किक प्रणालियों के भेदों और उनके तुलनात्मक अध्ययन में नहीं जाया जा सकता है । सिर्फ़ एक तार्किक प्रणाली का ज़िक्र ज़रूरी लगता है – वह है जैनियों के स्यादवाद पर आधारित सात पदों वाली तार्किक प्रणाली । 600 ई. के आसपास जैन विचारक सामन्तभद्र द्वारा प्रस्तावित यह प्रणाली फज्जी (fuzzy and multi-valued) तार्किक प्रणालियों के विकास के लिहाज़ से अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जा रही है । लावारिस आँकड़ों को सामंतभद्र की प्रणाली में संभावित सह-संबंधों का कोई ठौर-ठिकाना स्यात् मिल सकता है ।

बहरहाल, यहाँ हमारा उद्देश्य ऐलगोरिद्म-संबंधी अध्ययनों में मीमांसा और अन्य भारतीय विचार-तर्क प्रणालियों के विवरण तथा उनके संभावित योगदान का ज़ायज़ा लेना नहीं है । मेरा उद्देश्य मीमांसा और ‘मास्टर ऐलगोरिद्म’ के वैचारिक सह-संबंध को सामने लाना है । प्रत्येक विचार-प्रणाली में सार्विकता की, सार्विक व्याप्ति की एक अन्तर्निहित प्रवृत्ति होती है जो उसे एकमात्र विचार-प्रणाली का दावेदार होने की ओर ले जाती है । ऐलगोरिद्म के साथ भी यही बात है ।

ऐलगोरिद्म के क्षेत्र में काम करनेवाले कुछ वैज्ञानिक आजकल मास्टर ऐलगोरिद्म के विकास में लगे हैं । पहले तो मुझे इस मास्टर शब्द पर ही आपत्ति है । इसकी जगह मैं ‘मदर’ ऐलगोरिद्म का प्रयोग करना चाहूँगा । मास्टर शब्द ‘मास्टर-स्लेव’ (मालिक-दास) के सामाजिक संबंध की याद दिलाता है, जबकि मदर अथवा मातृ शब्द प्राकृतिक प्रजनन अथवा पुनरुत्पादन-शक्ति की ।

बहरहाल, देखिए पेड्रो डोमिंगोस इस मास्टर ऐलगोरिद्म को किस रूप में परिभाषित करते हैं : “एक एकल, सार्विक ऐलगोरिद्म के द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य का सारा ज्ञान हासिल किया जा सकता है । मैं इस लर्नर को मास्टर ऐलगोरिद्म की संज्ञा देता हूँ । यदि ऐसा ऐलगोरिद्म संभव है, तो उसका आविष्कार सर्वकालिक महानतम वैज्ञानिक उपलब्धियों में से एक होगा । दरअसल, मास्टर ऐलगोरिद्म हमारा आखिरी आविष्कार होगा, क्योंकि एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद वह स्वयं आविष्कार की जा सकनेवाली हर चीज का आविष्कार करता जाएगा । हमें बस उसे पर्याप्त मात्रा में उपयुक्त डाटा प्रदान करना है, संबंधित ज्ञान की खोज वह ख़ुद कर लेगा । .. क्रमविकास (इवोल्यूशन) एक ऐलगोरिद्म ही है । .. ईश्वर ने प्रजातियों का सृजन नहीं किया, बल्कि प्रजातियों के सृजन के ऐलगोरिद्म की रचना की । ..”42

पूरी सृष्टि एक मास्टर ऐलगोरिद्म से संचालित है – इस सृष्टि को ईश्वर की ज़रूरत नहीं । अगर इसमें ईश्वर को लाना भी है तो उसे बस इस ऐलगोरिद्म के रचयिता के रूप में ही लाया जा सकता है । मास्टर ऐलगोरिद्म के वर्तमान रचयिता ख़ुद ईश्वर की भूमिका में आना चाहते हैं – पुराने ईश्वर की मृत्यु की घोषणा तो नीत्शे उन्नीसवीं सदी के अन्त में ही कर चुके थे ।

इसी तरह के दावे गणित और भाषा-व्याकरणवाले दार्शनिक भी पहले कर चुके हैं । दुनिया गणित के नियमों से या व्याकरण के सूत्रों से संचालित है । यहाँ मैं और विवरण में नहीं जाऊँगा – मीमांसा के संदर्भ में पाठक इस विचार-प्रणाली से पहले परिचित हो चुके हैं । कुल मिलाकर, इस विचार-प्रणाली में मूल रूप से यह दावा किया जाता है कि सृष्टि की कुंजी उनके हाथ लग गई है – शब्द-मीमांसकों के लिए वह कुंजी वेद है, ऐलगोरिद्म-मीमांसकों के लिए वह मास्टर ऐलगोरिद्म, गणित-तर्क-मीमांसकों के लिए गणित के समीकरण, और भाषा-व्याकरण-मीमांसकों के लिए व्याकरण के सूत्र । इस विचार-प्रणाली की परिणति व्यक्ति के स्तर पर ‘श्रेष्ठता के अहंकार’ में, और सामाजिक तौर पर ‘सर्वसत्तावादी’ अभियानों में होती है । जिनके हाथों में संसार की कुंजी है, वे उसी कुंजी से संसार का संचालन करना चाहते हैं । इतिहास ऐसे कई सर्वसत्तावादी अभियानों का गवाह रहा है – उनके उत्थान और हश्र का भी ।

विद्यते : ‘अस्ति’ और ‘भवति’ के बीच एक क्रिया ‘विद्यते’ भी है (कुछ ख़ास संदर्भों में हम यहाँ ‘वर्तते’ को भी रख सकते हैं) । नवज्योति लिखते हैं, ‘विद्यते उस स्थान पर लागू नहीं होता जहाँ मृत्यु का भाव है, जहाँ परिवर्तन से अभाव की उत्पत्ति हो रही है ।’ (प्रतिमान 11, पृ. 7) विद्यते से ही विद्यमान और भाव-प्रत्यय ता लगाने से विद्यमानता (प्रेज़ेंस) बनता है ।

बहरहाल, विद्यते (प्रेज़ेंस) उस स्थान पर लागू होता है, जहाँ सामयिक रूप से यथार्थ भाव स्थगित (मृत) हो जाता है, जहाँ परिवर्तन से अभाव नहीं, बल्कि वर्चुअल अथवा माया-भाव की उत्पत्ति हो रही हो । जब आप किसी कर्मकाण्ड में पूरी तरह लीन हो जाते हैं, तो सामयिक रूप से आपका यथार्थ जगत स्थगित हो जाता है, और आप एक वर्चुअल अथवा माया जगत में उपस्थित होते हैं – मंत्रों की ध्वनियों के बीच हवि देते समय आप वरुण, इन्द्र, अग्नि आदि देवों और पितरों की संगत में होते हैं, विधि-विधान में छोटी-सी चूक से आप किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो जाते हैं । इसकी चरम अभिव्यक्ति आप किसी आत्मा के वशीभूत ओझा-गुनियों के व्यवहार में देख सकते हैं । और अगर आप जगत को मिथ्या और देव-पितरों की संगतवाली वर्चुअल दुनिया को ही सत्य मानते हैं, उस दुनिया में ही रम जाते हैं तो आपका मस्तिष्क भी उसी अनुरूप ढल जाता है और आपका शरीर तदनुरूप प्रतिक्रिया देने लगता है । (इसकी त्रासद परिणति तथाकथित महाप्रलय का मुहुर्त निश्चित कर कुछ गुप्त सम्प्रदाय के लोगों द्वारा सामूहिक आत्महत्या करने की घटनाओं में होती है ।) इस तरह कर्मकाण्डों के जरिये हमारी चेतना हैक होकर जिस प्रेज़ेंस में दाख़िल होती है, उससे यथार्थ जगत में अभाव की उत्पत्ति तो होती है, लेकिन यह मृत्यु का भाव नहीं, बल्कि सामयिक रूप से यथार्थ-भाव का स्थगन है । (वैसे हम सब अपने यथार्थ जगत में, अपने रोजमर्रे के जीवन में, विभिन्न मात्रा में अपनी-अपनी माया-दुनिया भी साथ लिये चलते हैं ।)

वर्चुअल रियलिटी टेक्नोलॉज़ी (वी आर टेक्नोलॉज़ी) के आधुनिक विज्ञान में प्रेज़ेंस को परिभाषित करते हुए W.I.R.E.D के वरिष्ठ सम्पादक पीटर रुबिन लिखते हैं : ‘वर्चुअल रियलिटी एक ऐसा कृत्रिम वातावरण है जिसमें आप पूरी तरह खो जाएं और आपको यह विश्वास हो जाए कि आप सचमुच उसी वातावरण में रह रहे हैं । .. यह कृत्रिम वातावरण कुछ भी हो सकता है – कोई फ़िल्म, कोई फ़ोटोग्राफ़, कोई चित्र, कोई विडियो गेम, शर्त सिर्फ़ यह है कि यह कोई ऐसी चीज होनी चाहिए जहाँ आप ख़ुद शारीरिक रूप से उपस्थित न हों ।’43 .. इस कृत्रिम जगत में जिसमे आप पूरी तरह खो जाते हैं, आपकी इन्द्रियाँ भी ग़फ़लत का शिकार हो जाती हैं, आपके मस्तिष्क को अपने अनुभव के सच्चे होने की सूचना देती हैं, और आपका मस्तिष्क शरीर को तदनुरूप प्रतिक्रिया देने के निर्देश देता है – इस कृत्रिम जगत के किसी डरावने दृश्य को देख कर आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आप पसीने से तरबतर, जबकि यथार्थ जगत में आप ‘ओकुलस रिफ्ट’44 (Oculus Rift, वी आर हेडसेट) पहने अपने सोफ़े पर बैठे होते हैं ।

एक कृत्रिम जगत में इस तरह रम जाना कि आपका मस्तिष्क भी धोखा खा जाए ‘प्रेज़ेंस’ कहलाता है । यह ‘प्रेज़ेंस’ वी आर की बुनियाद है । सेवा, व्यवसाय और मेन्युफ़ैक्चरिंग के क्षेत्र में इसके उपयोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है । रियल इस्टेट कम्पनियाँ इस वी आर टेक्नोलॉज़ी के जरिये अपने ग्राहकों को हजारों मील दूर स्थित घरों में रहने का अनुभव करा सकती हैं । अनेक शारीरिक तथा मानसिक बीमारियों के इलाज़ में भी इसकी सकारात्मक भूमिका मानी जाती है । बहरहाल, इसके उपयोग तथा दावों की भी एक अतिवादी स्थिति है । इस ‘प्रेजेंस’ में गेम खेलते बच्चे जब ‘आई क्विट’ कह कर आत्महत्या कर बैठते हैं, तो आप इस ‘विद्यते’ की भयावहता का अंदाज़ा लगा सकते हैं ।

बहरहाल, वास्तविकता यह है कि सामूहिक रूप से भी हम अपनी चेतना की हैकिंग के समय-समय पर शिकार होते रहे हैं । ऑडियो-विज़ुअल्स, टीवी, गैज़ेट्स, एप्स, सोशल मीडिया, ब्राण्डों-विज्ञापनों और बाज़ार की चकाचौंध, टॉप हेडलाइंस और ट्रेंडिंग टॉपिक्स की 24×7 घेरे के बीच हम सामूहिक रूप से इस प्रेज़ेंस में दाख़िल होते रहते हैं, और अनेक तो इसके मोहपाश में पहले ही जकड़े जा चुके हैं । सामूहिक रूप से चेतना की हैकिंग कर कृत्रिम वातावरण रचने और हमें प्रेजेंस में भागीदार बनाने की सचेत कोशिश भी की जाती है, और यह तेजी से विस्तार पा रहा अरबों डॉलर का व्यवसाय है – ख़ासकर चुनावों के दिनों में या उन्मादी भीड़ इकट्ठा करने में । नयी डिज़िटल टेक्नोलॉज़ी ने हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को पूरी तरह बदल कर रख दिया है । यह स्थिति इसलिए और भी चिन्तनीय हो गई है क्योंकि इस टेक्नोलॉज़ी पर कुछेक महाकाय टेक कम्पनियों ने लगभग एकाधिकार कायम कर रखा है ।

आज हमारा समाज देवतुल्य माल (उपभोक्तावाद), देवतुल्य पूँजी (वित्तीय पूँजी), देवतुल्य ऐलगोरिद्म (मास्टर ऐलगोरिद्म), और देवतुल्य शब्द (मीमांसा) की चतुष्शक्ति के आक्रामक सर्वसत्तावादी अभियान की चपेट में है । माल-मुनाफ़ा-मास्टरऐलगोरिद्म-मीमांसा के सम्मिलित सर्वसत्तावादी अभियान के तहत हमारी चेतना को हैक कर हमें निष्क्रिय उपभोक्ता और आक्रामक भीड़ में बदला जा रहा है ।

10. नव-मीमांसा और हिन्दुत्व : आधार-आधेय

विचरण में नवज्योति के कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्षों तथा टिप्पणियों पर हम यहाँ सरसरी तौर पर निग़ाह डाल सकते हैं :

1. हमें मीमांसा की परम्परा में फिर से विधायी शक्ति लाना है ।

2. मीमांसा की परम्परा के साथ अन्याय हुआ है । इस अन्याय के लिए जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेवार ठहराया गया है, और घुमाफिरा कर महात्मा गांधी को । नेहरू के बारे में एक अत्यन्त सतही टिप्पणी – ‘अगर नेहरू देश के प्रधानमंत्री बनने के स्थान पर इलाहाबाद के मेयर बनते, तो भारत की स्थिति कहीं बेहतर होती’ – उन्हें इतनी पसंद आयी कि इस छोटे से साक्षात्कार में इसका दो बार ज़िक्र किया गया है (पृ. 27 और 35) ।

इसी तरह महात्मा गांधी के बारे में भी कई सतही टिप्पणियाँ हैं । कुछ का विवरण हम पहले दे चुके हैं । एक और निहायत सतही टिप्पणी है : ‘सन् 42 तक गांधीजी ने तीन-चार बार खीझ कर कपड़ा जलाने का कार्यक्रम बनाया । टैगोर ने उस पर आपत्ति ली । जले कपड़े पर हिन्दुस्तान कैसे खड़ा होगा ! .. पर सन् 1942 के बाद यह पूरा देश जले हुए कपड़े पर ही खड़ा है । अगर जले हुए कपड़े पर भारत खड़ा होगा, तो उसका क्या विधान बनेगा ?’ (पृ. 35)

गांधी और नेहरू की नीतियों की आलोचना तो की ही जा सकती है, अनेक विचारक अपनी-अपनी दृष्टि से ऐसा करते भी रहे हैं । नवज्योति उनकी आलोचना इस आधार पर करते हैं कि वे मीमांसक नहीं थे, सामी विचार के थे ।

पूरे साक्षात्कार में नवज्योति जो-जो नाम लेते हैं, उसके पीछे ख़ास मक़सद है । कुछ नाम तो बिना किसी ख़ास प्रसंग के उछाल दिये गये हैं, जैसे भगत सिंह का नाम (पृ. 57) । लेकिन उनके नाम देने के पीछे एक राजनीतिक उद्देश्य है । दरअसल, नेहरू तथा गांधी को कटघरे में खड़ा करने के लिए हिन्दुत्ववादियों के पास अपने किसी ‘योग्य पात्र’ का नाम है ही नहीं, इसलिए उन्हें ऐसा करना पड़ता है । उनके पास अध्येताओं की घोर कमी रही है, और इस कमी को पूरा करने के लिए आज तक वे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं के बीच के मतभेदों का लाभ उठाकर अपने प्रमुख वैचारिक-राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों पर निशाना साधने की कोशिश करते हैं । यह कार्यनीति भी अत्यन्त कमजोर और हास्यास्पद है, क्योंकि जिन नामों का वे सहारा लेते हैं उनमें से कोई भी मीमांसक नहीं था । हिस्ट्री और इतिहास के प्रसंग में रोमिला थापर का नाम (पृ. 60) लाने का मक़सद तो जगज़ाहिर है ।

3. संविधान को अधूरा बताकर उसे ख़ारिज़ करना । रेखांकन में सुभाष चन्द्र बोस के चित्र होने पर यह टिप्पणी की गई है कि नंदलाल बोस के कारण यह चित्र वहाँ है – इशारा यह कि नेहरू की चलती तो यह चित्र वहाँ नहीं होता । (पृ. 47)

4. स्वतंत्रता आन्दोलन को ख़ारिज़ करना (संबंधित उद्धरण पहले दिये जा चुके हैं) । स्वतंत्रता आन्दोलन में न अध्येताओं की कमी थी और न कारीगरों की । पारम्परिक अध्येताओं यानी पण्डितों से उनका मतलब अगर हिन्दुत्व के पैरोकारों से है, तो बात सही है । लेकिन तब उन ‘अध्येताओं’ से ही पूछा जाना चाहिए कि वे क्यों नहीं थे, उन्हें किसने रोका था ? नवज्योति बुनकरों तथा मुस्लिम कारीगरों आदि की चर्चा करते हैं, तो उन्हें ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ़ेरेंस की स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका का पता करना चाहिए था ।

ऐसे ही कुछ प्रसंगों का उल्लेख पहले किया जा चुका है । उपर्युक्त विवरण से कोई भी व्यक्ति नवज्योति सिंह की टिप्पणियों और हिन्दुत्व के पीठाधिकारियों के वक्तव्यों में साम्य देख सकता है । दरअसल, औपनिवेशिक काल में भारत में जितनी वैचारिक प्रवृत्तियाँ सक्रिय थीं, उनमें हिन्दुत्व की आधुनिक विचारधारा के पास ही परम्परा का सबसे कमजोर सूत्र था । तब (1920-30 के दशक के) युरोप में नस्लवादी-फ़ासीवादी शक्तियाँ उफान पर थीं, और हिन्दुत्व के प्रवर्तकों का ज़ोर उनके नकल पर ज़्यादा था (यहाँ तक कि वेशभूषा के स्तर पर भी) । अनेक मीमांसक भी हिन्दुत्व की राजनीतिक परियोजना से सहमत नहीं थे और वे इसे भारतीय समाज के लिए एक विघटनकारी प्रवृत्ति मानते थे । कर्मकाण्ड, रीति-रिवाज़ आदि उनके लिए निजी दायरे की चीजें थीं और वे बदली हुई स्थितियों में सुधारों के पक्षपाती थे । आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने ब्राह्मण-ग्रंथों को वेद का हिस्सा मानने से ही इन्कार कर दिया था । भारत जैसे प्राचीन देश में एक वृहत्तर परिवार के दायरे में ही विभिन्न मतावलम्बी रहते आये हैं – एक ही परिवार में मीमांसक से लेकर नास्तिक तक । यदि परिवार में मीमांसा को विधायक शक्ति प्रदान कर दी जाए, तो वह परिवार ही विघटन का शिकार हो जाएगा ।

साथ ही, यही वह समय था जब ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था को, मीमांसा की वैचारिकता को पेरियर रामास्वामी नायकर और बाबासाहब आम्बेडकर के वैचारिक-सामाजिक तथा राजनीतिक आन्दोलनों से कड़ी चुनौती मिल रही थी ।

नवज्योति सिंह द्वारा हिन्दुत्व की राजनीतिक परियोजना को दार्शनिक आधार देने की यह कोशिश भी बिल्कुल घिसी-पिटी, पुरानी लीक पर चलती है । वैसे, प्राचीन काल से ही मीमांसा का दार्शनिक पक्ष काफ़ी कमजोर रहा है । इस पर काफ़ी कुछ हम पहले बता चुके हैं । हिन्दुत्ववादियों के हिन्दू राष्ट्र का सार क्या है ? कट्टर मीमांसा के अधिनायकत्ववाला राष्ट्रमीमांसा को विधायी शक्ति प्रदान करना, देवतुल्य मीमांसकों का राजपीठ तथा अन्य पीठों पर नियंत्रण, हिन्दुओं और अन्य भारतीयों पर मीमांसकों का अधिनायकत्व । नवज्योति इस साक्षात्कार में इसी मीमांसा के अधिनायकत्व को वैचारिक वैधता प्रदान करने की असफल कोशिश करते हैं ।

भारतीय तार्किक परम्परा में विरोधी पक्ष के तर्क के दोषों को उजागर कर उन्हें पराजित करने के अनेक संदर्भ हैं – तर्क के ऐसे दोषों (निग्रह-स्थानों) की संख्या बाइस45 बताई गई है । नवज्योति के तर्कों में (उनमे से) कई दोषों का मैंने अपने विवरण में उल्लेख किया है – जैसे, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञाहानि, पुनरुक्त, अप्रतिभा, निरर्थक, आदि ।

मई 2014 के बाद से ऐसा वातावरण बनाने की मुहिम चलाई जा रही है मानो प्राचीन भारत की गौरवशाली उपलब्धियों को पहली बार उजागर किया जा रहा हो (हालांकि इस प्रक्रिया में जो चीज उजागर की जाती है, वह प्रायः हास्यास्पद साबित होती है) । सच्चाई यह है कि मानवजाति के ज्ञानकोश में प्राचीन भारत के योगदान पर सबसे ज़्यादा, प्रामाणिक और गंभीर अध्ययन-अनुसंधान मीमांसकों ने नहीं, बल्कि उदारवादी-वामपंथी बुद्धिजीवियों ने किया है और इसमें पश्चिम के भी अनेक गणमान्य अध्येताओं की काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । वैदिक साहित्य, धर्मशास्त्रों-स्मृतियों, इतिहास-पुराण, दर्शन से लेकर प्राचीन भारतीय गणित, खगोलविद्या, आयुर्वेद, योग, मूर्तिकला, वास्तुकला, चित्रकला, कामशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र, नृत्य-संगीत, रहन-सहन, वेशभूषा आदि विषयों पर गंभीर शोध-अध्ययनों में इन्हीं विद्वानों ने जीवन-पर्यन्त अपने श्रमसाध्य कार्य के जरिये विपुल साहित्य की रचना की है । प्राचीन पाण्डुलिपियों के उद्धार, उनके संरक्षण-संवर्धन में भी उन्होंने अनुकरणीय भूमिका निभायी है ।

नवज्योति के विचारों के खण्डन में मैंने सचेत रूप से किसी पश्चिमी विचारक को उद्धृत नहीं किया है – यह सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि प्राचीन भारतीय विचार-परम्परा में ही मीमांसा की भरपूर आलोचना मौज़ूद है । वैसे, भारतीय विचार परम्पराओं के अध्ययन-अनुसंधान में पश्चिमी लेखकों के योगदान की अवहेलना उचित नहीं है (पश्चिम के या किसी भी देश के सारे लेखकों को एक श्रेणी में डाल देना भी सही नहीं है) । नवज्योति की टिप्पणियाँ चूँकि ज़्यादातर प्राचीन काल से ही संबंधित हैं, इसलिए इस मामले में भी मैंने सारे उदाहरणों को प्रायः प्राचीन काल के दायरे में ही रखा है । वैसे, भारतीय विचार परम्परा में मध्य तथा आधुनिक काल के योगदान की अवहेलना उचित नहीं है ।

11. उपसंहार

श्री उदयन वाजपेयी इस साक्षात्कार में निराश करते हैं । बातचीत ठीक-ठाक शुरू होती है, लेकिन आगे उदयन ज़िरह के महत्वपूर्ण मौके गंवाते जाते हैं, और अन्त आते-आते तो स्थिति कथावाचक और मंत्रमुग्ध श्रोता की बन जाती है । साक्षात्कार लेने और देनेवाले का फ़र्क मिट जाता है – साक्षात्कारकर्ता अपनी ‘स्वायत्तता’ का समर्पण कर देता है और इस तरह साक्षात्कार-कर्म के धर्म का निर्वाह करने से चूक जाता है । हाल ही में ‘वाक्’ में प्रकाशित उनके लेख ‘देशभक्ति और राष्ट्रवाद’ को ही आधार बना कर देखें तो ज़िरह के कई सवाल तो बनते ही थे । वैसे यह स्थिति कोई अप्रत्याशित नहीं थी, अपनी ‘प्रस्तावना’ में वे इसका संकेत कर देते हैं ।

मैं यह विश्वास करना नहीं चाहता कि श्री अशोक वाजपेयी ने बिना किताब पढ़े ‘आमुख’ लिखा है । इसलिए अन्तिम तीन वाक्यों को पढ़कर मुझे हैरानी हुई – ‘वे (नवज्योति सिंह) नये प्रश्न उठाते हैं, नयी जिज्ञासा उकसाते हैं और विचार की नयी राहें खोजने की ओर बढ़ते हैं । हिन्दी वैचारिकी की जो शिथिल स्थिति है उसके संदर्भ में यह पुस्तक एक विनम्र इज़ाफ़े की तरह है । उम्मीद है कि यह विचार-विचरण पाठक पसंद करेंगे ।’ (पृ. 8) बहरहाल, नवज्योति नये प्रश्न नहीं उठाते हैं, नयी जिज्ञासाएँ नहीं उकसाते और विचार की नयी राहें खोजने की ओर नहीं बढ़ते हैं .. यह पुस्तक एक विनम्र इज़ाफ़े की तरह तो बिल्कुल नहीं है .. और यह विचार-विचरण तो है ही नहीं । ‘आमुख’ में इन तीन पंक्तियों के पहले उन्होंने जो लिखा है (और अच्छा लिखा है), सत्याग्रहडॉटकॉम पर वे जो लिख रहे हैं, तथा वे जो लिखते रहे हैं, उन सब से भी उनका यह निष्कर्ष मेल नहीं खाता है ।

आवरण पर रज़ा की बिन्दु सीरीज़ का चित्र किताब के कथ्य से मेल नहीं खाता । ब्लैकबोर्ड पर किसी बिन्दु अथवा वृत्त पर, मोमबत्ती या दीये की लौ पर, या बाल अरुण पर त्राटक के फलस्वरूप (आँखें बंद करने पर) अपने भ्रू-मध्य में ध्वनियों, रंगों तथा आकृतियों के उभरते-मिटते अनन्त आनन्द-लोक में विचरणे के बजाए यदि आप किसी एक वृत्त के बंदी होकर रह जाते हैं तो आपके त्राटक में त्रुटि है और आपको अभ्यास जारी रखना चाहिए । किताब का कथ्य एक बंद वृत्त का कथ्य है, रज़ा की बिन्दु सीरीज़ की चित्रकला में आकृतियों और रंगों के अनवरत् अनावृत होते संसार का नहीं ।

अन्त में, यह किताब विचार-विचरण तो है ही नहीं – भारतीय नैयायिकों की भाषा में यह विचार-चक्रिक46 है । इसलिए किताब का शीर्षक ‘विचरण’ एक चक्रिक विमर्श का भ्रामक महिमामण्डन है ।

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टिप्पणियाँ

* उदयन वाजपेयी (2018), विचरण : नवज्योति सिंह से संवाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.

1 डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल (1964) : 195.

2 मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ (1958) : 3-4.

3 अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।। पद्मपुराण में सूत्र की परिभाषा (मध्वाचार्य द्वारा ब्रह्मसूत्र की अपनी टीका में उद्धृत) । राधाकृष्णन (1941) : 22. बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन (175 ई. के आसपास) को कारिका शैली का प्रवर्तक माना जाता है । उनकी रचना विग्रहव्यावर्त्तनी कारिका शैली में है – इसमें कुल 72 कारिकाएँ हैं । माण्डुक्य उपनिषद् पर गौड़पाद (500 ई.)) की टीका भी कारिका शैली में है । दोहा शैली के आरम्भिक प्रवर्तकों में सरहपा (आठवीं सदी का पूर्वार्ध) का नाम लिया जा सकता है ।

4 छांदोग्य उपनिषद् (1983), VII.1.3 : 574. सम्बन्धित अंश इस प्रकार है : ‘यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोSन्तर्हृदय आकाश उभे अस्मिन्द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते उभावग्निश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसावुभौ विद्युन्नक्षत्राणि यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं तदस्मिन्समाहितमिति ।।3।।’  (जो बाहर आकाश में है, वही हृदय के आकाश में भी है – इसके अन्दर द्युलोक भी है और पृथ्वी भी, अग्नि और वायु भी, सूर्य और चन्द्र, विद्युत और नक्षत्र सभी कुछ । जो कुछ भी यहाँ है अथवा नहीं है, वह सब कुछ उसमें समाहित है ।)

5 छांदोग्य उपनिषद् (1983), III.14.1 : 208, बृहदारण्यक उपनिषद् (1951), 1.4.10 : 59-60.

6  वही, V.10.7 : 373. ‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां / योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं / वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां / योनिमापद्येरञ्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा ।।7।।’ मीमांसा में शूद्रों के लिए यज्ञ-कर्मकाण्डों में भाग लेना निषिद्ध है । वैसे, इसके कुछ अपवाद भी कहीं-कहीं मिलते हैं – रथकारों को अग्न्याधान बलि की स्वीकृति दी गई है, और निषादों को रौद्रयज्ञ की । इसके विपरीत तंत्रशास्त्र में शूद्रों, स्त्रियों सभी को तंत्रज्ञान का अधिकारी माना गया है : ‘अन्त्यजा अपि ये भक्ता नामज्ञानाधिकारिणः / स्त्रीशूद्रब्रह्मबन्धूनां तंत्रज्ञानेsधिकारिता ।’ (व्योमसंहिता) ; राधाकृष्णन (1941) : 737. नाट्यशास्त्र (पञ्चम वेद) के दरवाज़े भी शूद्रों के लिए खोल दिए गये थे ताकि विभिन्न वर्णों को उनके कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान दिया जा सके (‘न वेदव्यवहारोsयं संश्राव्यः शूद्रजातिषु । तस्मात् सृजापरं वेदं पञ्चमं सार्ववर्णिकम् ।।’) । अभिनवगुप्त लिखते हैं : ‘तेन अनधिकृतानामपि सुकुमाराणां व्युत्पत्तिदायि नाट्यम् । श्रुतशास्त्राणामपि संवादादविचलकार्याकार्यविवेक सिद्धिरिति ।।’ इस प्रकार (वेदशास्त्रादि) अनधिकारियों को भी शिक्षा देनेवाला (यह) नाट्य है । और उसके द्वारा शास्त्रों को जाननेवालों को भी (अपने) शास्त्रीय ज्ञान की सम्पुष्टि हो जाने से उनका कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है । हिन्दी अभिनवभारती (1973) : 78-79.    

7 मीमांसा की वंशावली संक्षेप में इस प्रकार है : जैमिनि के मीमांसा-सूत्र पर कई लोगों (यथा, भर्तृमित्र, भवदास, हरि और उपवर्ष) ने टीकाएँ लिखीं, लेकिन वे अब उपलब्ध नहीं हैं । मीमांसा-सूत्र के अलावा जैमिनि की एक और रचना संकर्षणकाण्ड (जिसे देवताकाण्ड भी कहा जाता है) मिलती है । बहरहाल, मीमांसा-सूत्र पर सबसे उल्लेखनीय टीकाकार शबर हैं जिनके भाष्य को मीमांसा के इतिहास में काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।

शबर के बाद सबसे प्रमुख नाम कुमारिल भट्ट का है (इनका मत भट्टमत के नाम से जाना जाता है) । वे भवभूति (620-680  ई.) के गुरु थे, इसलिए उनका काल 590-650 ई. के बीच माना जाता है । कुमारिल ने तीन भागों में मीमांसा-सूत्र और भाष्य पर टीकाएँ लिखीं । पहला भाग श्लोकवार्त्तिक मीमांसा-सूत्र के पहले अध्याय के पहले भाग की व्याख्या है । उनकी दूसरी रचना तंत्रवार्त्तिक में मीमांसा-सूत्र के तीसरे अध्याय तक की विषय-वस्तु को शामिल किया गया है । मीमांसा-सूत्र के शेष अध्यायों पर उनकी तीसरी रचना टुप्टीका में विचार किया गया है ।

जैमिनि, शबर और कुमारिल के बाद चौथा नाम मंडन मिश्र का आता है जो कुमारिल के ही अनुयायी थे । मंडन मिश्र मीमांसा पर दो ग्रंथों – विधिविवेक और मीमांसानुक्रमणि – के रचयिता हैं । इसके बाद नाम आता है वाचस्पति मिश्र (850 ई. के आसपास) का जिन्होंने अपनी न्यायकणिका में मंडन मिश्र के विधिविवेक की व्याख्या की है । कुमारिल की रचना पर कई लोगों ने टीकाएँ लिखीं जिनमें कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं – श्लोकवार्त्तिक पर काशिका के नाम से लिखी टीका के लेखक सुचरित मिश्र ; सोमेश्वर भट्ट ने तंत्रवार्त्तिक पर न्यायसुधा (जो राणक के नाम से भी जाना जाता है) शीर्षक टीका लिखी ; श्लोकवार्त्तिक पर पार्थसारथी मिश्र (1300 ई.) ने भी एक टीका लिखी न्यायरत्नाकर ; पार्थसारथी मिश्र तंत्ररत्न और मीमांसा पर एक स्वतंत्र ग्रंथ शास्त्रदीपिका के भी रचयिता हैं ; वेंकट दीक्षित की वार्त्तिकाभरण कुमारिल की टुप्टीका की व्याख्या है ।

कुमारिल के बाद मीमांसा-शास्त्र के सबसे चमकते सितारे हैं प्रभाकर । प्रभाकर ने शबरस्वामी के भाष्य पर बृहती नाम से टीका लिखी – कुमारिल जहाँ यत्र-तत्र शबर की आलोचना करते हैं, वहीं प्रभाकर अपनी बृहती में शबर का अनुसरण करते दिखते हैं । मंडन और प्रभाकर दोनों कुमारिल के शिष्य थे और कहा जाता है कि प्रभाकर की विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए कुमारिल ने ही उन्हें गुरु की उपाधि दी थी । प्रभाकर के मत को गुरुमत के नाम से भी जाना जाता है ।

कुमारिल की तरह प्रभाकर की बृहती पर भी कई टीकाएँ लिखी गईं । एक तो प्रभाकर के शिष्य शालिकनाथ की टीका ऋजुविमाला ही है । उन्होंने प्रभाकर के विचारों को लोकप्रिय शैली में प्रस्तुत करते हुए प्रकरणपंचिका शीर्षक से एक ग्रंथ की भी रचना की थी । शालिकनाथ की रचना में बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्त्ति का भी उल्लेख है । भवनाथ ने अपने न्यायविवेक में प्रभाकर-मत का विस्तार से विवरण दिया है । प्रभाकर के अनुयायी दो शाखाओं में बँट गये थे – जरतप्रभाकराः और नव्यप्रभाकराः । मीमांसा की एक तीसरी शाखा – मुरारी शाखा – का ज़िक्र दार्शनिक साहित्य में आता है, हालांकि इस शाखा की कोई रचना अब उपलब्ध नहीं है । इनका मत मिश्रमत के नाम से जाना जाता है ।

जैमिनीय मीमांसा की एक काव्यात्मक प्रस्तुति माधव की न्यायमालाविस्तर है – पद्य के साथ गद्य में टीका भी दी गई है । अप्पय दीक्षित (1552-1624) अपनी विधिरसायन में कुमारिल की कड़ी आलोचना करते हैं । सत्रहवीं सदी में आपदेव ने मीमांसान्यायप्रकाश शीर्षक से एक लोकप्रिय ग्रंथ की रचना की । आपदेव की रचना पर आधारित लौगाक्षि भास्कर का अर्थसंग्रह भी मीमांसकों के बीच एक चर्चित कृति है । इसी तरह, कुछ और नाम हैं – खण्डदेव (सत्रहवीं सदी) जिनकी प्रमुख कृतियाँ हैं भाट्टदीपिका और मीमांसाकौष्टुभ ; राघवानन्द (मीमांसासूत्रदिधिति) ; रामेश्वर (सुबोधिनी) ; विश्वेश्वर (उर्फ गागाभट्ट, भाट्टचिंतामणि), आदि ।

वेदान्त देशिक ने अपनी रचना सेश्वर मीमांसा में मीमांसा और वेदान्त के सिद्धान्तों के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश की – वे रामानुज के अनुयायी थे और पूर्व तथा उत्तर मीमांसा को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे । संक्षेप में यही है मीमांसा की वंशावली । स्रोत : सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1941), इंडियन फ़िलॉसॉफ़ी, खण्ड 2, अध्याय 6, द पूर्व मीमांसा  : 374-378.

8 सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1941) : 179 (पादटिप्पणी 2).

9 ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (10.129) की अन्तिम पंक्ति – इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।।7।। ‘वह मूल स्रोत जिससे यह विश्व उत्पन्न हुआ, और क्या वह बनाया गया या अकृत था, (इसे) वही जानता है या नहीं जानता है, जो कि उच्चतम द्योलोक से शासन करता है, जो सर्वदर्शी स्वामी है ।।’ अनुवाद : राहुल सांकृत्यायन (1944) : 388.

10 बृहदारण्यक उपनिषद् (1951), 1.4.10 : 60-61.

11 वही, 4.4.10 : 366.

12 राहुल सांकृत्यायन (1944) : 563.

13 वही : 777. बौद्ध वंशावली के लिए देखें : राहुल सांकृत्यायन (1937), पुरातत्त्व निबंधावली, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग : 121-134 (अध्याय 8, महायान बौद्ध धर्म की उत्पत्ति), 205-218 (अध्याय 11, बौद्ध नैयायिक).

14 वही : 797-801.

15 वही : 758.

16 प्रश्न : “मौन क्या है ?” रमन महर्षि : “वह स्थिति जो वाक् और विचार का अतिक्रमण कर सके, मौन है । वह ध्यान है जिसमें कोई मानसिक हरकत नहीं होती । मन को काबू में लाना, यही ध्यान (मेडीटेशन) है । गहरा ध्यान एक ऐसा कथन है जो चिरंतन है । मौन हमेशा मुखरित होता है ; वह भाषा का चिरंतन प्रवाह है जिसे हम बोलकर तोड़ देते हैं ; शब्द इस मूक ‘भाषा’ में बाधा डालते हैं । व्याख्यान व्यक्तियों को घण्टों मनोरंजित कर सकते हैं, बिना उनका रत्ती भर सुधार किये, जब कि मौन चिरंतन रहता है और समूची मानवजाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध होता है । बोले हुए वचन उतने मुखर नहीं होते, जितना मौन होता है । मौन अनवरत् रहता है । .. कौन-सी भाषा उससे बेहतर हो सकती है ?”  पता नहीं लेखक रमण महर्षि के इस कथन पर क्या कहेंगे, लेकिन विट्गेन्स्टाइन इसे पढ़कर अवश्य ही आह्लादित हो जाते । निर्मल वर्मा (1997) : 58.

17 तैत्तिरीय उपनिषद् (1986), I.ii.1 : 12-13. ‘शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः । मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ।।1।।’

18 “छन्द की लय से हमारा तात्पर्य यह है कि किसी छंद में सबल तत्त्व तथा दुर्बल तत्त्वों का परस्पर विनिमय तथा उनकी स्थिति कैसी है, इन सबल तथा दुर्बल तत्त्वों के विनिमय तथा संयोजन का विधान किस तरह का है, तथा इनके तत्तत वर्गों का उक्त छंद में क्या संबंध है ? ‘लय’ से हमारा तात्पर्य विभिन्न उच्चरित ध्वनियों या अक्षरों के क्रमिक उतार-चढ़ाव से है जो अक्षरों के उतार-चढ़ाव के साथ ही साथ काव्यार्थ या भाव को गतिमान् बनाते हैं, उसके भी उतार-चढ़ाव का संकेत करते हैं । यह उतार-चढ़ाव प्रत्येक छंद में एक निश्चित समय-सीमा में आबद्ध रहता है । ..” डॉ. भोलाशंकर व्यास (1962) : 292.

19 नवज्योति धर्म को महज़ आध्यात्मिकता मानने, ध्यान लगाने का काम मानने और कर्मकाण्ड को दबाकर रखने के लिए गांधी और अन्य लोगों की आलोचना करते हैं (पृ. 57) । वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि धर्म व्यावहारिक है, अनुष्ठानिक है और कार्य भी है । बहरहाल, गांधीजी को यह भली-भाँति पता था कि धर्म व्यावहारिक है, अनुष्ठानिक है और कार्य भी है । लेकिन धर्मों के बीच विवाद की स्थिति में धर्मों में विद्यमान अध्यात्म-तत्त्व ही वह माध्यम है जो उनके बीच सृजनात्मक अन्तःक्रिया को संभव बना सकता है, उनके बीच संवाद में और उन्हें एक-दूसरे के क़रीब लाने में सहायक हो सकता है । इस सृजनात्मक अन्तःक्रिया के जरिये ही समाज में धार्मिक समुदायों के बीच पारस्परिक सम्मान और सद्भाव साकार होता है । आध्यात्मिकता पर ज़ोर देने का यही कारण था, न कि धर्मों की आनुष्ठिकता का अज्ञान ।

20 राधाकृष्ण चौधरी (2010) : 225-227.

21 बलदेव मिश्र (1962) : 65.

22 राजा राघव सिंह के शासनकाल (1701-1739) में 1720 के आसपास दरभंगा राज के एक नौकर बीरु कुर्मी को धरमपुर परगना (पूर्णिया) में लगान वसूली की जिम्मेवारी सौंपी गई । राज मुख्यालय से दूर जाने के कुछ ही महीनों बाद बीरु स्वतंत्र हो गया और उसने लगान देना बंद कर दिया । उसके इस विद्रोह को दबाने के लिए राजा को अपना सशस्त्र बल भेजना पड़ा । इस संघर्ष में बीरु और उसके बेटे की हत्या के बाद ही विद्रोह पर काबू पाया जा सका । जटाशंकर झा (1962) : 37. राजा राघव सिंह की मृत्यु के बाद उनकी दूसरी पत्नी सती हो गई थी ।

23 उपेन्द्र ठाकुर (1962) : 90-104.

24 राधाकृष्ण चौधरी (2010) : 225-226.

25 वही : 227.

26 जटाशंकर झा (1962) : 71.

27 वर्णरत्नाकर ऑफ़ ज्योतिरीश्वर-कविशेखराचार्य (1940) : 1. पहले पृष्ठ पर ही मंद और अपराधी जातियों की सूची है । पाँचवें कल्लोल में कोच, किरात, कोल, भील, षस, पुलिन्द, सबर आदि जनों की सूची है : 37. इसकी भूमिका अँग्रेजी में सुनीति कुमार चटर्जी और मैथिली में बबुआ मिश्र ने लिखी है ।

28 कालिदास ग्रंथावली (1950) , ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ : 15.

29 महाभारत (1973), प्रथम खण्ड, आदिपर्व के अन्तर्गत स्वयंवर पर्व में धृष्टद्युम्न का प्रत्यागमनविषयक एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय : 554.

30 हाल के वर्षों में समाजशास्त्रीय रचनाओं तथा पत्रकारिता में दलित और आदिवासी शब्दों को हटाने की एक तरह से मुहिम चलायी जा रही है । वैसे मुझे अनुसूचित जाति/जनजाति जैसे संवैधानिक पदों के प्रयोग पर कोई आपत्ति नहीं है, फिर भी मैंने सचेत रूप से दलित-आदिवासी शब्दों का प्रयोग किया है । इन शब्दों के प्रयोग का अपना इतिहास है, और इनका प्रयोग रोकने के पीछे उद्देश्य उस इतिहास को मिटाना है । समाजशास्त्रीय रचनाओं में शब्दों/पदों के प्रयोग की रचनाकारों को स्वतंत्रता है – इसे कोई भी निर्देशित नहीं कर सकता । यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है । इसे निर्देशित करना एक खतरनाक प्रवृत्ति है ।

31 इम्तियाज़ अली की एक लांग-शार्ट फ़िल्म है ‘द अदर वे’ । श्वास-प्रश्वास के बीच अन्तराल की तरह यह भी एक अन्तराल की फ़िल्म है – शादी के लिए दुल्हन के तैयार होने और मण्डप पर बैठने के बीच का अन्तराल । इसी अन्तराल में नायिका फ़ोटोग्राफ़र के साथ एक अंतरंग क्षण में कहती है : ‘शादी के पहले भी मैं अच्छी थी, शादी के बाद भी अच्छी बन कर ही रहना है, तो मैं बुरी कब बनूँगी ?’ ‘गुड गर्ल्स डु नॉट मेक हिस्ट्री’ वाली टी-शर्ट पहनी लड़कियाँ आपको सड़कों पर प्रायः दिख जाएँगी । कुछ ऐसी स्थितियाँ ही रही होंगी कि पुण्य कमाने के शोर के बीच कुछ तांत्रिक सम्प्रदायों ने भगवान को भी पाप में शामिल कर लिया होगा ।

32 कार्ल मार्क्स (1978) : 101-102. हिन्दी अनुवाद : भीष्म साहनी.

33 चतुर्भाणी (1959) : 12-13. ‘भूमिका’ में मोतीचन्द्र लिखते हैं : ‘शूद्रक विरचित पद्मप्राभृतकम् में दन्दशूकपुत्र दत्तकलशि नाम के एक वैयाकरण का उल्लेख है । उसकी बातचीत से पता चलता है कि कातंत्रिकों ने उसे तंग कर रखा था पर उसका उनपर जरा भी विश्वास नहीं था । उद्धरण इस बात का सूचक है कि जिस समय पद्मप्राभृतकम् की रचना हुई उस समय पाणिनीय और कातंत्रिक वैयाकरणों में काफ़ी रगड़ रहती थी । बहुत संभव है कि इस विवाद का युग गुप्तकाल रहा हो जब बौद्धों में कातंत्र-व्याकरण का काफ़ी प्रचार बढ़ा । कातंत्र अथवा कौमार या कालाप शर्ववर्मन् की रचना थी । विंटरनित्स के अनुसार कातंत्र की रचना ईसा की तीसरी सदी में हुई तथा बंगाल और कश्मीर में इसका विशेष प्रचार हुआ । आरम्भ में उसके चार खण्ड थे पर भोट भाषा और दुर्गसिंह की टीका में पूरक अंश भी आ गये हैं । इसके कुछ अंश मध्य एशिया से भी मिले हैं । (कीथ, ए हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर : 431)’

34 डोमन साहू ‘समीर’ (1998) : 204, 251.

35 ‘कामस्तदग्रे समवर्तताधिमनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।।4।।’ ऋग्वेद, नासदीय सूक्त, 10.129. ‘तब पहले काम (कामना) मौज़ूद था, जो मन में प्रथम रेत (वीर्य) था । कवियों ने बुद्धि द्वारा हृदय में विचार करके असत् में उस सत् को प्राप्त किया ।’ अनुवाद : राहुल सांकृत्यायन (1944) : 388.

36 माण्डुक्य उपनिषद् (2000) : 29. सातवाँ श्लोक इस प्रकार है : ‘विभूति प्रसवं त्वन्ये मन्यन्ते सृष्टिचिन्तकाः । स्वप्नमायासरूपेति सृष्टिरन्यैर्विकल्पिता ।।7।।’

37 छंदों में यति-व्यवस्था छंद-अनुशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । पाठकों ने ‘डर्टी पिक्चर’ का ‘उल्लाला’ गीत अवश्य सुना होगा । उल्लाला एक द्विपदी छंद है – मात्रा तथा यति (विराम-चिह्न) के अलग-अलग प्रयोगों के कारण इसके दो भेद हो जाते हैं । 28 मात्राओंवाले छंद में 15, 13 पर यति की व्यवस्था है – ‘पंद्रह कला विराम करि, तेरह बहुरि निहारि । पुनि पंद्रह तेरह द्विपद, उल्लालहि सु विचारि ।।’ (केशवदास, छंदमाला) ; वहीं 26 मात्राओंवाले छंद में 13, 13 पर यति की व्यवस्था है – ‘तेरह तेरह कला पै होत जहाँ विश्राम । ताहि सबै कवि कहत हैं उल्लाला यह नाम ।।’ (नारायणदास वैष्णव, छंदसार) । भोलाशंकर व्यास (1962) : 431-33.

38 आरम्भ में वैदिक छंदों के सात प्रकार थे – ‘गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती च प्रजापतेः । पंक्तिस्त्रिष्टुभ जगती च सप्तच्छदांसि तानिह ।।’ गायत्री (त्रिपात् छंद, प्रत्येक चरण में आठ वर्ण), उष्णिक् (त्रिपात् छंद, प्रथम-द्वितीय चरण आठ वर्ण, तृतीय चरण बारह वर्ण), अनुष्टुप (चतुष्पात् छंद, प्रत्येक चरण में आठ वर्ण), बृहती (चतुष्पात् छंद, प्रथम-द्वितीय-चतुर्थ चरण आठ वर्ण, तृतीय चरण बारह वर्ण), पंक्ति (पंचपात्, प्रत्येक चरण आठ वर्ण), त्रिष्टुप (चतुष्पात्, प्रत्येक चरण ग्यारह वर्ण), जगती (चतुष्पात्, प्रत्येक चरण बारह वर्ण) । इन्हीं में से उष्णिक के अवांतर भेद पुरुउष्णिक तथा ककुप्, बृहती के अवांतर भेद सतोबृहती, पंक्ति के अवांतर भेद प्रस्तार पंक्ति की गणना की जाती है । वैदिक छंदों में रूढ़ नियम नहीं हैं । एक या दो वर्ण न्यून या अधिक पाये जाते हैं । वर्णों के न्यूनाधिक होने से गायत्री के ही निचृत् (23 वर्ण), भुरिक (25 वर्ण), विराट् (22 वर्ण), और स्वराट् (26 वर्ण) भेद हो जाते हैं । इसी तरह अति जगती (13 वर्णों का चतुष्पात् छंद), शक्करी (14 वर्णों का चतुष्पात् छंद), अतिशक्करी (15 वर्णों का चतुष्पात् छंद), अष्टि (16 वर्णों का चतुष्पात् छंद), अत्यष्टि (17 वर्णों का चतुष्पात् छंद) आदि भी मिलते हैं । छंदःसांकर्य (प्रगाथ) का यहाँ उदाहरण देना ज़रूरी नहीं – इसके बिना हमारी गीत-संगीत की दुनिया कितनी नीरस होती, इसका सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है ।

39 तैत्तिरीय उपनिषद् (1986), अध्याय III, I.iii.1 : 13-15.

40 बृहदारण्यक उपनिषद् (1951), अध्याय 1, 1.4.17 : 72-73. यही प्रसंग तैत्तिरीय उपनिषद् में इस रूप में है : ‘पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोSवान्तरदिशाः । अग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि । आप ओषधयो वनस्पतय आकाश आत्मा । इत्यधिभूतम् । अथाध्यात्मम् । प्राणो व्यानोSपान उदानः समानः । चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक् त्वक् । चर्म मांसं स्नावास्थि मज्जा । एतदधिविधाय ऋषिरवोचत् । पाङ्क्तं वा इदं सर्वम् । पाङ्क्तेनैव पाङ्क्तं स्पृणोतीति ।।1।।’ तैत्तिरीय उपनिषद् (1986), अध्याय VII, I.vii.1 : 35-36.

इस विचार-परम्परा में एक से लेकर बारह के अंकों और उसके गुणकों, सोलह, अठारह, चौबीस, चौंसठ, एक सौ आठ आदि को दिव्य महिमा प्रदान की गई है । एक (अद्वैत, एक ब्रह्म दूसरा कोई नहीं), दो (द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा, प्रकृति और पुरुष), तीन (त्रिदेव – ब्रह्मा-विष्णु-महेश, त्रिशक्ति – महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती, तीन लोक, शिव-सदाशिव-परमशिव), चार (चार वेद, चार युग, चतुर्भुज-विष्णु, चार दिशाएँ), पाँच (पंक्ति, पाँच महाभूत आदि, पहले ज़िक्र हो चुका है), छः (छः कृत्तिकाएँ, षष्ठी माता), सात (सप्तर्षि, कुण्डलिनी के सात चक्र, सप्तसिंधु, सप्ततंतु-मीमांसा आदि), आठ (अष्टभुजा-दुर्गा, आठ वसु – ध्रुव-मव-सोम-आप-अनल-अनिल-प्रत्युष-प्रभाष, आठ दिक्पाल – इन्द्र-अग्नि-यम-निर्ऋति-वरुण-मरुत्-कुबेर-इशान आदि), नौ (नवरात्रि, नवग्रह आदि), दश (दशावतार, दश महाविद्याएँ आदि), ग्यारह (पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन), बारह (द्वादश आदित्य, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बारह मास, बारह राशियाँ आदि), सोलह (षोडशी-तंत्र, षोडशोपचार-आयुर्वेद, सोलह श्रृंगार आदि), अठारह (गीता के अठारह अध्याय, अठारह दिनों का महाभारत युद्ध आदि) । अठारह से याद आया । 30 जून, 2017 की मध्यरात्रि को माननीय सभासदों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच संसद के केन्द्रीय कक्ष में जी एस टी काउन्सिल की अठारह बैठकों की तुलना गीता के अठारह अध्यायों से कर जी एस टी को दिव्य महिमा से मंडित किया गया । थोड़ी चूक रह गई – जी एस टी के पाँच स्लैब (0, 5, 12, 18, 28) को पंक्ति की महिमा प्रदान कर उसे दोहरी दिव्यता प्रदान की जा सकती थी ।

41 पेड्रो डोमिंगोस (2015), द मास्टर ऐलगोरिद्म, अध्याय 6, इन द चर्च ऑफ़ द रेवेरेंड बायेस : फ़्रॉम यूज़ीन ओनेगिन टु सिरि  : 152-155.

42 वही, अध्याय 2, द मास्टर ऐलगोरिद्म  : 25-26.

43 पीटर रुबिन (2018), फ़्यूचर प्रेज़ेंस, अध्याय 1, प्रेज़ेंस : व्हाट इट इज़, व्हेयर टु फ़ाइंड इट, हाउ टु स्टे देअर  : 28-31.

44 वही : 31. ओकुलस रिफ़्ट पहला हाइ-एंड वी आर सिस्टम है जिसे 2016 में बाज़ार में उतारा गया । स्मार्टफ़ोन का उपयोग करनेवाले कुछ हेडसेट हैं गूगल कार्डबोर्ड और सैमसंग गियर वी आर.

45 बाइस निग्रहस्थान इस प्रकार हैं – प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासन्न्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, न्यून, अप्राप्तकाल, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोग्योपेक्षणा, निरनुयोग्यानुयोग, अपसिद्धान्त, और हेत्वाभास । राधाकृष्णन (1941) : 115, पादटिप्पणी 2.

46 तर्क के पाँच प्रकार : प्रमाणवाधितार्थप्रसङ्ग, आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय, चक्रिक, अनवस्था । वही : 114.

संदर्भ

अभिनव भारती (1973), प्रधान सम्पादक डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.

उपेन्द्र ठाकुर (1962), संस्कृत लर्निंग इन मिथिला अंडर द खंडवला डायनेस्टी, द जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, खण्ड XLVIII, जनवरी-दिसम्बर, 1962, पटना.

कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स (1978), उपनिवेशवाद के बारे में : लेख और पत्र, इसी में संकलित कार्ल मार्क्स का लेख भारत में ब्रिटिश राज के भावी परिणाम, अनुवाद भीष्म साहनी, प्रगति प्रकाशन, मास्को.

कालिदास ग्रंथावली (1950), सम्पादक-अनुवादक : सीताराम चतुर्वेदी, इसी में संकलित अभिज्ञानशाकुन्तलम्, अखिल भारतीय विक्रम परिषद, काशी.

चतुर्भाणी (1959), सम्पादक-अनुवादक : मोतीचन्द्र और वासुदेव शरण अग्रवाल, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय प्राइवेट लि., बम्बई.

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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य

न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य

प्रसन्न कुमार चौधरी

प्रस्तावना

मानव समाज के शैशव-काल से न्याय का प्रश्न मानव जाति की आत्म-पहचान और उसके आत्म-संगठन का केन्द्रीय प्रश्न रहा है और बदलते स्वरूप में आज तक बना हुआ है । प्रकृति को जानने और उसे बदलने के जरिये जीवनयापन करने वाले मानव-जनों को न सिर्फ अपने और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों को, बल्कि मानव-जनों के बीच के सम्बन्धों को भी परिभाषित करना पड़ा तथा उसे संस्थाबद्ध रूप देना पड़ा । जीवनयापन के तौर-तरीकों में आनेवाले परिवर्तनों के दौरान इन परिभाषाओं और संस्थाओं में भी समय-समय पर संशोधन-परिवर्धन-परिवर्तन होते रहे । बहरहाल, इन परिभाषाओं तथा संस्थाओं के केन्द्र में न्याय-अन्याय का प्रश्न ही प्रमुख रहा है ।

आरम्भ से ही हर युग में वर्चस्वशाली-यथास्थितिवादी शक्तियां इस प्रश्न को दरकिनार कर, उसे ओझल कर किसी अन्य प्रश्न को सामने रखकर उसे ही व्यक्ति और मानव समाज का लक्ष्य बताती रही हैं । नस्लवाद, धार्मिक उन्माद, उग्र राष्ट्रवाद जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों का हम समकालीन इतिहास में कई बार साक्षात् कर चुके हैं और उसके खतरनाक परिणामों को भुगत चुके हैं । आज देश-विदेश में इन प्रवृत्तियों का एक बार फिर आक्रामक उभार सहज ही रेखांकित किया जा सकता है ।

एक और प्रवृत्ति है जो न्याय को विस्थापित कर खुशी (हैप्पीनेस) को लक्ष्य के रूप में अपनाने की वकालत करती है । लैंगिक, सामाजिक, वर्गीय अन्याय के विभिन्न रूपों की शिनाख्त करने, उनके खिलाफ संघर्ष करने, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में न्याय को संस्थाबद्ध रूप देने और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जगह व्यक्ति के स्तर पर जो भी है तथा जितना भी है, उसमें ही खुश रहने, योग, विपश्यना, आर्ट ऑफ लिविंग, आदि के जरिये मानसिक शान्ति और ‘आनन्द’ प्राप्त करने पर जोर दिया जाता है । इतिहास में ऐसे प्रयासों की भी एक परम्परा रही है । तकनीकी क्रान्ति के आज के दौर में नयी-नयी विशेषताओं के साथ, ‘खुशी’ का यह कारोबार विश्वव्यापी पैमाने पर अच्छा-खासा मुनाफा देनेवाला उद्योग बन गया है – खुशी का व्यवसाय करनेवाले ‘भगवानों’, गुरुओं को देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों से लेकर शासक वर्गों, वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम, संयुक्त राष्ट्र संघ समेत विभिन्न वैश्विक संगठनों का भी पर्याप्त प्रोत्साहन प्राप्त है । दरअसल, न्याय के निषेध पर आधारित खुशी का यह व्यवसाय अन्याय के एक नये आयाम के रूप में उपस्थित हुआ है ।

मानवजाति आरम्भ से ही जनों, समुदायों/जातियों, वर्गों/तबकों, आदि में विभक्त रही है । एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का मतलब है नस्ल/जन, लिंग, समुदाय/जाति/राष्ट्रीयता/पंथ-सम्प्रदाय, वर्ग के आधार पर सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक भेदभाव तथा उत्पीड़न की अस्वीकृति और उसका खात्मा । यह भेदभाव और उत्पीड़न विभिन्न रूपों में आजतक चला आ रहा है । उत्पादन के तौर-तरीकों में परिवर्तन, वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्तियों, आदि के कारण हमारी जीवन-स्थितियों में आनेवाले बदलावों के फलस्वरूप मानवजाति की विभिन्न श्रेणियों की स्थितियों में परिवर्तन होता रहा है, नयी श्रेणियां भी सामने आती रही हैं, फिर भी अपने बदले हुए रूपों में भेदभाव और उत्पीड़न का यह सिलसिला अब भी जारी है । इस तरह के भेदभाव और उत्पीड़न का खात्मा ही न्याय है । विश्वव्यापी पैमाने पर इस सवाल पर सैद्धान्तिक सहमति के बावजूद, इसकी उपलब्धि अब तक एक सपना ही बना हुआ है । वैसे भी, एक (मानव) जाति के रूप में हमारी दावेदारी एक निरन्तर प्रक्रिया है । नस्ल-जन, समुदाय-जाति-राष्ट्रीयता-पंथ-सम्प्रदाय, वर्ग से सम्बन्धित अनेक पूर्वाग्रह और रूढ़ियां हमारे जीवन में वैचारिक और व्यावहारिक स्तर पर बुरी तरह जड़ जमा चुकी हैं तथा संस्थाबद्ध रूप ले चुकी हैं । यह स्थिति एक दीर्घकालीन वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष की चुनौती पेश करती है । इसके खात्मे की दिशा में पहला काम भेदभाव तथा उत्पीड़न के शिकार समुदायों की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करना, उनके लिए विशेष अवसर उपलब्ध कराना और उनके पक्ष में सकारात्मक कदम उठाना, तथा समानता और सम्मान के उनके अधिकारों को संवैधानिक-कानूनी संरक्षण प्रदान करना है । साथ ही उनके अधिकारों को मूर्त रूप देने के लिए समुचित संस्थाओं की स्थापना करना है ।

अन्याय के प्रमुख रूप

यहां हम अन्याय के प्रमुख रूपों को सूत्रबद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं :

1. लिंग-आधारित अन्याय – नर-नारी सम्बन्धों में अन्तर्निहित भेदभाव और उत्पीड़न मानव इतिहास में अन्याय के प्राचीनतम रूपों में से एक है । उत्पादन तथा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद (कुछेक अपवादों को छोड़कर) नारियों को समानता तथा सम्मान का स्थान प्राप्त नहीं हुआ और उन्हें पुरुष-वर्चस्ववाले समाज में अनेक किस्म की बंदिशों, प्रताड़नाओं, उत्पीड़न तथा हिंसा का शिकार बनाया जाता रहा है । नारियों के प्रति, अपनी ही आधी आबादी के प्रति पुरुष-पूर्वाग्रहों पर आधारित रूढ़ छवियां मानव इतिहास की प्राचीनतम रूढ़ियों में से एक है जिससे हम आजतक गहरे रूप से ग्रस्त रहे हैं । हमारे ‘इतिहास’ में (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) नारियां लगभग अनुपस्थित ही रही हैं – सरदारों, राजाओं, दार्शनिकों, शासनाधिकारियों, सेनापतियों, वैज्ञानिकों-अनुसंधानकर्ताओं-तकनीशियनों, अर्थशास्त्रियों, लेखकों-कलाकारों, आदि की हजारों पृष्ठों में फैली नामावली में नारियां यदा-कदा ही ताकती-झांकती नजर आती हैं । कुछेक सुधारों के बावजूद, डिजिटल युग में भी लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न बदस्तूर जारी है ।

अपनी ही जननियों के साथ यह मानवजाति के सबसे बड़े अन्यायों में से एक है, और एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न है । जाहिर है, प्रकट-अप्रकट अनेक रूपों में इस अन्याय के प्रतिकार की भी हर युग में अपनी एक परम्परा रही है ।

2. समुदाय-आधारित अन्याय – जनों का विकास समानान्तर रूप से नहीं हुआ है – असमान विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में कुछ जन बड़े थे, कुछ छोटे; कुछ के पास परिष्कृत औजार थे, कुछ के पास अनगढ़; जीवनयापन के लिहाज से कुछ जन अधिक संपन्न थे, कुछ विपन्न । उनके रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, मान्यताओं और रूढ़ियों में भी भिन्नताएं थीं । जीवनयापन के उनके साधन तथा स्रोत भी भिन्न-भिन्न थे और उनके बीच समय-समय पर अनेक सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते थे । मानवजाति के आरम्भ काल में शारीरिक बल/संख्या बल का निर्णायक स्थान था । जन का आत्म-प्रसार, जन की पहचान ही सर्वोपरि थी, अन्य जनों का अस्तित्व भी किसी एक जन के लिए वैसा था जैसे अन्य प्राणी-समूहों का अस्तित्व । इसी विकास-क्रम में जनों के बीच एक-दूसरे के प्रति अनेक रूढ़ छवियों का भी निर्माण हुआ । एक जाति के रूप में मनुष्य की पहचान पर जन के रूप में अपने-अपने जनों की पहचान हावी थी

इसी प्रक्रिया में निरपेक्ष रूप से ‘श्रेष्ठ’ और ‘निम्न’ जनों की श्रेणियों ने मूर्त रूप ग्रहण किया । जनों के बीच अपने विस्तार-क्रम में होनेवाले युद्धों में ‘श्रेष्ठ’ जनों द्वारा ‘निम्न’ जनों का संहार, पराजित जनों का दासों में रूपान्तरण, जनों के बारे में रूढ़ छवियों का निर्माण, वर्चस्वशाली जनों द्वारा अपनी मान्यताओं, रीति-रिवाजों, प्रतीकों, नायकों, कर्मकाण्डों का शेष निम्न जनों पर आरोपन, आदि की परिघटनाएं भी सामने आईं । बहरहाल, (कुछेक अपवादों को छोड़कर) हजारों वर्षों में फैले इतिहास में जनों की स्थितियों में भी बदलाव आया, कोई भी जन हमेशा शिखर पर विराजमान नहीं रहा । फलतः जनों के बीच अनेक रूपों में होनेवाले आदान-प्रदान, सहयोग तथा युद्धों और वर्चस्व की कोशिशों के दौरान उनके बीच मान्यताओं, विचारों, उपकरणों, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, प्रतीकों, नायकों, आदि का भी पर्याप्त आदान-प्रदान तथा घालमेल घटित हुआ – इतना कि आज (अगर अपवादों को छोड़ दें तो) कोई भी समुदाय अपनी भौतिक-सांस्कृतिक विरासत में ठीक-ठीक यह दावा नहीं कर सकता कि उसमें उसका अपना अंशदान कितना है और कितना अन्यान्य समुदायों/स्रोतों से ग्रहण किया हुआ । मानवजाति का इतिहास एकरेखीय बाइनरी इतिहास नहीं है

बहरहाल, हमारे इतिहास में दूसरे बड़े अन्याय का रूप एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के साथ भेदभाव, उत्पीड़न, और उसके ऊपर वर्चस्व के रूप में सामने आया । इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में हम एक अथवा कुछेक समुदायों द्वारा अन्य समुदायों के ऊपर वर्चस्व, उनके संहार, उनके साथ भेदभाव और उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का साक्षात् करते हैं । वर्चस्वशाली ‘श्रेष्ठ’ जनों, जातियों, पंथों-सम्प्रदायों, राष्ट्रों द्वारा ‘निम्न’/पराजित जनों-जातियों-पंथों-सम्प्रदायों-राष्ट्रों का संहार, उत्पीड़न और उनके साथ अनेक रूपों में भेदभावों का सिलसिला आजतक जारी है और एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का मुंह चिढ़ाता रहा है ।

समुदाय-आधारित अन्याय – भेदभाव, उत्पीड़न और संहार – निम्नलिखित रूपों में सामने आता है :

(क) ‘नस्ल’/जन-आधारित उत्पीड़न । इतिहास के विभिन्न काल-खण्डों में और लगभग सभी क्षेत्रों में किसी जन अथवा जनों के समूह द्वारा अपनी नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करते हुए अन्य जन अथवा जनों के समूह को रंगभेद समेत विभिन्न रूपों में भेदभाव, उत्पीड़न और संहार का शिकार बनाया जाता रहा है और यह सिलसिला आजतक जारी है ।

(ख) जाति-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । यह भारतीय समाज की खास विशेषता रही है जिसके अन्तर्गत जन्मना श्रेष्ठ-निम्न के सामाजिक सोपान पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में खासकर शूद्र तथा अन्त्यज जातियों को – जो व्यापक बहुसंख्यक आबादी का निर्माण करती हैं – सम्मान, समानता, सत्ता, शिक्षा और सम्पत्ति से वंचित कर दिया गया तथा उन्हें दैनन्दिन जीवन में अनेक किस्म के भेदभावों, प्रताड़नाओं और अपमान का शिकार बनाया जाता रहा है ।

(ग) पंथ-सम्प्रदाय-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । खुद को ‘श्रेष्ठ’ पंथ-सम्प्रदाय माननेवालों द्वारा ‘हीन’ अथवा ‘निम्न’ पंथों-सम्प्रदायों का दमन । वर्चस्वशाली पंथों-सम्प्रदायों द्वारा अन्य पंथों-सम्प्रदायों के अनुयायियों के साथ भेदभाव, उनका उत्पीड़न और  उनके संहार की घटनाओं से भी इतिहास के पृष्ठ भरे-पड़े हैं ।

(घ) राष्ट्र-राष्ट्रीयता-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न । वर्चस्वशाली औपनिवेशिक अथवा ‘विकसित’ राष्ट्रों द्वारा विजित अथवा कमजोर ‘पिछड़ी’ राष्ट्रीयताओं/उपनिवेशों, राष्ट्रों का दमन, उनकी लूट, उनके साथ विभिन्न रूपों में भेदभाव और उनका संहार ।

(ङ) घुमन्तू/खानाबदोश समुदायों (नट, रोमा, आदि) के साथ भेदभाव और उनका उत्पीड़न

(च) भिन्न यौन रुझान वाले समुदायों (लेस्बियन-गे-बाइसेक्सुअल-ट्रांससेक्सुअल-क्विअर, एलजीबीटीक्यू) के साथ भेदभाव और उनका उत्पीड़न

(छ) कुछ खास बीमारियों (कुष्ठ, चरक, एड्स, आदि) से ग्रस्त लोगों के साथ भेदभाव, उनका उत्पीड़न । ऐसी बीमारियों से ग्रस्त लोगों का कालक्रम में अपना एक समुदाय भी बन जाता है ।

(ज) युद्ध, औद्योगीकरण, प्राकृतिक आपदाओं के कारण पूरी दुनिया में बिखरे, यहां-वहां भटकते विभिन्न राष्ट्रीयताओं, जातियों, जनजातियों, पंथों-सम्प्रदायों, आदि के करोड़ों विस्थापित/शरणार्थी समूह । ये समूह भी हमारे समाज का आज स्थायी अंग बन चुके हैं और अत्यन्त कठिन स्थितियों में अपमान, जहालत और भुखमरी की जिन्दगी जी रहे हैं ।दर-दर भटकते ऐसे सैकड़ों लोगों को हर साल अपनी जान गंवानी पड़ रही है ।

इस पूरी प्रक्रिया में जनों/जातियों/पंथों/सम्प्रदायों/राष्ट्रीयताओं/राष्ट्रों के बीच एक दूसरे के प्रति अनेक पूर्वाग्रहों तथा रूढ़ छवियों का भी निर्माण हुआ और ये पूर्वाग्रह तथा रूढ़ियां आजतक मानव समाज में गहरे रूप से समायी हुई हैं ।

बहरहाल, इतिहास में जहां एक ओर समुदाय-आधारित भेदभाव तथा उत्पीड़न आजतक जारी है, वहीं यह भी सच है कि वर्चस्वशाली तथा वर्चस्व की शिकार शक्तियों की स्थितियों में समय-समय पर परिवर्तन भी होता रहता है – एक समय में हाशिये पर पड़े समुदाय दूसरे कालखण्ड में उदीयमान-विजयी शक्तियों के रूप में सामने आते हैं और उत्थान-पतन की इस प्रक्रिया में सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में काफी आदान-प्रदान भी घटित होता है ।

इस उत्थान-पतन के बावजूद, आज भी पूरी दुनिया में ऐसे अनेक जन/जाति/पंथ/सम्प्रदाय/राष्ट्रीयताएं और कुछ समुदाय हैं जो अपेक्षाकृत लम्बे काल से भेदभाव, उत्पीड़न तथा संहार का शिकार होते रहे हैं और कुछ तो लुप्त होने की कगार पर हैं ।

आज सवाल उपर्युक्त भेदभाव/उत्पीड़न के शिकार समुदायों को एकजुट करने तथा उनके सम्मान और समानता के अधिकार को प्रतिष्ठित करने, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और अधिकार-संपन्न करने की है ।

3. वर्ग-आधारित अन्याय – जीवनयापन के लिए उत्पादन की प्रक्रिया में जनों, समुदायों और व्यक्तियों के बीच आपस में सम्बन्ध भी बनता जाता है । असमान विकास के कारण उत्पादन के साधनों और सामाजिक उत्पादन पर स्वामित्व और उसमें भागीदारी भी असमान रही है । अब तक के इतिहास के बड़े कालखण्ड में सामाजिक सम्पत्ति के उत्पादन में सबसे अधिक योगदान देनेवाले – दास, भूदास, श्रमिक तथा अन्य पेशेवर तबके – उस सम्पत्ति में अपनी न्यायोचित हिस्सेदारी से वंचित किये जाते रहे हैं । दरअसल, इन उत्पादक वर्गों का बेमोल श्रम ही सामाजिक अतिरिक्त सम्पत्ति का स्रोत रहा है ।

अलग-अलग उत्पादन-प्रणालियों में इस वितरणमूलक अन्याय का स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा है । पूंजी के युग में इस वितरणमूलक अन्याय ने वैश्विक पैमाने पर एक अत्यन्त भयावह रूप धारण कर लिया है जहां मुट्ठी भर लोगों की सम्पत्ति अनेक देशों और अरबों लोगों की सम्पत्ति के बराबर है ।

वितरणमूलक अन्याय के विस्तार में जाने के बजाय इतना बताना ही पर्याप्त होगा कि आज, इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में, सम्पत्ति और पूंजी अपने सर्वाधिक सामाजिक स्वरूप में उपस्थित हुई है । अरबों लोगों की बैंको तथा विभिन्न वित्तीय उत्पादों में जमा बचत राशि, पेन्शन फण्ड, सार्वजनिक उद्यमों तथा वित्तीय उपक्रमों में लगी पूंजी, शेयर समेत अन्य वित्तीय उत्पादों में निवेशित अरबों लोगों की पूंजी, आदि, आदि – पूंजी के इस सामाजिक स्वरूप के बावजूद, इस पूंजी का नियंत्रण और स्वामित्व कुछ मुट्ठी भर कॉरपोरेट घरानों के हाथों में केन्द्रित है जिससे वे अकूत मुनाफा बटोरते हैं । सार्वजनिक धन की लूट, गबन, फर्जीवाड़ा, टैक्स-चोरी जैसे जघन्य अपराधों की तो बात ही अलग है ।

पूंजीवाद वस्तु-पूजा से पूंजी-पूजा के जिस दौर में आ पहुंचा है, उसने विश्वव्यापी पैमाने पर अभूतपूर्व आर्थिक विषमता को जन्म दिया है । इस पूंजी ने वैश्विक संस्थाओँ तथा राष्ट्र-राज्यों की सम्प्रभुता का भी क्षरण किया है और जनतांत्रिक राष्ट्र-राज्यों के नीति-निर्माण को नियंत्रित करने तथा जनतांत्रिक आकांक्षाओं को धता बताने की अपनी ताकत का धृष्टतापूर्ण प्रदर्शन किया है (ताजा उदाहरण यूनान का है) । भारत में भी इसके क्रियाकलाप इधर काफी आक्रामक रूप में सामने आये हैं ।

चूंकि यह वित्तीय पूंजी – पूंजी का कारोबार करनेवाली पूंजी – समस्त समाज के बचत और धन का नियंत्रण करती है और इस नियंत्रण के जरिये अकूत मुनाफा कमाती है, चूंकि इसका कार्यक्षेत्र समूचा विश्व है, और डिजिटल उपकरणों और सेवाओं के विस्तार ने इस पूंजी के क्रियाकलापों को अभूतपूर्व वैश्विक पहुंच तथा गतिशीलता प्रदान की है, फलतः इस पूंजी-पूजा के जाल में फंसा पूरा समाज मुक्ति के लिए छटपटा रहा है – मजदूर, किसान, विभिन्न पेशेवर समुदाय, आदिवासी, अन्य वंचित समुदाय, राष्ट्रीयताएं, आदि । इस बेलगाम पूंजी पर सामाजिक नियंत्रण और स्वामित्व की मांग आर्थिक, वितरणमूलक न्याय के केन्द्र में रही है, हालांकि अलग-अलग समाजों में, सम्बन्धित समाजों की ठोस स्थितियों के अनुरूप, इस नियंत्रण और स्वामित्व की प्रणाली भी भिन्न-भिन्न होगी ।

अन्य अन्यायों की तरह ही, यह वितरणमूलक अन्याय भी समाज में अनेक पतनशील मूल्यों, रूढ़ियों को जन्म देता है । निर्धन, उत्पीड़ित समुदायों (मेहनतकश समुदाय का बड़ा हिस्सा दलित-आदिवासी-अन्य पिछड़ा वर्ग से ही आता है) की कामचोर, निठल्ले, गंदे समुदाय के रूप में रूढ़ छवि बनाने की कोशिश की जाती है, उन्हें प्रायः अनेक प्रताड़नाओं और अपमान का सामना करना पड़ता है, सौन्दर्यीकरण के नाम पर उन्हें ही उजाड़ा जाता है, अपराध हो या महामारी, पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारी सबसे पहले उन्हें इसके लिए जिम्मेवार ठहराते हैं और उनका शिकार करते हैं । बिना किसी अपराध के, न्याय के अभाव में, ऐसे हजारो लोग वर्षों जेल में अपना बहुमूल्य जीवन गुजार देते हैं । वहीं, पूंजी के मुनाफाखोर कारोबारियों का उद्यमिता के आदर्श उदाहरण के रूप में गौरवगान किया जाता है, वे दिन-रात कानून और प्रशासन को ठेंगा दिखाते रहते हैं, सत्ता उनके सामने नतमस्तक रहती है ।

4. प्रकृति और मानवजाति का अन्तर्सम्बन्ध तथा अन्याय – मानवजाति के आगमन के साथ ही ‘प्रकृति’ का भी आगमन हुआ । प्रकृति मनुष्य की रचना है – मानवेतर प्राणियों के लिए प्रकृति कुछ भी नहीं । मानवजाति के आगमन के साथ मनुष्य और प्रकृति का जो द्वैत सामने आया, वह मनुष्य से इतर, मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र, बाह्य जगत के साथ मनुष्य के सम्बन्धों में भी द्वैत रूप में सामने आया । एक ओर वह इस प्रकृति के साथ आवयविक रूप से जुड़ा था, दूसरी ओर अपने जीवनयापन के लिए, अपनी उत्पादक कार्य-सक्रियता के जरिये उसे इसी प्रकृति का ‘विनाश’ भी करना था । मनुष्य और प्रकृति के बीच एक कार्यशील संतुलन का प्रश्न आदिकाल से ही मानव-मन को मथता रहा है । चूंकि प्रकृति मनुष्य की ही रचना है, इसलिए मनुष्य की जीवनयापन की स्थितियों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप ‘प्रकृति’ और ‘प्राकृतिक जीवन’ की अवधारणाएं और परिभाषाएं भी बदलती रही हैं ।

प्रकृति से आवयविक रूप से जुड़े होने और प्राकृतिक शक्तियों पर निर्भरता जहां एक ओर प्रकृति-पूजा तथा देवों-देवियों के रूप में प्राकृतिक शक्तियों की उपासना तथा अनेक कर्मकाण्डों के रूप में सामने आई, वहीं प्रकृति को बदलने और प्रकृति से सापेक्ष स्वतंत्रता हासिल करने के प्रयासों ने मानवीय उद्यम और शक्ति के महिमामण्डन की भी नींव रखी । प्रकृति और मनुष्य का, प्राकृतिक शक्ति और मानवीय शक्ति का, प्रकृति और संस्कृति का, नियति और स्वतंत्र इच्छा शक्ति का, प्रकृति पर निर्भरता और मानवीय उद्यम का द्वैत मानव-इतिहास का अभिन्न अंग रहा है ।

औद्योगिक युग में ‘प्रकृति का स्वामी’ बनने के क्रम में मनुष्य-प्रकृति सम्बन्धों में आई विकृतियों ने भयावह रूप ले लिया है । यह सही है कि शिकारी-फलसंग्राहक दौर में शिकारी मानव-जनों के हाथों कुछेक प्राणियों (जैसे मैमथ, आदि) का विनाश घटित हुआ । बड़े पैमाने पर वनों के विनाश की नींव भी कृषि युग में ही रखी गई । वनों के विनाश से मानवेतर प्राणियों की कुछ प्रजातियों तथा सूक्ष्म जीवों का विलोप हुआ अथवा वे विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची । बहरहाल, उस विनाश की तुलना औद्योगिक युग के महज दो सौ वर्षों में हुई विनाशलीला से नहीं की जा सकती ।

सवाल औद्योगिक युग की प्रचलित जीवन-दृष्टि का है जिससे औद्योगिक युग अपना औचित्य, अपनी श्रेष्ठता, प्रकृति का स्वामी बनने के अपने अभियान का तर्क ग्रहण करता है । यह जीवन-दृष्टि भी आज लोगों के मन-मस्तिष्क में गहरे रूप से व्याप्त हो चुकी है ।

इस जीवन-दृष्टि के अनुसार, प्रकृति अपने-आप में उपभोग्य नहीं है । सारी प्राकृतिक चीजें गंदी हैं, मनुष्य की जैविक जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अपर्याप्त हैं, बीमारियों का स्रोत हैं – प्रसंस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया से गुजर कर ही वह मनुष्य के उपभोग लायक बनती हैं । प्राकृतिक हवा मनुष्य को बीमार करनेवाले अनेक नुकसानदेह कणों तथा जीवाणुओं की वाहक है और सांस लेने लायक नहीं है । एअर-कंडीशनरों की ऑक्सीजेनेटेड स्वस्थ हवा (जो औद्योगीकरण के जरिये उत्पादित हवा है, और इस प्रकार प्राकृतिक हवा का ‘मानवीय हवा’ के रूप में रूपान्तरित एक माल है) गंदी प्राकृतिक हवा के विकल्प के रूप में बेची जाती है । इसी तरह प्राकृतिक जल की जगह जीवाणु-मुक्त तथा खनिजों की संतुलित मात्रा से युक्त बोतलबंद पानी (जो प्रंसस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया का उत्पाद है) ले लेती है । यही बात फलों, सब्जियों तथा तमाम प्राकृतिक उत्पादों पर लागू होती है । इसी प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति हम खुद प्राकृतिक मानव शरीर के संदर्भ में पाते हैं । मानव शरीर भी अपनी त्रुटिपूर्ण प्राकृतिक जेनेटिक संरचना के कारण अनेक बीमारियों और महामारियों का जनक है । अतः मानव शरीर को भी जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिये प्रसंस्कृत कर स्वस्थ मानव शरीर में रूपान्तरित करना है । आजकल फार्मास्युटिकल उद्योगों के शोध-अनुसंधानों तथा नयी-नयी दवाओं और चिकित्सीय उत्पादों के विनिर्माण के केन्द्र में यही जीवन-दृष्टि काम कर रही है । कुल मिलाकर, यह जीवन-दृष्टि ‘प्राकृतिक अस्तित्व’ से ‘मानवीय अस्तित्व’ की ओर महाप्रयाण को औचित्य प्रदान करनेवाली प्रेरक दृष्टि है । प्रकृति-पूजा को विस्थापित कर यह दृष्टि मानव-उद्यम-पूजा का रूप ले लेती है ।

बहरहाल, असल सवाल तो इस पूजा से, चाहे वह ‘प्रकृति’ की हो या ‘मानव-उद्यम’ की, छुटकारा पाने का, और प्राकृतिक प्रक्रियाओं तथा मानवीय उद्यमशीलता के बीच संतुलन कायम करने का है । संतुलन कायम करना मानव-जाति के पूरे इतिहास में एक निरन्तर क्रिया रही है और प्रत्येक युग में अत्यन्त विवादास्पद और प्रतिस्पर्धात्मक भी । फिलहाल हम औद्योगिक युग में इस समस्या से जूझ रहे हैं । प्राकृतिक चीजों के बारे में कही गई बातें पूरी तरह गलत नहीं हैं । प्राकृतिक हवा में नुकसानदेह कण और जीवाणु होते हैं, हवा (अनेक जगहों तथा अवस्थाओं में) जहरीली भी होती है । प्राकृतिक जल के साथ भी यही बात है । मानव शरीर की जेनेटिक संरचना त्रुटिहीन नहीं है । ये सच्चाइयां ही इस जीवन-दृष्टि के प्रचलित होने का एक प्रमुख कारण है । इस सिलसिले में निम्नलिखित बातों पर गौर करना जरूरी है :

(क) सतत् विकासमान प्रकृति और समाज अपने स्वभाव से ही अनेक संभावनाओं से भरपूर अपूर्ण श्रेणियां हैं । इसलिए ‘शुद्ध’, ‘आदर्श’ जैसी अवधारणाएं भ्रामक हैं – चीजों या अपने कार्यों को निरन्तर बेहतर करते जाने के लिहाज से इन अवधारणाओं की सीमित, सापेक्ष उपयोगिता तो है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उनकी प्राप्ति संभव नहीं है । अलग-अगल युग में, जीवनयापन की प्रचलित स्थितियों के अनुरूप गढ़ी गईं ऐसी अवधारणाएं अपने-अपने युग की मनोगत परिकल्पनाएं हैं, छवियां हैं, जो सम्बन्धित समाजों को औचित्य प्रदान करती हैं, लेकिन वस्तुगत रूप से जिनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता । एक खास समाज में प्रचलित ‘शुद्ध’ और ‘आदर्श’ की अवधारणा बदली हुई स्थितियों में जीवनयापन कर रहे समाजों के लिए अपर्याप्त, अवरोधक तथा तिरस्कार-योग्य साबित होती है । ‘शुद्ध’ और ‘आदर्श’ की यह तलाश मानवजाति को अपने ही व्यक्तियों, समुदायों को समानता और पारस्परिक सम्मान के आधार पर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से अधिकार-संपन्न करने की जगह उसे हमेशा ‘आदर्श’ की प्रतीक्षा में, परिकल्पित ‘आदर्श दुनिया’ के बियाबान में, ‘शुद्धता’ के सम्मोहन में, उन्मादपूर्ण रक्तरंजित अभियानों में भटकाती रहती है । ‘आदर्श समाज नहीं, न्यायपूर्ण समाज – ‘आदर्श’ समाज की उपलब्धि संभव नहीं, जबकि न्यायपूर्ण समाज हासिल किया जा सकता है ।

(ख) प्रकृति का विनाश पिछले समाजों में भी हुआ, लेकिन उसकी गति काफी धीमी थी । फलतः उस विनाश की थोड़ी-बहुत भरपाई प्रकृति कर लिया करती थी । लेकिन औद्योगिक युग में प्रकृति के दोहन और उसके विनाश की गति इतनी तेज है कि प्रकृति के लिए भी सांस लेना दूभर हो गया है । औद्योगिक प्रदूषण, पर्यावरण-विनाश, जलवायु-परिवर्तन वैश्विक आपदा का रूप ले चुका है । आज हम जो जहरीली हवा सांस लेते हैं, वह प्राकृतिक हवा नहीं, औद्योगिक युग की प्रदूषित हवा है । नदियों, जलाशयों का जल अब प्राकृतिक जल नहीं, औद्योगिक युग के कचरों, रसायनों, आदि से युक्त विषाक्त जल है । औद्योगिक युग ने पहले प्राकृतिक हवा, जल, आदि को दूषित किया और फिर वह प्रसंस्करण की औद्योगिक प्रक्रिया के जरिये ‘शुद्ध’ हवा और जल के विनिमेय माल के साथ हाजिर है ।

हर देश और हर शहर में हम आज इस विरोधी स्थिति का नजारा देख सकते हैं । एक ओर औद्योगिक प्रसंस्करण की प्रक्रिया से उत्पादित ‘शुद्ध, स्वस्थ हवा, जल’, आदि का उपभोग करनेवाला अल्पसंख्यक समुदाय और दूसरी ओर उसी औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण प्रदूषण, पर्यावरण-क्षरण के बीच मलिन बस्तियों में कचरों, जहरीली हवा, विषाक्त जल, अम्ल-वर्षा के बीच रहनेवाला बहुसंख्यक समुदाय । प्राकृतिक स्रोतों – वनों, नदियों-झीलों पर निर्भर रहनेवाले आदिवासी समुदायों के लिए जीना दूभर हो गया है । पर्यावरण-क्षरण के कारण विस्थापित, यहां-वहां भटकती आबादी दुनिया भर में लगातार बढ़ती जा रही है । एक ओर सर्वाधिक कार्बन फुटप्रिण्ट वाली, लेकिन सबसे स्वस्थ, शुद्ध हवा और जल का उपभोग करनेवाली अत्यन्त क्षुद्र धनी लोगों की दुनिया है, दूसरी और लगभग नगण्य कार्बन फुटप्रिण्ट वाला विशाल बहुसंख्यक निर्धन, उपेक्षित, वंचित समुदाय है जो कचरों, जहरीली हवा, विषाक्त जल, कीटनाशकों तथा अन्य रसायनों से युक्त खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों, आदि के साथ गुजारा करने को मजबूर है ।

प्राकृतिक प्रक्रियाओं और मानवीय उद्यमशीलता के बीच संतुलन कायम करने का प्रश्न आज औद्योगिक प्रदूषण, पर्यावरण-विनाश, जलवायु-परिवर्तन के शिकार बहुसंख्यक निर्धन, आदिवासी और वंचित समुदायों के सम्मानजनक जीवन जीने के न्यायपूर्ण अधिकार का प्रश्न बन चुका है ।

न्याय का संघर्ष

इतिहास में इन सभी अन्यायों के खिलाफ संघर्ष की एक लम्बी परम्परा रही है । इन संघर्षों की अपनी-अपनी वैचारिकी, अपना-अपना जीवन-मूल्य, साहित्य और अपने-अपने नायक रहे हैं । उनकी अपनी-अपनी युग-सापेक्ष उपलब्धियां भी रही हैं । प्रचलित इतिहास में इन संघर्षों को, उनकी वैचारिकी, उनके साहित्य, उनके नायकों और उनकी उपलब्धियों को समुचित सम्मानजनक स्थान दिलाने की जद्दोजहद आज भी जारी है ।

इन सभी अन्यायों के खिलाफ संघर्ष समाज में समानान्तर रूप से हर समय चलता रहता है । आज अपने देश और दुनिया में समानान्तर रूप से चल रहे इन तमाम संघर्षों का हम सहज ही साक्षात् कर सकते हैं – सवाल यह नहीं है कि पहले यह संघर्ष हो फिर वह । विभिन्न क्षेत्रों में, अपने-अपने विशिष्ट मुद्दों पर एक ही साथ और एक ही समय में महिलाओं के, आदिवासियों के, दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के, मजदूर-किसान वर्गों के, भिन्न यौन रुझानवाले समूहों के, राष्ट्रीयताओं के और पर्यावरण-क्षरण तथा प्रदूषण से प्रभावित समुदायों के आन्दोलन चलते देखे जा सकते हैं । अनेक अवसरों पर इनमें से कुछेक आन्दोलनों को एक मंच साझा करते हुए भी देखा जा सकता है और कभी-कभी एक-दूसरे से उलझते हुए भी ।

कहने की जरूरत नहीं कि अन्याय के इन अलग-अलग आयामों के खिलाफ संघर्षरत शक्तियों की वैचारिकी, प्रचार-सामग्री, कार्यनीति, उनके संगठन के स्वरूप और उनके आन्दोलन के तरीकों, उनके नायक और उनकी विरासत, आदि में भिन्नता होगी । इन शक्तियों की किसी भी संभावित एकता के लिए इस भिन्नता की स्वीकृति तथा उसके प्रति सम्मान एक जरूरी शर्त होगी ।

न्याय के लिए संघर्षरत इन तमाम समूहों की एकजुटता में ही (खंडित समूहों की जगह) एक जाति-मूल के रूप में हम मानवजाति की वास्तविक दावेदारी का भ्रूण रूप देख सकते हैं । लेकिन क्या यह एकजुटता व्यावहारिक तौर पर मूर्त रूप ग्रहण कर पाएगी ?

इस एकजुटता के व्यावहारिक तौर पर मूर्त रूप ग्रहण करने की राह में जो रुकावटें हैं, उन पर थोड़ी चर्चा यहां बेमानी नहीं होगी ।

(क) अव्वल तो प्रत्येक आन्दोलन में अपने सम्बन्धित आयाम से जुड़ी संकीर्णता का पहलू कुछ हद तक अन्तर्निहित होता है । यह संकीर्णता अपने आन्दोलन को अन्य आन्दोलनों की तुलना में अधिक वरीयता देती है । वरीयता अथवा महत्ता की यह होड़ आन्दोलनकारी संगठनों के बीच समानता और परस्पर सम्मान पर आधारित सम्बन्धों के विकास में बाधा उपस्थित करती है । प्रत्येक आन्दोलन का प्रायः यह दावा होता है कि एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में उसके आन्दोलन की निर्णायक भूमिका है और उसकी सफलता न्याय के लिए चलनेवाले अन्य आन्दोलनों की विजय की पूर्वशर्त है ।

(ख) चूंकि ये सारे आन्दोलन अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ समाज में एक साथ चलते आ रहे हैं, इसलिए इन सारे आन्दोलनों के पास अपना इतिहास, अपनी विरासत, अपने नायक-खलनायक होते हैं, उनके संघर्ष का रूप अलग-अलग होता है, उनके हिस्से सफलताओं और असफलताओं का अलग-अलग खाता होता है । इतिहास में इन आन्दोलनों के आपस में टकराव के क्षण भी होते हैं; एक के नायक दूसरे के लिए महत्वहीन, या, यहां तक कि, खलनायक भी हो सकते हैं; और उनके अपने-अपने अनेक पूर्वाग्रह भी होते हैं ।

यहां कुछ प्रचलित उदाहरणों का जिक्र किया जा सकता है । अभिव्यक्ति की आजादी के लिए होनेवाले संघर्षों में ऐसे लोग और समूह भी शामिल हो सकते हैं (अथवा होते हैं) जो न्याय के लिए होनेवाले अन्य आन्दोलनों तथा उनका मांगों के विरोधी हों (जैसे आरक्षण की मांग, या फिर मजदूर-किसानों की वर्गीय मांग, आदि) । अब अभिव्यक्ति का जनवादी अधिकार व्यक्तियों तथा सभी समुदायों के लिए जरूरी है, और इसे हासिल करने के लिए देश-दुनिया में अनेक जनसंघर्ष हुए हैं और आज भी जब-जब उस पर खतरा उपस्थित होता है, तब-तब होता रहता है । लेकिन उसमें विभिन्न विचारों तथा प्रतिबद्धताओं वाले लोग शामिल होते हैं ।

उपनिवेशों में राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग एक जनवादी मांग है, लेकिन इस स्वतंत्रता के संघर्ष में ऐसे लोग भी शामिल होते हैं जो इन देशों में पहले से चली आ रही अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के हिमायती होते हैं । अपने देश में ही स्वतंत्रता आन्दोलन के आरम्भ से ही स्वतंत्रता आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन, दलित-आदिवासी समुदायों के आन्दोलन, अल्पसंख्यक समुदायों के आन्दोलन, मजदूर-किसानों के आन्दोलन के बीच टकराव होते रहे । स्वतंत्रता आन्दोलन के अनेक नायक इन आन्दोलनों की नजर में खलनायक की भूमिका में खड़े दिखाई देते हैं । इन आन्दोलनों को साझा मंच प्रदान करने की कोशिशें भी होतीं, साथ ही उनके बीच समय-समय पर तीखे संघर्ष भी होते रहते । स्वतंत्रता के बाद ये संघर्ष और खुलकर सामने आये, क्योंकि तब सामाजिक पुनर्रचना का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न बन गया ।

स्वतंत्रता, समानता और पारस्परिक सम्मान एक संक्रमणशील विचार है – जब राष्ट्रों के बीच स्वतंत्रता, समानता और पारस्परिक सम्मान की बात उठती है तो, जाहिर है, इस स्वतंत्रता, समानता और सम्मान से वंचित समुदाय भी अपने-अपने समुदायों के लिए यही दावा पेश करेंगे । इस प्रकार, एक राष्ट्रीय आन्दोलन अन्य अनेक आन्दोलनों की जमीन तैयार करता है । स्वतंत्रता आन्दोलन एक दुहरी प्रक्रिया को जन्म देता है – एक ओर विदेशी शासन से मुक्ति की प्रक्रिया और दूसरी ओर खुद देश के अन्दर सामाजिक पुनर्रचना की प्रक्रिया । दोनों प्रक्रियाएं एक दूसरे के साथ अन्तःक्रिया के जरिये एक दूसरे को बल प्रदान करती हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समाज वही नहीं रहता जो उपनिवेश बनने के पहले था ।

इसी तरह सामाजिक आन्दोलनों और वर्गीय आन्दोलनों के बीच टकराव की स्थिति पैदा होती रहती है । सामाजिक आन्दोलनों के संचालकों को लगता है कि वर्ग-आधारित आन्दोलन के संचालक सामाजिक भेदभाव तथा उत्पीड़न को उचित महत्व नहीं देते, और उनके आन्दोलनों में फूट डालने और उसे कमजोर करने का प्रयास करते हैं, तो वर्ग आन्दोलनों के संचालकों को लगता है कि विभिन्न समुदायों के वर्चस्वशाली तबके समुदायगत एकता के नाम पर दरअसल अपने-अपने समुदायों के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों के न्यायपूर्ण अधिकारों का हनन करते हैं, और जाति के आधार पर मजदूर-किसानों की वर्गीय एकता में बाधा डालते हैं । अपने देश में स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों से ही सामाजिक आन्दोलन और वर्ग आन्दोलन के बीच एक टिकाऊ आवयविक सम्बन्ध विकसित करने की समस्या बनी रही है ।

इसी तरह अन्य आन्दोलनों के बारे में भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । बहरहाल, मूल बात है यथार्थ जीवन के इन सारे सत्यों को साझा मंच पर लाने की कोशिश करना – एक ऐसे साझा कार्यक्रम को आधार बनाना जिसमें सभी पक्षों की न्यायपूर्ण मांगों के समुचित स्थान प्राप्त हो । जाहिर है, यह कोशिश समुदायों, वर्गों के बीच आन्तरिक संघर्ष को भी जन्म देगी । यह समाज के जनवादीकरण के विस्तार और उसे गहराई में ले जाने की जरूरी सचेत प्रक्रिया है । यह न्याय के लिए संघर्षरत सभी पक्षों के बीच पारस्परिक संवाद और सहमति विकसित करने की भी प्रक्रिया है ।

(ग) न्याय की इन विभिन्न धाराओं में कोई एक धारा न्याय का एकमात्र सच्चा प्रतिनिधि होने, न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की कुंजी होने का दावा नहीं कर सकती । कोई एक धारा अन्य सभी धाराओं का नेतृत्व करने की आत्म-मुग्ध प्रवंचना में दरअसल इन सभी धाराओं के बीच संवाद कायम करने और उनका साझा मंच बनाने की कोशिश में रुकावट ही डालेगी । इस तरह का कोई मंच पारस्परिक सम्मान, समानता और संवाद के जरिये ही साकार हो सकता है – श्रेष्ठ-निम्न का सोपानमूलक नेतृत्वकारी ढांचा इस दिशा में बाधक ही होगा । अपनी वैचारिकी, अपनी विरासत, अपने प्रतीकों और अपनी सांगठनिक विशिष्टताओं के साथ इन सभी धाराओं की स्वायत्तता के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता ऐसी किसी भी वृहत्तर एकता की शर्त है और इस एकता का आधार सभी धाराओं की मूल मांगों को समाहित करनेवाला एक साझा कार्यक्रम ही हो सकता है ।

आधुनिक काल में कम्युनिस्ट धारा एक ऐसी धारा रही है जो अपने पास एकमात्र वैज्ञानिक रूप से निरूपित सत्य का, सामाजिक क्रान्ति के सबसे विकसित और कमोबेश परिपूर्ण सिद्धान्त होने का दावा करती रही है – यह दावा कि कम्युनिस्टों के नेतृत्व में होनेवाली क्रान्तियां और उनके नेतृत्व में स्थापित समाजवादी समाज अन्य सभी अन्यायों – वर्ग अन्याय के साथ-साथ लैंगिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, आदि अन्यायों का अन्त कर देगी । इसलिए प्राथमिक काम, उनकी नजर में, कम्युनिस्टों के नेतृत्व में समाजवादी समाज की स्थापना है । जब ऐसे दावे किये गये थे, तब लोगों ने काफी हद तक उन पर विश्वास भी जताया था । लेकिन बात आज सिर्फ इन दावों की नहीं है – बीसवीं सदी में अनेक बड़े और छोटे देश ऐसे समाजवादी प्रयोगों के गवाह बन चुके हैं, और ये प्रयोग इन दावों की पुष्टि नहीं करते हैं ।

सत्ता और नीति-निर्माण से जुड़ी विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व की मांग न्याय के लिए चलनेवाले आन्दोलनों की सबसे प्राथमिक मांग रही है । अब अन्य धाराओं की बात छोड़ भी दें और सिर्फ नारी तथा दलित आन्दोलन को ही लें, तो इन आन्दोलनों के प्रतिनिधि यह वाजिब सवाल तो कर ही सकते हैं कि सात-आठ-नौ दशकों के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टियों, (तथा जहां उनका शासन रहा, वहां) समाजवादी देशों तथा प्रादेशिक सरकारों में इस प्रतिनिधित्व की क्या स्थिति रही ? पार्टी और सरकार की संस्थाओं में महिलाओं, दलित-आदिवासी, और अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व इतने लम्बे काल के बाद भी नगण्य क्यों रहा ? जाहिर है, यह कोई छोटी-मोटी भूल नहीं, बल्कि गहरी सामाजिक समस्या की ओर इशारा करती है, और न्याय की विभिन्न धाराओं की स्वायत्तता की जरूरत को बल प्रदान करती है । इन देशों में न्याय की विभिन्न धाराओं के काम-काज की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी गई – सब कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के हवाले कर दिया गया और पार्टी का विरोध समाजवाद के विरोध और प्रतिक्रियावादी ताकतों के षडयंत्र के बराबर करार दिया गया ।  

इसी तरह का प्रश्न नारी, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधि पिछड़े वर्गों के सामाजिक न्याय के प्रतिनिधि दलों तथा नेतृत्व से भी कर सकते हैं । सामाजिक न्याय की धारा भी इन समुदायों की प्रतिनिधित्व की प्राथमिक मांग तक पूरा करने में न सिर्फ विफल रही है, बल्कि प्रायः इन समुदायों के प्रति अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता तथा व्यवहार का परिचय देती रही है । आजादी के बाद पिछड़े वर्गों से उभरे दबंग तबके दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर, और अनेक अवसरों पर अल्पसंख्यक समुदायों पर जुल्म ढाते रहे हैं, हत्याएं और जनसंहार तक करते रहे हैं, तथापि इन वर्गों से सामाजिक न्याय के आन्दोलन के जरिये सामने आये राजनीतिक दल और नेता ऐसी घटनाओं की न सिर्फ अनदेखी करते हैं, बल्कि ऐसी वारदातों को अंजाम देनेवालों का बचाव करते और उनके साथ संश्रय करते देखे जा सकते हैं ।

(घ) न्याय की इन विभिन्न धाराओं के संघर्ष का स्तर भिन्न-भिन्न होता है । कहीं किसी प्रश्न पर संघर्ष काफी जुझारू स्तर पर हो सकता है, तो किसी दूसरे प्रश्न पर काफी प्राथमिक स्तर पर (बुनियादी स्तर की सामान्य गोलबंदी, मांगपत्र तैयार करने तथा सत्ता के समक्ष प्रतिनिधिमंडल भेजने के स्तर पर) । अपनी मांगों को संवैधानिक-कानूनी स्वरूप प्रदान करने के लिए न्याय की कोई धारा व्यापक आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में आंचलिक, प्रादेशिक अथवा केन्द्रीय सत्ता में भागीदार भी हो सकती है, तो कोई दूसरी धारा अपने संघर्ष के क्रम में सत्ता के व्यापक दमन का शिकार भी । अपने देश में दलितों, पिछड़े वर्गों, आदि के आरक्षण का आन्दोलन हो, या फिर अलग प्रान्त के लिए आन्दोलन, भूमि सुधार के लिए किसानों के जुझारू आन्दोलन हों, या फिर श्रम अधिकारों के लिए मजदूरों के आन्दोलन – न्याय के लिए होनेवाले विभिन्न संघर्षों की अवस्था में भिन्नता, उतार-चढ़ाव तथा सत्ता में प्रतिनिधित्व के मामले में अन्तर हम प्रायः देखते रहे हैं । यह स्थिति भी न्याय की सभी धाराओं की एकजुटता में बाधा खड़ी करती है ।

कुल मिलाकर, न्याय की विभिन्न धाराओं का सम्मिलित राजनीतिक मंच अथवा दल आंचलिक से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कभी सत्तासीन नहीं हुआ है – हालांकि अलग-अलग धाराएं विभिन्न स्तरों पर सत्तासीन हुई हैं और अपनी कुछ बुनियादी और तात्कालिक मांगों को कानूनी और संवैधानिक स्वरूप प्रदान करने में सक्षम भी हुई हैं । जनतंत्र में प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच सत्ता के लिए होनेवाली तीखी प्रतिद्वन्द्विता की स्थिति में, छोटे दलों का महत्व भी बढ़ जाता है और ऐसे दल भी प्रायः अपनी कुछ मांगे मनवाने में सफल हो जाते हैं । अस्थिर, संविद सरकारों के दौर में कई महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम उठाए गए और विधेयक पारित हुए ।

बहरहाल, न्याय की विभिन्न धाराओं की तुलनात्मक स्थिति में यह भिन्नता शासक वर्गों को भी उनमें फूट डालने और उन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का अवसर प्रदान करती है ।

(ङ) अन्त में, हर धारा में, हर आन्दोलन में ऐसे अवसरवादी तत्व भी होते हैं जो अपने निजी, संकीर्ण स्वार्थ में हर तरह के गैर-उसूली समझौतों के लिए तत्पर रहते हैं ।

उपर्युक्त स्थितियों को देखते हुए, न्याय की विभिन्न धाराओं की एकजुटता लगभग असंभव कार्य लग सकती है, फिर भी न्याय के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तियों तथा समूहों के लिए इस एकजुटता के लिए प्रयत्नशील होना, तमाम अवरोधों तथा असफलताओं के बावजूद, एक निरन्तर क्रिया है । यह दूरदृष्टि संपन्न अत्यन्त कुशल नेतृत्व की मांग करता है । इसकी वैचारिक-सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के निर्माण में तथा इस एकजुटता के लिए दबाव बनाने में बौद्धिक समुदाय की एक बड़ी भूमिका है । इस एकजुटता के बिना न्याय की शक्तियों का राजनीतिक सशक्तीकरण अधूरा, इकहरा रहेगा और अन्याय की ताकतों के लिए समाज का खतरनाक विभाजन करना अपेक्षाकृत आसान होगा ।

डिजिटल युग

इन सारे परिवर्तनों के बीच दुनिया सूचना-संचार क्रान्ति के एक नये युग में प्रवेश कर गई है और यह डिजिटल युग हमारी दिनचर्या से लेकर उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, मनोरंजन, मीडिया, आदि सभी क्षेत्रों में तेजी से दाखिल होता जा रहा है । इस क्रान्ति से सभी वर्ग और तबके अपने-अपने ढंग से प्रभावित हो रहे हैं, जनतांत्रिक राजनीतिक ढांचा भी इस परिवर्तन से गहरे रूप में आक्रांत है, जन आन्दोलनों के संचालन और उनके तौर-तरीकों में आनेवाला बदलाव तो हाल के वर्षों में देश और दुनिया में हुए बड़े-बड़े जन-उभारों पर नजर डालने से ही साफ हो जाएगा ।

इतिहास में वैज्ञानिक-तकनीकी क्रान्तियों ने सामाजिक परिवर्तन को कितना प्रभावित किया है, इसका ब्यौरा देना यहां जरूरी नहीं । सिर्फ गुटेनबर्ग और उनके छापाखाने, तथा यूरोप के आधुनिक इतिहास में उसकी भूमिका को याद किया जा सकता है । बहरहाल, आज की तकनीकी क्रान्ति की अतुलनीय रफ्तार और उसके सामाजिक प्रभाव की बात ही कुछ और है ।

भारत में इंटरनेट पर उपस्थिति आबादी के लिहाज से अभी बहुत ज्यादा नहीं है, फिर भी संख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण अवश्य है । स्मार्टफोन के तेजी से बढ़ते बाजार के साथ और सूचना, व्यवसाय, शिक्षा, शासन, मनोरंजन, आदि के लिए विभिन्न एप्लिकेशनों के ऊपर बढ़ती निर्भरता के कारण उनकी संख्या में तेजी से विस्तार हो रहा है । जन-आन्दोलनों के संगठन-संचालन, प्रचार-प्रसार में सोशल मीडिया बड़ी भूमिका अदा कर रहा है । बहरहाल, हर तकनीक की तरह इस तकनीकी क्रान्ति की भी दुहरी भूमिका है । यह जहां न्याय की शक्तियों के लिए उपयोगी है, तो वहीं अन्याय की शक्तियां भी इसका अपने हित में तरह-तरह से उपयोग कर रही हैं । सम्पत्ति के अप्रत्याशित संकेन्द्रण, प्रतिगामी विचारों के प्रचार-प्रसार, घृणा के प्रचार, निजता के अधिकारों के हनन, जालसाजी, दमनात्मक कार्रवाइयों, हर समस्या के सतहीकरण/सरलीकरण, चेतना को चंचल क्षणों में भटकाने, आत्म-मुग्धता/आत्म-भ्रम की वायवीय दुनिया रचने, आदि में भी इसका धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है । कुल मिलाकर, वर्चुअल दुनिया खुद अन्याय और न्याय की ताकतों के बीच तीखे संघर्षों की दुनिया बन गई है और यह संघर्ष वास्तविक दुनिया में चलनेवाले संघर्षों का न सिर्फ प्रतिबिम्ब है, बल्कि उसे बड़े रूप में प्रभावित भी कर रहा है ।

इस तकनीकी क्रान्ति के फलस्वरूप सॉफ्टवेयर क्षेत्र में काम करनेवालों की भारी तादाद सामने आई है । निजी क्षेत्र के सिर्फ बीपीओ/केपीओ सेक्टर में कर्मचारियों की संख्या करीब बारह लाख है जिसमें अच्छी-खासी संख्या महिला कर्मचारियों की है (टीसीएस में महिला कर्मचारियों की संख्या करीब चालीस फीसदी है) । इन कर्मचारियों की कार्यस्थितियां काफी दयनीय हैं, काम के घण्टे काफी ज्यादा हैं (यहां तक कि खाली समय का एक हिस्सा भी उनके काम के घण्टे में बेमोल शामिल कर लिया जाता है) । ये कार्यस्थितियां (लम्बे समय तक रात के समय कम्प्यूटरों पर काम करना, आदि) अनेक नई पेशागत मानसिक तथा शारीरिक बीमारियों का कारण बन रही हैं । इन कर्मचारियों का कोई संगठन भी नहीं है और उन्हें अपने मालिकों की मनमानियों का प्रायः शिकार होना पड़ता है । नये डिजिटल युग के इन नये कर्मचारियों का – जिनकी भारी तादाद नवजवान है – संगठन और उनके बुनियादी अधिकारों का संरक्षण आज एक आवश्यक कार्यभार बन गया है । इसके साथ, सरकारी क्षेत्र में तथा संचार-सेवाओं के क्षेत्र में ऐसे कर्मचारियों (प्रोग्रेमरों, सिस्टम एनेलिस्टों, डेटा साइंटिस्टों, आदि) की संख्या जोड़ दें तो यह तादाद और बड़ी हो जाएगी । दरअसल, शासन, व्यवसाय और जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में इन कर्मचारियों ने निर्णायक स्थान ग्रहण कर लिया है, लेकिन वे असंगठित हैं और सामान्य श्रम-अधिकारों से वंचित हैं । किसी ट्रेड यूनियन ने भी इस क्षेत्र में अभी पहलकदमी नहीं ली है ।

जाहिर है, भविष्य के किसी श्रमिक आन्दोलन और जन-संघर्ष में इन कर्मचारियों की काफी महत्वपूर्ण भूमिका होगी । इसका एक प्रमुख कारण व्यवसाय, शासन और जीवन के सभी क्षेत्रों की कम्प्यूटर तथा इंटरनेट पर बढ़ती निर्भरता है । इन्हीं कर्मचारियों के बीच हैकर एक्टिविस्टों (हैक्टिविस्टों) की कारगर टीम विकसित की जा सकती है जो जन-संघर्षों को प्रभावकारी धार प्रदान करेगी ।

कुल मिलाकर, न्याय के आन्दोलनों को सचेत रूप से डिजिटल युग की इन नयी वास्तविकताओं के साथ तालमेल बिठाना होगा । आन्दोलनों के पुराने रूप अब ज्यादा कारगर साबित नहीं होंगे और शासक वर्गों को उनसे निपटने में ज्यादा कठिनाई नहीं आएगी ।

आन्दोलन के संगठन तथा जहरीले विचारों और अफवाहों के प्रचार, असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के प्रयासों का पुरजोर जवाब देने के लिए जिस तरह सोशल मीडिया में एक कारगर टीम का होना जरूरी है, उसी तरह जन-संघर्षों के दौरान हैक्टिविस्टों की छापामार कार्रवाई भी जो शासन की विभिन्न दमनात्मक इकाइयों को पंगु बनाने तथा भटकाने का काम कर सकती है । अतीत में भी ऐसी टीमें जन-आन्दोलनों का हिस्सा होती ही थीं – आज उनका डिजिटल कायान्तरण जरूरी हो गया है ।

कहने की जरूरत नहीं कि इन मामलों में शासक वर्ग पहले से ही काफी आगे है । सूचना-संचार के माध्यमों पर अपने प्रभुत्व के कारण, वे सार्वजनिक बहस के मुद्दे तय करते रहे हैं, वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के अनेक नापाक हथकण्डे अपनाते रहे हैं, अफवाहों और डिजिटल जालसाजियों के जरिये समाज में जहरीला वातावरण बनाते रहते हैं । हालांकि हाल के दिनों में सोशल माडिया में सक्रिय न्याय की पक्षधर शक्तियां इसका कुछ हद तक प्रतिकार करने में सफल हुई हैं, फिर भी न्याय को समर्पित एक प्रतिबद्ध टीम का अब भी अभाव है ।

व्यक्तियों, संगठनों तथा संस्थाओं का मूल्यांकन

व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं का मूल्यांकन प्रायः न्याय की विभिन्न धाराओं के बीच तीखे विवाद का कारण बनता रहा है । इसलिए इस प्रश्न पर भी स्पष्ट दृष्टि अपेक्षित है ।

(क) प्रत्येक पीढी विरासत में अनेक विचार, संस्थाएं, संगठन और जीवन-मूल्य प्राप्त करती है और उन्हीं के बीच उनका लालन-पालन तथा प्रारंभिक विकास होता है । इन विचारों-संस्थाओं-मूल्यों में दोनों तरह की चीजें होती हैं – कुछ विचार, संस्थाएं तथा मूल्य न्याय के लिए समाज में चले आ रहे संघर्षों की उपज होते हैं और इस प्रकार न्याय के लिए होनेवाले संघर्षों की आधार-भूमि का काम करते हैं, तो वहीं बहुत सारे विचार अन्याय को औचित्य प्रदान करते हैं, बहुत सारी संस्थाएं अन्याय को संस्थाबद्ध रूप प्रदान करती हैं, और बहुत सारे मूल्य अन्याय का पक्षपोषण करते हैं । वास्तविक जीवन में ये सारी स्थितियां इतने स्पष्ट खांचों में बंटी नहीं होतीं, बल्कि अनेक रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के साथ आपस में घुली-मिली होती हैं ।

किसी भी देश में प्रचलित विचार-शाखाओं, संस्थाओं तथा जीवन-मूल्यों की (कुल मिलाकर, समाज में प्रचलित सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन की) समालोचना के जरिये ही आज के दौर के लिए प्रासंगिक तथा व्यावहारिक न्याय का विचार, कार्यक्रम और कार्यभार आकार ग्रहण करता है । यह एक श्रमसाध्य वैचारिक और व्यावहारिक अनुशीलन की मांग करता है । आज के जमाने के ऐसे सभी नायकों तथा प्रतीक पुरुषों को इस श्रमसाध्य बौद्धिक और व्यावहारिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है ।

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि हमारे मन-मस्तिष्क में व्यक्तियों, संस्थाओं तथा मूल्यों की एक आदर्श, अमूर्त छवि होती है और उसी छवि के आधार पर हम व्यक्तियों तथा संस्थाओं का मूल्यांकन करने लगते हैं और निराश हो जाते हैं । यथार्थ जीवन में कहीं भी ऐसे आदर्श व्यक्तियों तथा संस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता जो न्याय की सभी कसौटियों पर खड़ा उतरे (कुछेक अपवादों को छोड़कर) । किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा अपने चुने गये कार्यक्षेत्र और उस क्षेत्र में उनके अवदान के आधार पर ही उनका मूल्यांकन उचित है । जाहिर है, अन्य क्षेत्र में उनका विचार और व्यवहार नकारात्मक हो सकता है, और इस लिहाज से उस क्षेत्र में काम करनेवालों द्वारा उनकी आलोचना भी न्यायोचित होगी । अक्सर हम व्यक्तियों तथा संस्थाओं के मूल्यांकन में इस द्वैत स्थिति को मानने के लिए तैयार नहीं होते और एक-आयामी, इकहरे विश्लेषण के शिकार हो जाते हैं ।

कोई व्यक्ति या संस्था न्याय के किसी एक क्षेत्र में नायक के रूप में उभरता है तो हम यह अपेक्षा करते हैं कि वह न्याय की सभी कसौटियों पर खरा उतरे । यह अपेक्षा करना गलत नहीं है, बल्कि वैसा हो, यह हमारा लक्ष्य है । लेकिन यथार्थ जीवन में ऐसे आदर्श व्यक्तियों तथा संस्थाओं का हम सामना नहीं करते । संतुलित मूल्यांकन की यह मांग है कि हम किसी व्यक्ति या संस्था के अपने चुने गये कार्य-क्षेत्र में योगदान को स्वीकार करें और उसे यथोचित सम्मान दें, तथा अन्य मामलों में उनकी आलोचनाओं को भी स्थान दें । ऐसा नहीं होने पर (चूंकि कोई भी व्यक्ति या संस्था पूर्ण या आदर्श नहीं है) हम किसी को भी उसकी कमियों, अपूर्णताओं और गलतियों का हवाला देकर उसकी लानत-मलामत कर सकते हैं, उसे मटियामेट कर सकते हैं – सार्विक निंदक की भूमिका से किया गया ऐसा मूल्यांकन हमें कहीं नहीं ले जाएगा । बेवजह आरोप-प्रत्यारोप के अन्तहीन सिलसिले में फंस कर हम खुद अकेले रह जाएंगे, निष्क्रिय निंदक की भूमिका में । आखिर उस भूमिका में भी हम टिक नहीं पाएंगे क्योंकि हम खुद भी आदर्श और पूर्ण नहीं है ।

न्याय तथा सामाजिक बेहतरी के लिए चलनेवाले लगभग सभी आन्दोलनों, उनके नायकों और उन्हें संचालित करनेवाले संगठनों को खासकर नारी तथा दलित-आदिवासी समुदायों की गंभीर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, और ये आलोचनाएं वाजिब भी हैं, क्योंकि नारियों और दलित-आदिवासी समुदायों को समानता और सम्मान के आधार पर ऐसे आन्दोलनों में भी प्रायः वाजिब स्थान तथा प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है । इन आन्दोलनों में अपनी पर्याप्त सक्रिय भागीदारी के बावजूद, इन आन्दोलनों के नेतृत्वतथा नीति-निर्माण की संस्थाओं में पुरुष और पुरुष ही दिखाई देंगे, और वह भी ज्यादातर सवर्ण समुदायों से आये हुए पुरुष – प्रायः अपने नारी-विरोधी, दलित-आदिवासी-विरोधी पूर्वाग्रहों तथा रूढिवादी धारणाओं के साथ । किसी भी आधार पर इस स्थिति को औचित्य प्रदान नहीं किया जा सकता ।

(ख) कुल मिलाकर, इतिहास में अब तक मनुष्य के रूप में पहचान के ऊपर जन, जाति, वर्ग-तबका, धन, आदि के रूप में पहचान हावी रहा है और इन पहचानों के बीच ‘श्रेष्ठ-निम्न’ की श्रेणियां रही हैं । मनुष्य खुद कोई ‘आदर्श’ प्राणी नहीं रहा है; उसके जनों, जातियों, पंथों, वर्गों, राष्ट्रों, आदि के बीच रक्तपात, युद्ध, जनसंहार, झूठ-फरेब, जालसाजी, विश्वासघात, अनेक जघन्य विकृत आचरणों का अनवरत् सिलसिला आज तक चलता आ रहा है – आज दुनिया के मानचित्र पर नजर डालने भर से इस वीभत्स सिलसिले का अंदाजा लगाया जा सकता है ।

बहरहाल, इसी रक्तपात और विकृतियों के बीच उसने आश्चर्यजनक आविष्कार भी किये हैं; उद्यमिता के हैरतअंगेज कारनामों को भी अंजाम दिया है; विचार और व्यवहार में मानवता, न्याय, प्रेम, सत्य, अहिंसा, त्याग, आदि के अप्रतिम उदाहरण भी पेश किये हैं; और कला-संस्कृति के क्षेत्र में एक-से-एक प्रतिमान कायम किये हैं । मनुष्य का यह द्वैत चरित्र खुद उसके मिथकों, उसकी अनेक कलाकृतियों और रचनाओं में भी प्रभावी रूप से अभिव्यक्त हुआ है । आज भी हम व्यक्ति और समाज के रूप में विरासत में प्राप्त इस द्वैत को, (एक ही साथ और एक ही समय में) अपनी विकृत क्षुद्रताओं तथा उत्कृष्ट उदात्त भावों को जी रहे हैं ।

इस पृष्ठभूमि में हम पाते हैं कि किसी एक क्षेत्र में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करनेवाला व्यक्ति किसी दूसरे क्षेत्र में अत्यन्त निंदनीय/अमानवीय भूमिका में खड़ा होता है । विज्ञान के क्षेत्र में अपने आविष्कार से मानवजाति को समृद्ध करनेवाला कोई वैज्ञानिक नस्लवादी भी हो सकता है । कला की दुनिया में अपनी कृतियों से चकित करनेवाला कलाकार स्त्रियों को प्रताड़ित करनेवाला मर्दवादी भी हो सकता है । भाषा-साहित्य में अपने अतुलनीय योगदान के लिए जाना जानेवाला व्यक्ति जातीय भेदभाव और उत्पीड़न पर आधारित ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था का समर्थक हो सकता है । अपनी उद्यमिता से शानदार कारनामों को अंजाम देनेवाला व्यक्ति दास-प्रथा अथवा श्रमिकों के शोषण का हिमायती भी हो सकता है । आदि, आदि । अपने भीतर तथा अपने आसपास नजर दौड़ाकर ही हम इस सत्य का सहज साक्षात्कार कर सकते हैं ।

ऐसी स्थिति में, एक (असंभव) आदर्श नायक की तलाश में लगे रहने, अथवा एक (निष्क्रिय) सार्विक निंदक की भूमिका अपनाने के बजाय हमें जीवन के किसी भी क्षेत्र में सकारात्मक योगदान करनेवाले को समुचित सम्मान देने तथा अन्य क्षेत्रों में, प्रसंगानुसार, उसके नकारात्मक विचारों और आचरणों की आलोचना करने की संतुलित दृष्टि अपनानी चाहिए । यह दृष्टि मानवजाति की समस्त सकारात्मक विरासत से हमें जोड़ती है, न्याय के पक्ष में प्रत्येक संभावित समूहों को एकजुट करने में सहायता प्रदान करती है, और सर्वोपरि, ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में खुद को आदर्श समझने अथवा न्यायाधीश की भूमिका अपनाने के भ्रमजाल से मुक्त कर विनम्र बनाती है । यह विनम्रता न्याय की स्वाभाविक सहचर है, जिसके बिना न्याय का कोई साझा मंच या संघर्ष व्यावहारिक रूप से सफल नहीं हो सकता ।

इसलिए, मिथकों, इतिहास, नायकों, आदि के प्रश्नों से आगे जाकर हमें न्याय के साझा कार्यक्रमों और कार्यभारों के आधार पर साझा मंच और साझा संघर्ष विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और उन्हीं आधारों पर एकजुट होना चाहिए । अन्य प्रश्नों पर हमें एक दूसरे को समझने, विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और दृष्टियों को यथोचित स्थान देने तथा असहमति के बिन्दुओं पर स्वस्थ संवाद चलाते रहने का प्रयास करना चाहिए । यह पद्धति हमें निरर्थक विवादों और गुटबंदियों में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने के बजाए, न्याय के प्रश्न पर बनी व्यापक सहमति को धरातल पर उतारने के वैचारिक तथा व्यावहारिक प्रयासों पर ध्यान केन्द्रित करने की ओर प्रोत्साहित करती है ।

‘सत्य’ का ‘एकमात्र’ अधिकारी होने के अहंकारपूर्ण दावों ने न्याय के आन्दोलनों को समय-समय पर काफी क्षति पहुंचाई है । इस क्षुद्र अहंकार के विपरीत विनम्रता के महत्व को समझने के लिए किसी किताबी ज्ञान की जरूरत नहीं – सिर्फ अपने शरीर और मन पर ही नजर दौड़ाना काफी है । हम अपने रोजमर्रे के जीवन में चलते-फिरते-काम करते विरासत में प्राप्त न मालूम कितने ज्ञान ढोते होते हैं – जो कपड़ा हम पहने होते हैं, उसके पीछे हजारों वर्षों पुरानी ज्ञान परम्परा है; हम नहीं जानते कब किसने कपास उगाया, किसने उसे ओटा, किसने सूत काता, कपड़ा बुना । यही बात हमारे जूतों, कलमों, चश्मों, घड़ियों, मोबाइल, आदि पर भी लागू होती है । हम हमेशा न मालूम कितना ज्ञान-कोष अपने साथ लिए चलते हैं । हमें उनके आविष्कारकों-कारीगरों का पता नहीं होता, न हमें उन आविष्कारकों-कारीगरों की वैचारिक-राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धताओं का पता होता है । यह लिखते वक्त भी हमें याद रखना चाहिए कि लिपियों के विकास में हजारों वर्षों के काल-क्रम में अनेक समाजों और व्यक्तियों का योगदान रहा है । किसी ने वर्णमाला की पोथियां लिखीं, किसी ने व्याकरण की – इन रचनाओं के अभाव में न धर्मग्रंथ लिखे जाते, न महाकाव्य, न ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’, न ‘विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन’, न ‘केपिटल’, न ‘चीफ सिएटल का मेमोरेंडम’, और न ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ । आज भी इस तरह के कार्यों के महत्व को कम करके नहीं आंकना चाहिए । हमारी मानसिक दुनिया भी विरासत में प्राप्त अनेक विचारों, साहित्यिक कृतियों, आदि से आच्छादित रहती है और हमारे अपने निष्कर्षों-निर्णयों को न मालूम कितने रूपों में प्रभावित करती रहती है ।

ज्ञान की इस दुनिया में विचरते हुए हमें यह अहसास होना चाहिए कि इस दुनिया में हमारा अपना योगदान लगभग शून्य है (और अगर हम विरासत में प्राप्त ज्ञान को भी संभाल पाने में असमर्थ हैं, तो हमारा योगदान नकारात्मक ही माना जाएगा) । फिर कैसा अहंकार ? विनम्रता और इस विनम्रता पर आधारित स्वस्थ, सार्थक संवाद अनेक समुदायों, वर्गों, तबकों, आदि में विभक्त मानवजाति को न्याय के आधार पर एकजुट करने की प्रारंभिक शर्त है । न्याय यदि एक जाति के रूप में हमारी दावेदारी का आधार है तो विनम्रता इस दावेदारी के क्रियान्वयन की पूर्वशर्त ।

(ग) अनेक जन-विद्रोहों, जन-आन्दोलनों तथा जन-क्रान्तियों के जरिये न्याय से वंचित समुदायों, वर्गों तथा राष्ट्रों ने कई अधिकार हासिल किये हैं, इन अधिकारों को संवैधानिक-कानूनी मान्यता प्राप्त हुई है और उनके संरक्षण, क्रियान्वयन तथा विस्तार के लिए कई संस्थाएं भी अस्तित्व में आई हैं । प्रत्येक अधिकार विद्रोह का संवैधानिक अवतार है और इसलिए इन अधिकारों को निरस्त करने अथवा उसमें कटौती करने का मतलब है विद्रोह की स्थिति में वापसी । इस प्रकार प्रत्येक अधिकार में ही विद्रोह का अधिकार भी अन्तर्निहित है ।

अनेक विद्रोहों तथा आन्दोलनों के जरिये ही आदिवासी समुदायों वाले क्षेत्रों में पृथक काश्तकारी कानून बने, और आगे चलकर उन क्षेत्रों को विभिन्न स्तर की स्वायत्तता प्रदान करने के लिए हमारे संविधान में पांचवीं, छठी तथा सातवीं अनुसूची का प्रावधान किया गया । जनजातीय भाषाओं को मान्यता मिली, शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में विशेष अवसर प्रदान करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई और पृथक वित्तीय निगमों, प्रशिक्षण संस्थानों, सलाहकार बोर्डों तथा परिषदों की स्थापना की गई ।

देश-दुनिया में अनेक जुझारू संघर्षों और क्रान्तियों के बाद मजदूर वर्ग को संगठन, आठ घण्टे काम के दिन तथा हड़ताल का अधिकार हासिल हुआ । सम्प्रभुता का अधिकार राष्ट्रीय आन्दोलन का परिणाम है, तो अभिव्यक्ति की आजादी, सार्विक वयस्क मताधिकार, आदि व्यापक जनवादी आन्दोलनों का । स्त्रियों को मताधिकार, बाल-विवाह पर रोक, सम्पत्ति में हिस्सेदारी, यौन-हिंसा तथा उत्पीड़न के खिलाफ कानून, घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून, आदि नारी आन्दोलन की देन है ।

इसी तरह सामाजिक न्याय के लिए चलाए गए व्यापक जन-आन्दोलनों के जरिये ही इस आन्दोलन की कुछ प्राथमिक मांगों ने संवैधानिक रूप ग्रहण किया – दलित तथा पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान किया गया, इन वर्गों के अधिकारों के संरक्षण तथा अनुपालन के लिए आयोगों का गठन किया गया, और कुछ अन्य सकारात्मक कदम उठाए गये । पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण से मुक्ति के लिए चलनेवाले आन्दोलनों के फलस्वरूप पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण नियंत्रण से सम्बन्धित कानून तथा ग्रीन ट्रिब्युनल बने । ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास को गति मिली ।

यहां हम जन-आन्दोलनों और इन आन्दोलनों के संवैधानिक-कानूनी अधिकारों में रूपान्तरण का कोई विवरण नहीं दे रहे हैं । सिर्फ यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि कैसे प्रत्येक अधिकार विद्रोहों तथा जन-आन्दोलनों का ही संवैधानिक-कानूनी अवतार है और इन अधिकारों की वापसी का मतलब है विद्रोह तथा आन्दोलनों की स्थिति की बहाली ।

उपर्युक्त अधिकारों पर एक नजर डालने से ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये अधिकार न्याय के आन्दोलन के नजरिये से बस प्राथमिक अधिकार ही हैं और यह कि इन प्राथमिक अधिकारों के क्रियान्वयन की स्थिति तो और भी दयनीय है । उनका (अधिकांश मामलों में) पालन कम और उल्लंघन ही ज्यादा होता रहा है । इन अधिकारों के संरक्षण, अनुपालन और विस्तार के लिए जो संस्थाएं बनाई गईं, उनकी स्थिति प्रायः खस्ताहाल ही रही है ।

यह स्थिति दो जरूरी चीजों की ओर इशारा करती है – एक तो अधिकारों को मान्यता मिलने के बाद भी जन-आन्दोलनों का दबाव बनाये रखना जरूरी है; दूसरा, इन अधिकारों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सत्ता के संगठनों में (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में) इन आन्दोलनों से जुड़ी शक्तियों की प्रभावकारी उपस्थिति जरूरी है (हमारे संविधान में अगर इस प्रकार के कुछ बुनियादी अधिकारों को मान्यता मिली तो इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि इन अधिकारों के पक्ष में खड़ा होनेवाला और न्याय के आन्दोलन से जुड़ा एक प्रभावकारी समूह संविधान सभा का सदस्य था, और खुद बाबासाहेब अम्बेडकर की संविधान तैयार करने में अहम् भूमिका थी) । इसके अलावा, जनमत का दबाव बनाये रखने के लिए बौद्धिक मंडलियों, मीडिया, आदि में भी असरदार ढंग से हस्तक्षेप आवश्यक है । (इस तरह के आन्दोलनों से जुड़े जो लोग सत्ता में भागीदार रहे, उनकी भूमिका भी इस लिहाज से अत्यन्त असंतोषजनक ही रही । इस का एक प्रमुख कारण यह है कि एक बार सत्ता हासिल कर लेने के बाद उनकी प्राथमिकता सत्ता में किसी तरह बने रहना हो जाता है और इसके लिए वे अनेक अवसरवादी समझौतों में लिप्त हो जाते हैं । जिन आन्दोलनों और कार्यक्रमों की बदौलत वे सत्ता में पहुंचे, उन्हें आगे बढ़ाना उनकी कार्यसूची में पीछे चला जाता है) ।

बहरहाल, तुलनाएं हम अतीत से करते हैं, लेकिन योजना हम अपने लक्ष्य को सामने रखकर बनाते हैं । अतीत से तुलना करने पर हमें न्याय के लिए होनेवाले आन्दोलनों की उपलब्धियों का आभास होता है, जबकि लक्ष्य को सामने रखकर योजना बनाते समय हम पाते हैं कि ये उपलब्धियां तो बस शुरुआत भर हैं, कि अभी कितना कुछ करना बाकी है ।

उपलब्धियां हैं । इन समुदायों, वर्गों, आदि की आज जवान हो रही पीढ़ी को यह जानकर कुछ हैरत तो होती ही है कि आज से सौ साल पहले उनके पूर्वजों को ऐसे कुछ प्राथमिक अधिकार भी प्राप्त नहीं थे, कि बोलने, सम्मान के साथ जीने के अधिकार के लिए उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा, कितनी यातनाएं सहनी पड़ीं और कितनी कुर्बानियां देनी पड़ीं, कि उनके समुदाय में शायद ही कोई साक्षर था, और कि सत्ता के संगठनों में उनके समुदायों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था ।

लक्ष्य को सामने रखकर देखें तो पाएंगे कि इतने लम्बे संघर्ष और कुर्बानियों के बावजूद, सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, खासकर उच्च शिक्षा, मीडिया, न्यायपालिका, आदि में उनकी उपस्थिति कुछ खास नहीं है । विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तो उनकी भागीदारी नगण्य ही है, उद्यम-व्यवसाय, कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी यही हाल है । सार्विक वयस्क मताधिकार पर आधारित राजनीतिक जनतंत्र तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कारण राजनीतिक सत्ता में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी तो हासिल की है, लेकिन शिक्षा और सम्पत्ति से ऐतिहासिक रूप से वंचित रहने के कारण सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता और सम्मान का स्थान ग्रहण करने में अब भी काफी लम्बा सफर तय करना बाकी है । सामाजिक जीवन में (खासकर दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के साथ) भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं आज भी बदस्तूर जारी हैं ।

इसके साथ, अगर हम न्याय के आन्दोलनों के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को समाज में प्रतिष्ठित करने, इतिहास के पुनर्लेखन, पाठ्यपुस्तकों में न्याय के आन्दोलनों, उनके नायकों को स्थान दिलाने, समाज में विभिन्न रूपों में जड़ जमा चुकी अन्यायपूर्ण प्रथाओं, रूढ़ियों, कर्मकाण्डों, विचारों के खिलाफ वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान चलाने की महती चुनौती को जोड़ दें तो आज न्याय के आन्दोलन के समक्ष जो गंभीर कार्यभार उपस्थित हुआ है, उसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।

इस संदर्भ में यह ध्यान देना जरूरी है कि समुदाय-आधारित आन्दोलनों में कभी पूरे-के-पूरे समुदाय की एक रूढ़ छवि बनाने, पूरे समुदाय को शत्रु के रूप में चिह्नित करने, उसके खिलाफ घृणा फैलाने, हर समस्या के लिए उसे दोषी ठहराने, जैसी प्रवृत्तियों का हमेशा पुरजोर विरोध करना चाहिए । हर समुदाय में कमोबेश हर तरह के लोग होते हैं । किसी खास मामले में, खास मौकों पर अगर कुछ विध्वंसक शक्तियां अपने समुदाय की गोलबंदी में सफल भी हो जाती हैं, तब भी आम लोगों और ऐसी विध्वंसक शक्तियों के बीच फर्क को कभी भूलना नहीं चाहिए । यह प्रवृत्ति अन्ततः समुदाय-आधारित हिंसा-प्रतिहिंसा और जनसंहार के बर्बर कृत्य की ओर ले जाती है । जनसंहार के प्रतिकार में जनसंहार की प्रवृत्ति न्याय के वृहत्तर आन्दोलन को भारी क्षति पहुंचाती है ।

(घ) जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली ऐतिहासिक रूप से एक नई प्रणाली है । मानवजाति ने जिन राजनीतिक प्रणालियों के अन्तर्गत अपना लम्बा वक्त बिताया है, वे जनतंत्र के आगमन के साथ एकबारगी खत्म नहीं हो गईं । वे हमारे राजनीतिक जीवन में गहरे रूप से समाई हुई हैं – हमारे अधिकांश दल तथा संगठन सरदारी-प्रथा, वंशानुगत नेतृत्वकारी तंत्र, सम्प्रदायों/मठों/डेरों वाली सर्वसत्तावादी संरचनाओं द्वारा ही संचालित हैं । हां, राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें सार्विक वयस्क मताधिकार पर आधारित जनतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है । जनता के बीच विरासत में प्राप्त अनेक सम्प्रदायों, विचार-परम्पराओं, मठों, आदि का प्रभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है, और उनकी गोलबंदी के दौरान इन प्रभावों का भी भरपूर प्रयोग किया जाता है । इसके अलावा, उत्पादन तथा सूचना के साधनों पर मुट्ठी भर धनकुबेरों की इजारेदारी, धन-बल तथा सत्ता-बल का आक्रामक सम्मिलित उपयोग न्याय के पक्ष में जनसमुदाय की व्यापक गोलबंदी को काफी चुनौतीपूर्ण बना देता है । इन बाधाओं के बावजूद, अनेक महत्वपूर्ण मोड़ों पर न्याय की शक्तियों की सामान्य, तात्कालिक एकजुटता के सामने अन्याय की शक्तियों को शिकस्त खानी पड़ी है ।

उपर्युक्त यथार्थ स्थितियां हमें किसी आदर्श, अमूर्त स्थिति से चीजों, घटनाओं, आदि को समझने, उनका मूल्यांकन करने से बचाती हैं, और सामाजिक रूप से उपयोगी, व्यावहारिक कार्यक्रमों तथा कार्यभारों के निर्धारण में मदद पहुंचाती हैं ।

(ङ) समाज में राजनीतिक क्रान्तियों का काल अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही होता है । विचार और व्यवहार के स्तर पर हर समय गैर-क्रान्तिकाल में अनेकों उपयोगी, परिवर्तनमूलक काम होते रहते हैं । लम्बे समय तक चलनेवाले ऐसे कार्य ही घनीभूत होकर क्रान्ति-काल में विस्फोट का रूप धारण करते हैं और समाज एक नये युग में प्रवेश कर जाता है । इसीलिए ‘क्रान्तिकारी कार्य’ करने के अहं में समाज में निरन्तर किये जा रहे परिवर्तनमूलक, उपयोगी तथा न्याय को विस्तार देनेवाले कार्यों को न तो तुच्छ दृष्टि से देखना चाहिए, न ही उन्हें अनदेखा करना अथवा उसके महत्व को कम करके आंकना चाहिये । दरअसल, ‘क्रान्तिकारी कार्य’ करने का दावा करने वाले प्रायः अपने आसपास होनेवाले अनेको उपयोगी कार्यों को देख नहीं पाते, और जो किया जा सकता है, उसकी भी उपेक्षा कर खोखली लफ्फाजी के शिकार हो जाते हैं ।

(च) लम्बे काल तक चलनेवाला बड़ा जन आन्दोलन जिसमें अनेक समुदायों के लोग शामिल होते हैं, ऐसे नेतृत्व की मांग करता है जो समुदायों की संकीर्ण दुनिया से ऊपर उठा हो और जो निष्पक्षता के साथ प्रत्येक समुदाय के वाजिब हितों की रक्षा कर सके तथा उनके बीच मध्यस्थ की भूमिका अदा कर सके । यथार्थ जगत में ऐसा अमूर्त नेतृत्व मौजूद नहीं होता । हर नेता किसी-न-किसी समुदाय/वर्ग/तबके से अथवा किसी-न-किसी विशिष्ट क्षेत्र या हित से सम्बद्ध होता है । ऐसे समुदाय-विशेष के नेता के प्रति दूसरे समुदायों के नेताओं या खुद उसके अपने समुदाय के विभिन्न लोगों के अपने पूर्वाग्रह या फिर मतभेद हो सकते हैं जिसके कारण उसकी सर्वस्वीकार्यता बाधित हो सकती है । इसीलिए ऐसा आन्दोलन अपने विकास-क्रम में अपने किसी मूर्त, समुदाय-विशेष के नेतृत्व में अमूर्तता का आरोपन कर उसे भगवान, महात्मा, स्वामी, संत या करिश्माई रूप में प्रस्तुत कर इस जरूरत को पूरा करता है । फिर उस नेतृत्व के इर्दगिर्द अनेक मिथक गढ़े जाने लगते हैं और सम्बन्धित नेतृत्व भी अमूर्तता के मानकों पर खड़ा उतरने की कोशिश करता है । यह प्रक्रिया आन्दोलन के पूरे क्रम में चलती रहती है – नेताओं के समूह में कौन इस अमूर्तता से महिमामण्डित होता है, यह बहुत हद तक सम्बन्धित व्यक्ति के निजी रुझानों, उसके इतिहास तथा यथार्थ आन्दोलनों में मध्यस्थ के रूप में उसकी योग्यता पर निर्भर करता है ।

ऐसे नेतृत्व का जीवन मूर्त जरूरतों और अमूर्त अपेक्षाओं के विरोधाभास के बीच गुजरता है – उसके आलोचक अथवा विरोधी उसके मूर्त क्रियाकलापों का हवाला देकर उसके ‘अमूर्त मध्यस्थ’ होने के दावों का भण्डाफोड़ करते हैं, उसे ढ़ोंगी या पाखण्डी करार देते हैं, जबकि उसके अनुयायी उसकी ‘अमूर्तता’ को आन्दोलन की धरोहर और उसकी कामयाबी की गारंटी मानते हैं । उसकी अमूर्त छवि में लोग ‘मानवता का कमोबेश आदर्श रूप’ ढूंढ लेते हैं ।

(छ) इसी तरह, लम्बे समय तक चलनेवाले राजनीतिक आन्दोलनों में कार्यकर्ताओं के बीच श्रम-विभाजन भी जड़ जमा लेता है । यह श्रम-विभाजन आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में जहां आन्दोलनकारी संगठन की कार्यकुशलता तथा नवाचारिता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वहीं बाद के दौर में (खासकर जब वह आन्दोलन अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने में नाकामयाब हो) इस श्रम-विभाजन का नकारात्मक परिणाम प्रभावी हो जाता है । एक ही तरह के काम को साल-दर-साल दिनचर्या के रूप में करते रहना सम्मोहक जड़ता तथा मानसिक शिथिलता का सबब बन जाता है । इस जड़ता के बन्दीगृह में आत्म-मूल्यांकन में असमर्थ, आत्म-मुग्ध सार्विक निन्दक की स्थिति उसकी नवाचारिता की क्षमता को सदा के लिए कुंद कर देती है ।

जाति का खात्मा

जातियों के उद्भव और विकास के इतिहास में गये बगैर हम यहां कुछ सामान्य विवरणों तक ही खुद को सीमित रखेंगे । जाति के खात्मे पर चर्चा के दौरान निम्नलिखित तथ्यों पर गौर करना चाहिए :

(क) हजारों वर्षों के जन-समाज के दौरान ही श्रम-विभाजन अस्तित्व में आने लगा था और जनों के बीच विभिन्न रूपों में विनिमय भी । जन के अन्दर ही विभिन्न समूह उभरने लगे थे – सरदार, पुरोहित, काष्ठकर्मी, धातुकर्मी, पशुपालक, मछुआरे, बागबानी करनेवाले या प्रारम्भिक खेतिहर, आदि । चार प्रमुख श्रेणियां भी उसी दौर में सामने आ चुकी थीं – सरदार, पुरोहित, विनिमय से जुड़ा समूह, और विभिन्न उत्पादक पेशों तथा सेवा-कर्म से जुड़ा आम जनसमुदाय । जन अन्तर्विवाही समूह थे और उसकी सदस्यता जन्म से ही निर्धारित थी ।

(ख) जन-समाज से कृषि-समाज में संक्रमण की सैकड़ों वर्षों की प्रक्रिया में जातियों का उद्भव और व्यापक प्रसार हुआ । यह प्रक्रिया राजनीतिक रूप से सरदारी-प्रथा से जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों में परिवर्तन की प्रक्रिया भी थी । साथ ही यह सामाजिक स्तर पर नये-नये पंथों-सम्प्रदायों के उदय का काल भी था । पूरे भारतवर्ष में विभिन्न अंचलों में यह प्रक्रिया समानान्तर रूप से संपन्न नहीं हुई – इस संक्रमण की रफ्तार, उसका स्वरूप अलग-अलग अंचलों में अपनी विशिष्टताएं लिए हुई थीं । इस दौर में जनों और कृषि-आधारित जनपदों के बीच युद्धों समेत विभिन्न स्तरों पर विनिमय और आदान-प्रदान भी चलता रहा ।

(ग) वैसे तो कई जन कृषि-समाज में जातियों के रूप में शामिल हो गये, फिर भी अधिकांश मामलों में, विभिन्न जनों के समान पेशेवाले समूह एक जाति-समुदाय के रूप में सामने आये । अधिकांश कारीगर तथा पशुपालक जातियों का नाम उनके पेशों के नाम पर ही आधारित है । खेतिहर समूहों के आंचलिक नामों के कारण उन जातियों के नामों में विविधता मिलती है । विभिन्न जनों के समान पेशा-आधारित समूहों का एक जाति-समुदाय के रूप में उभरना जन का अतिक्रमण था और यह प्रक्रिया भी सैकड़ों वर्षों में संपन्न हुई ।

बहरहाल, विभिन्न जनों के समान पेशावाले समूहों का यह संगठन भी जन के स्वरूप में संपन्न हुआ – यानी, अन्तर्विवाही समुदायों के रूप में । इस प्रकार जातियां जन के स्वरूप में जन का अतिक्रमण थीं ।

(घ) चूंकि जातियों में विभिन्न जनों के समूह शामिल हुए, इसीलिए उनकी नस्ल-आधारित प्रोफाइलिंग की अनेक कोशिशें नाकाम रहीं । नस्ल-आधारित मानदण्डों (नासिका-सूचकांक, रंग, जबड़ा, आदि) पर एक ही जाति में पर्याप्त विविधता पाई गई (कुछेक अपेक्षाकृत अलग-थलग पड़े जनों तथा जातियों को छोड़कर) ।

दूसरी ओर, जातियों की व्यवस्था के स्थिर तथा स्थाई हो जाने की स्थिति में पिछले करीब दो हजार, डेढ़ हजार या एक हजार वर्षों से अन्तर्विवाही समुदाय के रूप में रहने के कारण आज के आनुवंशिकी वैज्ञानिकों तथा मानवशास्त्रियों की भी जातियों के अध्ययन में काफी दिलचस्पी बनी हुई है ।

(ङ) ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के सोपानवाली संरचना भी भ्रूण रूप में जन-समाज में ही जन्म ले चुकी थी – ज्ञान, शासन और धन से जुड़े समूह ‘श्रेष्ठ’ तथा श्रम एवं सेवा से जुड़े समूह ‘निम्न’ माने जाने की प्रक्रिया भी तब ही शुरू हो चुकी थी । ये ‘श्रेष्ठ’ समूह अनेक विशेषाधिकारों से संपन्न होने लगे थे । आगे चलकर इन ‘श्रेष्ठ’ समूहों के बीच वर्चस्व की होड़ होने लगी और ‘निम्न’ समझे जाने वाले समूहों को काल-क्रम में उन सामान्य, मानवीय अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया जो उन्हें पहले जन के सदस्य के रूप में प्राप्त थे ।

इसी प्रक्रिया में आगे चलकर जन्मना ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के सोपान पर आधारित उस जाति-व्यवस्था ने आकार ग्रहण किया जिसे धर्म-सूत्रों तथा स्मृति-ग्रंथों ने व्यवस्थित रूप दिया और जो भारतीय कृषि समाज का आधार बना ।

यह प्रक्रिया काफी उथल-पुथल भरी थी क्योंकि यह विशाल भू-भाग अनेक जनों का क्रिया-स्थल था और नये-नये जनों का आना भी निरन्तर जारी रहा । इन जनों के बीच रंग, भाषा, जीवनयापन की विधियों के मामले में काफी विविधता थी । जन-समाज में संख्या-बल/शारीरिक बल काफी अहम भूमिका निभाता है । जाहिर है, जनों के बीच युद्ध में अनेक बड़े जन छोटे जनों को अपनी वास-भूमि से विस्थापित करने, उनका बड़े पैमाने पर संहार करने तथा उन्हें दास बना लेने में कामयाब हुए । अपेक्षाकृत विकसित उपकरणों तथा संसाधनों (जैसे, घोड़ों, रथों, आदि) से लैस कुछ छोटे जन भी कम समय में अपना विस्तार करने में समर्थ हुए  होंगे । कृषि के विकास के साथ-साथ आसपास रहनेवाले अनेक छोटे फलसंग्राहक-शिकारी जनों को जबरन भूदास के रूप में कृषि के साथ जोड़ा गया होगा ।

इस प्रकार, शासक, पुरोहित, कारीगर, खेतिहर, सेवक जातियों के अपेक्षाकृत संतुलित अनुपात से युक्त उस स्वयंसम्पूर्ण ग्राम-समुदाय का उदय हुआ जो भारतीय कृषि समाज का केन्द्रक, उसकी कोशिका था । कृषि के प्रसार के साथ ही इन ग्रामों का भी क्षैतिज प्रसार हुआ । ये गांव जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के राजस्व की बुनियादी इकाई थे । समाज की अतिरिक्त सम्पत्ति का सबसे बुनियादी स्रोत गांव ही था ।

बहरहाल, अतिरिक्त सम्पत्ति का बुनियादी स्रोत यह इस कारण था कि इसका आधार बर्बर, उत्पीड़क जाति-प्रथा थी जहां शूद्र जातियों के रूप में सारा-का-सारा उत्पादक और सेवक समुदाय सम्पत्ति, शिक्षा और सम्मान से वंचित था । अन्त्यज जातियां अस्पृश्य थीं; वैसे विभिन्न स्तर की अस्पृश्यता से अन्य जातियां भी कमोबेश पीड़ित थीं । इन जातियों के जीने का अधिकार भी ब्राह्मण-क्षत्रिय जातियों के हाथों गिरवी था, उनका सारा जीवन इन मुट्ठी भर ‘उच्च’ जातियों द्वारा नियंत्रित था – बात-बात में मार-पीट, गाली-गलौच, किसी भी तरह के प्रतिकार की स्थिति में हत्या समेत भयानक दण्ड, आदि सामान्य बातें थीं । यहां इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं – जाति-प्रथा की बर्बरता का हम अब भी प्रायः साक्षात् करते रहते हैं । इस उत्पीड़न के खिलाफ उत्पीड़ित जातियों की एकजुटता भी श्रेष्ठ-निम्न की सोपानमूलक व्यवस्था के कारण बाधित होती रही है ।

यहां यह भी याद रखना चाहिए कि कुछेक भेदभाव (खासकर कर्मकाण्डीय मसलों पर) और टकरावों के बावजूद इस जाति-प्रथा के अन्तर्गत भी कृषक तथा कारीगर जातियों के बीच बहुत हद तक समानता और सम्मान का भाव बना रहा था । कुछेक दलित जातियों के बीच भी यही बात थी । आधुनिक काल में समय-समय पर उनकी एकजुटता की यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी ।

(च) इस इतिहास के साथ-साथ हमें कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देना चाहिए । प्रायः वर्तमान की हमारी छवि अतीत के मूल्यांकन को भी प्रभावित करती है ।

आज से दो-तीन हजार वर्ष पूर्व भारत की भौगोलिक स्थिति में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है, लेकिन आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । मौर्य काल में (ईसा पूर्व चौथी सदी से ईसा पूर्व दूसरी सदी के बीच) भारत की आबादी दो करोड़ के आसपास आंकी गई है । संचार और परिवहन की तब की अवस्था का भी ध्यान रखिये । यदि बुद्ध के समय से गुप्त काल तक (ईसा पूर्व छठी सदी से ईसा-उत्तर छठी सदी के बीच) के हजार वर्षों के दौरान भारत की आबादी दो से पांच करोड़ के बीच भी रखी जाए, तो कल्पना कीजिए, न सिर्फ नये-नये गांवों को बसाने का, बल्कि अनेक जनों के लिए नये नये क्षेत्रों में जा बसने का कितना अवसर मौजूद था । जनपदीय राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के बागी समूहों के लिए भी भागकर और जंगल साफ कर नये राज्यों की नींव रखने की कितनी संभावनाएं थीं । खासकर बड़े राजतंत्रों तथा साम्राज्यों के पतन की स्थिति में अनेक नये-नये राजतंत्रों, जातियों-उपजातियों के उभरने के भरपूर प्रमाण मिलते हैं । यहां तक कि बड़े साम्राज्यों के काल में भी सुदूर इलाकों के क्षत्रप प्रायः स्वायत्त ही हुआ करते थे । इनमें से अनेक राजतंत्र मुख्यतः आदिवासी अथवा शूद्र समुदायों के राजतंत्र थे । अगर हम सिर्फ हर्षवर्धन के पतन और दिल्ली सल्तनत के बीच के काल में (करीब आठवीं सदी से बारहवीं सदी के बीच) भारत के विस्तृत भूभाग में छोटे-बड़े राजे-रजवाड़ों की सूची बनायें तो वर्तमान बिहार तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में ही कई आदिवासी और शूद्र राज्यों की सूची मिल जाएगी । यहां इसके विस्तार में जाने के बजाए इतना कहना ही काफी होगा कि अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के खिलाफ शूद्र जातियों के विद्रोह के फलस्वरूप जहां अवसर मिला, वहां उन्होंने अपना राज्य कायम किया । जातियों की सामाजिक स्थितियों में विभिन्न अंचलों में समय-समय पर कुछ संशोधन-परिवर्धन होता रहा और उनकी आर्थिक स्थिति तथा भूमि पर उनकी दावेदारी में भी कुछ परिवर्तन घटित हुए । लेकिन जाति-प्रथा आधारित समाज-व्यवस्था में कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ । [ वैसे यह तुलना उतनी सटीक नहीं है, फिर भी हम इस परिघटना की तुलना आज की स्थिति से कर सकते हैं । जैसे मजदूर किसान या छोटे व्यवसायी वर्ग का कोई सदस्य कालक्रम में पूंजीपति बन जाता है (मीडिया में ऐसे लोगों को मिसाल के रूप में पेश किया जाता है), और इस तरह की प्रक्रिया चलती रहती है, लेकिन इससे श्रम और पूंजी के बीच का सम्बन्ध प्रभावित नहीं होता, उसी तरह शूद्रों द्वारा अपना राजतंत्र कायम कर कुछेक भूमि-क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमाने तथा अपनी कर्मकाण्डीय स्थिति में कुछ सुधार कर लेने के बावजूद ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था जारी रहती है । यह तुलना पूरी तरह सटीक इसलिए नहीं है कि जातियों के जन्मना तथा अन्तर्विवाही होने के कारण शूद्र जाति के लोगों के समक्ष गतिशीलता की संभावना काफी सीमित थी और प्रायः वह कुछ खास कालावधि तक ही जारी रह सकती थी । ] प्रसंगवश, इसी अवधि में हम चौरासी सिद्धों में कई शूद्र-सिद्ध-संतों का भी विवरण पाते हैं जिनकी हमारे साहित्य, खासकर अपभ्रंश साहित्य के विकास में अहम् भूमिका रही ।

(छ) इतिहास में वैचारिक-सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक धाराएं अधिक दिनों तक समानान्तर रूप से नहीं चलती रहती हैं – खासकर जब हम शताब्दियों और सहस्राब्धियों के पैमाने पर बात करते हैं । समानान्तर धाराएं एक-दूसरे को समय-समय पर काटती हैं, उनका अन्तर्गुंथन चलता रहता है और इस अन्तर्गुंथन के परिणामस्वरूप नयी-नयी धाराएं बनती रहती हैं । कुछ धाराएं विलुप्त हो जाती हैं या सूख जाती हैं । संस्कृत, पालि, प्राकृत, और अपभ्रंश के विपुल साहित्य में हम इन समानान्तर धाराओं, उनके अन्तर्गुंथन और नयी-नयी धाराओं के बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया का साक्षात् कर सकते हैं ।

इसी तरह, अमानवीय व्यवस्था को कोई भी जीवंत मानव समुदाय अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं करता रहता – उसका विद्रोह अनेक रूपों में, अनेक किस्म के वैचारिक-सामाजिक आन्दोलनों तथा सम्प्रदायों में प्रकट होता रहता है । कालक्रम में ये आन्दोलन अपनी भूमिका निभाकर काल-कलवित हो जाते हैं । ये विद्रोह बेकार नहीं जाते – अपने-अपने समय और समाज को अपने ढंग से प्रभावित करते हुए और कुछेक सुधारों अथवा अधिकारों को अंजाम देते हुए आनेवाली पीढ़ी के लिए वे एक प्रेरणादायी विरासत छोड़ जाते हैं ।

एक विद्रोही शूद्र राजा आगे चलकर एक क्षत्रिय राजा के रूप में ब्राह्मणों की स्वीकृति हासिल करने, राजसूय या अश्वमेध यज्ञ की लालसा में ब्राह्मणीय क्रमकाण्डों में लिप्त होकर ब्राह्मणों को भूमि दान कर निरंकुश राजा बन जाता है । एक जाति-विरोधी प्रगतिशील सामाजिक-वैचारिक आन्दोलन कालक्रम में अनेक सम्प्रदायों, शाखाओं-प्रशाखाओं में विभक्त होकर रूढ़िवादी कर्मकाण्डों में सिमट कर रह जाता । बुद्ध हों या वसव, रैदास हों, कबीर हों या घासीदास या अन्य भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है । कोई भी धारा हजार वर्ष तो क्या कुछ ही शताब्दियों में वही नहीं रही जो उनके प्रवर्तकों के समय थी । ये प्रवर्तक भी अपने समय और समाज की वस्तुस्थितियों से बंधे होते हैं – न्याय के उनके विचारों की सार्विकता अथवा कालजयिता के बावजूद, उनके द्वारा सुझाये गये समाधान अपने समय और समाज की वस्तुस्थितियों के ही सापेक्ष होते हैं, सार्विक और कालजयी नहीं ।

(ज) आज जातियों की स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है । कुछ, खासकर दलित तथा अतिपिछड़ी जातियों को छोड़कर जो अब भी अपने परम्परागत पेशे पर निर्भर हैं, जातियों का पेशा आधार काफी हद तक खत्म होता जा रहा है या हो गया है । ‘श्रेष्ठ-निम्न’ के जातीय सोपान और इस आधार पर कर्मकाण्डों से लेकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा, आदि को कोई संवैधानिक-कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है, बल्कि इस तरह का आचरण अनेक मामलों में संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है । जातियां अब मुख्यतः जन्म-आधारित अन्तर्विवाही समुदाय हैं ।

इस बदलाव के पीछे अनेक कारण हैं और बदलाव की यह प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में ही आरम्भ हो गई थी । पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का विकास (जिसका श्रम-संगठन कृषि-समाज के श्रम-संगठन से काफी भिन्न होता है), प्राथमिक स्तर पर ही सही शिक्षा का प्रसार, शहरीकरण, सत्ता के संगठनों में आरक्षण, सार्विक मताधिकार पर आधारित राजनीतिक जनतंत्र, इन वंचित समुदायों के बीच से मध्य वर्ग का उत्थान, और सर्वोपरि, पूरे देश में विभिन्न रूपों में इन वंचित समुदायों के सामाजिक आन्दोलनों, आदि ने इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

बहरहाल, शिक्षा, सम्पत्ति तथा सत्ता से ऐतिहासिक रूप से वंचित और अनेक तरह के भेदभाव, अपमान तथा उत्पीड़न के शिकार इन अन्तर्विवाही समुदायों को आज भी सामाजिक रूप से अनेक किस्म के भेदभाव और उत्पीड़न का सामना कर पड़ रहा है । ऐतिहासिक रूप से इन वंचनाओं के कारण सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति और भागीदारी आज भी या तो नगण्य है या अत्यल्प । इस भागीदारी की राह में सामाजिक तथा प्रशासनिक स्तर पर अनेक बाधाएं खड़ी की जाती हैं । कुल मिलाकर, इन अन्तर्विवाही समुदायों के बीच समानता और परस्पर सम्मान का सम्बन्ध विकसित करना आज भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है ।

यहां यह याद रखना चाहिए कि अन्तर्विवाही समुदाय इतिहास में लम्बे समय तक कायम रहते हैं – उनका विघटन और खात्मा आसान नहीं और वह हमारी मनोगत सदिच्छाओं पर निर्भर नहीं करता । गैर-अन्तर्विवाही समुदाय चंचल समूह होते हैं और उनमें पर्याप्त गतिशीलता होती है । यह सब हम अपने आसपास नजर दौड़ाकर ही देख सकते हैं । वर्ग अथवा पेशागत समूह, विभिन्न कार्यभारों को संपन्न करने के लिए बननेवाले समुदाय, आदि गैर-अन्तर्विवाही समुदाय हैं । नयी तकनीकों के आगमन के साथ ऐसे कई पेशागत समुदायों का विघटन और खात्मा हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं । ऐसे समुदाय से जुड़े सदस्यों की गतिशीलता और उनका दूसरे समुदाय के सदस्यों में रूपान्तरण तो रोज घटता रहता है । कोई मजदूर अपने जीवनकाल में ही मध्यवर्ग का हिस्सा बन जाता है, मजदूर-किसान-मध्य वर्ग-पूंजीपति वर्ग के सदस्यों का एक-दूसरे में रूपान्तरण की क्रिया चलती रहती है । अन्तर्विवाही समुदायों और उनके सदस्यों में यह गतिशीलता नहीं होती – दलित जातियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर लेने और समृद्ध हो जाने के बावजूद ब्राह्मण नहीं हो सकतीं । वर्ग बदल जाने के बाद भी वंचित जातियां अपनी जाति नहीं गंवातीं ।

अनेक छोटे-छोटे समुदाय भी अन्तर्विवाही होने के कारण हजारो वर्षों से अपना अस्तित्व कायम रखने में सक्षम हुए हैं (वैसे उनके अस्तित्व में बने रहने की और भी कई वजहें हैं) । हमारे देश में ही जरावा जन (और भी ऐसे ही कुछ जन) प्राचीनतम अन्तर्विवाही समुदाय हैं (लुप्त होने की कगार पर पहुंचा यह जन अब सरकारी संरक्षण में है) । जन से बाहर यौन-सम्बन्ध को लेकर उनके अत्यन्त सख़्त नियम हैं । बहरहाल, वे लम्बे काल तक अलग-थलग और जीवनयापन के आदिम तरीकों पर ही निर्भर रहे । दूसरी तरफ भारत के पारसियों को लीजिए । यह अन्तर्विवाही समूह मुख्यतः विकसित, समृद्ध नगरवासी समुदाय है । संख्या में कम होने के बावजूद सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा यह समुदाय आज अपने सदस्यों के बीच बढ़ रहे बहिर्विवाहों के कारण अपने अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है – यह आजकल इस समुदाय के अन्दर आत्म-मंथन और तीखे विवाद का विषय है ।

मनुष्य आम तौर पर कहीं भी सिर्फ मनुष्य की पहचान के साथ नहीं जीता । वह मानवेतर प्राणियों अथवा सृष्टि के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य (या फिर कल्पित ‘एलिएंस’) के संदर्भ में ही मनुष्य के रूप में अपनी पहचान के साथ उपस्थित होता है । अन्यथा वह किसी-न-किसी अपेक्षाकृत स्थिर या चंचल समुदाय के सदस्य के रूप में ही पहचाना जाता है – ज्यादातर अपेक्षाकृत स्थिर, अन्तर्विवाही समुदायों के सदस्य के रूप में । जातियों के साथ-साथ ज्यादातर पंथ-सम्प्रदाय, राष्ट्रीयताएं, जन, आदि अन्तर्विवाही समुदाय ही हैं और ऐसे सारे समुदाय इतिहास में सैकड़ों वर्षों से विद्यमान हैं ।

इसीलिए, जाति का खात्मा हमारी मनोगत सदिच्छा पर निर्भर नहीं करता । यह जाति के खात्मे के अमूर्त नारे अथवा मनोगत रोडमैप तैयार करने, और कुछ सकारात्मक किन्तु सतही कदम उठाने से खत्म नहीं होगा । जाति के खात्मे के अमूर्त नारे के पीछे ऐसी शक्तियां भी खड़ी हो जा सकती हैं जिनका उद्देश्य जाति-आधारित आरक्षण तथा सकारात्मक कदमों को कमजोर करना और निरस्त करना है ।

(झ) जाति के खात्मे की दिशा में पहला काम समुदायों के बीच समानता और सम्मान का सम्बन्ध कायम करना है । समानता और पारस्परिक सम्मान का सम्बन्ध कायम करने की पूर्वशर्त है ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को विशेष अवसर प्रदान करना और उनके पक्ष में पक्षपातपूर्ण सकारात्मक कदम उठाना ताकि सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी प्रभावकारी उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सके । जाहिर है, इन समुदायों के साथ हुए भेदभावों, उत्पीड़न और हिंसा तथा उन पर थोपी गई वंचनाओं के कारण यह एक दीर्घकालीन कार्य है । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति और भागीदारी जितनी बढ़ती जाएगी, समुदायों के टकरावों के बावजूद समानता और सम्मान का भी विकास होगा, अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या भी बढ़ेगी और जातीय पूर्वाग्रहों तथा जकड़नों में भी कमी आएगी । विभिन्न जातियों की आबादी, जातियों के बीच सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विषमताओं, आदि को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि यह प्रक्रिया कितनी जटिल, कितनी उथल-पुथल और टकराव भरी होगी । हम वर्तमान समय में इसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । इस प्रक्रिया में, जैसा कि कोई भी देख सकता है, जातीय उभारों और टकरावों के बावजूद अतीत की तुलना में इन अन्तर्विवाही जातीय समुदायों के बीच समानता और सम्मान का भाव (खासकर पिछड़े वर्गों और सवर्ण जातियों के बीच और कुछ हद तक दलित जातियों के प्रति भी) विकसित हुआ है – इससे भारतीय समाज अन्दरूनी तौर पर विभिन्न स्तरों पर समृद्ध हुआ है, न कि कमजोर । हाल के दशकों में हम भारतीय समाज की जिस अन्दरूनी गतिशीलता और सृजनशीलता का साक्षात् करते हैं, उसके पीछे एक बड़ी वजह प्राथमिक स्तर पर ही सही वंचित समुदायों का आंशिक सशक्तीकरण ही है । वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी शक्तियां इसलिए इस पूरे दौर की अत्यन्त नकारात्मक छवि पेश करती हैं ।

इसीलिए यह जरूरी है कि आरक्षण समेत विशेष अवसर प्रदान करने तथा वंचित समुदायों के हित में सकारात्मक पक्षपातपूर्ण कदम उठाने के कार्यक्रम को और अधिक कारगर ढंग से जारी रखा जाए और उसका विस्तार किया जाय । यहां यह याद रखना चाहिए कि आरक्षण का प्रावधान विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समय में लागू हुआ तथा सत्तर और अस्सी के दशक में ही इसने (प्रदेश स्तर पर) सार्विक रूप ग्रहण किया । केन्द्रीय स्तर पर तो यह सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में नब्बे के दशक में अमल में लाया गया तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में (जिसे अभी तक ठीक से अमली जामा पहनाना बाकी है) । ऐतिहासिक रूप से देखें तो इन क्षेत्रों में वंचित समुदायों का आना तो अभी शुरू ही हुआ है ।

इसके साथ यह तथ्य भी जोड़ दें कि जबसे इस तरह के कदमों की शुरुआत हुई तब से ही सवर्ण समुदाय के कट्टर रूढ़िवादी समूहों द्वारा इनके खिलाफ निरन्तर विष वमन जारी है – यह जघन्य अभियान सारतः वंचित समुदायों के खिलाफ घृणा फैलाने के अपराध की श्रेणी में आता है । भारत की हर समस्या के लिए – कुशासन, भ्रष्टाचार, आर्थिक गतिरोध, सामाजिक अवनति, अपराध, कार्यकुशलता में ह्रास, आदि के लिए – आरक्षण को दोषी ठहराया जाता है मानो आरक्षण-पूर्व भारत बड़ा ही सुशासित, विकसित, कार्यकुशल, भ्रष्टाचार तथा अपराध-मुक्त देश था ! इस घृणा प्रचार के पीछे दरअसल वंचित जातियों के प्रति सदियों पुरानी जातिवादी घृणा ही काम करती है । आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय, गरीबी-उन्मूलन और सामाजिक सशक्तीकरण का घालमेल कर और आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकार को ही चुनौती देने और खत्म करने की कोशिश की जाती है । आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरियों में और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी थोड़ी-बहुत जगह बनाने वाले वंचित समुदाय के लोगों को अपनी रोजमर्रे की जिन्दगी में, अपने कार्यस्थलों में अनेक अपमानजनक स्थितियों और तानों का शिकार बनाया जाता है । समाज में सदियों से गहरे रूप से जड़ जमा चुकी ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था के कारण आम तौर पर सवर्ण समुदाय के लोगों में वंचित समुदाय के प्रति घृणा का भाव संस्कार और आदत का रूप ले चुका है जिससे उनकी भाषा और आम बोलचाल-आचरण भी बुरी तरह दूषित हो चुका है । (समुदायों के बीच समानता और पारस्परिक सम्मान विकसित करने की राह में यह कितनी बड़ी बाधा है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।)

इन कदमों का बेहद सकारात्मक पक्ष भी हम आसानी से रेखांकित कर सकते हैं । कुछ ही क्षेत्र में सही इन वंचित समुदायों की उपस्थिति और सक्रिय भागीदारी के कारण (ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के कारण आई) भारतीय समाज की जड़ता टूटी और उसमें एक परिवर्तनकारी गतिशीलता देखी जा सकती है । इन समुदायों के बीच से सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक तथा बौद्धिक क्षेत्र में सक्रिय, तेज-तर्रार, आत्म-सम्मान से लैस युवाओं की नई पीढ़ी सामने आई है – इनमें अच्छी-खासी संख्या इन समुदायों से आई युवतियों की है जो इस उपलब्धि को और भी मूल्यवान बना देती है । उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इन समुदायों के युवाओं के कदम रखते ही उच्च शिक्षा-संस्थानों की जड़ता टूटने लगी है और उनमें भी एक सामाजिक-परिवर्तनकारी गतिशीलता दिखाई देने लगी है ।

इसलिए सवाल इन कदमों को और गहराई तथा विस्तार देने की है । इसका मतलब तो सर्वप्रथम यह है कि प्राप्त अधिकारों और प्रावधानों का कारगर क्रियान्वयन तथा इस क्रियान्वयन के लिए पारदर्शी, जवाबदेह और जिम्मेवार प्रणाली की स्थापना – यह सुशासन की आवश्यक शर्त है । कहने की जरूरत नहीं कि लम्बे समय तक प्रशासनिक मशीनरी पर सवर्ण वर्चस्व के कारण (जो अब भी काफी हद तक कायम है) सरकारी सेवाओं तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के प्रावधानों को लागू करने में न सिर्फ अनिच्छा रही है, बल्कि पर्याप्त मात्रा में उसमें बाधा डालने, फर्जीवाड़ा करने, बैकलॉग बनाये रखने, ‘योग्य’ उम्मीदवार न मिलने का बहाना बनाकर उसे पुनः अनारक्षित श्रेणी में डाल देने, आदि की शिकायतें काफी आम रही है । इसके अलावा, ऐसे उम्मीदवारों को परेशान तथा प्रताड़ित किये जाने के कारण वंचित समुदायों के कई प्रतिभाशाली युवाओं को आत्महत्या तक का कदम उठाना पड़ा है (जिसे दरअसल सांस्थानिक हत्या ही कहा जा सकता है) ।

डिजिटल युग में आरक्षण को केन्द्र कर एक पारदर्शी सूचना-केन्द्र भी अब तक विकसित नहीं किया गया है – एक ऐसा केन्द्र जहां कोई भी आरक्षण से सम्बन्धित सारी सूचनाएं हासिल कर सके । इन समुदायों से सम्बन्धित आयोगों के पास भी इस तरह का कोई सूचना-केन्द्र नहीं है । (जाति-जनगणना के आंकड़ें भी अब तक जारी नहीं किये गये हैं ।) सूचनाओं के अभाव में न सिर्फ वंचित समुदाय के युवाओं को वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं हो पाती, उन्हें दर-दर भटकना और अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि वर्चस्वशाली समुदाय को भी अनर्गल अफवाह फैलाने तथा दुष्प्रचार का मौका मिलता है ।

प्राप्त अधिकारों के कारगर कार्यान्वयन से आगे जाकर सामाजिक आन्दोलन की कुछ मांगें लम्बे समय से लंबित हैं; जैसे, आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 69% करना; निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान लागू करना; वंचित समदायों, खासकर महिलाओं, दलितों और आदिवासियों पर हिंसक हमलों तथा जनसंहारों के मामलों का त्वरित निष्पादन और कठोर दण्ड की व्यवस्था; प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान; वंचित समुदायों के लिए गठित आयोगों को और अधिक अधिकार-सम्पन्न करना; आर्थिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना और इसके लिए गठित निगमों की आबंटित राशि में पर्याप्त वृद्धि करना; पृथक शिक्षण तथा प्रशिक्षण संस्थाओं का गठन करना, तथा उच्च शिक्षा-संस्थानों में इन छात्रों के शोध-अनुसंधान को विशेष वित्तीय और अधिसंरचनात्मक सुविधाएं प्रदान करना; इन समुदाय के नायकों, उनके इतिहास तथा उनके सामाजिक आन्दोलनों को पाठ्य-पुस्तकों और सामाजिक जीवन में पर्याप्त स्थान देना; आदि । न्यायपालिका, मीडिया, विज्ञान-तकनीक, कला-संस्कृति, उद्यम-व्यवसाय के क्षेत्र में इन वंचित समुदायों की उपस्थिति अन्यन्त सीमित है, इसीलिए आगे के दौर में इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में इन समुदायों की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना सामाजिक आन्दोलन के समक्ष भारी चुनौती होगी । कुल मिलाकर, सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में इन समुदायों की सक्रिय, सचेत भागीदारी ही सदियों पुरानी भारतीय समाज की जड़ता को तोड़ने, उसमें एक परिवर्तनकारी गतिशीलता की लहर पैदा करने, भारतीय समाज की अन्तर्निहित सृजनात्मकता को उन्मुक्त करने, समुदायों के बीच समानता और सम्मान का सम्बन्ध विकसित करने, अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने तथा कालक्रम में जाति के खात्मे का मार्ग प्रशस्त करेगी ।

मनुवाद के नये संस्करण का कारगर जवाब सामाजिक न्याय का नया संस्करण ही हो सकता है ।

कहा जाता है कि जाति-आधारित आरक्षण के कारण जातिवाद काफी बढ़ गया है और यह सामाजिक ताने-बाने को अराजकता की हद तक ले जाकर क्षत-विक्षत कर रहा है जिससे भारत की सामाजिक-आर्थिक प्रगति बाधित हो रही है । घटनाओं के चुनिन्दा संकलन तथा उसको बार-बार दुहराने के जरिये दरअसल वर्चस्वशाली मीडिया आरक्षण को केन्द्र कर ऐसी ही छवि बनाने में लगा है, ताकि आरक्षण बनाम ‘योग्यता’ का बहस चलाकर तथाकथित ‘योग्यता’ के पक्ष में आरक्षण को येन-केन-प्रकारेण कमजोर करने का माहौल बनाया जा सके । ‘जातिवाद काफी बढ़ गया है’ कहनेवाले प्रायः ऐसे उग्र जातिवादी तत्व ही हैं जिन्हें जातिवाद के बढ़ने से उतनी चिन्ता नहीं, जितना सामाजिक जीवन में वंचित समुदायों की बढ़ती भागीदारी और दावेदारी से ।

मानवजाति चूंकि समुदायों में बंटी है, इसीलिए राजनीतिक संघर्षों, खासकर चुनावों के दौरान समुदाय-आधारित गोलबंदी (दुनिया भर में) कोई नई बात नहीं है । वैसे प्रायः सभी जातियों के लोग कमोबेश अनेक दलों और विचारधाराओं में बंटे होते हैं, इसीलिए किसी एक दल के पक्ष में किसी समुदाय या समुदायों के गठबंधन की शत-प्रतिशत गोलबंदी (कुछेक अपवादों या असाधारण स्थितियों को छोड़कर) शायद ही संभव हो पाती है । जो लोग ‘जातिवाद के उभार’ से परेशान दिखते हैं, उन्हें ‘उच्च’ जातियों के अस्सी फीसदी का किसी एक गठबंधन को वोट देना गलत नहीं लगता, लेकिन वंचित समुदायों की 40, 50 या 60 प्रतिशत गोलबंदी भी ‘जातिवादी उभार’ के रूप में नागवार लगती है ।

समुदायों की इस राजनीतिक गोलबंदी और तीखे संघर्षों के बीच हम इस बात पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि कौन सा दल या दलों का गठबंधन वंचित समुदायों की मांगों और हितों को आगे बढ़ाता है, कौन वंचित समुदायों की राजनीतिक गोलबंदी का प्रयोग कर सत्ता हासिल करने के बाद (उनके अधिकारों का भले विरोधी न हो पर) खुद सत्ता में बने रहने के लिए अवसरवादी समझौतों में लिप्त होकर वंचितों के हित में कदम उठाने से परहेज करता है, और कौन सामयिक रूप से उनकी राजनीतिक गोलबंदी का उपयोग कर सत्ता हासिल करने के बाद उन्हें अपने अर्जित अधिकारों से भी वंचित कर उग्र राष्ट्रवादी या धार्मिक उन्मादी क्रियाकलापों की ओर मोड़ देना चाहता है । कुल मिलाकर, समुदायों की बहुलता वाले हमारे देश में यह राजनीतिक संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहेगा ।

कोई चीज जब स्थायित्व ग्रहण कर लेती है तो हर कोई उसका लाभ उठाना चाहता है । आरक्षण के साथ भी यही बात है । दलितों-आदिवासियों-पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था जैसे-जैसे हमारे सामाजिक जीवन का स्थायी अंग बनती गई, वैसे-वैसे आरक्षण से वंचित दबंग समुदाय भी इस प्रक्रिया का अंग बनने की कोशिश करने लगे । (यह अलग बात है कि ऐसी कुछ वंचित जातियां भी हो सकती हैं जो आरक्षित जातियों की सूची से बाहर रह गई हों, और जो इसको लेकर आन्दोलनरत हों । यहां हम इन समुदायों की बात नहीं कर रहे हैं ।) आरक्षण के क्रियान्वयन में बाधा उपस्थित करना, फर्जीवाड़ा करना, अपनी राजनीतिक-प्रशासनिक स्थिति का फायदा उठाकर उसे स्थगित करना, आदि, आदि – इन सब के अलावा, कुछेक दबंग समुदायों द्वारा खुद को पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जनजाति घोषित कर अपने लिए पृथक आरक्षण के लिए उग्र हिंसक आन्दोलन का सहारा लेना, और इन आन्दोलनों को पहले हवा देकर और फिर उनकी पृष्ठभूमि में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान को ही बदल देने या कमजोर करने की कोशिश करना, अन्ततः आर्थिक आधार पर सवर्ण जातियों के लिए चौदह या दस प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करवा लेना – वंचित समुदायों के सामाजिक न्याय के आन्दोलन के खिलाफ न्याय-विरोधी शक्तियों और दलों के इन प्रयासों ने हाल के वर्षों में काफी आक्रामक रूप ग्रहण कर लिया है । (एक बार इस तरह की व्यवस्था कर देने के बाद, किसी भी दल के लिए उन्हें वापस लेना कितना मुश्किल होगा, इसे इस तरह की शक्तियां भली-भांति जानती हैं ।)

दूसरी तरफ, यह भी सही है कि आरक्षण की व्यवस्था लागू होने के बाद से विभिन्न प्रदेशों में आरक्षण का लाभ उठानेवाली कुछ बड़ी जातियों तथा अतिपिछड़ी और दलित जातियों के बीच खाई चौड़ी हुई है (इसका एक कारण तो यह है कि ऐतिहासिक रूप से विभिन्न जातियों की तुलनात्मक सामाजिक स्थिति में फर्क रहा है) । वैसे इन बड़ी जातियों और अन्य जातियों के बीच राजनीतिक गोलबंदियों के आरम्भिक दौर से ही खट्ठा-मीठा सम्बन्ध रहा है । इस पृष्ठभूमि में, अतिपिछड़े तथा कुछ दलित तबके आरक्षण के प्रावधान में भी अपने लिए अलग हिस्सा सुरक्षित कर लेना चाहते हैं । (यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि सामाजिक जीवन के विभिन्न हिस्सों में इन बड़ी जातियों की उपस्थिति और भागीदारी अब भी काफी कम है, इसलिए उनके लिए आरक्षण की जरूरत लम्बे समय तक बनी रहेगी ।) फिर भी आरक्षण तथा सकारात्मक कदम उठाने के क्रम में उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखना अपेक्षित है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई कानून बनने (वह भी शिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में) और सामाजिक रूप से उसके धरातल पर उतरने में तथा उसकी सामाजिक उपलब्धि दिखने में काफी वक्त लगता है । इस लिहाज से हम, खासकर उत्तर भारत में प्राथमिक अवस्था में ही हैं ।

(ञ) जातियों के खात्मे का एक रास्ता धर्मान्तरण का भी है । हिन्दू धर्म का परित्याग कर एक ऐसे धर्म को अपनाना जिसमें जाति-प्रथा न हो । इस संदर्भ में निम्नलिखत तथ्यों पर गौर करना चाहिए :

1. समुदायों का किसी धर्म या पंथ/सम्प्रदाय से रिश्ता ऐतिहासिक रूप से विकसित होता है और कालक्रम में वह उनके रोजमर्रे के जीवन का आवयविक अंग बन जाता है । उसके साथ सम्बन्ध विच्छेद आसान नहीं होता । एक बार जीवन का आवयविक अंग बन जाने के बाद वह उन्हें अन्य अनेक सम्बन्धों, क्रियाकलापों तथा कर्मकाण्डों-मिथकों के साथ जोड़ देता है ।

2. जहां इस बात के उदाहरण मिलते हैं कि उत्पीड़ित समुदाय अनेक अवसरों पर अपने उत्पीड़कों के खिलाफ बगावत के रूप में उत्पीड़कों के धर्म/पंथ/सम्प्रदाय से भिन्न धर्म/पंथ/सम्प्रदाय अपना लेते हैं या फिर किसी नये धर्म-पंथ-सम्प्रदाय की नींव रखते हैं, वहीं इतिहास में इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण हैं कि विद्रोहों और टकरावों के बावजूद उत्पीड़क और उत्पीड़ित एक ही धर्म-पंथ-सम्प्रदाय में बने रहते हैं । भारत में ही कुछ हद तक विभिन्न अंचलों में दोनों तरह के उदाहरण कमोबेश देखे जा सकते हैं । एक ही पंथ-सम्प्रदाय के अन्दर शासक-शासित, उत्पीड़क-उत्पीड़ित प्रायः एक-दूसरे के साथ मिली-जुली अवस्था में लम्बे काल तक बंधे रहते हैं । अमेरिका में दास और दास मालिक, अफ्रीका में रंगभेद/नस्लवाद के शिकार और उस पर अमल करनेवाले एक ही पंथ-सम्प्रदाय से जुड़े रहे, भले ही अफ्रीकी तथा अफ्रीकी-अमेरिकी समुदायों ने अपने लिए कुछ खास चर्च कायम कर लिए । (यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ईसाई मत के साथ अफ्रीकी जनों के जुड़ाव के पीछे बड़ी भूमिका औपनिवेशिक काल के जबरन धर्मान्तरण की भी थी ।) दासों के विद्रोह, गृहयुद्ध, नागरिक अधिकार आन्दोलन, तथा छिटपुट धर्मान्तरण की घटनाओं के बावजूद अफ्रीकी-अमेरिकी अब भी कमोबेश ईसाई मत के साथ ही जुड़े हैं । दक्षिण अमेरिकी देशों में देशज आबादी के साथ भी यही बात है । वहां ईसाई मत के भीतर ही ‘लिबरेशन थियोलॉजी’ का विकास हुआ जिससे कई प्रमुख पादरी भी जुड़े थे ।

3. हिन्दू धर्म मूलतः एक विकेन्द्रित धर्म रहा है जिसमें देवी-देवताओं, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों, आदि की पर्याप्त विविधता रही है (हालांकि इसे भी एक केन्द्रीकृत धर्म में बदलने की पुरजोर कोशिश की जा रही है) । समय-समय पर इसके अन्दर भी कई सुधार आन्दोलन चलते रहे हैं जिसमे जाति-प्रथा का विरोध प्रमुख विषय रहा है और इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप विभिन्न अंचलों में अनेक सम्प्रदाय भी बनते रहे हैं । अनेक प्रमुख देवी-देवताओं के साथ, उनके मिथकों के साथ शूद्र कृषक जातियों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और यह सब इन जातियों के रोजमर्रे के जीवन, कर्मकाण्ड, किस्सों-मुहावरों का अंग बन गया है । दरअसल, हिन्दू धर्म के कायम रहने में सबसे अहम् भूमिका इसकी इसी विकेन्द्रीयता की, तथा इन्हीं शूद्र कृषक-कारीगर-सेवक जातियों की रही है । अगर हम विभिन्न जातियों के रोजमर्रे के कर्मकाण्डीय जीवन, उनकी बोलचाल, रहन-सहन, आदि को गौर से देखें तो हमें इसका सहज ही अंदाजा लग जाएगा ।

साथ ही, हिन्दू मतावलम्बियों की कुल आबादी को ही नहीं, बल्कि प्रमुख शूद्र जातियों की आबादी को ध्यान में रखिये । इन जातियों की आबादी यूरोप और दुनिया के अनेक देशों की आबादी के बराबर है ।

4. भारतीय कृषि समाज में जाति-प्रथा ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि धर्मान्तरण के बावजूद दलित जातियों को अपने नये धर्म में भी जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है । यही कारण है कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित समुदायों को भी इन भेदभावों के खिलाफ आन्दोलन करना पड़ रहा है और अपने लिए आरक्षण की मांग करनी पड़ रही है । पिछड़े वर्गों की सूची में भी कई जातियां दूसरे धर्मों के पिछड़े समुदायों की हैं ।

पिछले कुछ दशकों में दलित आन्दोलन को कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक उपलब्धियां हासिल होने के बावजूद बौद्ध धर्म में दलितों का धर्मान्तरण कोई आन्दोलन की शक्ल नहीं ले सका है और सांस्थानिक बौद्ध धर्म में नव-बौद्धों की हालत भी बेहतर नहीं कही जा सकती । धर्म परिवर्तन के बाद यह समुदाय सांस्थानिक बौद्ध धर्म का हिस्सा बन जाता है । बौद्ध धर्म का ऐतिहासिक रूप से इस्लाम के साथ जो सम्बन्ध रहा है और हाल के दिनों में कुछ घटनाओं (खासकर बर्मा के रोहिंगिया मुसलमानों पर ढाये गये जुल्म) को ध्यान में रखें तो सवर्ण हिन्दुत्व की शक्तियों द्वारा सांस्थानिक बौद्ध धर्म को अपने पक्ष में कर लेने की प्रबल संभावना बनती है ।

कुल मिलाकर, धर्मान्तरण की इन कोशिशों के बावजूद, तथ्य यह है कि दलित-पिछड़ी जातियों की विशाल बहुसंख्या हिन्दू धर्म का हिस्सा बनी रहेंगी । इसलिए इन मामलों में अपनी मनोगत सदिच्छाओं के आधार पर कार्यक्रम बनाने के बजाए, हमें वस्तुगत यथार्थ को ध्यान में रखकर समुदायों के बीच समानता और पारस्परिक सम्मान विकसित करने के उस कार्यक्रम को ही गहराई और विस्तार देना चाहिए जिसका हम पहले जिक्र कर चुके हैं ।

वर्तमान चुनौतियां

पिछले दो वर्षों से केन्द्र में जो आरएसएस-भाजपा की सरकार सत्तारूढ़ है, उसका लक्ष्य भारत को सवर्ण जातियों के वर्चस्ववाला हिन्दू राष्ट्र बनाना है – इस दिशा में वह सत्ता में आने के साथ ही अपने अनुषंगी संगठनों के साथ पूरे जोर-शोर से लगी हुई है । वह भाजपा को 2014 के आम चुनावों में मिले पूर्ण बहुमत का पूरा फायदा उठाना चाहती है । अनेक प्रदेशों में पहले से ही उसकी सरकारें बनी हुई हैं ।   स्वतंत्रता के बाद यह भारतीय राजनीति का एक नया दौर है ।

यह पार्टी भारतीय समाज की ब्राह्मणवादी, पुरातनपंथी, अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-विरोधी, विज्ञान-विरोधी, अनुदारवादी विचार-प्रथाओं और परम्परा की हिमायती है – न्याय के आन्दोलनों की परम्परा से, राष्ट्रीय आन्दोलन, सामाजिक आन्दोलन, नारी आन्दोलन, आदिवासी आन्दोलन, मजदूर-किसानों के आन्दोलन, आदि से उसका कोई रिश्ता-नाता नहीं रहा है, बल्कि वह ऐसे आन्दोलनों के विरोध में ही हमेशा खड़ी रही है । जनतांत्रिक संस्थाओं में उसकी आस्था नहीं है और अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए तथा अपने पक्ष में ध्रुवीकरण को (खासकर चुनावों के वक्त) मूर्त रूप देने के लिए वह अफवाहों, दुष्प्रचारों, झूठ और घृणा के प्रचार, हिंसा, जनसंहार, आदि का सहारा लेने को तत्पर रहती है । इन कार्यों को अंजाम देने के लिए उसके पास अपने प्रशिक्षित स्वयंसेवक तथा पंचमांगी दस्ते हैं । अपने करीब 91 साल के सफर में आरएसएस ने देशव्यापी पैमाने पर स्वयंसेवकों की अपनी फौज खड़ी की है, और इसकी राजनीतिक शाखा – जनसंघ और भाजपा – ने गैर-कांग्रेसवाद के दौर में विभिन्न राजनीतिक गठबंधनों का हिस्सा बनकर उसका भरपूर लाभ उठाया है तथा विभिन्न दलों, संगठनों, संस्थाओं, आदि में महत्वपूर्ण सम्पर्क विकसित कर लिए हैं । समय-समय पर कांग्रेस के साम्प्रदायिक कदमों को भी आरएसएस का भरपूर समर्थन हासिल हुआ । न्याय की शक्तियों के बिखराव और अवसरवादिता की अवस्था में कांग्रेस के पतन का सबसे बड़ा राजनीतिक फायदा उठाने में इसे ही कामयाबी मिली है । बहरहाल, यहां हमारा इरादा इसके इतिहास में जाने का नहीं है । हम यहां इसके दो सालों के कामकाज का भी लेखा-जोखा नहीं रखने जा रहे ।

आर्थिक क्षेत्र में यह कॉरपोरेट तथा विदेशी पूंजी को मुख्य चालक शक्ति मानती है और इस कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-आधारित विकास की राह में भारत की बहुसंख्यक अवाम – मजदूर, किसान, आदिवासी, और अन्य वंचित, अल्पसंख्यक समुदायों को प्रमुख बाधा के रूप देखती है । इस कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-आधारित ‘राष्ट्र-निर्माण’ के लिए वह इन समुदायों के अर्जित अधिकारों की बलि चाहती है । इस पूंजी-निवेश का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों में ढील दी जा रही है ।

नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों का यह दूसरा दौर है । पहला दौर जहां उपभोक्ता क्षेत्र से सम्बन्धित था, वहीं दूसरा दौर उत्पादन के कारकों (फैक्टर्स – भूमि, श्रम तथा पूंजी) के क्षेत्रों से सम्बन्धित है । यह दौर किसानों और आदिवासियों से कॉरपोरेट घरानों के हाथों में जमीन के हस्तान्तरण का, तथाकथित श्रम ‘सुधारों’ के नाम पर मजदूरों के अधिकारों में कटौती करने तथा उन्हें कॉरपोरेट घरानों की मनमर्जी पर छोड़ देने का, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों, बैंक, बीमा कम्पनियों, आदि को विदेशी पूंजी के लिए खोलने, पूंजी बाजार के नियमन को ढीला करने तथा विदेशी पूंजी-निवेश को सुगम बनाने का दौर है । यह सब करने के लिए वह मजदूरों-किसानों-आदिवासी समुदायों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है । (यहां याद रखना चाहिए कि अनेक आर्थिक-सामाजिक मामलों में उसकी तथा कांग्रेस की नीतियों में कोई खास फर्क नहीं है । इनमें से कई कदम कांग्रेस की सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों का ही और भी आक्रामक रूप में जारी रूप हैं ।)

अभिव्यक्ति की आजादी समेत आम जनवादी अधिकारों के प्रति इसका रवैया नकारात्मक है और इन अधिकारों पर लगातार हमले जारी हैं । सार्विक वयस्क मताधिकार के मामले में भी इसकी प्रतिगामी स्थिति इसके राज्य सरकारों द्वारा उठाये गये कदमों से समझी जा सकती है । एक ओर शिक्षा की अर्हता को जोड़ना और दूसरी ओर (मतदान को अनिवार्य कर) मतदान नहीं करने को दंडनीय अपराध घोषित करना – दोनों सार्विक वयस्क मताधिकार की मूल भावना का उल्लंघन है । गैर-जनतांत्रिक, गैर-संवैधानिक मार्ग अपनाने के उसके उतावलेपन की सूची इतनी लम्बी है कि उसका संक्षिप्त विवरण देना भी यहां संभव नहीं – पूर्ण बहुमत के बावजूद भूमि-अधिग्रहण के लिए बार-बार अध्यादेश का सहारा लेना, राष्ट्रपति शासन लगाने की तत्परता, विपक्षी प्रदेश सरकारों की राह में तरह-तरह से अड़चनें खड़ी करना, उसके मंत्रियों तथा नेताओं द्वारा भड़काऊ भाषण देकर अपने सहयोगी संगठनों को हिंसक कार्रवाईयों के लिए उकसाना, शिक्षण-संस्थाओँ में पुलिस कार्रवाई और उनकी स्वायत्तता का हनन, छात्रों के आन्दोलनों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित कर उनका  दमन, विरोधियों से अपने पंचमांगी दस्तों के जरिये निपटना, आदि, आदि, की यह सूची ही उसकी गैर-जनतांत्रिक मानसिकता का परिचय देने के लिए काफी है ।

स्त्री-अधिकारों के प्रति इस दल का नजरिया ब्राह्मणवादी-पुरातनपंथी है । वह स्त्री-शरीर और स्त्री-मन के पितृसत्ताक नियमन की हिमायती है – यह नियमन इसके पंचमांगी दस्तों को स्त्रियों के खिलाफ शारीरिक हिंसा के लिए उकसाता है ।

सामाजिक आन्दोलनों के जरिये वंचित समुदायों ने जो अधिकार हासिल किये हैं (खासकर आरक्षण का अधिकार), उसे कमजोर करने तथा आर्थिक आधार पर सवर्ण समुदायों को आरक्षण के दायरे में लाने पर यह शासक दल आमादा है । न्याय के आन्दोलनों में जहां कहीं भी छोटी-मोटी दरारें हैं, उन्हें चौड़ा करने में, इन आन्दोलनों के इतिहास में या वर्तमान में जो भी नायक उपेक्षित रह गये हैं या जो भी घटना हाशिये पर रह गई है या भुला दी गई है, उसे उभारने और उसका लाभ लेने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है । अपने आक्रामक बहुसंख्यकवाद के हित में खासकर दलितों तथा अतिपिछड़ों के कुछ हिस्सों को अपने पक्ष में करने की उसने मुहिम छेड़ रखी है – मुस्लिम-विरोधी ध्रुवीकरण में वह इन समुदायों को गोलबंद कर अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहता है । कुछ ऐतिहासिक दलित-पिछड़े नायकों का वह दलित-पिछड़े नायक के रूप में नहीं, बल्कि ‘मुस्लिम-विरोधी’ नायक के रूप में उनका ‘पुनराविष्कार’ कर रहा है ।

भिन्न यौन रुझानों वाले समुदायों के प्रति वह समानता और सम्मान से पेश आना तो दूर, (ऐसे रुझानों को विकृति या बीमारी के रूप में चिह्नित कर) उन्हें दंडित करने या उनका ‘इलाज’ करने की हिमायत करता है ।

स्वच्छता अभियान में भी इसके निशाने पर पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों का उल्लंघन करनेवाले कॉरपोरेट घराने और नगर-प्रशासन की अक्षमता नहीं, बल्कि आम मेहनतकश समुदाय है । पर्यावरण-संरक्षण तथा प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों को सख़्त बनाना और उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करना, नगर-निकायों की वित्तीय हालत सुधारना, नगर-निकाय के कर्मचारियों (जिनमें से अधिकांश मानदेय पर काम करते हैं, और इस मामूली मानदेय का भुगतान भी कई-कई महीनों बाद किया जाता है) के वेतनमान, सेवाशर्तों तथा जीवन-स्थितियों में सुधार, सफाई के कार्य में आधुनिक मशीनों का प्रयोग, कचरा-प्रबंधन की आधुनिक प्रविधि का इस्तेमाल, आदि (जिन्हें केन्द्र या राज्य सरकारें ही कर सकती हैं, कोई व्यक्ति या संगठन नहीं) की जगह आम मेहनतकश लोगों, खासकर मेहनतकश महिलाओं को गंदगी के लिए जिम्मेवार ठहराना दरअसल उनका घोर अपमान है और मेहनतकशों के प्रति ब्राह्मणवादी नजरिये का ही प्रमाण है ।

विदेश नीति के क्षेत्र में यह शासक वर्ग अमेरिका के साथ सामरिक गठबंधन में बंधने की ओर निर्णायक कदम बढ़ा चुका है ।

बहरहाल, इसका सबसे खतरनाक कार्यक्रम अल्पसंख्यक समुदायों (खासकर मुसलमानों) को लेकर है । इस समुदाय के प्रति इसका रवैया शत्रुतापूर्ण है । यह दल मुस्लिम समुदाय के खिलाफ निरन्तर दुष्प्रचार करने, अफवाह फैलाने तथा विभिन्न उपायों से उसके खिलाफ हिंसा भड़काने की जुगत में रहता है । अपने आक्रामक बहुसंख्यकवाद के तहत वह इस समुदाय के खिलाफ (खासकर चुनाव के समय और आम तौर पर हमेशा) ध्रुवीकरण की कोशिश में लगा रहता है ।

सेक्युलर जनतांत्रिक देशों में भी बहुसख्यक समुदाय का सदस्य होना उसकी नागरिकता में अतिरिक्त मूल्य जोड़ देता है – इस मूल्य-संवर्धित नागरिकता के अपने फायदे तो हैं ही । सत्ता और सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, इस समुदाय की उपस्थिति और भागीदारी वैसे ही काफी कम रही है । इस शासक दल का उद्देश्य तो उसे इस भागीदारी से वंचित कर उसे दोयम दर्जे के नागरिक की स्थिति में धकेल देना है ।

इस समुदाय के खिलाफ चलाये जा रहे दुष्प्रचार और आक्रामक बहुसंख्यकवाद का इस दल को फायदा भी हुआ है – हिन्दू मन (खासकर हिन्दू युवा मन) के साम्प्रदायीकरण में उसे कुछ हद तक कामयाबी मिली है, समय-समय पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में भी वह विभिन्न क्षेत्रों में सफल हुआ है । उसके आक्रामक बहुसंख्यकवाद के सामने अन्य प्रमुख दलों ने भी कमोबेश रक्षात्मक रवैया अपना लिया है और ध्रुवीकरण की संभावना से आशंकित होकर इस समुदाय को उनके वाजिब हक देने और उनके पक्ष में सकारात्मक कदम उठाने से वे या तो परहेज करते हैं या आनाकानी करते हैं । ऐसी स्थिति में इस सरकार ने मुस्लिम समुदाय की जिस तरह घेराबंदी की है, उससे इस समुदाय के, खासकर उसके युवाओं के खुद अपने ही देश में पराया अनुभव करने के मनोभाव (एलिएनेशन) को समझा जा सकता है । भारतीय समाज के इस महत्वपूर्ण घटक का यह परायापन इस समाज को दूरगामी तौर पर न सिर्फ कमजोर करेगा, बल्कि उसे एक खतरनाक विघटन की ओर ले जाएगा । जाहिर है, यह समस्या आज नहीं पैदा हुई है, लेकिन इसने आज गंभीर रूप धारण कर लिया है । आतंक के खिलाफ युद्ध के नाम पर विश्वव्यापी पैमाने पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जो माहौल बनाया जा रहा है, उस पृष्ठभूमि में यह और भी गंभीर हो गया है । अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन, आदि अनेक देशों में अपनी सहोदर शक्तियों के आक्रामक उत्थान से इस दल को काफी बल मिला है ।

बहरहाल, इस बहुसंख्यकवाद की काट न्याय की शक्तियों की एकजुटता में है – जहां ये शक्तियां सामान्य रूप में भी एकजुट रहीं, वहां इन विघटनकारी शक्तियों को मुंह की खानी पड़ी है । आक्रामक बहुसंख्यकवाद के जरिये जहां संभव हो, वहां जनतांत्रिक रास्ते ही लाभ उठाना, और जहां संभव न हो वहां गैर-जनतांत्रिक, गैर-संवैधानिक तरीकों का सहारा लेना – यह इस दल की नीति रही है । बहरहाल, भारतीय समाज की विविधता, समाज में न्याय की प्रचलित परम्परा, आदि इन शक्तियों का क्या भविष्य तय करती है, यह हम नहीं जानते । लेकिन इन शक्तियों के पराभव को स्वतःस्फूर्तता पर नहीं छोड़ा जा सकता ।

कुल मिलाकर, ऊपर हमने अन्याय के जिन प्रमुख रूपों का जिक्र किया है, वर्तमान शासक दल उन सभी रूपों की हिमायती है और इसने वंचित समुदायों, वर्गों, आदि के अर्जित अधिकारों को कमजोर करने और उसे खत्म करने की दिशा में कदम उठाना शुरु कर दिया है । यह स्थिति न्याय की सभी शक्तियों की एकजुटता का वस्तुगत आधार प्रदान करती है । न्याय की सम्मिलित ताकत के जरिये ही इस विभाजनकारी, कॉरपोरेट-विदेशी पूंजी-परस्त, सवर्ण ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व की शक्तियों को शिकस्त दी जा सकती है । अधिकारों की वापसी अथवा उन्हें कमजोर किया जाना आन्दोलनों की स्थिति की बहाली है । सवाल इन आन्दोलनों का एक साझा नेतृत्व-केन्द्र विकसित करने का है ।

अप्रैल-मई, 2016

कौतुक के पर्वत का सैलानी

कौतुक के पर्वत का सैलानी

लुडविग विट्गेन्स्टाइन की दुनिया

प्रसन्न कुमार चौधरी

1. व्यक्ति और कृति

संसार और जीवन एक हैं । मैं ही अपना संसार हूँ ।

लुडविग विट्गेन्स्टाइन (‘ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलोसॉफ़िकस’, 5.621, 5.63) ।

निश्चय ही यह अब तक प्रकाशित दार्शनिक कृतियों में सबसे पहेलीनुमा रचनाओं में से है : तर्कशास्त्रियों के लिए कुछ ज्यादा ही रहस्यात्मक, रहस्यवादियों के लिए कुछ ज्यादा ही तकनीकी, दार्शनिकों के लिए कुछ ज्यादा ही काव्यात्मक, तो कवियों के लिए कुछ ज्यादा ही दार्शनिक । यह ऐसी रचना है जो पाठकों को शायद ही कोई अतिरिक्त गुंजाइश देती है, और लगता है, इसे जानबूझ कर इस तरह रचा गया है कि इसे समझना वश के बाहर हो ।

रे मोंक (‘हाउ टू रीड विट्गेन्स्टाइन’) ।

यह जून 1929 के एक दिन का वाक़या है । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज के एक कक्ष में तीन लोग गंभीर मुद्रा में बैठे थे  – सामने मेज पर एक शोध-प्रबन्ध रखा था । अवसर था इसी शोध-प्रबन्ध पर फैलोशिप के लिए मौखिक परीक्षा का – परीक्षार्थी थे लुडविग विट्गेन्स्टाइन (1889-1951) और परीक्षक थे जाने-माने दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल (1872-1970) और जी ई मूर (1873-1958) । विट्गेन्स्टाइन तब तक खुद एक प्रतिभाशाली दार्शनिक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे । शोध-प्रबन्ध भी क्या था ? लुडविग की 1922 में प्रकाशित पुस्तक ‘ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलोसॉफ़िकस’ को शोध-प्रबन्ध के रूप में स्वीकार कर लिया गया था । दोनों परीक्षक विट्गेन्स्टाइन को इस किताब के प्रकाशन के काफी पहले से जानते थे और विभिन्न रूपों में किताब की रचना तथा प्रकाशन-प्रक्रिया से भी जुड़े रहे थे । किताब की प्रस्तावना तो खुद रसेल ने ही लिखी थी । खैर, थोड़ी-बहुत टीका-टिप्पणी के बाद रसेल खामोश थे – मूर ने तो पहले से ही चुप्पी साध रखी थी । थोड़ी देर की खामोशी के बाद विट्गेन्स्टाइन उठे और अपने दोनों परीक्षकों की पीठ थपथपाते हुए उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, ‘चिन्तित होने की जरूरत नहीं है, मुझे पता है आप इसे कभी समझ नहीं पाएँगे’ ।

बहरहाल, बाद में इस शोध-प्रबन्ध के बारे में परीक्षक के रूप में अपनी रिपोर्ट में मूर ने लिखा : विट्गेन्स्टाइन का शोध-प्रबन्ध, मेरे निजी विचार में, एक असाधारण प्रतिभा की कृति है । खैर, जो भी हो, कैम्ब्रिज में दर्शनशास्त्र की डॉक्टरेट (पीएच डी) की डिग्री के लिए जो जरूरी मानक हैं, उन्हें तो यह निश्चय ही भली-भाँति पूरा करता है ।

इस प्रकार, जनवरी 1930 से विट्गेन्स्टाइन कैम्ब्रिज में बतौर अध्यापक पढ़ाने लगे और आगे सत्रह सालों तक (1947 तक) वहीं रहे (फैलोशिप की अवधि वैसे 1936 में ही समाप्त हो गई थी, लेकिन अध्यापक के रूप में उनकी सेवा का विस्तार हो गया था) । शुरुआत निजी तौर पर उनके लिए दुःखद रही – जनवरी 1930 में अपनी पहली कक्षा से ठीक एक दिन पहले उनके अंतरंग युवा मित्र फ्रैंक रैमसे (1903-1930) की मृत्यु हो गई । रैमसे ने ही सी के ऑग्डेन की देखरेख में ‘ट्रैक्टेटस’ का अँग्रेजी अनुवाद किया था ।

बहरहाल, कैम्ब्रिज में उनके पुनरागमन की पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार थी । 1911-13 के दौरान वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके थे और इसी अवधि में बर्ट्रेंड रसेल के मार्गदर्शन में उनका परिचय तार्किक विश्लेषण के दर्शनशास्त्र से हुआ – रसेल इस दार्शनिक शाखा के अधिष्ठाताओं में से थे । 1922 में ‘ट्रैक्टेटस’ के प्रकाशन के बाद करीब-करीब सात-आठ वर्षों तक वे दर्शनशास्त्र की दुनिया से दूर ही रहे – अपनी तलाकशुदा बहन मार्गरेट (ग्रेट्ल, 1882-1958) के लिए वियेना में मकान बनवाया, ‘जमीन से जुड़े रहने के लिए’ ऑस्ट्रिया के एक गाँव ओटरथल में एक प्राथमिक पाठशाला के बच्चों को कुछ वर्षों तक पढ़ाया, और शिक्षक की नौकरी से पदत्याग के बाद 1926 की गर्मियों में वियेना के ही नजदीक हटेलडोर्फ के मठ में माली का काम किया । कैम्ब्रिज के उनके मित्र चाहते थे कि वे फिर कैम्ब्रिज लौट आयें और दर्शनशास्त्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करें – उनके मित्र जानते थे कि विरासत में मिला लगभग सारा धन वे दान कर चुके थे और अपने जीवनयापन के लिए भी उन्हें नियमित आय की जरूरत थी । वैसे तो वे एक प्रशिक्षित एरोनॉटिकल इंजीनियर थे और उनके नाम से एक पेटेंट भी था, लेकिन कैम्ब्रिज के अपने पिछले प्रवास के दौरान उन्होंने कोई डिग्री नहीं ली थी । आखिर फैलोशिप के लिए कोई शोध-प्रबन्ध तो प्रस्तुत करना था ! तय हुआ कि वे ट्रैक्टेटस को ही शोध-प्रबन्ध के रूप में प्रस्तुत करें । ऊपर की घटना इसी के बाद की है ।

उनके जीवन-वृत्त की चर्चा हम आगे करेंगे । यहाँ अभी हम सिर्फ उनकी ‘असाधारण प्रतिभा’ और उनकी अत्यन्त दुरूह समझी जानेवाली (तब तक प्रकाशित एकमात्र कृति) ‘ट्रैक्टेटस’ के बारे में कुछ और चर्चा कर इस प्रसंग को समाप्त करेंगे ।

उनके साथ मुलाकात के चन्द दिनों के अन्दर ही रसेल अपने इस युवा छात्र की मेधा का लोहा मान चुके थे । 1913 में अपने एक मित्र को उन्होंने लिखा, ‘युवा पीढ़ी दरवाजे पर दस्तक दे रही है । मुझे उसके लिए जगह खाली करनी है ।’

उसी वर्ष सितम्बर में विट्गेन्स्टाइन कैम्ब्रिज के ही अपने मित्र डेविड पिनसेंट (1891-1918) के साथ नार्वे में करीब एक महीने बिता चुके थे – साल भर पहले दोनों आइसलैंड की यात्रा कर आये थे । दरअसल, विट्गेन्स्टाइन रसेल की छत्रछाया तथा कैम्ब्रिज से दूर अपने (नये विकसित हो रहे) विचारों पर एकान्त में मनन करना चाहते थे – उनके मन में ‘ट्रैक्टेटस’ के बीज अंकुरित हो चुके थे । नार्वे जाने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहा ।

रसेल विट्गेन्स्टाइन को नार्वे जाने से विरत करना चाहते थे । इस बारे में उन दोनों के बीच बातचीत का ब्यौरा खुद रसेल ने इस प्रकार दिया है :

रसेल ने कहा, वहाँ अँधेरा होगा ; विट्गेन्स्टाइन का जवाब था, मुझे दिन की रोशनी से नफ़रत है । रसेल ने कहा, वहाँ तुम नितान्त अकेले होगे ; विट्गेन्स्टाइन का जवाब था, बुद्धिमान लोगों से बातें करते-करते मेरा मन पहले ही काफी दूषित हो चुका है । रसेल ने कहा, तुम पागल हो ; विट्गेन्स्टाइन का जवाब था, भगवान समझदारों से मेरी रक्षा करे ।

बहरहाल, बाद में रसेल ने लिखा कि परम्परा में प्रतिभा की जिस रूप में कल्पना की गई है – धुनी, पारंगत, भावप्रवण और सब पर छा जाना – विट्गेन्स्टाइन उसके सबसे आदर्श उदाहरण हैं

मूर भी विट्गेन्स्टाइन को पढ़ा चुके थे, और वे खुद जाने-माने दार्शनिक थे, फिर भी नार्वे प्रवास के दौरान विट्गेन्स्टाइन ने उन्हें ईस्टर की छुट्टियों में अपने पास बुलाया तो मूर ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया । विट्गेन्स्टाइन के बारे में उनके मन में क्या छवि थी, इसका प्रमाण यह है कि नार्वे में वे उनके निजी सचिव की भाँति दर्शन-सम्बन्धी होनेवाली बातचीत के नोट्स लेते रहे – यह ट्रैक्टेटस की रचना की शुरुआत थी । बाद में मूर ने खुद स्वीकार किया कि ‘दर्शनशास्त्र के बारे में वे (विट्गेन्स्टाइन) मुझसे कहीं ज्यादा सिद्धहस्त हैं – न केवल सिद्धहस्त हैं, बल्कि मेरी तुलना में काफी ज्यादा गहन-गंभीर भी ।’

1929 में कैम्ब्रिज की मौखिक परीक्षा में यही दोनों (रसेल और मूर) उनके परीक्षक थे ।

अगस्त 1914 में, प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद, हर्निया के कारण अनिवार्य भर्ती से उन्हें छूट मिल गई थी, लेकिन विट्गेन्स्टाइन एक वॉलंटियर के रूप में ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेना में शामिल हो युद्ध के मोर्चे पर आ गये । वे अपने साथ एक नोटबुक रखते और दर्शन-सम्बन्धी अपने विचारों को उसमें नोट करते रहते । इससे अलग उन्होंने एक निजी डायरी भी रखी थी जिसमें वे युद्ध के दौरान अपने निजी अनुभवों को तथा युद्ध की स्थितियों के बारे में अपने विचारों को समय-समय पर दर्ज करते रहते । साथी सैनिक उनकी डायरी नहीं पढ़ सकें, इसलिए वे कूट लिपि में लिखते – वर्णाक्षर के उल्टे क्रम में जिसका अभ्यास वे बचपन में ही कर चुके थे । बचपन का वही अभ्यास युद्ध-भूमि में काम आया । युद्ध में शामिल होने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अपने मनोबल की परीक्षा लेना था ।

दर्शन-सम्बन्धी विचारोंवाले उनके नोटबुक ने ही युद्ध की समाप्ति (1918) के बाद ‘ट्रैक्टेटस’ का रूप लिया । लेकिन इसी समय एक दुर्घटना ने उनसे उनका अभिन्न मित्र छीन लिया । डेविड पिनसेंट ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान एक टेस्ट पॉयलट के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया था । मई 1918 में एक उड़ान दुर्घटना में वे मारे गये । संगीत में साझा दिलचस्पी ने पिनसेंट और विट्गेन्स्टाइन को एक डोर में बाँध रखा था – आइसलैंड और नार्वे के प्रवासों में वे विट्गेन्स्टाइन के अंतरंग सहयात्री थे । विट्गेन्स्टाइन ने ‘ट्रैक्टेटस’ को अपने इसी प्रिय मित्र की स्मृति में समर्पित किया ।

किताब को प्रकाशित कराने में उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । अपने एक संभावित प्रकाशक को उन्होंने साफ कह दिया था कि इस किताब को कोई नहीं पढ़ेगा, समझनेवाले तो और भी कम होंगे ; इसीलिए किताब से आप कोई कमाई नहीं कर पाएँगे । इसी तरह, एक दूसरे प्रकाशक को भी उन्होंने पहले ही आगाह कर दिया था कि ‘किताब पढ़ने से आपको कुछ हासिल नहीं होगा, आप इसे समझ नहीं पाएँगे । इसकी विषयवस्तु आपको अजीब लगेगी’ ।

प्रकाशन की जद्दोज़हद का ब्यौरा देना यहाँ जरूरी नहीं । वे अपनी किताब में प्रकाशन को ध्यान में रख कर कोई सुधार या परिवर्तन करने को तैयार नहीं थे । एक बार जब रसेल ने उनसे शिकायती लहजे में कहा कि जो बात उन्हें सही लगती है, उसे महज कह भर देने के साथ-साथ उन्हें उस बात के पक्ष में दलील भी रखनी चाहिए, तो विट्गेन्स्टाइन का जवाब था कि दलील उस सही बात की सुन्दरता को नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैंने अपने कीचड़-सने हाथों से एक फूल को गंदा कर दिया है ।

एक थी हरमिन (‘माइनिंग’, 1874-1950) । हरमिन विट्गेन्स्टाइन । विट्गेन्स्टाइन परिवार की सबसे बड़ी संतान । अविवाहित । अपने सबसे छोटे भाई लुडविग को बेहद प्यार करती थी । रश रीस के सम्पादकत्व में ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित ‘रीकलेक्शन्स ऑफ विट्गेन्स्टाइन’ (1984) में हरमिन का आत्मीय संस्मरण ‘माई ब्रदर लुडविग’ इसका प्रमाण है ।

हाँ तो प्रकाशित होने के काफी पहले ही हरमिन ‘ट्रैक्टेटस’ पढ़ चुकी थी । 19 अक्टूबर, 1920 को उसने अपने भाई को लिखा, “मैं तुम्हारा निबन्ध दो बार पढ़ चुकी हूँ । .. मुझे तो अपने आप पर हँसी आ रही है, मुझे शुरू से पता था कि मुझे कुछ समझ में नहीं आएगा । फिर भी मैं अपने को रोक नहीं सकी ।”

इसी तरह जब अपनी दूसरी बहन ग्रेटल के लिए विट्गेन्स्टाइन ने वियेना में घर बनवाया तो हरमिन उसे देखने गयी । इस घर के वास्तुशिल्पी वैसे तो लुडविग के दोस्त एंगेलमन थे, लेकिन घर के निर्माण के दौरान अनेक मामलों, खासकर दरवाजों, खिड़कियों, हैंडिलों, आदि के मामलों में विट्गेन्स्टाइन ने वास्तुशिल्पी की भूमिका खुद अपने हाथों में ले ली थी । एक ‘परफेक्शनिस्ट’ के रूप में वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनके द्वारा तैयार घर के ज्यामितीय-गणितीय डिजाइन का अक्षरशः पालन हो, कि घर में कोई सजावट या अलंकरण न हो और घर सादगी की आभा से दीप्त हो । उन्होंने एंगेलमन तथा कारीगरों की नाक में दम करने की हद तक जाकर इस भूमिका का कुछ ज्यादा ही निर्वाह किया था ।

घर का मुआयना करने के बाद हरमिन ने लिखा, ‘यद्यपि मैंने घर की काफी सराहना की, लेकिन मैं यह जानती थी कि मैं खुद उस घर में न तो रहना चाहती थी और न ही रह सकती थी । सचमुच ऐसा लगता था जैसे वह घर मेरे जैसे मामूली लोगों के लिए नहीं, बल्कि देवताओं के रहने के लिए बनाया गया हो ।’ (वैसे कुछ वास्तुशास्त्री उस घर के वास्तुशिल्प को भद्दा मानते थे ।) वियेना में यह घर अब बुल्गारियाई दूतावास की सम्पत्ति है और उसके सांस्कृतिक विभाग के अधीन है ।

और एक थे जॉन मेनार्ड कीन्स (1883-1946) । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री । विट्गेन्स्टाइन के मित्र । जनवरी 1929 में जब विट्गेन्स्टाइन कैम्ब्रिज लौटे तो कीन्स ट्रेन में उनसे मिले । घर आकर उन्होंने अपनी पत्नी को खुशी-खुशी यह सूचना दी, ‘ईश्वर का आगमन हुआ है । पाँच पन्द्रह की ट्रेन में मैं उनसे मिल कर आ रहा हूँ ।’1

कहने को और भी बहुत कुछ है । लेकिन विषय-प्रवेश के रूप में एक असाधारण व्यक्ति तथा उनकी असाधारण कृति की जो संक्षिप्त झांकी ऊपर मैंने प्रस्तुत की है, उसके बाद और कुछ कहने की फिलहाल जरूरत नहीं रह जाती ।

जिस व्यक्ति और जिस कृति को बड़े-बड़े दार्शनिक और विचारक समझने में असमर्थ थे, उस व्यक्ति और कृति को समझ लेने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता । जो कुछ भी जानता हूँ, उसे ‘बस तीन शब्दों में कह जाने’ का हूनर भी मुझमें नहीं है । इसलिए आगे जो कुछ कहा जाएगा उसे ‘महज सुना-सुनाया गुल-गपाड़ा और शोर-शराबा’ भी समझा जाए तो मुझे प्रसन्नता ही होगी ।2

2. अस्तित्व का अंतरंग मौन

जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति-प्रदत्त अफीम की अपनी खुराक लेकर जीता है – इस खुराक की निरन्तर भरपाई होती रहती है, उसका अनवरत् स्राव होता रहता है । बॉदेलेअर, ‘द इनविटेशन टु द वोयेज’ ।3

सिद्धान्तों की सीमाओं से बाधित हुए बिना, और भाषा की भ्रान्तियों से दूषित हुए बिना अगर हम दुनिया को देखने में समर्थ होते हैं तो, जैसा कि विट्गेन्स्टाइन ने एक बार कहा था, हम खुद को ‘कौतुक के पर्वत पर सैर करते पाएँगे’ ।4

दुनिया का संज्ञान भाषा में ही संपन्न होता है । भाषारूपी शीशे की दीवार जितनी स्वच्छ होगी, जितनी पारदर्शी होगी, दुनिया का चित्र, उसकी छवि उतनी ही स्पष्टता के साथ, उतने ही सही रूप में प्रदर्शित होगी । विभिन्न मानव समुदायों की ऐतिहासिक रूप से विकसित अपनी-अपनी भाषाएँ हैं और इन समुदायों की प्रत्येक पीढ़ी को भाषा का संसार विरासत में प्राप्त होता है । प्रत्येक भाषा की अपनी एक आन्तरिक संरचना होती है, अपना व्याकरण और अपना वाक्य-विन्यास होता है – भाषा की यह आन्तरिक संरचना दुनिया के संज्ञान को अपने ढंग से प्रभावित करती है और उसे विशिष्टता प्रदान करती है ।

बर्ट्रेंड रसेल को 1920-21 में करीब एक साल चीन में गुजारने का अवसर मिला था । इस दौरान वहाँ रहने तथा व्याख्यान देने के क्रम में उन्हें चीनी भाषा को भी थोड़ा-बहुत जानने-समझने का मौका मिला, और तब उन्हें यह जानकर काफी हैरानी हुई कि उनकी किताब ‘प्रिंसिपिया मैथेमैटिका’ की भाषा तो भारोपीय (इण्डो-यूरोपियन) भाषा थी – चीनी भाषा की आन्तरिक निर्मिति जिससे काफी भिन्न थी ।

बहरहाल, यहाँ हमारा इरादा भाषा-विमर्श में या फिर भाषा की तार्किक संरचना और दुनिया के संज्ञान के अन्तर्सम्बन्धों में जाने का नहीं है । मैं दूसरी ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा ।

हजारों वर्षों के अपने अस्तित्व के दौरान मानव समुदायों ने अपने अस्तित्व के सम्बल के रूप में अपने होने के न मालूम कितने अर्थ, कितनी परिभाषाएँ, कितनी सृष्टि-कथाएँ, कितने मिथक, कितनी कहानियाँ गढ़ रखी हैं । अनेको पूर्वाग्रह, पाखण्ड, कर्मकाण्ड, मत-विचारधारा, प्यार-घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, आदि हमारे जीवन में रच-बस गये हैं । थोड़ी देर के लिए अपने अन्दर झाँक के देखिए, अपने आसपास के लोगों की दिनचर्या को गौर से देखिए – बिना वाल्टर बेंजामिन (1892-1940) हुए आप आसानी से देख पाएँगे कि आपकी-हमारी दिनचर्या (सुबह उठने से लेकर रात सोने तक, और यहाँ तक कि सपने भी) और आपका-हमारा संवाद, हमारी भाषा इन अर्थों, परिभाषाओं, सृष्टि-कथाओं, मिथकों, कहानियों, पूर्वाग्रहों, पाखण्डों, आदि से किस कदर आक्रांत है । हमारा रोजमर्रे का जीवन बहुत हद तक इन्हीं अर्थों, परिभाषाओं, कर्मकाण्डों द्वारा संचालित होता है ।

हर कोई पीठ पर आटे या कोयले के बोरे, या फिर रोमन सैनिकों के साजो-सामान जितना भारी अपनी-अपनी विशाल कल्पनाओं का बोझ ढोये जा रहा था । .. सबसे विचित्र बात तो यह थी कि कोई भी यात्री अपनी गर्दन पर सवार और पीठ में पंजे गड़ाये इस जानवर से क्षुब्ध नहीं था : एक ने तो यहाँ तक कहा कि वह उसे अपना ही एक अंग मानता है । बॉदेलेअर, ‘एवरी मैन हिज कीमेरा’ ।5

भाषारूपी शीशे की यह दीवार इन अर्थों, परिभाषाओं, कथाओं आदि से इस कदर पुती हुई है कि बाहरी दुनिया का सही-सही चित्रण लगभग असंभव हो गया है । लगभग अपारदर्शी हो चुकी इस दीवार से गाहे-बगाहे जो छवि छनकर आती भी है, वह इन अर्थों और कथाओं आदि से गुजरते हुए अपना सच्चा रूप खो देती है और कभी लुभावना तो कभी डरावना मायावी रूप धर लेती है ।

विरासत में प्राप्त भाषा में सच का साक्षात्कार असंभव हो जाता है ।

सच के साक्षात्कार के लिए पहले इस दीवार को धो-पोछ कर साफ करना होगा । सारे अर्थ, सारी परिभाषाएँ, सारे मिथक, सारी कथाएँ, सारी विचारधाराएँ, सारे मत आदि मिटाने होंगे । लीजिए, अब यह दीवार धुल चुकी है – इस स्वच्छ, पारदर्शी दीवार के उस पार यह रही आपकी दुनिया, आपका निर्मल, निष्कलंक सच ।

यह भाषा का विघटन है – उसका अतीतोन्मुख कायान्तरण । आप एकबारगी वहीं जा पहुँचे जहाँ से एक जाति के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में आपने अपनी यात्रा शुरू की थी । यह मानवजाति का जन्मकाल था ।

आरम्भ में अस्तित्व था – सारे अर्थों और परिभाषाओं से मुक्त अस्तित्व ! सामने संसार का अन्तहीन विस्तार था – सितारों का जगमगाता आकाश था, लेकिन न सप्तर्षि थे, न कोई नक्षत्र-मण्डल था और न ही प्राणियों की आकृतियों वाली राशियाँ थीं । सूर्य अभी बस दीप्तिमान आलोक-पुञ्ज था, द्वादश आदित्य नहीं । प्राणियों से भरी-पूरी बीहड़ वनों की गुंजायमान दुनिया थी, लेकिन कोई नेमिषारण्य या चम्पक-वन नहीं था । क्षितिज को छूती अथाह जलराशि थी, लेकिन समुद्र को पी जानेवाले कोई अगस्त्य नहीं थे ।

सारे किस्सों से मुक्त, अनावृत्त अस्तित्व था और सामने था अन्-अर्थ का आश्चर्यलोक । अर्थों से मुक्त हम स्वतंत्र थे – अपने अस्तित्व की सारी संभावनाओं को साकार करने की हमारी स्वतंत्रता अभी विरासत में प्राप्त अर्थों, परिभाषाओं, कर्मकाण्डों की जंजीरों में जकड़ी नहीं थी । हमारे सामने (जैसा कि हेगेल ने ‘फेनोमेनोलॉजी ऑफ स्पिरिट’ में लिखा था) एक सृजनकर्ता के रूप में ‘संभावनाओं की रात को उपलब्धियों के दिन’ में बदल डालने का पूरा अवसर मौजूद था ।

यह कितनी हास्यास्पद बात थी कि संसार के इस अनन्त विस्तार में एक अत्यन्त क्षुद्र हिस्से के एक क्षुद्र ग्रह के क्षुद्र प्राणी ने सारी सृष्टि को, उसकी एक-एक चीज को अपने मनमाने अर्थों और परिभाषाओं से मंडित कर दिया था – अन्-अर्थ के आश्चर्यलोक से च्युत अपने इन्हीं अर्थों का वह बन्दी होकर रह गया था !

चाँद चमक रहा था और वह सितारा भी जो इतने निष्ठाभाव से उसके साथ-साथ चलता है । मुझ पर अपार शान्ति तारी हो आई । लिटिल स्टार दैट आई सी, ड्रॉन बाइ द मून । पुराने शब्द उस ताज़गी के साथ मेरे होंठो पर थे, जिस ताज़गी से वे लिखे गये थे । वे विगत शताब्दियों से मुझे जोड़नेवाले सेतु थे, जब सितारे ठीक वैसे ही चमका करते थे, जैसे अब । और इस पुनर्जन्म और स्थायित्व ने मुझे शाश्वतता के एहसास से भर दिया । संसार मुझे उतना ताज़ा और नया लगा, जितना अपने जन्म के बाद के काल में रहा होगा, और यह पल अपने में पर्याप्त और सम्पूर्ण । मैं वहाँ थी और अपने पैरों के नीचे चाँदनी में नहाई टाईलों की छत देख रही थी, देख रही थी, अकारण देख रही थी, महज उन्हें देखने का सुख लेती । इस असंपृक्ति में एक बेध देनेवाला सम्मोहन था । सिमोन द बोवुआर, ‘संध्या-वेला’ ।6

बहरहाल, यह आश्चर्यलोक अधिक समय तक रहनेवाला नहीं था । दूर अर्थों और परिभाषाओं में स्पंदन साफ दिखने लगा था । किस्से कुलबुलाने लगे थे । अपने नये अर्जित अर्थों के साथ भाषा ने फिर से सांस लेना शुरू कर दिया था । भाषा संसार का निष्क्रिय दर्पण बन कर अधिक दिनों तक नहीं रह सकती थी । भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति खुद अपना एक स्वायत्त संसार – अपनी फंतासी, अपना मिथकीय लोक – रचने की होती है ।

एक तरफ था अन्-अर्थ का आश्चर्यलोक और दूसरी तरफ अर्थ का यथार्थ-लोक । अपने यथार्थ लोक में भी हम सब हमेशा दो दुनियाओं में निवास करनेवाले प्राणी हैं – एक हमारी रोजमर्रे की कामकाजी दुनिया है, और दूसरी हमारी अपनी-अपनी कल्पनाओं की दुनिया । इन दोनों दुनियाओं का संतुलन जब गड़बड़ा जाता है तो हम हारुकी मुराकामी के उपन्यास ‘1Q84’ के पात्रों की तरह आकाश में दो चाँद देखने लगते हैं । मनोविश्लेषक उसे विभिन्न प्रकार की मनोव्याधि के रूप में चिह्नित करते हैं ।

हम में से जो उस (अन्-अर्थ के) आश्चर्यलोक को देख लेते हैं, उनमें से कई उस दृश्य के सम्मोहन में या तो वापस यथार्थ लोक में लौटना भूल जाते हैं या फिर लौटना ही नहीं चाहते । जल में उतरते हुए वर्जीनिया वुल्फ ने आखिर क्या देख लिया कि किनारे से किनारा करते हुए वह और गहरे जल में उतरती चली गई ! और जरा सोचिए, तीन दिन, तीन रात भूखे-प्यासे यम के दरवाजे पर यम की प्रतीक्षा करते नचिकेता को कौन सी दुनिया दिखी होगी ?

‘बीच से हट जाता एक मध्यस्थ शोर

और स्पष्ट सुनाई देने लगता

उस पार से इधर आता हुआ   एक संगीत । ..

अपूर्ण को ही मान लिया सम्पूर्ण ।

पूर्णता के पीछे भागना – व्यर्थ है,

         वह शून्य है,

         उसे पाना

         अपने को खो देना है

         शून्यों के अपार गणित में ।’

कुँवर नारायण, ‘वाजश्रवा के बहाने’ ।7

बात जब इस पड़ाव तक आ ही गई है तब मुझे यहाँ खतरे का बोर्ड लगाना पड़ेगा । पाठकों को सावधान करते हुए मैं यह गुज़ारिश करूँगा कि जिन्हें इस तरह के दार्शनिक विमर्श का अभ्यास नहीं है, वे इन प्रश्नों में गहरे उतरने की कोशिश कृपया न करें । यह काफी जोख़िम भरी डगर है – बड़े-बड़े, हम सब के प्रिय, प्रेरणादायक विचारक, लेखक, गणितज्ञ, संगीतकार आदि यह सफर पूरा नहीं कर पाये – कोई स्किड्जोफ्रेनिया के, कोई मानसिक विक्षिप्तता के चंगुल में जा फँसे, तो कुछ ने आत्महत्या कर ली । तथापि ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अन्-अर्थ, अपरिभाषित, अपूर्ण जीवन ही आनन्द देता है और वही आनन्दोत्सव उनकी सृजनात्मक स्वतंत्रता का अजस्र स्रोत साबित होता है ।

यहाँ मुझे आक्षेप के कुछ स्वर सुनाई दे रहे हैं । दो स्वर तो काफी स्पष्ट हैं । एक आक्षेप तो यह है कि विट्गेन्स्टाइन और ‘ट्रैक्टेटस’ की चर्चा करते-करते मैं विषय से भटकता जा रहा हूँ और अपनी अनर्गल बातें रखता जा रहा हूँ । दूसरा आक्षेप मुझ पर विट्गेन्स्टाइन को येन-केन-प्रकारेण अस्तित्ववादी दर्शन के साथ जोड़ने की चाल चलने का है । उनके अनुसार, ऊपर का सारा प्रपंच मेरी उसी चाल का हिस्सा है ।

पहले आक्षेप के जवाब में मुझे बस यही कहना है कि व्यक्ति और किताब भी हिराक्लितु की नदी की तरह होते हैं । जिस तरह आप एक नदी में दो बार स्नान नहीं करते, उसी तरह आप किसी व्यक्ति और किताब को भी दो बार नहीं पढ़ते – दूसरी बार पढ़ते समय व्यक्ति वही व्यक्ति नहीं रहता जिसे आपने पहली बार पढ़ा था, किताब भी वही किताब नहीं होती । हिराक्लितु की आड़ में मैंने अपने अनर्गल गुल-गपाड़े के लिए थोड़ी जगह घेर ली । लेकिन अनर्गल गुल-गपाड़े भी कुछ दिखाते हैं । और दूसरे आक्षेप में यह देख लिया गया है । हालांकि इस पक्ष पर ज्यादा लिखा नहीं गया है, फिर भी मैं यह मानता हूँ कि विट्गेन्स्टाइन और ‘ट्रैक्टेटस’ का एक सिरा आद्य-अस्तित्ववाद से, कीर्केगार्द और फेनोमेनोलॉजी (दृश्यप्रपंचशास्त्र)से जुड़ता है । एक लिहाज से विट्गेन्स्टाइन का दर्शन फेनोमेनोलॉजी और अस्तित्ववाद का एक तार्किक-भाषाई आयाम था

‘ट्रैक्टेटस’ के प्रकाशन के सिलसिले में द हेग (द नीदरलैंड्स) में रसेल विट्गेन्स्टाइन से मिले थे, तभी रसेल को उनके ‘रहस्यवादी’ पक्ष का आभास हो गया था । इस मुलाकात के बाद उन्होंने अपने एक मित्र को बताया, ‘मैंने पाया कि वे बिल्कुल रहस्यवादी हो गये हैं । वे कीर्केगार्द और साइलेसियस जैसे लोगों को पढ़ते हैं और मठवासी होने के बारे में भी काफी गंभीरता से सोचने लगे हैं ।’ ‘ट्रैक्टेटस’ की प्रस्तावना में भी वे विट्गेन्स्टाइन के इस रहस्यवाद के बारे में काफी कुछ कहते हैं । जिस रहस्यवाद को लेकर तार्किक विश्लेषण के दार्शनिक रसेल चिन्तित दिखायी देते हैं, उस रहस्यवाद के कुछ सूत्र आद्य-अस्तित्ववाद से जुड़ते हैं ।

जिस समय विट्गेन्स्टाइन ‘ट्रैक्टेटस’ की रचना कर रहे थे, उसी समय जर्मनी में एक और दार्शनिक शाखा फल-फूल रही थी । यह शाखा ‘फेनोमेनोलॉजी’ के नाम से जानी जाती है और इसके प्रणेता थे एडमंड हुसेर्ल (1859-1938) । इस फेनोमेनोलॉजिकल आन्दोलन ने आगे चलकर अस्तित्ववादी दार्शनिक शाखा के विकास को गहरे रूप से प्रभावित किया – जिसके सबसे प्रख्यात प्रतिनिधि थे ज्यां पॉल-सार्त्र (1905-1980) और सिमोन द बोवुआर (1908-1986) । 1918 के बाद चार बार चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति रहे तोमास मसारिक (1850-1937) युवावस्था के दिनों से ही हुसेर्ल के मित्र थे और वियेना में दोनों ने दार्शनिक फ्रैंज ब्रेंतानो से शिक्षा ग्रहण की थी । चेक फेनोमेनोलॉजिस्ट जान पतोच्का (1907-1977) हुसेर्ल के शिष्य थे और बाद में उन्होंने प्राग में कइयों को फेनोमेनोलॉजी की शिक्षा दी – पतोच्का के शिष्यों में वाक्लाव हावेल (1936-2011) भी थे जो 1989 से 2003 के बीच (सोवियत संघ के पराभव के काल में) पहले चेकोस्लोवाकिया और फिर चेक गणराज्य के राष्ट्रपति बने ।

ये फेनोमेनोलॉजिस्ट हेगेल (1770-1831) की रचना ‘फेनोमेनोलॉजी ऑफ स्पिरिट’ से प्रेरणा ग्रहण करते थे और डेनमार्क के दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द (1813-1855) तथा जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिख़ नीत्शे (1844-1900) से भी काफी प्रभावित थे । आगे अस्तित्ववादियों की पूरी पीढ़ी को प्रभावित करने के कारण ये सभी दार्शनिक – कीर्केगार्द, नीत्शे, हुसेर्ल आदि – आद्य-अस्तित्ववादी कहलाते हैं । प्रख्यात फ्रांसीसी कवि चार्ल्स बॉदेलेअर (1821-1867) और रूसी उपन्यासकार फ्योदोर दोस्तोएव्स्की (1821-1881) भी अस्तित्ववादियों पर अपने गहरे प्रभाव के कारण आद्य-अस्तित्ववादियों में शुमार किये जाते हैं । सार्त्र ने बॉदेलेअर की जीवनी भी लिखी थी ।

हुसेर्ल भी विचारधाराओं, सिद्धान्तों, और बौद्धिक व्याख्याओं की मध्यस्थता के बिना सीधे चीजों से मुखातिब होने, उन्हें देखने और उनका अनुभव करने पर जोर देते थे । उनकी नजर में, बाकी चीजों का महत्व है लेकिन उन्हें कोष्ठकों में रखना ही पर्याप्त है, दार्शनिकों को उन पर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए । सामने जो चीजें हैं, जो परिघटनाएँ हैं, उनका पर्यवेक्षण और अनुभव ही, उनका ठीक-ठीक वर्णन ही हमारा विषय होना चाहिए । चीजों-परिघटनाओं और हमारे बीच कुछ नहीं आना चाहिए – परम्परा या विरासत में प्राप्त कोई विचार, सिद्धान्त, बौद्धिक लाग-लपेट आदि कुछ भी नहीं । उनका नारा ही था ‘सीधे चीजों की ओर’ – दुनिया चीजों, परिघटनाओं से भरी पड़ी है और क्षण-क्षण हमारे सामने उपस्थित होती रहती हैं । उन्हें बस देखिए और जहाँ तक संभव हो उनका बारीकी से वर्णन कीजिए । (कहने-सुनने में यह आसान लग सकता है, लेकिन यह देखना और वर्णन करना काफी कठिन है ।) चीजें वास्तविक हैं या नहीं, हम उनके बारे में निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं या नहीं, आदि – प्लेटो के समय से ही दार्शनिकों ने ऐसी पहेलियों पर अपना वक़्त ज़ाया किया है । सिद्धान्तों, महाआख्यानों, बौद्धिक व्याख्याओं में उलझ कर हम चीजों और परिघटनाओं से, खुद जीवन से काफी दूर चले गये – हमें फिर से उनसे सीधे जुड़ना है ।

अस्तित्ववादी इसी विचार को और आगे ले जाते हैं और इसे अस्तित्व के प्रश्न से जोड़ते हैं । परम्परा से थोपे गये, विरासत में प्राप्त अर्थों, परिभाषाओं, महाआख्यानों, सामाजिक रीति-रिवाजों में व्यक्ति का अस्तित्व इस कदर दबा-घुटा है कि उसे अपने अस्तित्व की संभावनाओं को साकार करने, अपना अर्थ खुद गढ़ने का अवसर या तो उपलब्ध नहीं है या फिर उसका अस्तित्व ही विकृत, कुण्ठित रूप ले चुका है ।

भरी सभा में बार-बार प्रश्न पूछ कर द्रौपदी ने भीष्म पितामह को वह कहने के लिए विवश कर दिया जिसने सारे अर्थों-धर्मों की महिमा ही सदा के लिए धूमिल कर दी :

बलवांश्च यथा धर्मे लोके पश्यति पूरुषः । स धर्मा धर्मवेलायां भवत्यभिहतः परः ।।

(संसार में बलवान मनुष्य जिसको धर्म समझता है, धर्मविचार के समय लोग उसी को धर्म मान लेते हैं और बलहीन पुरुष जो धर्म बतलाता है, वह बलवान पुरुष के बताये धर्म से दब जाता है ।)8

सबसे पहले अस्तित्व है ; सामाजिक बंदिशें, विरासत में प्राप्त थोपे गये अर्थ अपने अस्तित्व की संभावनाओं को साकार करने की हमारी स्वतंत्रता का हरण करते हैं, हमें अपना अर्थ खुद गढ़ने और अपना खुद का प्रामाणिक जीवन जीने से हमें वंचित करते हैं । जो व्यक्ति इन बंदिशों से लड़ कर प्रामाणिक जीवन जीने की कोशिश करता है, वही अस्तित्ववादियों का नायक है । सार्त्र ने ज्यां जेने (1910-1986) की जीवनी लिखी थी । जेने चोर थे, आवारा, पुरुष-वेश्या थे जिन्होंने काफी समय जेल में बिताया था – बाद में उन्होंने कवि, उपन्यासकार और आत्म-कथा लेखक के रूप में ख्याति पाई । सार्त्र ने उनके चरित्र में बॉदेलेअर की एक काव्य-पंक्ति ‘ऐ बुरे मेरी अच्छाई बन’ का साकार रूप देखा । उन्होंने अपनी उस महत्वपूर्ण रचना को नाम दिया ‘सेंट जेने’ (1952) ।9

परम्परा से प्राप्त अर्थों, परिभाषाओं, महाआख्यानों आदि से मुक्त होकर सीधे चीजों से मुख़ातिब होना और उन्हें जानने की कोशिश करना – इस मामले में विट्गेन्स्टाइन के तार्किक विश्लेषण और फेनोमेनोलॉजी तथा अस्तित्ववाद के बीच समानता आसानी से देखी जा सकती है । बहरहाल, यह समानता यहीं समाप्त भी हो जाती है ।

एक ज्ञानानुशासन के रूप में विट्गेन्स्टाइन दर्शनशास्त्र का सीमांकन करते हुए लगभग समस्त दार्शनिक साहित्य को खारिज कर देते हैं । इसलिए नहीं कि उनका कोई महत्व नहीं है । महत्व हो सकता है, लेकिन वे दर्शनशास्त्र के विषय नहीं हो सकते और इसलिए दर्शनशास्त्र के संदर्भ में निरर्थक हैं

विट्गेन्स्टाइन भी सिद्धान्तों, विचारधाराओं आदि की मध्यस्थता के बिना सीधे चीजों से मुख़ातिब हैं – दर्शनशास्त्र का काम यह बताना है कि इन चीजों के बारे में हमारी प्रतिज्ञप्तियाँ सही हैं या गलत । दार्शनिकों की अधिकतर प्रतिज्ञप्तियों के निरर्थक होने का कारण भाषा के तर्क को समझने में उनकी विफलता है ।

तार्किक रूप से सुसंगत भाषा ही चीजों को सही-सही चित्रित कर सकती है । भाषा की समीक्षा के जरिये हम एक ऐसी तार्किक रूप से सुसंगत भाषा की रचना कर सकते हैं जो चीजों और संसार को सह-सही प्रतिबिम्बित कर सके ।

यथार्थता का साकल्य ही संसार है । (ट्रैक्टेटस, 2.063) .. चित्र यथार्थता का एक प्रतिरूप है । (वही, 2.12) .. तार्किक चित्र संसार का चित्रण कर सकते हैं । (वही, 2.19)

विचार तथ्यों का तार्किक चित्र होता है । (वही, 3)

दर्शन-सम्बन्धी रचनाओं में पाई जानेवाली अधिकतर प्रतिज्ञप्तियाँ और जिज्ञासाएँ असत्य न होकर निरर्थक होती हैं । इसलिए हम इस प्रकार की जिज्ञासाओं का कोई समाधान नहीं दे सकते, अपितु केवल यही बता सकते हैं कि वे निरर्थक हैं । दार्शनिकों की अधिकतर प्रतिज्ञप्तियों और जिज्ञासाओं की उत्पत्ति का कारण उनके द्वारा भाषा के तर्क को समझने की विफलता है । (4.003) ..

समस्त दर्शन भाषा की समीक्षा है । (4.0031) ..

दर्शनशास्त्र का उद्देश्य विचारों की तार्किक स्पष्टता ही है । दर्शनशास्त्र सक्रियता का नाम है, किन्हीं सिद्धान्तों की पोथी का नहीं । दार्शनिक कृति का मौलिक कार्य है व्याख्या करना । दर्शनशास्त्र का कार्य दार्शनिक प्रतिज्ञप्तियों का निर्माण न होकर प्रतिज्ञप्तियों का स्पष्टीकरण हुआ करता है । दर्शनशास्त्र के बिना विचार मानो धुँधले और अस्पष्ट होते हैं : दर्शनशास्त्र का उद्देश्य विचारों का स्पष्टीकरण एवं उनका सुदृढ़ सीमांकन है । (4.112) ..

दर्शनशास्त्र को, विचार का जो विषय हो सकता है उस की सीमा निर्धारित करनी चाहिए, और ऐसा करते हुए उसे इस बात की भी मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए कि क्या विचार का विषय नहीं हो सकता । (4.114) ..

इस प्रकार, गोट्टलिब फ्रेगे और बर्ट्रेंड रसेल के तर्कों में निहित विसंगतियों को दिखाते हुए और उनका समाधान करते हुए विट्गेन्स्टाइन एक सुसंगत तार्किक-गणितीय भाषा की रचना करते हैं और यह दावा करते हैं कि उन्हें समस्त महत्वपूर्ण विषयों और समस्याओं का निदान मिल गया है (प्राक्कथन) । भाषा की गलत समझ ही इन समस्याओं की उत्पत्ति का कारण थी और वह गलत समझ दुरुस्त कर ली गई थी ।

भाषा की लिपी-पुती दीवार को स्थानापन्न कर एक स्वच्छ दीवार खड़ी कर दी गई – संसार यहाँ से साफ-साफ, सही-सही दिख रहा है ।

एक सुसंगत तार्किक-गणितीय भाषा की मजबूत सीढ़ी बना ली गई है । अब इस पर चढ़ा जा सकता है और देखा जा सकता है कि आगे ऊपर क्या है – ऊपर चढ़ने के लिए ही तो सीढ़ी की मरम्मत की गई थी । लीजिए अब मैं ऊपर आ गया हूँ और मैंने सीढ़ी गिरा दी है – अब जो दृश्य मेरे सामने है, वह अनिर्वचनीय है । यहाँ मौन ही श्रेयस्कर है ! (6.54, 7)

इस पर ‘प्रस्तावना’ में रसेल अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं, ‘.. विट्गेन्स्टाइन ने सम्पूर्ण नीतिशास्त्र को अनिर्वचनीय रहस्यमय क्षेत्र में रखा है । फिर भी वे अपनी नैतिक मान्यताओं को समझाने में समर्थ रहे हैं । उनका बचाव यह हो सकता है कि जिसे वे रहस्यमय कहते हैं, उस विषय को प्रदर्शित किया जा सकता है, यद्यपि व्यक्त नहीं किया जा सकता । हो सकता है उनका यह बचाव पर्याप्त हो, किन्तु मैं मानता हूँ कि इससे मुझे एक प्रकार की बौद्धिक बेचैनी होती रहती है ।’ जिस बात से रसेल को बौद्धिक बेचैनी होती थी, वही बात डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को सुकून देती थी ।10

संसार की रहस्यमयता के बारे में विट्गेन्स्टाइन ने सूत्र रूप में ट्रैक्टेटस में अपना पक्ष रखा है ।

संसार में वस्तुएँ किस प्रकार से हैं, यह कोई रहस्य की बात नहीं है, बल्कि यही एक रहस्य है कि संसार का अस्तित्व है । (6.44)

संसार पर विहंगम दृष्टिपात का अर्थ है उसे एक सीमित-समग्र के रूप में देखना ।

संसार को सीमित-समग्र समझना – यही तो रहस्य है । (6.45)

संसार की चीजें तो जानी जा सकती हैं, लेकिन खुद संसार का रहस्य बरकरार रहता है । किसी चीज को जानने के लिए उस चीज को बाहर से देखना, उसके उद्भव, विकास तथा पराभव का पर्यवेक्षण-अध्ययन जरूरी होता है । इसके बिना उस चीज का अर्थ आप नहीं जान सकते । हम संसार के भीतर रहते हैं और हमारे लिए संसार को ‘बाहर’ से देखना, उसके जन्म, विकास तथा संहार का पर्यवेक्षण-अध्ययन संभव नहीं । इसीलिए संसार का अर्थ हमारे लिए रहस्य का विषय बना रहता है ।

बहरहाल, यह रहस्य ही अनेक कथाओं, मिथकों का अवसर भी प्रदान करता है ।

संसार की चीजों की नित नयी जानकारी हमारे पहले के ज्ञान की सीमा भी निर्धारित करती है और उसे उसकी सापेक्षता प्रदान करती है ।

मानव जीवन के साथ भी यही बात है । जीवन का अर्थ तो जीवन के गुजर जाने के बाद ही जाना जा सकता है । मानवजाति का अर्थ भी मानवजाति की विलुप्ति के बाद ही स्पष्ट होगा – तब तक हम अपने को विभिन्न रूपों में परिभाषित करने, अपने होने के अनेक किस्से गढ़ने, और इन परिभाषाओं तथा किस्सों को लेकर आपस में ही लड़ने और अक्सर इस लड़ाई में आत्मसंहार के लिए ‘स्वतंत्र’ हैं ।

विट्गेन्स्टाइन के गृहनगर वियेना में वैज्ञानिक सोच तथा तार्किक प्रत्यक्षवाद में विश्वास रखनेवाले दार्शनिकों की एक टोली थी जिसके अगुवा वियेना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मोरित्ज श्लिक थे । 1926 में उन्होंने एक अन्य जर्मन दार्शनिक रुडोल्फ कार्नेप (1891-1970) को भी अपने विभाग में बुला लिया था । श्लिक की अगुवाई में ही एक अनौपचारिक ग्रुप था जो समय-समय पर दार्शनिक विषयों पर चर्चा के लिए गोष्ठियाँ आयोजित करता था । यह ग्रुप वियेना सर्कल के नाम से जाना जाता था और श्लिक के अलावा इसके प्रमुख सदस्य थे – कार्नेप, हैंस हान, फ्रेडरिख़ वाइसमैन, ओटो न्यूरथ और हर्बर्ट फाइगल । हान के ही एक शिष्य कुर्त गोडेल भी इसमें कभी-कभी शिरकत कर लिया करते थे । (नाजियों के उत्थान के बाद 1935 में अन्य अनेक जर्मन बुद्धिजीवियों की तरह कार्नेप भी अमेरिका में जा बसे । 22 जून, 1936 को श्लिक की वियेना में हत्या कर दी गई ।) बहरहाल, यह समूह भी विट्गेन्स्टाइन की ही तरह भाषा की समस्या को, वाक्य-विन्यास को दर्शनशास्त्र की प्रमुख समस्या मानता था । जाहिर है, यह समूह ‘ट्रैक्टेटस’ से काफी प्रभावित था, और जब 1926 में विट्गेन्स्टाइन वियेना आये तो उनसे मिलने और इन विषयों पर चर्चा करने को ये बुद्धिजीवी काफी उत्सुक थे । इनमें से कुछ लोगों के साथ विट्गेन्स्टाइन मिले और उन लोगों के साथ ‘ट्रैक्टेटस’ पर चर्चा में भाग भी लिया । लेकिन कुछ समय बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि ये लोग ‘ट्रैक्टेटस’ के पहले भाग से तो काफी उत्साहित थे, लेकिन दूसरे भाग के बारे में उनमें काफी भ्रान्तियाँ थीं । उनके साथ बैठकों में कभी-कभी वे कुर्सी घुमा लेते और उन लोगों की ओर पीठ करके रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं का पाठ करने लगते । जो कहा नहीं जा सकता, उसे प्रदर्शित करने का यह उनका ट्रैक्टेटस वाला तरीका था ।11

प्रसंगवश, यहाँ कहते चले कि जो अनिर्वचनीय है, उसे साहित्य में अभिव्यक्त करना लगभग सभी महान साहित्यकारों के लिए चुनौती रही है और उनमें से अनेक रचनाकारों ने इस चुनौती को बखूबी निभाया भी है । यहाँ उसका कुछ उदाहरण देना भी संभव नहीं है ।

फ़िलोसॉफ़ी के लिए हिन्दी में हम दो शब्दों का प्रयोग करते हैं – एक तत्त्वशास्त्र (खासकर यूरोपीय संदर्भ में), और दर्शन (भारतीय संदर्भ में) । ट्रैक्टेटस में विट्गेन्स्टाइन तत्त्वशास्त्र की सीढ़ी से दर्शन तक की यात्रा पूरी करते हैं । उनकी फ़िलोसॉफ़ी के लिए दोनों शब्दों का प्रयोग सार्थक है । वे तर्क की सीढ़ी के जरिये नामों की दुनिया से मौन की दुनिया में दाख़िल होते हैं ।

प्रतिज्ञप्तियों में प्रयुक्त सरल संकेत नाम कहलाते हैं । (3.202) .. नाम का अभिप्राय है वस्तु । वस्तु नाम का अर्थ होती है । (3.203) .. परिभाषा द्वारा किसी नाम का और अधिक विश्लेषण नहीं किया जा सकता : नाम तो आद्य प्रतीक है । (3.26) .. आद्य प्रतीकों के अर्थ व्याख्याओं द्वारा समझाये जा सकते हैं । व्याख्याएँ ऐसी प्रतिज्ञप्तियाँ होती हैं जिनमें आद्य प्रतीक निहित होते हैं । अतः उन प्रतीकार्थों का ज्ञान होने के बाद ही उन प्रतिज्ञप्तियों को समझा जा सकता है । (3.263) .. केवल प्रतिज्ञप्तियाँ ही सार्थक होती हैं ; किसी प्रतिज्ञप्ति से सम्बद्ध होने पर ही नाम अर्थवान होता है । (3.3)

प्रसंगवश, एक सीढ़ी सनतकुमार के पास भी थी । इस सीढ़ी की विशेषता यह थी कि इसके अलग-अलग पायदानों पर विभिन्न शाखाओं के दार्शनिक अपना डेरा-डंडा डाल सकते थे । एक बार ऋषि .. ओह ! क्या मुश्किल है ! ऋषि शब्द उच्चारते या लिखते ही चार्टर्ड अकांउण्टेंट्स की याद आने लगती है ! खैर, एक बार ऋषि नारद सनतकुमार के पास पहुँचे । कहा, मुझे शिक्षा दीजिए । सनतकुमार ने कहा, पहले बताओ तुम क्या जानते हो ? तब ही मैं तुम्हें उनसे आगे की बात बताऊँगा । नारद ने वह सारी बातें बता दीं जो वे जानते थे – वे वेद-उपनिषदों के ज्ञाता थे, इतिहास-पुराण और न्याय के विद्वान थे, और ज्ञान की जितनी भी शाखाएँ हैं, उन सभी शाखाओं के निपुण विद्वान थे – धर्म के तत्व को जाननेवाले, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष के पण्डितों में शिरोमणि, ऐक्य, संयोगनानात्व, और समवाय के ज्ञान में विशारद, प्रगल्भ वक्ता, मेधावी, स्मरणशक्तिसंपन्न, नीतिज्ञ, त्रिकालदर्शी, प्रमाणों द्वारा एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचे हुए, पञ्चावयवयुक्त वाक्य के गुण-दोष को जाननेवाले, सांख्य और योग के विभागपूर्वक ज्ञाता, राजनीति के छः अंगों (संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव, और समाश्रय) के उपयोग के जानकार, युद्ध और संगीत की कला में कुशल, मननशील, महातेजस्वी आदि असंख्य सद्गुणों से सम्पन्न ।

सनतकुमार ने कहा, यह सब तो बस पहली सीढ़ी है – नामों की दुनिया है । नाम पर ध्यान (नामोपास्स्व) से नामों की दुनिया के तुम अधिकारी हो जाते हो । नारद ने कहा, नाम से बड़ा क्या है, मुझे बताइए । इसके बाद सनतकुमार की सीढ़ी शुरू होती है – नाम से बड़ा वाक्, वाक् से बड़ा मन, मन से बड़ा सङ्कल्प, सङ्कल्प से बड़ा चित्त, चित्त से बड़ा ध्यान, ध्यान से बड़ा विज्ञान, विज्ञान से बड़ा बल, बल से बड़ा अन्न, अन्न से बड़ा जल, जल से बड़ा तेज, तेज से बड़ा आकाश, आकाश से बड़ा स्मरण, स्मरण से बड़ी आशा, और आशा से बड़ा प्राण । प्राण में सभी लय हो जाते हैं । इस सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर प्रत्यक्षवादी अपनी जगह सुरक्षित कर ले सकते हैं और बीच की सीढ़ियों पर भाववादियों के विभिन्न शिविर अपना ठिकाना बना सकते हैं । बहरहाल, इस सीढ़ी के अन्तिम कई पायदान (बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, प्राण, आदि के पायदान) सनतकुमार ने भौतिकवादियों के लिए सुरक्षित कर दिया है । लेकिन ठहरिये । सीढ़ी का कुछ हिस्सा अभी बाकी है । जो यह सब जान लेता है, उसपर मनन करता है, वह अपनी वाणी में सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है । .. इसके बाद, संक्षेप में, कुछ सीढ़ियाँ इस प्रकार हैं – सत्य .. विज्ञान .. मनन .. श्रद्धा .. निष्ठा .. कर्म .. सुख .. अनन्त (.. भूमानं भगवो विजिज्ञास इति ।।) .. अनन्त वह अवस्था है जहाँ दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता, दूसरा कुछ सुनाई नहीं देता, और जानने को और कुछ नहीं रहता (यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमाथ ..) ।12 नाम से शुरू होनेवाली यह सीढ़ी अनन्त पर जाकर समाप्त होती है । यह तर्क से अध्यात्म तक की यात्रा है ।

इस कथा के बाद अब हम फिर विट्गेन्स्टाइन और फेनोमेनोलॉजी के बीच रिश्तों पर लौटते हैं । यद्यपि इन रिश्तों के बारे में ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं है, फिर भी विट्गेन्स्टाइन पर शोध करनेवाले कुछ लेखकों ने इन सम्बन्धों की छानबीन की है ।

हर्बर्ट स्पाइगलबर्ग (1982) के अनुसार विट्गेन्स्टाइन ने खुद एक बार कहा था कि ‘आप मेरी रचना के बारे में यह कह सकते हैं कि यह फेनोमेनोलॉजी है ।’ उनके जो नोटबुक्स प्रकाशित हुए हैं, उनके आधार पर जे हिनतिक्का (1997) का मानना है कि 1929 के बाद के नोटबुक्स में विट्गेन्स्टाइन कई बार फेनोमेनोलॉजी की चर्चा करते हैं और शुरुआती रूप में एक विशुद्ध फेनोमेनोलॉजिकल भाषा के निर्माण को अपने दार्शनिक कार्यभार के रूप में चिह्नित करते हैं । उनका प्रश्न है कि इस साक्ष्य के बावजूद आखिर क्यों अन्य लेखकों ने इसे नज़रअन्दाज़ कर दिया ? ‘मैं विट्गेन्स्टाइन और हुसेर्ल को एक ही कोष्ठक में क्यों रखता हूँ ? इसका जवाब बिल्कुल सरल है – क्योंकि दोनों फेनोमेनोलॉजिस्ट्स हैं ।’13

बहरहाल, विट्गेन्स्टाइन और आद्य-अस्तित्ववाद के सम्बन्ध को बेहतर ढंग से समझने के लिए विट्गेन्स्टाइन के जीवन में झांकना जरूरी है ।

3. जीवन क्या जिया

जीवन के प्रवाह में ही किसी अभिव्यक्ति का अर्थ आकार लेता है । लुडविग विट्गेन्स्टाइन ।

व्यकित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ/ वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में,/ पागल था दिन में/ सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क । मुक्तिबोध, ‘अँधेरे में’ ।14

कार्ल विट्गेन्स्टाइन (1847-1913) ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के (रोथशिल्ड्स के बाद) दूसरे सबसे धनी पूँजीपति थे । जर्मनी में जन्मे यहूदी मूल के कार्ल का ऑस्ट्रिया-हंगरी के लौह-इस्पात उद्योग पर एकाधिकार था । दुनिया में सम्पत्ति तथा प्रभाव के मामले में उनकी तुलना जर्मनी में क्रुप्स, ऑस्ट्रिया-हंगरी में रोथशिल्ड्स और अमेरिका में एंड्र्यु कारनेगी के साथ की जाती थी । कारनेगी उनके मित्र भी थे । बीसवीं सदी के आरम्भ में कहा जाता था कि वियेना का स्टॉक एक्सचेंज तीन ही शक्तियों से ख़ौफ़ खाता था – ईश्वर से, शेयर व्यवसाय के अर्थशास्त्री तौसिग से, और कार्ल विट्गेन्स्टाइन से । वियेना में होनेवाले कला और संगीत से सम्बन्धित समारोहों के वे प्रायोजक भी हुआ करते थे और ऐसे कई समारोह खुद उनके बंगले पर ही होते थे ।15

26 अप्रैल, 1889 को जन्मे लुडविग विट्गेन्स्टाइन इसी परिवार की आठवीं संतान थे । कार्ल एक सफल और अत्यंत प्रभावशाली व्यवसायी तो थे ही, कड़क पिता भी थे । पूरा परिवार उनके कठोर अनुशासन में दबा-घुटा रहता । माँ लियोपोल्डाइन कालमुस कुछ कहने या दखल देने की हिम्मत नहीं जुटा पाती । वह अपनी संगीत और पियानो की दुनिया में विश्राम पाती थी ।

‘बुरे प्रभाव’ से बचाने के लिए चौदह वर्ष की उम्र तक बच्चों का स्कूल जाना तथा बाहरी दुनिया से ज्यादा घुलना-मिलना मना था । इस उम्र तक उनकी शिक्षा-दीक्षा भी घर पर ही होती थी । इस दमघोंटू वातावरण में, पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के निरन्तर दबाव में लुडविग के दो बड़े भाइयों, जोहान्स (हान्स, 1877-1902) और रुडोल्फ (रुडी, 1881-1904), ने आत्महत्या कर ली थी । प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम दिनों में युद्ध के मोर्चे पर तैनात एक और भाई कोनराड (कुर्त, 1878-1918) ने भी उस समय आत्महत्या कर ली जब उनके मातहत सैनिकों ने उनका आदेश मानने से इन्कार कर दिया । लुडविग के एक और भाई पॉल विट्गेन्स्टाइन (1887-1961) प्रतिभाशाली संगीतकार थे, लेकिन वे भी आगे चलकर घर से नाता तोड़कर न्यूयार्क में जा बसे । युद्ध के दौरान उन्हें अपना एक हाथ गंवाना पड़ा था । इस दुर्घटना के बावजूद उन्होंने अमेरिका में एक सफल पियानिस्ट तथा पियानो-शिक्षक के रूप में ख्याति अर्जित की । (अमेरिकी टीवी शो M*A*S*H, सीजन 8, एपिसोड 19, ‘मोराल विक्टरी’, पॉल विट्गेन्स्टाइन की जीवनी पर ही आधारित है ।) सबसे छोटी संतान होने और परिवार में होनेवाली इन दुःखद घटनाओं के कारण लुडविग पिता के कठोर अनुशासन से कुछ हद तक मुक्त रहे ।

बहरहाल, युवा होते लुडविग का पिता के साथ ‘ईडिपल’ संघर्ष जारी रहा – पिता, पिता के नाम और दौलत की छत्रछाया से बाहर निकलना, पिता की अपेक्षाओं से उलट राह चुनना, वियेना से दूरी बनाये रखना, पिता की मृत्यु (1913) के बाद विरासत में प्राप्त धन का लगभग पूरा-का-पूरा ‘गुप्त दान’ कर देना, आदि इसी संघर्ष की अभिव्यक्तियाँ थीं ।

विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए वे ऑस्ट्रिया छोड़ जर्मनी चले गये और वहाँ से फिर इंगलैंड । पिता चाहते थे कि वे बिजनेस की पढ़ाई करें, लेकिन उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई चुनी । 1906 से 1908 के बीच बर्लिन के नजदीक एक प्रख्यात तकनीकी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की । उन दिनों हवाई जहाजों का निर्माण अपनी प्राथमिक अवस्था में था और इंजीनियरिंग की एक शाखा के रूप में वैमानिकी की पढ़ाई अभी शुरू ही हुई थी । बर्लिन के बाद एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए उन्होंने मैनचेस्टर युनिवर्सिटी (इंगलैंड) में दाखिला लिया और 1908 से 1911 के बीच वहीं रहे । इसी दौरान 1910 में उन्होंने ‘हवाई मशीनों’ में व्यवहार में आनेवाले ‘प्रोपेलर्स’ में सुधार के लिए एक पेटेंट भी दाखिल किया और अगले साल (अगस्त 1911 में) उनका पेटेंट मंजूर कर लिया गया ।

मैनचेस्टर में वैमानिकी की पढ़ाई के दौरान ही उनकी दिलचस्पी गणित, और गणित की बुनियाद तर्कशास्त्र में हुई । आगे उनकी इच्छा गणित और तर्कशास्त्र की पढ़ाई की थी । पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि इस पढ़ाई के लिए सबसे अच्छे शिक्षक बर्ट्रेंड रसेल (1872-1970) हैं जो उस समय कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्यापक थे । और इस तरह अक्टूबर 1911 में वे रसेल के पास आ पहुँचे । रसेल तब तक ‘तार्किक परमाणुवाद’ के प्रवर्तक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके थे । आगे ए एन व्हाइटहेड के साथ लिखी उनकी किताब ‘प्रिंसिपिया मैथेमैटिका’ के प्रकाशन (1916) ने तार्किक विश्लेषण के अग्रणी दार्शनिक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को नई ऊँचाई प्रदान की । रसेल के साथ मुलाकात से ही विट्गेन्स्टाइन की जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ ।

बहरहाल, लुडविग के जीवन में जो अस्तित्वपरक तनाव था और जो उन्हें पारिवारिक विरासत के रूप में मिला था (उन्होंने अपनी किशोरावस्था में अपने दो भाइयों की आत्महत्या देखी थी और घर में जो दमघोंटू माहौल था, उसका अनुभव किया था), वह कैम्ब्रिज आने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ रहा था । समय-समय पर आत्महत्या के विचार उन्हें भी घेर लेते और उससे वे सचेत रूप से जूझते । युद्ध के पहले कैम्ब्रिज के दिनों में रसेल ने उनके साथ बिताये समय की चर्चा करते हुए लिखा है :

“प्रत्येक मध्यरात्रि को वे मेरे पास आ धमकते और करीब तीन घण्टों तक तनावपूर्ण चुप्पी के साथ एक जंगली प्राणी की तरह मेरे कमरे में चहलकदमी करते रहते । एक बार मैंने उनसे कहा, ‘तुम तर्कशास्त्र के बारे में सोच रहे हो या अपने पापों के बारे में ?’ ‘दोनों के बारे में’, उन्होंने जवाब दिया और अपनी चहलकदमी जारी रखी । मैं उन्हें यह नहीं कहना चाहता था कि यह सोने का समय है, क्योंकि संभवतः हम दोनों यह जानते थे कि मुझसे विदा लेने के बाद वे आत्महत्या कर लेंगे ।” इस तरह जब तक उनकी चहलकदमी चलती रहती रसेल भी चुपचाप बैठे रहते – बारह बजे रात से सुबह तीन-चार बजे तक !16

[एसपर्जर्स सिंड्रोम के अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ डॉ टोनी एटवुड के अनुसार विट्गेन्स्टाइन के व्यावहारिक लक्षणों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित इसी व्याधि (एसपर्जर्स सिंड्रोम) से ग्रसित थे – इस व्याधि से ग्रस्त लोगों को सामाजिक रूप से घुलने-मिलने और गैर-शाब्दिक संवाद में काफी दिक्कत आती है और साथ ही, उनमें व्यवहार तथा रुचियों में बाधित एवं दुहरावभरी प्रक्रिया देखी जाती है ।

लुडविग आजीवन अविवाहित रहे । लेकिन ऐसा माना जाता है कि उनके तीन पुरुष-प्रेमी थे – 1912-18 के दौरान डेविड ह्यूम पिनसेंट, 1930 के दशक में फ्रांसिस स्किनर और 1940 के दशक के उत्तरार्ध में बेन रिचर्ड्स । पिनसेंट दार्शनिक डेविड ह्यूम के वंशज और गणित में स्नातक थे । बर्ट्रेंड रसेल ने ही विट्गेन्स्टाइन की उनसे मुलाकात करवाई थी । आइसलैंड और नार्वे के प्रवास में वे ही उनके संगी थे और ‘ट्रैक्टेटस’ उन्हीं की स्मृति को समर्पित है ।

किशोरावस्था में वियेना की एक महिला के साथ अपने सम्बन्ध की बात विट्गेन्स्टाइन ने बाद में खुद बताई है । 1920 के दशक में तो वे एक युवा स्विस महिला मार्गेरिटा रेसपिंजर के प्यार में दीवाने हो गये थे – उन्होंने रेसपिंजर की एक मूर्ति भी बनाई थी और उनके समक्ष (बच्चे न होने की शर्त पर) विवाह का प्रस्ताव भी रखा था ।

हाफ गे ?]

अपने अस्तित्वपरक तनाव और आत्महत्या के विचारों के साथ सचेत रूप से जूझते हुए विट्गेन्स्टाइन एक वालंटियर के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल हुए, तो इसके पीछे उनका मकसद इस बात की परीक्षा करना भी था कि वे अपने इस संघर्ष में कहाँ तक कामयाब हुए हैं, और यह कि क्या युद्ध की स्थितियों में भी वे अपना मनोबल कायम रख सकते हैं ? युद्ध मोर्चे पर ही पढ़ने के लिए कुछ खोजने के क्रम में उन्हें टॉल्सटॉय की एक किताब हाथ लगी ‘द गोस्पेल इन ब्रीफ’ (संक्षिप्त सुसमाचार) और पूरे युद्ध के दौरान वे इसे बीच-बीच में पढ़ते रहते । साथी सैनिकों ने उनका नाम ही रख दिया था ‘गोस्पेलवाला वालंटियर’ । इसी किताब के एक अध्याय में उन्हें यह सूत्र लिखा मिला : ‘अतः सच्चा जीवन वर्तमान में ही जिया जाता है ।’ यही वाक्य ट्रैक्टेटस में सूत्र 6.4311 में इस तरह आया है : ‘यदि हम अमरता को अनन्त कालावधि न समझकर कालाभाव समझें तो शाश्वत जीवन वर्तमान में जीनेवाले व्यक्तियों के लिए होगा ।’ वर्तमान में जीने का यह सूत्र फेनोमेनोलॉजी का भी महत्वपूर्ण सूत्र है । उनके मनोजगत के निर्माण में आगे भी टॉल्सटॉय की रचनाओं का गहरा प्रभाव रहा – टॉल्सटॉय की कहानियों का एक संग्रह ‘ट्वेंटी थ्री टेल्स’ भी उन्हें काफी प्रिय था और कहा जाता है कि निजी सम्पत्ति और निजी भूस्वामित्व के उनके विरोध का एक स्रोत टॉल्सटॉय का वैचारिक-नैतिक प्रभाव था ।

युद्ध में शामिल होने के अपने मकसद में वे कामयाब हुए और उनकी कामयाबी का प्रमाण है ‘ट्रैक्टेटस’ । बहरहाल, अपने अस्तित्वपरक तनाव से वे आगे भी जूझते रहे ।

1913 में पिता की मृत्यु के बाद, लुडविग को पिता की ज़ायदाद का एक अच्छा-खासा हिस्सा विरासत में मिला । जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, उन्होंने करीब पाँच लाख डॉलर की सम्पत्ति विभिन्न कलाकारों-साहित्यकारों को गुप्त दान में दे दी । विट्गेन्स्टाइन ने अपने एक विश्वासी सम्पादक [वियेना से प्रकाशित पत्रिका ‘डेर ब्रेनर’ (द बर्नर) के सम्पादक लुडविग वॉन फिकर] को यह जिम्मेवारी सौंपी कि वे कलाकारों-साहित्यकारों की एक सूची बनायें जिन्हें यह गुप्त दान देना था । यह जुलाई 1914 की बात है । ऐसे सत्रह लोगों की सूची तैयार हुई जिनमें तीन अपने-अपने क्षेत्र में ख्याति अर्जित करनेवाले ऑस्ट्रियाइयों की थी । सबसे बड़ी राशि (करीब एक लाख डॉलर) मिली प्रख्यात कवि रैनर मारिया रिल्के को । ऑस्ट्रियाई चित्रकार ऑस्कर कोकोश्का को करीब पच्चीस हजार डॉलर और वास्तुशिल्पी अडोल्फ लूस को करीब दस हजार डॉलर मिले । (हाल ही में ‘दि न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्स’ में प्रकाशित अपने लेख ‘द मिस्टीरियस म्युजिक ऑफ ज्यॉर्ज त्राक्ल’ में क्रिस्टोफर बेनफे का मानना है कि सबसे बड़ी राशि (पंचानबे हजार डॉलर) त्राक्ल को मिली थी । विट्गेन्स्टाइन के वे प्रिय कवि थे – युद्ध के पूर्वी मोर्चे पर तैनात त्राक्ल मनोरोगी के रूप में अस्पताल में भर्ती थे । वालंटियर विट्गेन्स्टाइन को भी उन दिनों पूर्वी मोर्चे पर भेज दिया गया था और वे त्राक्ल से मिलने को लेकर काफी उत्साहित थे । उनसे मिलना भी तय हो चुका था, लेकिन तय तारीख के करीब चौदह दिन पहले ही त्राक्ल ने 1 नवम्बर, 1914 को आत्महत्या कर ली ।)17 वियेना से ही प्रकाशित ‘डाइ फैकेल (‘द फ्लेम’) के सम्पादक कार्ल क्रॉउस को भी अच्छी राशि मिली थी ।

1988 में विट्गेन्स्टाइन को लिखे तर्कशास्त्री-गणितज्ञ गोट्टलिब फ्रेगे के कुल इक्कीस कार्डों और पत्रों को खोज निकाला गया । दरअसल, 1930 के दशक में हायनरिख शोल्ज फ्रेगे के पत्राचारों का एक संग्रह प्रकाशित करना चाहते थे । उनकी योजना मुन्सटर विश्वविद्यालय में फ्रेगे संग्रहालय स्थापित करने की भी थी । रसेल ने इस पहलकदमी का स्वागत करते हुए फ्रेगे के साथ अपने पत्राचार की मूल प्रतियाँ उन्हें सौंप दी थी । लेकिन बार-बार अनुरोध के बावजूद, विट्गेन्स्टाइन ने (यह कहते हुए कि उनके पत्राचार निजी हैं और उनमें दार्शनिक महत्व का कुछ भी नहीं है) शोल्ज को किसी भी तरह का सहयोग देने से साफ इन्कार कर दिया था । उनके तर्क से शोल्ज और अन्य लोग भी सहमत नहीं थे लेकिन विट्गेन्स्टाइन आखिर तक नहीं माने । फलतः ये पत्र 1988 तक अनुपलब्ध ही रहे ।18

जून 1919 से अप्रैल 1920 के बीच फ्रेगे-विट्गेन्स्टाइन पत्राचार के अन्तिम चार पत्रों से यह स्पष्ट है कि फ्रेगे ने ‘ट्रैक्टेटस’ को वह महत्व नहीं दिया जिसकी विट्गेन्स्टाइन ने अपेक्षा की थी, उन्होंने विट्गेन्स्टाइन को उसमें कुछ संशोधन सुझाये थे, और संशोधित रूप में ही उसके प्रकाशन में सहयोग देने की इच्छा जताई थी । वे विट्गेन्स्टाइन के स्पष्टीकरणों से भी संतुष्ट नहीं थे । जैसाकि अब हम जानते हैं, विट्गेन्स्टाइन फ्रेगे के सुझावों को बिल्कुल निरर्थक मानते थे और उनके रुख़ से काफी आहत थे । 1919 में उन्होंने रसेल को लिखा कि फ्रेगे को ‘ट्रैक्टेटस’ का एक शब्द भी समझ में नहीं आया, और एक भी व्यक्ति द्वारा उसे न समझा जाना उनके लिए अत्यन्त पीड़ादायक था । बहन हरमिन के समक्ष भी उन्होंने फ्रेगे के रुख़ से अवसादग्रस्त होने की बात स्वीकारी थी ।

इन्हीं पत्रों से यह भी पता चलता है कि विट्गेन्स्टाइन ने फ्रेगे को भी 1918 के आरम्भ में अच्छी-खासी रक़म दी थी । फ्रेगे की आर्थिक हालत काफी खराब थी और युद्ध के अन्तिम दिनों में तो वे गरीबी के मुहाने पर आ पहुँचे थे । विट्गेन्स्टाइन की इस मदद के बिना अवकाश ग्रहण के बाद वे अपने गृहनगर बाड क्लाइनेन में अपना एक घर भी नहीं खरीद पाते ।

इस प्रकार बहन ग्रेटल का घर बनवाने के बाद वे विरासत में प्राप्त ज़ायदाद से मुक्त हो चुके थे । इसके बाद का विवरण हम पहले दे चुके हैं । यहाँ हमारा उद्देश्य विट्गेन्स्टाइन की जीवनी के विस्तार में जाना नहीं है । उनकी जीवनी के कुछ प्रसंग हम आगे के लिए सुरक्षित रखते हैं ।

यह प्रसंग समाप्त करने के पहले बताते चलें कि पारिवारिक कुलनाम विट्गेन्स्टाइन दरअसल उधार का लिया हुआ कुलनाम था, असली नहीं । ‘ट्रैक्टेटस’ की शब्दावली में कहें तो ‘लुडविग विट्गेन्स्टाइन हैं’, यह एक असत्यात्मक प्रतिज्ञप्ति थी । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यरुसलम में तैयार की गई वंशावली के अनुसार उनके परदादा मोसेर माइयेर जर्मन प्रदेश वेस्टफेलिया स्थित विट्गेन्स्टाइन की जागीर में जमीन के दलाल थे और उसी जागीर के बाड लास्फे नामक स्थान में अपनी पत्नी ब्रेंडेल सिमोन के साथ रहते थे । यह प्रदेश उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में नेपोलियन के साम्राज्य के अधीन था । 1808 में नेपोलियन ने एक आदेश जारी कर यहूदियों सहित सभी परिवारों के लिए एक दाययोग्य पारिवारिक कुलनाम ग्रहण करना अनिवार्य बना दिया । मोसेर के यहूदी परिवार ने अपने जागीरदार सेएन-विट्गेन्स्टाइन का ही कुलनाम ग्रहण कर लिया और मोसेर माइयेर मोसेर माइयेर विट्गेन्स्टाइन बन गये । यहूदी पृष्ठभूमि से दूरी बनाते हुए उनके पुत्र हरमन ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया और अपना पूरा नाम रखा हरमन क्रिश्चियन विट्गेन्स्टाइन

विट्गेन्स्टाइन ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रेडरिख़ हायेक के मौसेरे भाई थे, हालांकि आर्थिक-राजनीतिक मसलों पर उनके विचार काफी भिन्न थे ।

कैम्ब्रिज से अवकाश ग्रहण (1947) के बाद उन्होंने अपना ज्यादा वक़्त आयरलैंड में बिताया – पहले डब्लिन में, फिर उसके पश्चिमी तट पर । बीमार पड़ने के बाद वे अपने मित्रों के पास पहले ऑक्सफोर्ड, और फिर कैम्ब्रिज आ गये । फरवरी 1951 में उन्होंने कैंसर का इलाज भी बन्द करवा दिया और अपने चिकित्सक डॉ एडवर्ड बेवन और उनकी पत्नी के आमंत्रण पर उनके अन्तिम महीने उन्हीं के आवास पर गुजरे । 29 अप्रैल, 1951 को उनका निधन हो गया । वर्षों बाद डॉ बेवन ने लिखा, “इसके पहले किसी ने मेरे ऊपर इतनी गहरी छाप नहीं छोड़ी थी । मैं उनका सम्मान और उनसे प्यार करता था । वे एक महान और भले व्यक्ति थे और सर्वोपरि, ईमानदार, विनम्र, निर्भय और कृतज्ञ । मुझे नहीं लगता कि अन्त समय वे दुःखी थे । अचेत होने से पहले श्रीमती बेवन को अँग्रेजी में कहे गये उनके अन्तिम शब्द थे, ‘उनलोगों से कहिएगा मेरा जीवन शानदार गुजरा !’ ”

ऊपर हमने उनके जीवन के अस्तित्वपरक तनावों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है, उसकी पृष्ठभूमि में हम उनके आद्य-अस्तित्ववाद के प्रति आकर्षण का सूत्र पा सकते हैं ।

प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद जर्मनी खुद अस्तित्व के गंभीर संकट से गुजर रहा था । यहाँ उन दिनों की उथल-पुथल भरी दुनिया पर सरसरी निग़ाह डालना अप्रासंगिक नहीं होगा ।

4. मध्यान्तर

बीसवीं सदी की पहली अर्धशती अद्भुत अर्धशती थी । मानवजाति के हजारों वर्षों के इतिहास में चार-पाँच दशकों की ऐसी कालावधि का कोई मिलता-जुलता उदाहरण शायद ही मिले । यहाँ इस कालावधि के किसी भी पक्ष का अत्यन्त संक्षिप्त विवरण देना भी असंभव है, इसीलिए सिर्फ संकेत भर देकर मैं आगे बढ़ जाऊँगा – वह भी विशेषकर पश्चिमी दुनिया (यूरोप और अमेरिका) के संदर्भ में ।

बीसवीं सदी का आग़ाज़ ही क्वांटम तथा सापेक्षता के सिद्धान्त की उद्घोषणा से हुआ – इस वैज्ञानिक क्रान्ति ने न सिर्फ विज्ञान की दुनिया को उलट-पुलट कर रख दिया, बल्कि हमारे जीवन के सभी पक्षों को अभूतपूर्व रूप में प्रभावित किया । सौ साल बाद आज हम जिन जादुई गैजेट्स की दुनिया से घिरे हैं, वे सब उसी क्रान्ति की देन हैं ।

अब उन चीजों की दुनिया पर नज़र डालिए जो हमारे जीवन के अंग बन चुके हैं – मोटर कार, हवाई जहाज, सिनेमा, टेलीविजन, कम्प्यूटर सभी उन्हीं दिनों की देन हैं । रेडियो का बड़े पैमाने पर व्यावसायिक विस्तार भी उसी अर्धशती में हुआ । उत्पादन के क्षेत्र में इसने असेम्बली-लाइन मास प्रोडक्शन के ‘मॉडर्न टाइम्स’ का आग़ाज़ किया, और विज्ञापन तथा ब्रांडिंग के सम्मोहक संसार ने उसी अर्धशती में हमें अपने मोहपाश में जकड़ना शुरू किया । स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक्स-रे, रेडियो थेरेपी, पेनसिलिन, आदि के आविष्कार और उपयोग का भी वही समय है ।

कला के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग और आन्दोलन – क्यूबिज्म, दादावाद, सरियलिज्म, आदि – उसी दौर में परवान चढ़े । साहित्य के क्षेत्र में कहना ही क्या ? यह अर्धशती ऑस्कर वाइल्ड, जेम्स ज्वायस, मार्सेल प्रुस्त, वर्जीनिया वुल्फ, डी एच लारेंस, काफ्का जैसे रचनाकारों की अर्धशती तो थी ही, वह कला-साहित्य के क्षेत्र में अनेक प्रगतिशील आन्दोलनों की भी अवधि थी । मनोविश्लेषण के क्षेत्र में फ्रायड, तो नारी आन्दोलन तथा विमर्श के क्षेत्र में सिमोन द बोवुआर ने इस अर्धशती की शिला पर अपनी मजबूत, गाढ़ी लकीर खींच दी थी । दर्शन के क्षेत्र में होनेवाली हलचलों का हम आगे जायजा लेंगे ।

बहरहाल, यही अर्धशती अनेक युद्धों और गृहयुद्धों से होते हुए दो-दो विश्वयुद्धों की भी अर्धशती थी जिनमें करोड़ों लोग मारे गये और उत्पादक शक्तियों की अभूतपूर्व बर्बादी हुई ।

इसी अर्धशती में दो बड़ी क्रान्तियाँ हुईं – रूसी (1917) और चीनी (1949) क्रान्तियों ने वैश्विक शक्ति-संतुलन को न सिर्फ बदल कर रख दिया, बल्कि पूँजीवादी समाज के विकल्प के रूप में एक नई समाज व्यवस्था की स्थापना की आकांक्षाओं को भी जबर्दस्त आवेग प्रदान किया । इसी कालावधि में श्रमिक आन्दोलन ने महत्वपूर्ण आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक अधिकार हासिल किये, नारी आन्दोलन मजबूत हुआ और सार्विक वयस्क मताधिकार भी साकार हुआ । औपनिवेशिक तथा अर्ध-औपनिवेशिक देशों में स्वतंत्रता आन्दोलनों और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों ने इसी दौर में विराट जुझारू जन-संघर्षों का स्वरूप ग्रहण किया ।

लेकिन इसी कालावधि ने फासीवादी-नाजीवादी-नस्लवादी शक्तियों का भयावह उत्थान देखा, उनका विध्वंसक अभियान देखा, यातना-शिविरों और ऑउशवित्ज में उनकी नृशंसताएँ देखीं, और अन्ततः, इन बर्बर शक्तियों के खिलाफ अनेक वीरतापूर्ण युद्धों, बलिदानों, संघर्षों तथा प्रतिरोधों के परिणामस्वरूप उनका विनाश भी देखा ।

पूँजीवाद तो इस अर्धशती में मौत की कगार पर जाकर किसी तरह पलटा – यह 1929 की महामंदी की अर्धशती भी थी जिसे आजतक पूँजीवाद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में दर्ज किया जाता है । दो विश्वयुद्धों, दो बड़ी क्रान्तियों, नाजीवाद-फासीवाद और इन सब के बीच महामंदी ने पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक इमारत की नींव ही हिला कर रख दी थी । इसी अवधि में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व पूँजीवाद के सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ और एक प्रभुत्वशाली वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरा ।

महज पचास साल की संक्षिप्त अवधि में एक साथ इतने सारे युगान्तरकारी परिवर्तन इतिहास ने, मानव समाज ने पहले कभी नहीं देखा था । यही लुडविग विट्गेन्स्टाइन की दुनिया थी – इसी अर्धशती के समाप्त होते ही (29 अप्रैल, 1951 को) मात्र बासठ वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हो गया ।

आगे हम इसी दुनिया में तब सक्रिय दार्शनिक समूहों तथा धाराओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे ।

मार्क्सवादी दर्शन : बीसवीं सदी के प्रथम अर्धांश में यूरोप के लगभग सभी प्रमुख देशों में मार्क्सवादी दर्शन और विचारों की प्रभावकारी उपस्थिति थी । कम्युनिस्टों के अलावा यूरोप के अनेक प्रमुख गैर-कम्युनिस्ट लेखकों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, कलाकारों आदि की पूँजीवादी समाज की विकृतियों, विषमताओं और बर्बरताओं से मुक्त एक वैकल्पिक समाज-व्यवस्था के निर्माण में गहरी दिलचस्पी थी और इस लिहाज से सोवियत संघ में किये जा रहे प्रयोगों और प्रयासों के प्रति उनमें स्वभावतः एक आकर्षण था । यहाँ हम ऐसे लोगों की सूची नहीं दे सकते – ऐसे अनेक लोग विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों से जुड़े थे और अपने-अपने क्षेत्र में काफी सक्रिय थे । सोवियत संघ के पतन के बाद 1990 के दशक से आप जो वैचारिक माहौल देखते हैं, उस नजरिये से आप उन दिनों के माहौल का अन्दाजा नहीं लगा सकते । वे एक कथित यूटोपिया के साकार होने की संभावनाओं के दिन थे – 1990 के दशक की तरह (अनेक कम्युनिस्ट हल्कों में) यूटोपिया की अवसादपूर्ण स्मृति में कायान्तरण के नहीं ।19

मार्क्सवादी दर्शन के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में ब्लादिमिर इलिच लेनिन (1870-1924) उन दिनों खुद मौजूद थे और प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम दिनों (नवम्बर 1917) में रूस में एक सफल क्रान्ति का नेतृत्व कर चुके थे ।

यह क्वांटम क्रान्ति का प्रारम्भिक दौर था – परमाणु बिखंडित हो चुका था, लेकिन उसके अन्दर छिपी सूक्ष्म-कणों की दुनिया पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी । वस्तु ऊर्जा में परिवर्तित हो गया था, लेकिन वस्तु और ऊर्जा के अन्तर्सम्बन्धों पर वैज्ञानिकों में ही पर्याप्त विवाद था ।

विज्ञान में इस क्रान्ति ने दार्शनिक विमर्श के क्षेत्र में भी हलचल मचा रखी थी । कई दार्शनिक थे जो इस क्रान्ति के आलोक में वस्तु के ‘विलुप्त’ हो जाने, उसकी ‘मृत्यु’ की घोषणा कर चुके थे । रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन (खासकर मेन्शेविकों) से जुड़े कई प्रमुख नेता और विचारक भी इन नयी खोजों की रोशनी में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की पुनर्समीक्षा करने के नाम पर भाँति-भाँति की प्रत्यक्षवादी, भाववादी-रहस्यवादी और ‘अनुभवसिद्ध आलोचना’ जैसी प्रस्थापनाओं के साथ अवतरित हो रहे थे । एक बार फिर देकार्ते, कांट, बर्कले, ह्यूम, हेगेल की रचनाएँ खंगाली जा रही थीं । वैसे भी यह दौर था जब दार्शनिक विमर्श की मुख्य धारा दो प्रमुख शिविरों में बंटी थी – एक ओर अपनी कुछेक उपधाराओं के साथ प्रत्यक्षवादी (कॉम्टे), परिणामवादी (विलियम जेम्स), तथा साधनवादी (जॉन द्यु) धारा, और दूसरी ओर, अपनी सहायक उपधाराओं के साथ मार्क्सवादी-द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी धारा ।

रूस के कुछ दार्शनिक भी वस्तु के ऊर्जा में रूपान्तरित होने की पृष्ठभूमि में ‘भूत’ के गायब हो जाने का दावा कर रहे थे – और अगर ‘भूत’ की ही मृत्यु हो गई थी तो भौतिकवाद जिन्दा कैसे रह सकता था ? ये दार्शनिक एक जर्मन दार्शनिक अर्नेस्ट माख (1838-1916) से प्रभावित थे – माख प्राग तथा वियेना में भौतिकी और विज्ञान के दर्शन (फ़िलोसॉफ़ी ऑफ साइंस) के प्रोफेसर थे । वैसे तो वे प्रत्यक्षवादी धारा के ही प्रमुख दार्शनिक थे, लेकिन उन्होंने अपने समय में प्रचलित भोंडे प्रत्यक्षवाद की अपनी परिष्कृत नव-कांटवादी स्थिति से आलोचना की थी । उनका दर्शन ‘अनुभवसिद्ध आलोचना’ के नाम से जाना जाता था और उसका ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवादियों पर खासा प्रभाव था । 1897 में लाइपजिग से (जर्मन भाषा में) माख की एक किताब प्रकाशित हुई थी ‘मैकेनिक्स : ए हिस्टोरिकल एण्ड क्रिटिकल अकाउण्ट ऑफ इट्स डेवेलपमेंट’ । 1898 में ओपेन कोर्ट, शिकागो से प्रकाशित ‘पोपुलर साइंटिफिक लेक्चर्स’ में भी उनका एक आलेख संकलित था – ‘ऑन द प्रिसिपल्स ऑफ कम्पेरिजन इन फिजिक्स’ । रूसी दार्शनिक अलेक्सान्द्र मालिनोव्स्की (उपनाम बोग्दानोव), युश्केविच, निकोलाई वोल्स्की (उपनाम वेलेंतिनोव), ऑस्कर ब्लुम (उपनाम रख्मेतोव) आदि इन्हीं माख के विचारों से प्रभावित थे ।

अर्नेस्ट माख और उनके अनुयायी रूसी दार्शनिकों के विचारों का खण्डन करते हुए और विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए लेनिन ने 1908 में (फरवरी से अक्टूबर के बीच) एक किताब लिखी ‘मेटेरियलिज़्म एण्ड इम्पीरियो-क्रिटिसिज़्म’ (भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना) ।20 प्रकाशित रूप में यह किताब 1909 में आई ।

मार्क्सवादी दार्शनिक साहित्य के लिहाज से यह किताब फ्रेडरिख़ एंगेल्स द्वारा लिखी गई किताब ‘एंटी-ड्युहरिंग’ (ड्युहरिंग मत-खण्डन, 1878) के तीस वर्ष बाद सबसे महत्वपूर्ण कृति थी । दोनों में काफी समानताएँ भी थीं । ड्युहरिंग की किताब और उनके विचारों से उन दिनों जर्मन सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के कई वरीय नेता भी काफी प्रभावित थे । ड्युहरिंग ने भी नई वैज्ञानिक खोजों तथा गणित के क्षेत्र में होनेवाले नये विकासों के परिप्रेक्ष्य में मार्क्स की प्रस्थापनाओं को सुधारने, उन्हें परिष्कृत करने और नये विचारों के प्रवर्तन का दावा किया था । यही स्थिति रूस की भी थी । दोनों किताबों में आधुनिक यूरोप की विभिन्न दार्शनिक धाराओं – देकार्ते, काण्ट, दिदेरो, बर्कले, ह्यूम, हेगेल आदि – की समीक्षा तो है ही, साथ ही गणित और विज्ञान के क्षेत्र में होनेवाली अद्यतन प्रगति तथा उनके दार्शनिक निहितार्थों का भी गंभीर विवेचन है । दोनों लेखक, जाहिर है, इन दार्शनिक विवादों को समाज में चलनेवाले वर्गों/दलों के बीच के संघर्षों के साथ जोड़कर देखते हैं । उनकी नजर में आधुनिक दर्शनशास्त्र भी उतना ही पक्षपाती है जितना दो हजार साल पहले का दर्शनशास्त्र ।

वस्तु के ऊर्जा में रूपान्तरण तथा ऊर्जा-विज्ञान के विकास के संदर्भ में ‘भूत’ के गायब हो जाने की जो बात कही जा रही थी, उसके बारे में लेनिन का कहना था कि समस्या ‘वस्तु’ की भौतिकवादी दृष्टि को समझने में असमर्थता थी । वस्तु-रूपों के रूपान्तरण को वस्तु का रूपान्तरण समझ लिया गया, और इस प्रकार वस्तु के विलोप की मुनादी कर दी गई । दरअसल, भौतिकवादी दृष्टि में, ‘वस्तु एक दार्शनिक प्रवर्ग है, जो मनुष्य की संवेदनाओं द्वारा वस्तुगत यथार्थ को निर्दिष्ट करता है, हमारी संवेदनाओं द्वारा इसकी प्रतिलिपि तैयार की जाती है, इसकी छवि उतारी जाती है, इसे प्रतिबिम्बित किया जाता है, जबकि यह वस्तुगत यथार्थ हमारी संवेदनाओं से स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान होता है ।’ एक दार्शनिक प्रवर्ग के रूप में वस्तु के विलोप का शोरगुल, इसलिए, हास्यास्पद प्रलाप मात्र है ।21

लेनिन की नजर में इस भ्रमजाल का कारण यह है कि वैज्ञानिकों ने परमाणु का बिखंडन तो कर दिया है, लेकिन इस बिखंडन के बाद सूक्ष्म-कणों की दुनिया अभी उजागर नहीं हुई है – वे परमाणु को पीछे छोड़ आगे बढ़ गये हैं, लेकिन इलेक्ट्रॉन की दुनिया में उन्होंने अभी कदम नहीं रखा है । यह अन्तराल, यह अवकाश ही अनेक भ्रमों की जननी है – इस अन्तराल के कारण कुछ दार्शनिकों को ऊर्जा-विज्ञान की दुहाई देकर भौतिकवाद से भाववाद में पाला बदलने का बहाना मिल गया है । लेनिन जब यह लिख रहे थे, उसी समय उन्हें नयी जानकारी मिली और उन्होंने आगे लिखा, ‘अभी बस तीन महीने पहले (22 जून, 1908 को) ज्यां बेकेरल ने फ्रेंच एकेडेमी ऑफ साइंस को बताया कि उन्हें पदार्थ के एक नये संघटक अंग – पोजिटिव इलेक्ट्रॉन (पोजिट्रोन) – की खोज में सफलता मिली है ।’22 वैज्ञानिक प्रयोगों की तत्कालीन अवस्था – जहाँ नित नयी सूचनाएँ मिल रही थी – दार्शनिक भ्रमजाल का बस एक प्रकट कारण था । लेनिन की नजर में, असल कारण वस्तु और ऊर्जा के पारस्परिक सम्बन्ध की, उनके एक-दूसरे में रूपान्तरण की द्वंद्वात्मक अन्तःक्रिया की सही समझ का अभाव था ।

अपने समर्थन में वे वैज्ञानिक हायनरिख़ हर्त्ज की (1899 में मैकमिलन एण्ड कम्पनी लिमिटेड, लंदन, द्वारा प्रकाशित) किताब  ‘द प्रिन्सपल्स ऑफ मैकेनिक्स : प्रजेण्टेड इन अ न्यू फॉर्म’ से उद्धरण देते हुए लिखते हैं कि ‘ऊर्जा के बारे में किसी गैर-भौतिकवादी दृष्टि की संभावना तो उनके दिमाग में कभी आई ही नहीं – वे तो ऊर्जा-विज्ञान को एक संक्रमणकालीन अवस्था में भौतिक गति को अभिव्यक्त करने का एक सुविधाजनक तरीका मानते थे ।’23

यहाँ हम लेनिन की किताब (1909) और विट्गेन्स्टाइन की ‘ट्रैक्टेटस’ (1922) के बीच एक साझा सूत्र देखते हैं, हायनरिख़ हर्त्ज के रूप में । विट्गेन्स्टाइन भी अपनी किताब में हर्त्ज की ‘मैकेनिक्स’ का हवाला देते हैं । वैसे, दोनों किताबों में सहमति-असहमति के अनेक दिलचस्प सूत्र आपको मिल जाएँगे, लेकिन यहाँ हमारा इरादा किसी तुलनात्मक अध्ययन का नहीं है । 1920 में लेनिन की किताब का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ, लेकिन उन्होंने इसके मूल पाठ में कोई संशोधन नहीं किया । तब तक ईथर की अवधारणा वैज्ञानिक पूरी तरह ख़ारिज कर चुके थे, लेकिन किताब से उसे हटाया नहीं गया था ।

यहाँ हम फिलहाल जोसेफ स्तालिन और लियोन त्रॉत्स्की की चर्चा नहीं करेंगे । 1930 के दशक के उत्तरार्ध में स्तालिन-त्रात्स्की विवाद के बाद मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों का एक छोटा हिस्सा त्रात्स्की के साथ जुड़ गया था – यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों, ट्रेड यूनियनों, संस्थानों तथा दलों में भी उनकी उपस्थिति देखी जा सकती थी ।

1930 के दशक के मध्य में चीन में माओ जेदुंग का नेतृत्व कम्युनिस्टों के बीच स्थापित हो चुका था और उनकी दो दार्शनिक रचनाएँ – ‘अन्तर्विरोध के बारे में’ (अगस्त 1937) और ‘व्यवहार के बारे में’ (जुलाई 1937) लिखी जा चुकी थीं, लेकिन माओ की वैश्विक ख्याति बाद की परिघटना है ।

इटली के कम्युनिस्ट नेता अंटोनियो ग्राम्सी की यूरोप में अपनी पहचान बन चुकी थी । इटली में फासीवाद के सत्तासीन होने और उनके जेल में रहने के बावजूद यूरोप के बौद्धिक हल्कों में उनकी ख्याति थी, हालांकि उनका पूरा लेखन अभी आना और बहुप्रचारित होना बाकी था ।

हंगरी के ज्यार्ज लुकाच (1885-1971) यूरोप के बौद्धिक जगत में जाने-माने विचारक थे । उनकी प्रमुख कृति ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कनशसनेस’ 1922 में प्रकाशित हो चुकी थी और दार्शनिकों के बीच चर्चित रचना थी ।

यह थी उन दिनों आधिकारिक मार्क्सवादी दार्शनिकों की एक संक्षिप्त झांकी । बहरहाल, अमेरिका तथा यूरोप के विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक तथा अनुसंधान संस्थानों में ऐसे अनेक मार्क्सवादी दार्शनिक और विचारक थे जो सीधे तौर पर किसी मार्क्सवादी पार्टी अथवा संगठन से जुड़े न होकर भी अपने अध्ययन-अध्यापन-अनुसंधान में मार्क्सवादी दृष्टि तथा पद्धति का अनुसरण करते थे ।

क्रिटिकल थ्योरी (फ्रैंकफुर्ट स्कूल) : प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद जर्मनी खुद अस्तित्व के गंभीर संकट से गुजर रहा था । विजेता राष्ट्रों ने उसके सारे उपनिवेश छीन लिये और खुद महाद्वीपीय यूरोप में उसकी सीमाओं में मनमाने ढंग से फेरबदल कर दिया था । अन्दरूनी तौर पर जर्मनी युद्ध में पराजित होने के बाद गंभीर आर्थिक संकट और राजनीतिक अराजकता की स्थिति से गुजर रहा था ।

बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में जर्मनी की सामाजिक-जनवादी पार्टी (एसपीडी) देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन चुकी थी । उन दिनों मार्क्सवाद से प्रभावित पार्टियाँ सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ कहलाती थीं – रूस में लेनिन के नेतृत्ववाली पार्टी का भी यही नाम (रूसी सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी) था । शताब्दी के शुरू के वर्षों में इसमें फूट पर गई थी और बहुमतवाला दल इस नाम के साथ कोष्ठक में ‘बोल्शेविक’ लिखता था । ये सारे सामाजिक-जनवादी दल दूसरे इंटरनेशनल से जुड़े थे जिसके नेता कार्ल काउत्स्की थे ।

बहरहाल, सारायेवो में ऑस्ट्रियाई युवराज फ्रांज फर्डिनांड की हत्या के बाद जब महायुद्ध के बादल मंडराने लगे, तो सामाजिक-जनवादी पार्टी ने देश भर में जुलाई 1914 में युद्ध-विरोधी प्रदर्शन आयोजित किया था । लेकिन अगले ही महीने जब जर्मनी ने रूस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी (अगस्त 1914), तो कुछ नेताओं को छोड़कर पूरी एसपीडी युद्ध के पक्ष में उतर आई । 1914 में ही दूसरा इंटरनेशनल भी भंग हो गया – या यूं कहिए कि रूस को छोड़कर अन्य सभी देशों की सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ अपने-अपने देशों के शासक वर्गों के युद्ध-प्रयासों के पक्ष में खड़ी हो गईं ।

दिसम्बर 1914 में, जर्मनी के चैम्बर ऑफ डेपुटीज (लोकसभा) में युद्ध-ऋण का प्रस्ताव लाया गया, तो सिर्फ एक सामाजिक-जनवादी डेपुटी (सांसद) कार्ल लीब्कनेख़्त उसके खिलाफ बोलने के लिए खड़े हुए, लेकिन उन्हें बोलने नहीं दिया गया । तब उन्होंने एक पर्चा जारी कर जर्मन सैनिकों से अपनी ही सरकार के खिलाफ बन्दूकें मोड़ देने और उसे उखाड़ फेंकने का आह्वान किया । लीब्कनेख़्त ने अपने पर्चे में लिखा कि ‘यह एक साम्राज्यवादी युद्ध है । यह औद्योगिक तथा वित्तीय पूँजी के हित में विश्व बाजार पर नियंत्रण के लिए और विशाल भूभागों पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व कायम करने के लिए छेड़ा गया युद्ध है ।’ लीब्कनेख़्त को देशद्रोह के अभियोग में जेल में बन्द कर दिया गया । कुछ दिनों के बाद एक अन्य प्रमुख समाजवादी रोजा लक्ज़मबर्ग को भी कैद कर लिया गया । रोजा एक प्रखर मार्क्सवादी सिद्धान्तकार थीं और लेनिन से पार्टी में जनवादी-केन्द्रीयता, सोवियत के स्वरूप, पूँजी के संचय आदि विषयों पर विवाद करती रहती थीं । रोजा की एक प्रमुख रचना थी ‘द एकुमुलेशन ऑफ कैपिटल’ ।

महायुद्ध के अन्तिम वर्षों में (1917) सामाजिक-जनवादी पार्टी की युद्ध-समर्थक स्थिति के विरोधियों ने इंडिपेंडेंट सोशल-डिमोक्रेटिक पार्टी (यूएसपीडी) का गठन कर लिया । लीब्कनेख़्त और रोजा के अनुयायियों ने भी तब तक और भी क्रान्तिकारी स्थिति अपनाते हुए ‘स्पार्टकस लीग’ का गठन कर लिया था (1 जनवरी, 1916) । 1918 में जर्मनी की तेजी से खस्ताहाल होती सैन्य स्थिति तथा जर्मन शहरों में हड़ताल की एक-के-बाद-एक होती घटनाओं ने (नवम्बर 1917 की रूसी क्रान्ति की तरह) जर्मन क्रान्ति की संभावना उत्पन्न कर दी थी – अक्टूबर 1918 में कील के नौसेनिकों ने विद्रोह कर दिया, और एक जर्मन प्रदेश बेवेरिया में सोवियत-शैली के समाजवादी गणतंत्र की स्थापना भी कर दी गई, हालांकि वह अत्यन्त थोड़े दिन ही अपना वज़ूद बनाये रख सकी । नवम्बर 1918 में लीब्कनेख़्त और रोजा लक्ज़मबर्ग जेल से रिहा कर दिये गये – रिहाई के एक दिन बाद ही बर्लिन में स्वाधीन समाजवादी गणतंत्र की घोषणा कर दी गई । दिसम्बर 1918 के अन्तिम दिनों में स्पार्टकस लीग, यूएसपीडी और इंटरनेशनल कम्युनिस्ट्स ऑफ जर्मनी (आइकेडी) ने मिलकर एक काँग्रेस का आयोजन किया और इसी काँग्रेस में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया । 1 जनवरी, 1919 को लीब्कनेख़्त और लक्ज़मबर्ग के नेतृत्व में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और उसी दिन रोजा लक्ज़मबर्ग ने कम्युनिस्टों का आह्वान करते हुए कहा, ‘अब हमें पूँजीवाद को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद करने की दिशा में गंभीरतापूर्वक लग जाना चाहिए । इतना ही नहीं, हम आज इस कार्यभार को पूरा करने की स्थिति में हैं, ऐसा करना न सिर्फ सर्वहारा वर्ग के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना है, बल्कि यही मानव समाज को विध्वंस से बचाने का एकमात्र उपाय है ।’24 (वैसे निजी तौर पर रोजा जर्मनी में तत्काल क्रान्ति के पक्ष में नहीं थी, पर अपने दल के लोगों के निर्णय के बाद वह इस प्रयास में सक्रियता के साथ शामिल हो गई थी ।)

समाजवादी गणतंत्र की घोषणा तो की जा चुकी थी, अब राजधानी बर्लिन पर कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया । लेकिन यह क्रान्ति भी अल्पकालिक साबित हुई । तब सामाजिक-जनवादी पार्टी की ही सरकार थी – शायदेमन प्रधानमंत्री थे और गुस्ताव नोस्के युद्ध-मंत्री । इसी पार्टी के नेता एबर्ट ने सेना तथा फ्राइकोर्प्स (सेवा-निवृत्त फौजियों का अर्धसैनिक बल) से इस क्रान्ति का दमन करने का आह्वान किया । (एबर्ट बाद में प्रधानमंत्री बने ।) 15 जनवरी, 1919 को बर्लिन पर धावा बोल दिया गया । लक्ज़मबर्ग और लीब्कनेख़्त को गिरफ्तार कर उनकी हत्या कर दी गई । लक्ज़मबर्ग के शव को बर्लिन के एक नहर में फेंक दिया गया । एक अनुमान के अनुसार पूरे देश में चले इस प्रतिक्रान्तिकारी अभियान में करीब पच्चीस हजार लोग क़त्लेआम के शिकार हुए । नये युद्धोत्तर जर्मनी की समाजवादी आशाओं के साथ सामाजिक-जनवादियों ने ही विश्वासघात किया, एबर्ट की नयी सरकार बनी और समाजवादी शहीदों के खून से सने वाइमार गणतंत्र का जन्म हुआ । कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी । मात्र चौदह साल बाद (1933 में) इस वाइमर गणतंत्र को भी नाजीवाद की भेंट चढ़ना था ।

1919 में ही लेनिन के नेतृत्व में तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना हुई । मार्क्स-एंगेल्स के जमाने से चला आ रहा सामाजिक-जनवाद शब्द अब संशोधनवाद तथा समाजवाद से विश्वासघात का पर्याय बन चुका था । इस सामाजिक-जनवाद से नाता तोड़कर तीसरे इंटरनेशनल से जुड़ी पार्टियाँ अब कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में संगठित हुईं । क्रान्ति की विफलता और फूट तथा विभाजनों के बावजूद, जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी एक राजनीतिक शक्ति बनी हुई थी ।

इधर, जर्मनी में क्रान्ति की विफलता के बाद, कुछ मार्क्सवादी बुद्धिजीवी एक मार्क्सवादी अनुसंधान संस्थान की स्थापना के लिए प्रयासरत थे । इन्हीं में से एक थे फेलिक्स वील । वे फ्रैंकफुर्ट के एक धनी यहूदी व्यवसायी हरमन वील के पुत्र थे । फेलिक्स का इरादा एक मार्क्सवादी संस्थान की स्थापना का था, लेकिन तब जर्मनी में ‘मार्क्स’ के नाम से संस्थान खोलना जोखिम भरा होता । इसीलिए नाम रखा गया ‘सामाजिक अनुसंधान संस्थान’ । फेलिक्स चाहते थे कि एक मार्क्सवादी समूह गठित हो जो इस बात की पड़ताल करे कि क्रान्ति की सारी अनुकूल स्थितियों के बावजूद 1919 की क्रान्ति क्यों विफल हो गई, और भविष्य में क्रान्ति की सफलता के लिए क्या किया जाना चाहिए । पिता ने पुत्र की इस योजना के लिए ‘एनडॉउमेण्ट (स्थायी निधि)’ के रूप में धन का प्रबन्ध कर दिया । इस प्रकार, 22 जून, 1924 को फ्रैंकफुर्ट में ‘इंस्टीट्युट फॉर सोशल रिसर्च’ की स्थापना की गई । इसके पहले निदेशक थे वियेना विश्वविद्यालय में कानून तथा राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर कार्ल ग्रुनबर्ग । श्रमिक आन्दोलन तथा समाजवाद के इतिहास के वे जाने-माने विद्वान थे । ग्रुनबर्ग के बाद समाजविज्ञानी और दार्शनिक फ्रेडरिख़ पोलोक (1894-1970) और फिर 1930 में मैक्स होर्खाइमर (1895-1973) इसके निर्देशक बने ।

इस संस्थान ने शीघ्र ही तत्कालीन यूरोपीय बौद्धिक जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली – अनेक विचारक, दार्शनिक इस संस्थान से जुड़ गये । प्रत्यक्ष रूप में संस्थान में न होने के बावजूद वाल्टर बेंजामिन का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध था । हेनरिक ग्रॉसमैन (1881-1950), हर्बर्ट मारकुस (1898-1979), एरिक फ्रॉम (1900-1980), थियोडोर अदोर्नो (1903-1969) आदि इस संस्थान के जाने-माने विचारक थे । एरिक फ्रॉम को छोड़कर इस संस्थान से जुड़े लगभग सभी बुद्धिजीवी समृद्ध यहूदी परिवारों से ताल्लुक़ रखते थे और पिताओं के साथ अपने ईडिपल संघर्षों के जरिये उन्होंने अपनी अलग राह चुनी थी । 1920 के दशक में इस संस्थान का मास्को-स्थित मार्क्स-एंगेल्स संस्थान से भी घनिष्ठ सम्बन्ध था । आगे चलकर यही संस्थान फ्रैंकफुर्ट स्कूल अथवा क्रिटिकल थ्योरी स्कूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

अपने घोषित लक्ष्य में यह संस्थान कितना सफल हुआ – यह विश्लेषण का अलग विषय है । बहरहाल, उन दिनों पूँजीवाद की सामाजिक-आर्थिक, और खासकर सांस्कृतिक आलोचना में इन विद्वानों ने अपने ढंग से महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

ये लोग तार्किक विश्लेषण के दर्शन, विट्गेन्स्टाइन और उनके ‘ट्रैक्टेटस’ से भली-भाँति परिचित थे और उसकी बुर्जुआ दर्शन के रूप में आलोचना करते थे । महायुद्ध में वालंटियर के रूप में लुडविग की भागीदारी और उसके पक्ष में दी गई दलीलों के बारे में उनका कहना था कि युद्ध एक विपत्ति के रूप में आया था और हर कीमत पर उसकी अवहेलना की जानी थी – वह कोई उत्तेजक दुस्साहसिक अभियान नहीं था जिसमें भागीदार बनकर कोई अपने मनोबल तथा निजी दर्शन की परीक्षा ले ।

फ्रैंकफुर्ट स्कूल के ‘क्रिटिकल थ्योरी’ का जोर इतिहास तथा बौद्धिक प्रयासों के आधिकारिक-पूँजीवादी वर्णनों-व्याख्याओं को चुनौती देने और उसकी जगह मौलिक (आलोचनात्मक) चिन्तन पर था । इसकी शुरुआत वैसे तो वाल्टर बेंजामिन ने की थी, परन्तु इसे नाम दिया मैक्स होर्खाइमर ने जब 1930 में वे इसके निर्देशक बने । वे बीसवीं सदी में फलने-फूलनेवाली उन तमाम बौद्धिक प्रवृत्तियों के कटु विरोधी थे जो उनकी नजर में एक विकृत समाज व्यवस्था को बनाये रखने के साधन के रूप में इस्तेमाल किये जाते थे – जैसे, तार्किक प्रत्यक्षवाद, मूल्यविहीन विज्ञान, प्रत्यक्षवादी समाजशास्त्र आदि । अपने दिलचस्प पर्यवेक्षणों, गंभीर अध्ययनों-विश्लेषणों के जरिये वे दिखलाते हैं कि पूँजीवाद उन्हीं को जिनका वह शोषण करता है, उपभोक्ता सामग्रियों की नित नई सम्मोहक दुनिया में उलझा कर रख देता है – हम भूल जाते हैं कि जीवन जीने के और भी तरीके हो सकते हैं, हम इस सच्चाई को देख नहीं पाते हैं कि हम अपने वस्तुपूजक ध्यानाकर्षण और जबरन जरूरी बना दी गयी नयी-नयी उपभोक्ता-सामग्रियों की उत्तरोत्तर बढ़ती मदहोशी में दरअसल पूँजीवादी व्यवस्था के जाल में बुरी तरह फँस चुके हैं ।25

बहरहाल, 13 मार्च, 1933 को फ्रैंकफुर्ट टाउन हॉल पर नाजियों ने अपना स्वस्तिक झण्डा लहरा दिया और उसी दिन पुलिस ने संस्थान पर ताला जड़ दिया । मैक्स होर्खाइमर समेत पूरा संस्थान 1934 के अन्त में अमेरिका में स्थानान्तरित हो गया जहाँ उसे कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने शरण दिया । न्यूयार्क में अब वह प्रवासी फ्रैंकफुर्ट स्कूल ‘इंटरनेशनल इन्स्टीट्युट ऑफ सोशल रिसर्च’ के नाम से स्थापित हुआ ।

अस्तित्ववाद : इसी समय, 1930 के दशक के आरम्भ में हुसेर्ल के फेनोमेनोलॉजी से प्रेरित अस्तित्ववादी दर्शन भी आकार ले रहा था जिसके मुख्य प्रतिनिधि थे ज्यां पॉल सार्त्र और सिमोन द बोवुआर । पेरिस इसका मुख्य केन्द्र था । इस दार्शनिक आन्दोलन से भी विभिन्न समय में कई प्रख्यात लेखक, कलाकार, राजनीतिज्ञ आदि जुड़े थे – मार्टिन हाइडेगर (1879-1976), कार्ल जेस्पर्स (1883-1969) और उनकी पत्नी गर्त्रुद जेस्पर्स (1879-1974), एडिथ स्टाइन (1891-1942), रेमण्ड एरों (1905-1983), हन्ना अरेंत (1906-1976), इमानुएल लेविनास (1906-1995), मॉरिस मर्लो-पोंटी (1908-1961), फ्रेंच-अल्जीरियन उपन्यासकार, नाटककार, एक्टिविस्ट अल्बेर कामू (1913-1960) आदि । बाद में और कई लोग इससे जुड़े – जैसे फ्रांज फेनों (1925-1961), ट्युनिसियाई उपन्यासकार, सामाजिक सिद्धान्तकार अल्बर्ट मेम्मी आदि ।

इनमें से सिर्फ मार्टिन हाइडेगर ने नाजीवाद के समक्ष घुटने टेक दिए थे । पोलैंड में जन्मी एडिथ स्टाइन हुसेर्ल की सहायक रह चुकी थी, यहूदी धर्म छोड़कर रोमन कैथोलिक नन बन गई थी, फिर भी नाजियों के कोप से बच नहीं सकी और गिरफ्तार होने के बाद ऑउशवित्ज के गैस चैम्बर में मारी गई ।

हुसेर्ल अपने शिष्य हाइडेगर के व्यवहार अत्यन्त निराश थे । लगभग गुमनामी में 1938 में उनका देहान्त हो गया था । उनकी पाण्डुलिपियों को जर्मनी से सुरक्षित बाहर ले जाने में उनकी पत्नी माल्विन हुसेर्ल (1860-1950) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

सैद्धान्तिक मतभेदों के बावजूद अनेक मार्क्सवादी विचारकों तथा राजनीतिज्ञों का अस्तित्ववादी दार्शनिकों और लेखकों के साथ उठना-बैठना चलता रहता था । इस दार्शनिक प्रवृत्ति की कुछ चर्चा हम पहले कर चुके हैं ।

जिन वैचारिक-राजनीतिक घटनाओं के बीच विट्गेन्स्टाइन का जीवन गुजरा था, ऊपर हमने उसकी एक संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की है । इन घटनाओं के सूत्र उनके जीवन से भी जुड़े थे, लेकिन उसकी चर्चा हम आगे करेंगे । फिलहाल, इस मध्यान्तर के बाद हम पुनः विट्गेन्स्टाइन की तार्किक-गणितीय दुनिया में लौटते हैं ।

5. ईश्वर की दया से वंचित गणित

अभिजात्य अंक नहीं होते । (‘ट्रैक्टेटस’, 5.453) .. कोई संख्या अभिजात्य नहीं होती । (5.553)

गणितीय सत्य ईश्वर के अस्तित्व से स्वतंत्र है । डेविड हिल्बर्ट (1862-1943)

प्रत्येक धारा के दार्शनिक अपनी धारा को केन्द्र में रखकर दर्शनशास्त्र के इतिहास का अध्ययन करते हैं । भौतिकवादी इतिहास को भौतिकवादी और भाववादी खेमों में बांटकर देखते हैं । इसी तरह अद्वैतवादी अद्वैत और द्वैत के बीच द्वंद्व के रूप में इसका विवेचन करते हैं । तार्किक दर्शन के दर्शनशास्त्री भी दर्शनशास्त्र के पूरे इतिहास को दो खेमों में बांटकर देखते हैं और फिर इस इतिहास में अपने नये दर्शन को समुचित स्थान पर अवस्थित करने का प्रयास करते हैं ।

तार्किक विश्लेषण के दर्शनशास्त्र के सबसे ख्यातिप्राप्त दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल के अनुसार, ‘पाइथागोरस के समय से ही दार्शनिकों के दो विरोधी खेमे रहे हैं – एक समूह के विचार मुख्यतः गणित से प्रेरणा पाते थे, और दूसरे समूह अनुभवजन्य विज्ञानों से प्रभावित थे । प्लेटो, थॉमस अक्विनास, स्पिनोजा, और काण्ट गणितवाली पार्टी में थे, जबकि दिमोक्रितु, अरस्तू, और लॉक से शुरू कर बाद के सभी अनुभववादी विरोधी पार्टी में । हमारे समय में दर्शन की एक नयी शाखा का प्रादर्भाव हुआ है जो गणित के उसूलों से पाइथागोरस के सिद्धान्तों को हटाकर उसे मानवीय निगमनात्मक ज्ञान में दिलचस्पी रखनेवाले अनुभववाद के साथ युक्त करने की दिशा में काम कर रही है । इस शाखा के दार्शनिकों का लक्ष्य अतीत के अधिकांश दार्शनिकों के जितना चौंकानेवाला तो नहीं है, लेकिन उसकी कुछ उपलब्धियाँ वैज्ञानिकों की उपलब्धियों जितनी ही ठोस हैं । इस दर्शन की जड़ें उन गणितज्ञों की उपलब्धियों में हैं जिन्होंने गणित को भ्रान्तियों तथा सतही तर्कों से मुक्त करने का बीड़ा उठाया है ।’26

आधुनिक काल में गणित और तर्कशास्त्र की जिस परम्परा से यह तार्किक विश्लेषण का दर्शनशास्त्र खुद को जोड़ता था, उस चर्चा में जाने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि किसी भी ज्ञानशाखा के इतिहास को इस तरह के विरोधी खेमों में बांटकर देखने की पद्धति ही मुझे मनमानी तथा समस्याग्रस्त लगती है । विचारक और उनके विचार जड़ श्रेणियाँ नहीं होतीं – कम ही ऐसे विचारक मिलेंगे जो अपने कुछ वैचारिक सूत्रों के आजीवन बन्दी होकर रहे और जिनके वैचारिक सूत्र उनके पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों का समान रूप से नियमन करते रहे । हर विचारक के जीवन के अनेक आयाम होते हैं और हर आयाम समानान्तर रूप से ताल मिलाकर नहीं चलते – विट्गेन्स्टाइन के अध्ययन में मैंने उपर्युक्त पद्धति को महत्व नहीं दिया है ।

वापस आधुनिक काल में गणित के विकास के प्रश्न पर लौटते हैं जिससे यह नया दर्शन आवयविक रूप से जुड़ा था ।

आरम्भ ही रूपात्मक तर्कशास्त्र (फॉरमल लॉजिक) के लिए चुनौतीपूर्ण था । √−1 (ऋण एक वर्गमूल) के रूप में काल्पनिक संख्या गणित में दाखिल हो चुकी थी – सोलहवीं सदी में जेरोलामो कारडानो (1501-1576) और बाद में कुछ अन्य गणितज्ञों (खासकर, लियोनार्ड यूलर, 1707-1783, और कार्ल फ्रायडरिख़ गॉस, 1777-1855) ने गणित में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग कर ‘नये गणित’ का मार्ग प्रशस्त कर दिया । ‘यह एक विरोध है कि कोई ऋणात्मक मात्रा किसी चीज का वर्ग हो, क्योंकि किसी भी ऋणात्मक मात्रा को यदि स्वयं उसी से गुणा कर दिया जाए तो उसका फल एक धनात्मक वर्ग होता है । इसलिए ऋण एक वर्गमूल (√−1) न केवल एक विरोध है, बल्कि एक बेतुका विरोध है । लेकिन फिर भी गणित की सही क्रियाओं का फल आवश्यक रूप से √−1 होता है । और, जरा यह भी सोचिए कि यदि गणित को √−1 का प्रयोग करने की मनाही कर दी जाए तो निम्न अथवा उच्च दोनों प्रकार के गणित का क्या हाल होगा ?’27

रूपात्मक तर्कशास्त्र अब तक युक्लिड की ‘एलीमेण्ट्स’ की अचर, स्थिर, व्यवस्थित दुनिया में विचरण करता था, लेकिन इसी समय गणित में चर संख्याओं/मात्राओं के प्रवेश ने शताब्दियों से चली आ रही इस दुनिया में हलचल मचा दी – रूपात्मक तर्क का स्थान द्वंद्वात्मक तर्कशास्त्र ने ले लिया । ‘चर मात्राओं का प्रयोग करते हुए गणित स्वयं द्वंद्ववाद के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है, और यह बात महत्व से खाली नहीं है कि इस प्रगति का श्रेय एक द्वंद्ववादी दार्शनिक देकार्ते (1596-1650) को है ।’28

बहरहाल, गणित के क्षेत्र में असली संघर्ष अभी बाकी था । यह आधुनिक दुनिया का संभवतः सबसे लम्बे समय तक चलनेवाला संघर्ष था जिसकी परिणति गणित की एक नयी शाखा ‘कैलकुलस’ के जन्म में हुई । यह संघर्ष गणित में अनन्त रूप से सूक्ष्म संख्याओं/मात्राओं (इनफिनिटिसमल, अत्यणु) की स्वीकृति को केन्द्र कर चला था । करीब शताब्दी तक चलनेवाले इस यूरोपव्यापी संघर्ष में दोनों पक्षों में बड़े-बड़े नाम थे । गणित की सीमा से आगे जाकर यह संघर्ष आधुनिकता के लिए यूरोप में चलनेवाले सामाजिक संघर्ष में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाला था ।

एक ओर, ईसा से करीब तीन सौ वर्ष पूर्व युक्लिड द्वारा रचित द एलीमेण्ट्स की अचर मात्राओं की स्थिर, सुनिश्चित, व्यवस्थित दुनिया थी, दूसरी ओर चर मात्राओं की, अत्यणुओं की चंचल, अस्थिर, अनिश्चित, अराजक दुनिया ।

एक ओर जेसुइट्स थे, थॉमस हॉब्स थे, फ्रांस के शाही दरबारी थे, हाइ चर्च एंग्लिकंस थे । दूसरी ओर, गेलीलियो (1564-1642) थे, गणितज्ञ और गेलीलियो के शिष्य बोनावेंचुरा केवेलियेरी (1598-1647) थे, इवेंजेलिस्टा टॉरीसेली (1608-1647) थे, इंगलैंड के जॉन वालिस (1616-1703) थे ।

यूरोप लूथर के धर्मसुधार आन्दोलन, उस दौरान मची अराजकता, और अनेक छोटे-बड़े युद्धों से गुजर रहा था । जेसुइट इस अराजक स्थिति पर रोमन कैथोलिक चर्च की व्यवस्थित, निरंकुश सत्ता फिर से स्थापित करने में लगे थे – इस अभियान में उनके शिक्षण-संस्थानों के वैश्विक नेटवर्क की बड़ी भूमिका थी । संभवतः इतिहास में शैक्षणिक संस्थाओं की सबसे बड़ी श्रृंखला का नियंत्रण जेसुइट्स के हाथों में था जिसकी कैथोलिक धर्म के प्रचार-प्रसार तथा धर्मान्तरण में अहम भूमिका थी । पूर्व में जापान के नागासाकी से पश्चिम में पेरू के लीमा तक जेसुइट कॉलेजों की संख्या 1626 में 446 तथा 1749 में 669 थी । इसके अलावा, सेमिनरियों और स्कूलों की संख्या क्रमशः 100 और 176 थी ।29 शिक्षण संस्थानों के इतने विशाल नेटवर्क में (सबसे ज्यादा ऐसे संस्थान स्वभावतः यूरोप में ही थे) अत्यणु गणित की पढ़ाई प्रतिबन्धित थी । यूरोप के शाही घराने के सदस्य, अभिजात्य वर्ग के बच्चे, सभी उन्हीं स्कूलों में पढ़ते थे । सम्राट फर्डिनांड द्वितीय, रेने देकार्ते आदि सभी जेसुइट कॉलेजों के ही स्नातक थे । (देकार्ते की शिक्षा-दीक्षा फ्रांस में जेसुइट्स के सर्वश्रेष्ठ कॉलेज में हुई थी, हालांकि बाद में अपनी किताब में उन्होंने लिखा कि यूरोप के सर्वश्रेष्ठ जेसुइट कॉलेज में हासिल सारा ज्ञान उन्हें निरर्थक प्रतीत हुआ ।)30

बहरहाल, लम्बे संघर्ष के बाद युक्लिड के गणित पर अत्यणु के गणित की जीत हुई । ‘ईश्वर ने ज्यामिति के शाश्वत नियमों के जरिये पदार्थों की अराजक दुनिया पर जो व्यवस्था थोप रखी थी, वह व्यवस्था एकबारगी ध्वस्त हो गई ।31

जब से चर परिणामों का प्रयोग होने लगा है और उनकी विचरणशीलता का अतिमहत् और अत्यणु तक विस्तार हो गया है, तब से गणित जिसका आचरण साधारणतया अत्यधिक नीतिसंगत हुआ करता था, ईश्वर की दया से वंचित हो गया है । उसने ज्ञान-प्राप्ति के वृक्ष का फल चख लिया है, जिससे एक ओर उसके सामने विराट उपलब्धियों के द्वार खुल गये हैं, किन्तु उसके साथ-साथ दूसरी ओर, भूलों का मार्ग भी खुल गया है । निरपेक्ष सप्रमाणता और गणित की प्रत्येक बात की अकाट्य प्रामाणिकता की अछूती अवस्था का सदा के लिए अन्त हो गया है; वाद-विवाद का युग आरम्भ हो गया है । फ्रेडरिख़ एंगेल्स, ‘ड्युहरिंग मत-खण्डन’ ।32

इस जीत के परिणामस्वरूप गणित की एक नई शाखा कैलकुलस (कलन) का जन्म हुआ – लगभग एक ही समय में इंगलैंड में इसाक न्यूटन (1643-1727), और जर्मनी में गॉटफ्राइड विल्हेल्म लाइबनीज़ (1646-1716) ने इसकी नींव रखी । न्यूटन ने अत्यणुओं के अपने प्रयोगों के जरिये वैसे तो 1665 में ही कैलकुलस की तकनीक विकसित कर ली थी, लेकिन 1687 में प्रकाशित अपनी ‘प्रिंसिपिया मैथेमैटिका’ में ही उन्होंने इस पद्धति को पहली बार प्रस्तुत किया । दूसरी ओर, लाइबनीज़ ने कैलकुलस की अपनी प्रणाली 1675 में विकसित की और न्यूटन के प्रकाशन के तीन वर्ष पहले 1684 में ‘इक्टा इरुडिटोरियम’ पत्रिका में कैलकुलस पर अपना पहला विद्वतापूर्ण आलेख प्रकाशित किया ।33

कहने की जरूरत नहीं कि इस नये गणित में भी कुछ विसंगतियाँ मौजूद थीं जिनके निराकरण के प्रयासों के जरिये इस गणित को और विकास लाभ करना था ।

बहरहाल, कैलकुलस के विकास ने ज्ञान की अन्य शाखाओं को भी प्रभावित किया – दर्शनशास्त्र, प्रकृति-विज्ञान, यांत्रिकी, अर्थशास्त्र, कोई इससे अछूता न रहा । अर्थशास्त्र का गणितीय स्कूल तो इसी कैलकुलस का परिणाम था । कार्ल मार्क्स खुद लाइबनीज़ के बड़े प्रशंसक थे ।34

लाइबनीज़ खुद एक दार्शनिक थे और रसेल के अनुसार, उन्होंने अपनी कुछ दार्शनिक अवधारणाएँ अपने कैलकुलस पर भी आरोपित कर दी थीं । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में गणितज्ञ वायरस्ट्रॉस ने लाइबनीज़ की विसंगतियों से कैलकुलस को मुक्त करने का दावा किया और यह दिखाया कि अत्यणुओं के बिना भी कैलकुलस की स्थापना की जा सकती है । रसेल की नज़र में वायरस्ट्रॉस ने इस तरह कैलकुलस को तार्किक रूप से और सुरक्षित कर दिया । (यहाँ याद दिला दें कि फेनोमेनोलॉजी के प्रवर्तक हुसेर्ल ने वायरस्ट्रॉस से ही गणित और तर्कशास्त्र की शिक्षा ली थी ।) वायरस्ट्रॉस के बाद जॉर्ज कैंटर ने निरन्तरता और अनन्तों के अपने सिद्धान्त के जरिये इस परम्परा को आगे बढ़ाया ।

कैंटर के बाद इस गणितीय-तार्किक परम्परा में अगला महत्वपूर्ण नाम गोट्टलिब फ्रेगे (1848-1925)का है । फ्रेगे के पहले, रसेल के अनुसार, संख्या की प्रत्येक परिभाषा में प्राथमिक तार्किक भूलें थीं जिसे फ्रेगे ने 1879 तथा 1884 की अपनी रचनाओं में सुधारा और यह दिखाया कि अंकगणित, और शुद्ध गणित भी, और कुछ नहीं निगमन तर्कशास्त्र का महज विस्तार है । फ्रेगे 1903 तक गणित की दुनिया में लगभग गुमनाम ही रहे – रसेल ने ही उनकी ओर ध्यान आकृष्ट कराया । फ्रेगे के काम को आगे बढ़ाते हुए रसेल और व्हाइटहेड ने ‘प्रिंसिपिया मैथेमैटिका’ में तर्कशास्त्र से शुद्ध गणित के विकास का विस्तार से वर्णन किया है ।35

यह थी बर्ट्रेंड रसेल के तार्किक विश्लेषण के दर्शनशास्त्र की विकास-यात्रा । विट्गेन्स्टाइन की ‘ट्रैक्टेटस’ इसी दर्शनशास्त्र की विसंगतियों को दूर करने का दावा करती है । इस प्रकार, ‘ट्रैक्टेटस’ तक की यात्रा को हम निम्नलिखित रूप में व्यक्त कर सकते हैं :

लाइबनीज़ → वायरस्ट्रॉस → जॉर्ज कैंटर → फ्रेगे → बर्ट्रेंड रसेल → विट्गेन्स्टाइन (‘ट्रैक्टेटस’)

इस प्रकार विट्गेन्स्टाइन के दर्शन, और खासकर ट्रैक्टेटस का सबसे प्रमुख स्रोत यही तार्किक-गणितीय परम्परा थी ।

यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जो लोग इस तार्किक-गणितीय परम्परा से परिचित नहीं हैं, तर्कशास्त्र तथा गणित के सिद्धान्तों, शब्दावलियों एवं समीकरणों से अवगत नहीं हैं, उन्हें ‘ट्रैक्टेटस’ काफी दुरूह लगेगा या समझ में नहीं आएगा । ठीक उसी तरह जैसे आप अगर साहित्य के विद्यार्थी के समक्ष बिना किसी संदर्भ और व्याख्या के इंजीनियरिंग की किताब रख दें तो उसे समझना उसके लिए संभव नहीं होगा – यहाँ तक कि संदर्भ और व्याख्या के बाद भी वह उसे समझने में काफी कठिनाई महसूस करेगा ।

इसलिए विट्गेन्स्टाइन ने ‘ट्रैक्टेटस’ के प्राक्कथन के पहले पैराग्राफ में ही यह स्पष्ट कर दिया है, ‘संभवतः इस पुस्तक को सिर्फ वही समझ पाएगा जिसने पहले से ही इसमें अभिव्यक्त विचारों या कम-से-कम उनसे मिलते-जुलते विचारों पर मनन किया हो । इसलिए यह कोई पाठ्य-पुस्तक नहीं है । इसको पढ़कर समझनेवाले किसी एक व्यक्ति को भी यदि यह पुस्तक आनन्द प्रदान करे तो यह अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो जाएगी ।’

दार्शनिक विचारों के (और किसी भी ज्ञान-शाखा के विचारों के) विकास का क्रम कुछ इस प्रकार होता है – नया दार्शनिक अथवा विचारक अपने पूर्ववर्ती दार्शनिक या विचारक (खासकर जिसका वह अनुसरण करता है) के विचारों में मौजूद विसंगति अथवा अपूर्णता की शिनाख़्त करता है और उस विसंगति अथवा भूल को सुधारने के जरिये अपनी कुछ नयी प्रस्थापनाओं के साथ उपस्थित होता है – उसकी यह नयी प्रस्थापना ही खुद उसकी अपनी पहचान का प्रतीक बन जाती है । फिर उस प्रस्थापना या उन प्रस्थापनाओं के इर्द-गिर्द उसके विचारों की अपनी नयी दुनिया आकार लेती है । उस दार्शनिक को लगता है कि उसने दर्शनशास्त्र में जो विसंगति और भूल थी, उसका समाधान कर दिया है और अब कुछ करने को नहीं रह गया है । दार्शनिक विचारों के इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे-पड़े हैं, और ऐसे दावे शब्दशः अनेक दार्शनिकों की रचनाओं में मिल जाएँगे । दुनिया के बारे में हमारा ज्ञान सही है या गलत, सही और गलत के निर्धारण का पैमाना एवं तरीका क्या होगा, जैसे प्रश्नों से शुरू करते हुए इन दार्शनिकों को ऐसा महसूस होता है कि उनका पूर्ववर्ती ज्ञान अथवा उनके पूर्ववर्ती दार्शनिकों द्वारा सुझाए गये विचार (तथा पद्धति) नाकाफ़ी हैं, समस्याग्रस्त हैं, जीवन और समाज के समक्ष उत्पन्न नयी चुनौतियों का जवाब देने में वे असमर्थ हैं । देकार्ते को कॉलेज में हासिल सारा ज्ञान निरर्थक लगा, आठ वर्षों तक वे गाँवों में घूमते रहे, एकान्त में चिन्तन-मनन करते रहे । गाँवों में घूमते और किसानों-कारीगरों के साथ बातचीत में उन्हें लगा कि कॉलेज में हासिल ज्ञान की तुलना में गाँव के लोगों के साथ संवाद ज्यादा ज्ञानवर्धक रहा – अलग-अलग क्षेत्रों में भ्रमण से प्रकृति तथा समाज के बारे में दृष्टि और अनुभव का विस्तार हुआ । काण्ट को देकार्ते के विचारों में असंगति दिखायी दी और हेगेल को काण्ट के विचारों में । विट्गेन्स्टाइन की तरह ही इमानुएल काण्ट (1724-1804) ने ‘द क्रिटिक ऑफ प्योर रीजन’ के पहले संस्करण की भूमिका में लिखा, ‘मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि एक भी ऐसी आधिभौतिक समस्या नहीं है जिसका यहाँ (इस किताब में) समाधान प्रस्तुत नहीं किया गया है, अथवा कम-से-कम उसके समाधान की कुंजी यहाँ नहीं दी गई है ।’ दूसरे संस्करण की भूमिका में तो उन्होंने अपनी तुलना कॉपरनिकस से करते हुए कहा कि उन्होंने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में कॉपरनिकन क्रान्ति को अंजाम दिया है ।36 कुछ इसी तरह का दावा विट्गेन्स्टाइन अपने प्राक्कथन में करते हैं, ‘.. मैं समझता हूँ कि समस्त महत्वपूर्ण विषयों और समस्याओं का मुझे समुचित निदान मिल गया है ।’

यहाँ खुद रसेल को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा : ‘तार्किक विश्लेषण के दर्शनशास्त्र के लिए सामग्री पदार्थ-विज्ञान और शुद्ध गणित ने जुटाई । सापेक्षता का सिद्धान्त और क्वांटम यांत्रिकी इसका खास जरिया बने । .. बहरहाल, क्वांटम सिद्धान्त से तालमेल बिठानेवाला दर्शनशास्त्र अब भी पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हुआ है । भौतिकशास्त्र जहाँ एक ओर भूत की भौतिकता का क्षरण कर रहा है, वहीं मनोविज्ञान मन की मानसिकता का । .. आधुनिक विश्लेषणात्मक अनुभववाद .. लॉक, बर्कले और ह्यूम के अनुभववाद से इस मामले में भिन्न है कि इसने गणित को अपना लिया है और एक मजबूत तार्किक तकनीक विकसित कर ली है । यह अब कुछ खास सवालों के सुनिश्चित जवाब हासिल करने में समर्थ है, जो दर्शनशास्त्र की तुलना में विज्ञान का गुण है । एक पूरी प्रणाली की रचना करनेवाले दर्शनों की तुलना में इसका एक लाभ यह है कि एक-एक समय में यह एक-एक समस्या को हाथ में लेने में सक्षम है, इसे एक ही झटके में समूचे ब्रहमाण्ड के एकमुस्त सिद्धान्त का आविष्कार करने की जरूरत नहीं पड़ती । इस  लिहाज से इसकी पद्धति विज्ञान की पद्धति से मेल खाती है । .. समूचे इतिहास में दर्शनशास्त्र के दो हिस्से रहे हैं और इन दोनों के बीच सामञ्जस्य का अभाव रहा है – एक हिस्सा विश्व की प्रकृति के बारे में रहा है, और दूसरा हिस्सा जीने के सर्वश्रेष्ठ तरीके के रूप में नैतिक अथवा राजनीतिक सिद्धान्तों के बारे में । पर्याप्त स्पष्टता के साथ इन दोनों हिस्सों को पृथक करने में विफलता भ्रमपूर्ण चिन्तन का बड़ा स्रोत रही है । प्लेटो से लेकर विलियम जेम्स तक, सभी दार्शनिकों ने विश्व की संरचना के बारे में अपने विचारों को नैतिक उन्नति की अपनी आकांक्षा से प्रभावित होने दिया । .. जहाँ तक मेरा सवाल है नैतिक और बौद्धिक दोनों आधारों पर मैं इस तरह की प्रवृत्ति को अनुचित मानता हूँ । नैतिक रूप से कोई भी दार्शनिक अगर सत्य की निष्पक्ष खोज से इतर किसी भी चीज के लिए अपनी पेशेवर योग्यता का उपयोग करता है, तो वह एक तरह के विश्वासघात का दोषी है । .. सच्चा दार्शनिक तमाम पूर्व धारणाओं की समीक्षा के लिए तैयार रहता है । जब कभी सचेत या अचेत रूप से सत्य की खोज पर किसी भी तरह की बंदिश लगाई जाती है, तब दर्शनशास्त्र भय से पंगु हो जाता है, और ‘खतरनाक विचार’ रखनेवाले लोगों को दंडित करने के लिए सरकारी सेंसरशिप की जमीन तैयार हो जाती है – दरअसल, दार्शनिकों ने अपने ऊपर खुद इस तरह की सेंसरशिप लगा रखी है । मैं यह नहीं कहता कि हमारे पास तमाम प्राचीन सवालों का निश्चित जवाब तत्काल हाजिर है, लेकिन मैं यह जरूर कहूँगा कि एक ऐसी पद्धति खोज ली गई है जिसके जरिये हम विज्ञान की तरह, सत्य के ज्यादा करीब पहुँच सकते हैं, और जिसमें हर नया स्तर बीते हुए का नकार नहीं, बल्कि उसमें सुधार का परिणाम होता है । ..’37

‘ट्रैक्टेटस’ में विट्गेन्स्टाइन तार्किक-गणितीय पद्धति का अनुसरण करते हुए फ्रेगे-रसेल की प्रस्थापनाओं में निहित असंगतियों को उजागर करते हैं, उनमें सुधार करते हैं और इस क्रम में अपनी कुछ मौलिक प्रतिज्ञप्तियों का प्रवर्तन करते हैं – इस प्रकार ‘ट्रैक्टेटस’ में फ्रेगे-रसेल की आलोचनात्मक समीक्षा के जरिये वे उनकी छत्रछाया से (उनके प्रति आभार प्रकट करते हुए) बाहर निकल आते हैं । यह एक ही साथ स्वीकार भी है और नकार भी, साथ का आभार भी है और विदाई का संकेत भी, ऋणी होने का भाव भी है और ऋण-मुक्ति की संतुष्टि भी । अपने निजी जीवन में भी वे कुछ वर्षों के लिए दर्शनशास्त्र से छुट्टी ले लेते हैं । समस्त महत्वपूर्ण विषयों और समस्याओं का निदान उन्हें मिल गया था, और दर्शनशास्त्र में करने को कुछ खास नहीं रह गया था ।

विट्गेन्स्टाइन की प्रतिभा को देखते हुए रसेल को उनसे काफी उम्मीदें थीं – उन्हें विश्वास था कि वे तार्किक परमाणुवाद को नई ऊँचाई प्रदान करेंगे । लेकिन ‘ट्रैक्टेटस’ की कुछ प्रस्थापनाओं को लेकर उनको गहरी आशंकाएँ थीं और आगे भी वे उनके रहस्यवाद तथा ‘गैर-गम्भीर’ विषयों में अभिरुचि से चिंतित थे । दोनों के बीच दूरी निरन्तर बढ़ती गई । फ्रेगे के रुख़ के बारे में हम पहले जिक्र कर चुके हैं । इन सबके बावजूद फ्रेगे और रसेल के प्रति विट्गेन्स्टाइन की श्रद्धा बनी रही और उनके साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध भी ।

अनेक दार्शनिकों और विचारकों को अपने जीवनकाल में ही अपने पूर्व के दावों की – सभी समस्याओं का निदान ढूँढ़ लेने के दावों की – निरर्थकता का अहसास हो जाता है, और इस भ्रांति से मुक्त होकर वे आगे बढ़ जाते हैं । वियेना सर्कल, रैमसे और पियेरो स्राफा समेत अपने अन्य मित्रों के साथ बातचीत से विट्गेन्स्टाइन को ‘ट्रैक्टेटस’, खासकर चित्र-सिद्धान्त की सीमाओं का आभास हो गया था । आगे अपने ही कतिपय निष्कर्षों के प्रति संशयात्मक रुख़ बढ़ता ही गया । वैसे तार्किक-गणितीय भाषा विकसित करने और भाषा की समीक्षा में उनकी दिलचस्पी आगे भी बनी रही ।

मृत्यु के समय विट्गेन्स्टाइन करीब 20,000 पृष्ठों की अप्रकाशित सामग्री छोड़ गये थे और अपनी वसीयत में रश रीस, मिस एन्सकोम्बे और प्रोफेसर वॉन राइट को उसके प्रकाशन की जिम्मेवारी सौंप गये थे । उनकी दूसरी महत्वपूर्ण कृति ‘फ़िलोसॉफ़िकल इनेवेस्टिगेशन्स’ ‘ट्रैक्टेटस’ के 31 साल बाद उनके मरणोपरान्त प्रकाशित हुई । इन तीस वर्षों में उनके विचारों में काफी परिवर्तन आ चुका था । ‘ट्रैक्टेटस’ की तरह ‘इन्वेस्टिगेशन्स’ में भी सूत्र हैं , लेकिन सूत्रों से ज्यादा प्रश्न हैं – कुल 784 प्रश्न जिनमें से मात्र 110 के जवाब दिये गये हैं । इन 110 जवाबों में भी 70 जवाब गलत हैं और ऐसा उन्होंने जान-बूझ कर किया है । भाषा की समीक्षा उन्हें यथार्थ जीवन में उसके बहुविध उपयोग की पड़ताल की ओर ले गई और उन्होंने (हाव-भाव-भंगिमा समेत) विभिन्न रूपों में खेले जानेवाले भाषाई खेलों की एक पूरी सूची तक बना डाली ।38

‘इनवेस्टिगेशन्स’ पर काम करते हुए ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि ‘कोई चाहे तो इस किताब को पाठ्यपुस्तक कह सकता है, लेकिन यह ज्ञान देनेवाली कोई पाठ्यपुस्तक नहीं, बल्कि चिन्तन को उद्वेलित करनेवाली पाठ्यपुस्तक है ।’ वे अब तार्किक परमाणुवाद से काफी आगे निकल गये थे ।

पारिवारिक-सामाजिक जीवन में, शॉपिंग करते, कार्यस्थलों में, कक्षाओं तथा बोर्डरूम में, हम सभी भाषा के इस खेल में शामिल होते हैं – अपनी ‘बॉडी-लैंग्वेज’, अपनी भाव-भंगिमाओं के साथ । चुनावी घोषणापत्रों तथा तकरीरों में, राजनीतिक-आर्थिक प्रभुत्व के लिए प्रतिद्वंद्विता में वैश्विक शक्तियों के बीच होनेवाली वार्ताओं में भी हम अनवरत् चलनेवाले इस भाषाई खेल का साक्षात् कर सकते हैं । भाषा के इस खेल को समझे बिना भाषा का अर्थ समझा नहीं जा सकता – ‘फेक न्यूज’ और ‘पोस्ट-ट्रुथ’ से आक्रांत इस दुनिया में भाषा के इस खेल की समझ कितनी जरूरी है, यह बताने की जरूरत नहीं ।

भाषा, विट्गेन्स्टाइन ने एक बार कहा था, राहों की भूलभुलैया है जिसमें दिशाभ्रम का शिकार होकर लोग प्रायः खो जाते हैं, बिना यह जाने कि उन्होंने अपना कितना बड़ा नुकसान कर लिया है ।39

यह खेल बड़ा पुराना है । प्राचीन यूनान के नगर-राज्यों में ऐसे ओजस्वी वक्ता प्रशिक्षित किये जाते थे जिनका काम अपने नगर-राज्यों के शासकों के हित में जनसमुदाय को गोलबंद करना था – सबसे सफल वक्ता वह जो अपनी ओजस्वी वक्तृता-कला से, अपनी भाव-भंगिमा से, अपने जुमलों से, आँसू बहाकर या रोष प्रकट कर, झूठ-अफवाह के जरिये उत्तेजना फैलाकर, जनता को इस कदर सम्मोहित कर दे कि श्रोता सभा से उठकर सीधे शत्रु नगर-राज्य की सीमा पर युद्ध के लिए प्रस्थान कर जायें । ऐसे वक्ताओं की काफी मांग होती थी, और शत्रु-राज्यों के शासक भी धन का लालच देकर उन्हें खरीदने की कोशिश करते । ऐसे ओजस्वी वक्ता (ओरेटर-डेमेगॉग) चुनाव लड़कर काउंसिलर भी बन जाते थे । प्लुटार्क ने एथेंस के एक ऐसे ही विख्यात वक्ता देमोस्थेनीज की जीवनी लिखी है, जिन्होंने पहले मेसिडोनिया के राजा फिलिप (अलेक्जेंडर के पिता) के संभावित आक्रमण के खिलाफ यूनान के नगर-गणतंत्रों को एकजुट करने की कोशिश की थी । उनकी वक्तृता-कला की चर्चा दूर-दूर तक फैली थी । फिलिप भी उनसे मिलना चाहते थे और ईरान के राजा ने भी उन्हें चिट्ठी लिखी थी । बाद में उनपर विरोधी पक्षों से सोना लेकर उनके भाषण लिखने का आरोप लगा, उनपर मुकदमा चला, एथेंस से निर्वासन की सजा मिली, माफी भी मिली, लेकिन अन्त में बदनामी (और अपने शत्रुओं के भय) के बीच उन्होंने मिनर्वा के मंदिर में ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली । प्लुटार्क उनकी वक्तृता-कला की प्रशंसा करते हैं, सिसेरो से उनकी तुलना भी करते हैं, लेकिन उन्हें ‘मरसीनरी ओरेटर’ (भाड़े का वक्ता) भी कहते हैं ।40

आज भाषा का खेल यहाँ तक जा पहुँचा है कि दुनिया के सबसे समृद्ध और शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति एक समाचार चैनेल के एंकर को बॉक्सिंग रिंग के बाहर पटककर घूँसे लगाते (और ट्विटर पर उनके फॉलोअर्स अपने नायक के कृत्य पर गर्वान्वित होते) देखे जा सकते हैं ।

महाभारत तो भाषा के खेल के विवरणों की खान है । कुरुक्षेत्र के मैदान में चल रहे भीषण युद्ध के बीच युधिष्ठिर का ऊँचे स्वर में कहा गया ‘अश्वत्थामा हतो’, और फिर मंद स्वर में कहा गया ‘नरो वा कुंजरो’ का प्रसंग ही अभी के लिए  काफी है ।

भाषा के खेल में दैहिक भाव-भंगिमा के साथ जो कहा जा रहा है, उसका निहितार्थ जाने बिना, खेल में शामिल शक्तियों का मक़सद समझे बिना हम भाषा के इस खेल के बस निष्क्रिय दर्शक अथवा अनजाने भागीदार बन कर रह जाते हैं । नित नई और जबरन थोप दी गई उपभोक्ता सामग्रियों के सम्मोहक संसार में उलझा कर संवाद तथा संचार के साधनों पर नियंत्रण करनेवाले भाषा के वर्चस्वशाली खिलाड़ी लोगों को इस खेल का अर्थ जानने की फुरसत ही नहीं देते और वे अनजाने ही इस खेल के मोहरे अथवा भागीदार बन जाते हैं – उन्हें यह पता भी नहीं चलता कि उन्होंने अपना कितना बड़ा नुकसान कर लिया है ।

वैसे भाषा के छोटे-मोटे खेल हम बचपन से ही खेलते आ रहे हैं (लेकिन वे खेल उस कपटपूर्ण, जघन्य और विध्वंसक खेलों की श्रेणी में नहीं आते जो समाज तथा दुनिया के बड़े फलक पर प्रभुत्वशाली शक्तियाँ खेलती आ रही हैं और जिनका हमने ऊपर कुछ विवरण दिया है) । याद कीजिए बचपन में अपने स्कूल के दिन । कक्षा में शिक्षक प्राधिकार की भूमिका में होते हैं, और बच्चे तरह-तरह से इस प्राधिकार को चुनौती देते रहते हैं – बहाने बनाकर, शिक्षक के पीठ पीछे उनकी नकल उतारकर, प्रत्येक शिक्षक को दिलचस्प उपनामों से विभूषित कर । प्राथमिक पाठशाला में बच्चों को पढ़ाते समय विट्गेन्स्टाइन को इस खेल का अनुभव हो चुका था – बच्चों की ‘शरारत’ से तंग आकर एक बार उन्होंने एक बच्चे पर गुस्से में हाथ चला दिया था । बाद में उनको इसका काफी अफ़सोस भी हुआ । इसके पहले कि स्कूल प्रबंधन उन पर कोई कार्रवाई करता, उन्होंने खुद इस्तीफा सौंप दिया । स्कूल छोड़ने की असली वज़ह यही थी ।

भाषा के खेल की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद वापस तार्किक परमाणुओं की दुनिया में लौटते हैं ।

भौतिक जगत में परमाणु का बिखंडन हो चुका था – भला तार्किक परमाणु (लॉजिकल एटम) कब तक साबुत बचे रहते ? निरपेक्ष, स्वयंप्रमाण, एकाकी मूल प्रतिज्ञप्तियों (तार्किक परमाणुओं) का, और उन तार्किक परमाणुओं की बुनियाद पर खड़ी की गई इमारत का बिखंडन तय था ।

प्रतिज्ञप्ति यथार्थता का चित्रण है । (4.01) .. प्रतिज्ञप्ति का पूर्ण विश्लेषण मात्र एक ही हो सकता है । (3.25) ..  प्राथमिक प्रतिज्ञप्ति स्वयं अपनी ही सत्यात्मक फलनक होती है । (5)

विट्गेन्स्टाइन को इसका आभास हो गया था कि वे अपनी मूल प्रतिज्ञप्तियों के साकल्य के जरिये जिस दुनिया अथवा जीवन को चित्रित अथवा प्रतिबिम्बित कर दिखाने की कोशिश कर रहे थे, वह संसार और जीवन इतना विविध है, उसके इतने आयाम हैं कि उसे किसी सिद्धान्त की सीमा में बांधा नहीं जा सकता है । भाषा के भी अनेक उपयोग हैं, और संसार के निष्क्रिय चित्रांकन तक ही उसकी भूमिका सीमित नहीं की जा सकती ।

हम किसी चीज को दो बार नहीं देखते और न ही दिखाते हैं – दिखाने के क्रम में वह वस्तु भी बदल जाती है । इस तरह, मूल प्रतिज्ञप्तियों की निरपेक्षता, उनकी स्वयंप्रमाणता संदिग्ध हो जाती है – सापेक्ष अर्थ में ही (जैन दर्शन की शब्दावली में कहें तो, अनेकान्तवादी/स्यादवादी अर्थ में ही) उनका वज़ूद कायम रह सकता है । लेकिन अनेकान्तवादी/स्यादवादी पद के साथ मूल प्रतिज्ञप्ति तार्किक परमाणुओं के रूप में मूल प्रतिज्ञप्ति का मृत्यु-लेख है

इतना ही नहीं, भाषा की तार्किक संरचना में मूल प्रतिज्ञप्ति तक आकर ठहरा नहीं जा सकता । यह मनमाना सीमांकन है, तार्किक रूप से भी असंगत सीमान्त । प्रतिज्ञप्ति का शब्दों में और शब्दों का ध्वनियों में विघटन स्वाभाविक प्रक्रिया है – यह भाषा की दुनिया से संगीत के संसार में कदम रखना है । भाषा की सीमा का निदान संगीत के असीम विस्तार में है । इस प्रकार विट्गेन्स्टाइन के लिए, भाषा का विघटन संगीत का उद्घाटन है । भाषा का वैभव भी संगीत के धरातल से देखने पर ही खुलता है ।

6. सुर की संगति

भाषाओं का जहाँ अन्त होता है, संगीत की भाषा वहीं से शुरू होती है । रैनर मारिया रिल्के ।

तमाम कलाएँ संगीत की अवस्था को प्राप्त करने की आकांक्षा रखती हैं, शायद इसलिए कि संगीत में रूप ही अर्थ होता है । .. अगर हम इस वक्तव्य को स्वीकार करते हैं तो कविता एक मिश्रित कला है – अमूर्त प्रतीकों के समूह यानी भाषा को संगीतात्मक लक्ष्यों के अधीन लाने की कला । .. भाषा की जड़ें तर्कातीत हैं, जादुई चरित्र की हैं .. कविता उसी आदिम तिलिस्म में वापस लौटना चाहती है । .. बोर्हेस ।41

जीवन के अन्तिम दिनों में विट्गेन्स्टाइन ने अपने छात्र और मित्र मॉरिस ड्रुरी से कहा था, ‘मेरी जिन्दगी में संगीत कितना मानी रखता है, इसके बारे में अपनी किताब में एक शब्द कहना भी मेरे लिए असंभव है । फिर मैं कैसे आशा करूँ कि कोई मुझे समझ पाएगा ?’

संगीत विट्गेन्स्टाइन के दर्शन का तीसरा स्रोत था । उनके दर्शन की प्रकट रूप में प्रमुख धारा तार्किक-गणितीय दर्शन की परम्परा थी, लेकिन अप्रकट रूप में, अन्तर्धाराओं के रूप में, आद्य-अस्तित्ववाद और संगीत उसके महत्वपूर्ण संघटक अंग थे । इन अन्तर्धाराओं की छवियाँ न सिर्फ प्रकट धारा पर स्पष्टतः देखी जा सकती हैं, बल्कि इन अन्तर्धाराओं की समझ के बिना विट्गेन्स्टाइन के जीवन और दर्शन को भी समझना नामुमकिन है । गौर से देखिए तो ‘ट्रैक्टेटस’ की पूरी संरचना एक संगीत-रचना की तरह दिखेगी – 7 प्रमुख सूत्रों के इर्द-गिर्द 526 उपसूत्रों तथा सहायक सूत्रों की श्रृंखला में आप म्युजिकल नोट्स के आरोह-अवरोह की, एक संनादी स्वरानुक्रम की सजावट लक्षित कर सकते हैं । सूत्र 4.013, 4.014 और 4.0141 में आप इसका कुछ आभास पा सकते हैं । कविताओं तथा साहित्यिक कृतियों के बारे में अपनी टिप्पणियों में विट्गेन्स्टाइन उसकी संगीतात्मकता पर, उसके टोन पर खास ध्यान देते थे – वे यह देखना चाहते थे कि कोई रचना संगीतात्मकता की कसौटी पर कितना खरा उतरती है, संगीत के स्पर्श की उसकी लालसा रचना में किस रूप में अभिव्यक्त हुई है ।

दर्शनशास्त्र को काव्य-रचना के रूप में लिखा जाना चाहिए । विट्गेन्स्टाइन । रे मोंक, ‘हाउ टू रीड विट्गेन्स्टाइन’ में उद्धृत ।

भाषा की शीशे की दीवार धो-पोछ कर साफ कर दी गई थी – संसार का चित्र अब साफ-साफ दिख रहा था । लेकिन तार्किक-गणितीय शीशे की दीवार पर अब भी कुछ था जो मिटा नहीं था – यह संगीत संकेतनों के चिह्न थे जो प्रतीयमान अनियमितताओं से विकृत नहीं हुए थे । संसार इन चिह्नों में प्रतिध्वनित हो रहा था, भाषा की मध्यस्थता के बिना । उसकी ध्वनि-तरंगों में, उसके आरोह-अवरोहों में, उसकी मंद-मद्धिम-उच्च आलापों में संसार की धड़कन, उसका कम्पन साफ-साफ सुनाई दे रहा था ।

संगीत के प्रति लुडविग के प्रेम का स्रोत उनकी माँ थीं – कालमुस दक्ष पियानोवादिका थी और उन्होंने ही अपने बच्चों में संगीत के प्रति गहन अनुराग की नींव रखी थी । अपने भाइयों और बहनों की तरह लुडविग पियानो तो नहीं बजाते थे, लेकिन संगीत ध्वनियों तथा सुरों से इतने परिचित तो हो ही गये थे कि पियानो की संगति में या उसके बिना पूरी की पूरी सिम्फनी सीटियों के जरिये सुना सकते थे । उनके घर पर तब वियेना के जाने-माने संगीतकारों का आना-जाना होता रहता था । जोहान्स ब्राम्ज़ (1833-1897) का जब देहान्त हुआ तब विट्गेन्स्टाइन बस आठ वर्ष के थे, लेकिन ब्राम्ज़ के संगीत का प्रभाव उन पर वर्षों तक रहा । गुस्ताव मालेर (1860-1911) के संगीत से तो वे भली-भाँति परिचित थे ही, हालांकि उनके संगीत को वे बेकार मानते थे ।

1931 की डायरी में उन्होंने लिखा, ‘बदलाव के लिए जब परवर्त्ती महान संगीतकार सहज संनादी स्वरानुक्रम की रचना कर रहे होते तो यह दरअसल अपनी आदिजननी के प्रति निष्ठा प्रकट करने का उनका अपना तरीका होता ।’

विट्गेन्स्टाइन ने बिखरे हुए रूप में ही सही संगीत तथा संगीतकारों पर काफी कुछ लिखा है और इस मामले में उनकी अपनी अनेक मौलिक प्रस्थापनाएँ हैं, जिनके विस्तार में यहाँ जाना संभव नहीं है । उन्होंने मेंडेलशोम, बाख़, वेग्नर, शूमन, शूबर्ट, ब्राम्ज़, ब्रकनर, मालेर सभी पर लिखा है, उनकी संगीत-रचनाओं के गुण-दोष का विवेचन किया है । लेकिन उनके आराध्य थे वे प्रतिभाशाली संगीतकार जो द्रष्टा नहीं पूर्वद्रष्टा थे, वक्ता नहीं पूर्ववक्ता थे, ज्ञानी नहीं पूर्वज्ञानी थे, जो भविष्यवाणी की विस्मृत भाषा में रचना करते थे, और इसलिए जो ईश्वर की सच्ची संतान थे : मोजार्ट और बीठोफेन42 वेग्नर तथा ब्राम्ज़ उनकी नजर में बीठोफेन का अनुकरण तो करते हैं, लेकिन जो बीठोफेन में दिव्य (कॉस्मिक) है, वह इन दोनों में मर्त्य (अर्थली) बन जाता है । बीसवीं सदी के संगीत को वे 18वीं और 19वीं सदी के महान संगीतकारों द्वारा विपुल मात्रा में छोड़े गये फुटनोट्स का महज विकास मानते थे ।

संगीत, उनकी नज़र में, किसी संस्कृति की पराकाष्ठा है, तमाम कलाओं में सबसे परिष्कृत कला । मॉरिस ड्रुरी ने लिखा है कि विट्गेन्स्टाइन को ध्यान से देखने से ही कोई समझ सकता था कि उनकी जिन्दगी में संगीत का कितना गहरा और केन्द्रीय महत्व है । .. ‘वे प्रायः शॉपेनहॉएर का ये कथन उद्धृत करते थे कि दुनिया की अन्तर्निहित प्रकृति संगीत में ही अभिव्यक्त होती है । संगीत जीवन का सर्वोच्च रूप है ।’ वे संगीत रचना के समय संगीतकार की दैहिक भाव-भंगिमा पर भी खास ध्यान देते थे – ‘हर महान कला के अन्तरतम में एक वन्य-प्राणी सक्रिय होता है, लेकिन वशीभूत वन्य-प्राणी ।’

बहरहाल, बीसवीं सदी के संगीत को वे निकृष्ट कोटि का संगीत मानते थे – एक पतनशील पश्चिमी सभ्यता की अभिव्यक्ति । वे स्पेंग्लर की ‘द डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट’ से काफी प्रभावित थे – उनकी दृष्टि में यूरोप तथा अमेरिका की आत्मा को संरक्षित करनेवाली संस्कृति अब दिवालिया हो चुकी थी और इस दिवालिया सभ्यता में जो संगीत आकार ले रहा था, वह इसी दिवालियेपन की अभिव्यक्ति और उसकी सर्वोच्च उपलब्धि थी । यूरोपीय शास्त्रीय संगीत के उदात्त पक्ष को निष्कासित कर, संगीत की समष्टिगत संरचना व्यक्ति के निजी मनोरंजन और क्षणिक इच्छापूर्ति की संकीर्ण, मिलावटी शोर की दुनिया में अधोपतित हो रही थी । विट्गेन्स्टाइन को सबसे अधिक चिढ़ इस बात से थी कि सुर-संगति का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा था और सुर-भाषा संकटग्रस्त हो गई थी – आधुनिक संगीत, खासकर मालेर के संगीत, को वे इसलिए बर्दाश्त नहीं कर पाते थे ।43

विट्गेन्स्टाइन की दार्शनिक सूक्तियों से कुछ संगीतकार संगीत-रचना के लिए भी प्रेरित हुए । स्टीवी राइख़ की ‘म्युजिक फॉर एटीन म्युजिसियंस’ संगीतात्मक भाषाई खेल पर ध्यान के रूप में लिया जा सकता है । उन्हीं की एक रचना ‘एक्सप्लेनेशंस कम टु एन एण्ड समव्हेयर’ ‘फ़िलोसॉफ़िकल इनवेस्टीगेशंस’ में प्रयुक्त एक सूत्र ‘एक्सप्लेनेशंस कम टु एन एण्ड समव्हेयर’ (व्याख्याओं का आख़िर कहीं-न-कहीं अन्त तो होता ही है) का संगीतमय रूपान्तर है । ‘संगीतकार के नोट्स’ में स्टीवी (अपनी संगीत-रचना ‘प्रोवर्व’ के लिए लिखे गये नोट्स के अन्त में) लिखते हैं कि उनके संक्षिप्त पाठ की प्रेरणा भी उन्हें विट्गेन्स्टाइन की रचना ‘कल्चर एण्ड वैल्यू’ की एक पंक्ति से मिली – ‘हाउ स्मॉल ए थॉट इट टेक्स टु फील ए होल लाइफ’ (पूरी जिन्दगी के शून्य को भरने के लिए बस एक जरा सा विचार ही काफी है) । विट्गेन्स्टाइन की अधिकांश रचनाएँ अपने स्वर और संक्षेपण में मुहावरे (प्रोवर्व) जैसी ही हैं । उपर्युक्त पंक्तिवाले अनुच्छेद में विट्गेन्स्टाइन आगे लिखते हैं, ‘अगर आप गहराई में जाना चाहें तो आप को ज्यादा दूर सफ़र करने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।’44

विट्गेन्स्टाइन के दर्शन से प्रभावित कुछ बेहतरीन फिल्में भी बनी हैं – ‘फुटलाइट परेड’ (1933), ‘मेशेज ऑफ द ऑफ्टरनून’ (1943), ‘पेरिस बिलोंग्स टु अस’ (1961), ‘ल नोट्टे’ (1961), ‘जोर्न्स लेम्मा’ (1970), ‘द पोस्टमैन’ (1994, यह निर्वासन में चिली के प्रख्यात कवि पाब्लो नेरुदा के जीवन पर आधारित है), ‘माइ विन्नीपेग’ (2007), ‘यूथ विदाउट यूथ’ (2007), ‘डॉगटूथ’ (2009), ‘अंकल बूनमी हू कैन रीकॉल हिज पास्ट लाइव्स’ (2010), आदि । विट्गेन्स्टाइन के जीवन और कृतित्व पर आधारित भी कुछ अच्छी फिल्में हैं – ‘विट्गेन्स्टाइन ट्रैक्टेटस’ (1992), ‘विट्गेन्स्टाइन’ (1993, डेरेक जारमैन द्वारा निर्देशित इस फिल्म के निर्माता तारिक अली, तकाशी असाई और बेन गिब्स थे), ‘एम ए नम्मीनेन सिंग्स विट्गेन्स्टाइन’ (1993), ‘ऐज फ्रॉम एफार’ (2013), आदि ।

बहरहाल, विट्गेन्स्टाइन का दर्शन जहाँ एक ओर संगीतकारों तथा फिल्मकारों को प्रेरणा प्रदान कर रहा था, वहीं दूसरी ओर कम्प्यूटर भाषा विकसित करनेवाले वैज्ञानिकों को भी ।

7. मशीन की भाषा

हमें जानना होगा/हम जरूर जानेंगे । डेविड हिल्बर्ट का समाधि लेख (यह एक लातिनी कहावत ‘हम नहीं जानते/हम नहीं जान पाएँगे’ के प्रतिवादस्वरूप लिखा गया था ) ।

संतुलन की एक खास अवस्था में किसी एक चीज का अतिरिक्त सृजन संतुलन-भंग को जन्म देता है, फिर यह अतिरिक्त सृजन अपनी एक अतिरिक्त दुनिया का निर्माण करता है । पदार्थ के एक अतिरिक्त कण के सृजन ने पदार्थ और प्रति-पदार्थ के संतुलन-भंग को अंजाम दिया और पदार्थों की एक नयी दुनिया का सृजन हुआ हम सब जिसके वासी हैं । संतुलन और संतुलन-भंग की यह क्रिया सृष्टि में अनवरत् चलती रहती है और नयी-नयी दुनियाओं का सृजन भी ।

मनुष्य खुद प्रकृति का एक अतिरिक्त सृजन है जो अतिरिक्त चेतना और उस चेतना की वाहक भाषा के साथ उपस्थित होता है । प्रकृति के इस अतिरिक्त सृजन ने अपनी अतिरिक्त चेतना और भाषा के साथ अपनी एक अतिरिक्त दुनिया का सृजन किया जो हमारी अपनी दुनिया है । मनुष्य की अतिरिक्त चेतना उसकी आत्म-चेतना के रूप में प्रकट होती है और इस आत्म-चेतना के साथ मनुष्य और प्रकृति, मनुष्य और बाह्य संसार का द्वैत सामने आता है । मनुष्य के साथ ही प्रकृति और संसार का भी आगमन होता है । फिर तो द्वैत श्रेणियों की, युग्मों की एक पूरी श्रृंखला ही अवतरित होती जाती है । सामान्यीकरण और श्रेणीकरण का अनवरत् सिलसिला चल पड़ता है । प्रकृति के साथ, और विभिन्न मानव-जनों की परस्पर (उत्पादक) क्रियाशीलता के बीच मनुष्य की अपनी दुनिया आकार ग्रहण करती जाती है ।

मनुष्य के रूप में अतिरिक्त सृजन का अंग होने के कारण भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति अपनी एक स्वायत्त दुनिया रचने की होती है जो हर मानव-समुदाय में सृष्टि-कथाओं, मिथकों, किस्सों, फंतासियों आदि के रूप में मूर्त रूप ग्रहण करती है । इसलिए भाषा इन कथाओं से मुक्त नहीं हो सकती – उसे संसार का निष्क्रिय दर्पण बनकर रहना कभी मंजूर नहीं होगा । तार्किक-गणितीय भाषा तो मनुष्य की स्वाभाविक भाषा होने से रही । अगर मनुष्य की भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति किस्सों का प्रणयन है तो फिर तार्किक-गणितीय भाषा किसकी स्वाभाविक भाषा है ?

मशीन की

ये एलेन तुरिंग (1912-1954) थे ।

1939 में विट्गेन्स्टाइन ने अपनी कक्षाओं में गणित के बुनियादी सिद्धान्तों पर अपना व्याख्यान केन्द्रित कर रखा था । उनके छात्रों में ही एक थे एलेन तुरिंग जिन्होंने कुछ समय पहले ही गणित में अपनी पीएचडी पूरी की थी । वे तब कैम्ब्रिज के ही किंग्स कॉलेज में फेलो थे । उन्होंने ही एक बार विट्गेन्स्टाइन से पूछा था – ‘क्या मशीन सोच सकते हैं ?’

तब विट्गेन्स्टाइन को इस बात का अहसास हुआ कि हम तो पहले से ही मानवेतर प्राणियों तथा चीजों पर अपनी भाषा तथा चिन्तन-शक्ति आरोपित करते रहे हैं – किस्सों में मानवेतर प्राणी मानवों की तरह सोचते और बोलते रहे हैं । खिलौनों में बोलनेवाली गुड़िया या चिड़िया लोकप्रिय रही है । क्या मशीन को भाषा-संपन्न किया जा सकता है ? क्या हम मनुष्य के बारे में भी मशीन के रूप में चिन्तन कर सकते हैं ? क्या ‘चिन्तन करना’ शब्द एक उपकरण (इन्सट्रुमेंट) माना जा सकता है ?

याद रहे वह जमाना कम्प्यूटरों के, कम्प्यूटरों के लिए एक प्रोग्रेमिंग भाषा के विकास का उद्भव काल था और इस दिशा में सक्रिय कुछ वैज्ञानिक-गणितज्ञ विट्गेन्स्टाइन के गणित के बुनियादी सिद्धान्तोंवाले व्याख्यान से तथा तार्किक-गणितीय भाषा विकसित करने की उनकी अवधारणाओं से काफी प्रेरणा पा रहे थे ।45

इन्हीं वैज्ञानिकों के सबसे अग्रणी प्रतिनिधि थे अत्यन्त प्रतिभाशाली युवा कम्प्यूटर-विज्ञानी एलेन तूरिंग – उन्हें आज सैद्धान्तिक कम्प्यूटर विज्ञान तथा ‘कृत्रिम बुद्धि’ का जनक माना जाता है । उनकी ‘तूरिंग मशीन’ आम कम्प्यूटर के मोडेल के रूप में स्वीकृत है, जिसमें उन्होंने ‘अलगोरिद्म’ तथा संगणन (‘कम्प्यूटेशन’) की अवधारणाओं को औपचारिक स्वरूप प्रदान किया ।

यहाँ एक बार फिर तार्किक-गणितीय परम्परा पर थोड़ी चर्चा तो बनती है । दरअसल अलगोरिद्म की अवधारणा काफी पुरानी है । यह अँग्रेजी शब्द ही नौवीं सदी के बगदाद के महान अरब गणितज्ञ मोहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी के नाम से बना है (अलज़ेब्रा शब्द भी) । लेकिन आधुनिक अलगोरिद्म की शुरुआत 1928 में बीसवीं सदी के महान गणितज्ञ डेविड हिल्बर्ट (1862-1943) द्वारा प्रस्तुत ‘डिसीसन प्रोब्लेम’ (निर्णय समस्या) का समाधान करने के प्रयासों से हुई । पहले गणितवाली चर्चा में हमने हिल्बर्ट की चर्चा इसलिए नहीं की कि रसेलवाली गणितीय शाखा से उनका मतभेद था – रसेल ने भी अपनी गणितीय परम्परा का ज़िक्र करते हुए उनका नाम नहीं लिया है, इस तथ्य के बावजूद कि हिल्बर्ट भी जॉर्ज कैंटर की ‘सेट-थ्योरी’ तथा अनन्तों के सिद्धान्त के उत्साही समर्थक थे । वैसे दोनों गणितज्ञ एक-दूसरे का काफी सम्मान करते थे । हिल्बर्ट का गणितज्ञों के बीच काफी मान था, और वे गणितज्ञों के नेता और मार्गदर्शक माने जाते थे । दर्शन के मामले में वे इमानुएल काण्ट से प्रभावित थे ।

हिल्बर्ट द्वारा प्रस्तुत समस्या के समाधान के क्रम में गणित में एक-के-बाद-एक कई नये विकास सामने आते हैं । इसे संक्षेप में इस क्रम से समझा जा सकता है :

हिल्बर्ट द्वारा प्रस्तुत ‘निर्णय समस्या’ (1928) → गोडेल-हरब्रांड-क्लीन का आवर्ती फलनक (‘रिकर्सिव फंक्शन’; गोडेल वियेना सर्कल से भी अनौपचारिक रूप से जुड़े थे; 1930, 1934, 1935) → एमिल पोस्ट का फॉरमुलेशन 1 (1936) → एलेन तूरिंग की ‘तूरिंग मशीन’ (1936-7, 1939) । इस प्रकार हम फिर तूरिंग पर आ जाते हैं ।

खेद है कि हम डेविड हिल्बर्ट के बारे में यहाँ और चर्चा नहीं कर सकते । लेकिन तूरिंग की थोड़ी चर्चा तो बनती है ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी के कूट संदेशों को पढ़ने में तूरिंग की निर्णायक भूमिका थी जिसके परिणामस्वरूप नाजियों को, खासकर अटलांटिक युद्ध में, पराजय का सामना करना पड़ा ।

वे समलैंगिक थे और उन दिनों के ब्रिटिश कानून के तहत 1952 में उन पर मुकदमा चला और उन्हें सजा सुनाई गई । 7 जून, 1954 को इस असाधारण प्रतिभा के धनी युवा वैज्ञानिक-गणितज्ञ-कम्प्यूटरविज्ञानी-दार्शनिक-सैद्धान्तिक जीवविज्ञानी ने आत्महत्या कर ली (कुछ लोगों के अनुसार साइनाइड प्वाइजनिंग एक दुर्घटना थी) । तब उनकी 42वीं वर्षगांठ में भी 16 दिन शेष थे । वर्षों बाद ब्रिटिश महारानी ने उनकी सजा को तो (मरणोपरान्त) निरस्त किया ही, इसके लिए क्षमा भी मांगी ।

तूरिंग का जन्म, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा सब ब्रिटेन में ही हुई, लेकिन माता और पिता दोनों ओर से उनके परिवार का भारत से गहरा रिश्ता था – उनके परदादा बंगाल आर्मी में जनरल थे, और पिता जुलियस मैथिसन तूरिंग (1873-1947) इंडियन सिविल सर्विसेज (आइसीएस) के अधिकारी थे और बिहार-उड़ीसा प्रदेश के छतरपुरमें भी एक वक्त पदस्थापित थे । उनके नाना एडवर्ड वालर स्टोनी मद्रास रेलवेज में चीफ जीनियर थे ।

इस तरह जिस तार्किक-गणितीय भाषा की रचना में विट्गेन्स्टाइन लगे थे, उसे आखिरकार अपना ठिकाना मिल गया । लेकिन न विट्गेन्स्टाइन, और न तूरिंग उसके वैश्विक प्रसार और आम जनजीवन में उसके अभूतपूर्व दख़ल के साक्षी बन सके । आज भी वह भाषा हमें समझ में नहीं आती, दुरूह और अजीब लगती है, लेकिन उस कम्प्यूटर प्रोग्रेमिंग भाषा के बिना आपकी दिनचर्या ठप हो जाएगी । आप आज उसी भाषा से चारो ओर घिरे हैं – अपने स्मार्टफोन या कम्प्यूटर पर मेल भेजते, सोशल मीडिया में स्टेटस अपडेट करते, गेम खेलते, जरा अपने लिंक्स या एड्रेस बार पर नज़र डालिये ! इस भाषा के अनेक प्रेरक व्यक्तियों में एक नाम विट्गेन्स्टाइन का भी है ।

डिजिटल युग में, अब सब कुछ, सारा शब्द, सारे वाक्य, सारी किताबें बस डाटा हैं – अँग्रेजी के कैपिटल ए का आठवाँ हिस्सा एक बिट है, आधा निब्ल, और पूरा एक बाइट । एक किताब एक मेगाबाइट (1024 किलोबाइट) है, और सोलह सौ किताबें एक गीगाबाइट (1024 मेगाबाइट) …. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किताब जादू-टोने की किताब है या ट्रैक्टेटस या आइन्सटीन की सापेक्षता के सिद्धान्त की । सारी सृष्टि-कथाएँ, सारे मिथक, सारे किस्से, सारे चित्र अब बस डाटा हैं । आपकी सारी सूचनाएँ, सारी गतिविधियाँ, सारे आंगिक हावभाव – सब कुछ दुनिया भर में फैले अमेजन, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, एपल आदि के लाखों सर्वरों में न मालूम कितने पेटाबाइट या एक्साबाइट डाटा के रूप में अनवरत् जमा होता जा रहा है (सिर्फ अमेजन के ही चौदह लाख से ज्यादा सर्वर हैं) । समय-समय पर इन सर्वरों की अभेद्य दीवारें भी भेदी जाती रही हैं – और वह भी कम्प्यूटर प्रोग्रेमिंग भाषा के जरिये ही ।

इस डिजिटल मायालोक में भ्रमण करता कौतुक के पर्वत का सैलानी क्या ‘सोचता’ या उसका ‘दिल’ क्या कहता ? चलिए इस सैलानी के दिल की कुछ थाह लेते हैं और उनकी जीवनी के उन पन्नों को पलटते हैं जिन्हें पहले मैंने बुकमार्क रखकर बन्द कर दिया था ।

8. दिल से ….

आम तौर पर विट्गेन्स्टाइन की जो छवि है वह दुनियावी मामलों से कटे, अपनी तार्किक-गणितीय दुनिया में खोये रहनेवाले अराजनीतिक, और यहाँ तक कि एक अभिजात्य-अनुदारवादी दार्शनिक की है (अनेक प्रगतिशील हल्कों में भी यही बात है) । अब हम जो विवरण देने जा रहे हैं, वह उनकी अनेक जीवनियों में नहीं मिलेगी या फिर आधे-अधूरे रूप में मिलेगी । यह सही है कि वे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उतने सक्रिय नहीं रहे, कि अपनी युवावस्था में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उनमें जर्मन राष्ट्रवादी भावनाएँ थीं, वे एक जर्मन के रूप में जर्मनी की हार से व्यथित थे, कि उन्हें लगता था कि जर्मनों की तुलना में इंगलिश श्रेष्ठ जाति थी आदि । लेकिन शीघ्र ही वे किसी भी जातीय-नस्लीय मूलवाद (रेसियल इसेंसियलिज़्म) के सख़्त ख़िलाफ़ हो गये और अन्त तक नस्लीय मूलवाद, नस्लीय प्रोफाइलिंग तथा नस्ल-जाति-आधारित रूढ़-छवि-निर्माण के कट्टर विरोधी बने रहे । (प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जहाँ वे वालंटियर के रूप में युद्ध के मोर्चे पर तैनात थे, वहीं उनके शिक्षक बर्ट्रेंड रसेल अपने शान्तिवादी अभियान के कारण जेल में थे) ।

यहाँ हम 1930 से मृत्युपर्यन्त उनकी सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे जिससे उनके दिल की थाह लेने में आपको आसानी होगी । 1929 में कैम्ब्रिज आने के साथ ही वे जिनके साथ ठहरे, वे और कोई नहीं बल्कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्री, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में व्याख्याता, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य तथा कैम्ब्रिज कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक-सदस्य मॉरिस डॉब थे । डॉब के साथ उनकी घनिष्ठता अन्त तक बनी रही । कैम्ब्रिज में उनके अनेक मित्र कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े अथवा उसके सदस्य रहे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे ।

विट्गेन्स्टाइन ने ‘फ़िलोसॉफ़िकल इनवेस्टिगेशंस’ की भूमिका में अपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारों के उत्प्रेरक के रूप में जिनके साथ विचार-विमर्श को श्रेय दिया है, वे थे पियेरो स्राफा, एक मार्क्सवादी अर्थशास्त्री । स्राफा इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अंटोनियो ग्राम्शी के घनिष्ठ मित्र थे । ग्राम्शी रसेल की कुछ प्रस्थापनाओं, खासकर दिक्-सम्बन्धों के अस्तित्व (जैसे पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण) की प्रस्थापना की आलोचना कर चुके थे और संभवतः यह आलोचना स्राफा के माध्यम से ग्राम्शी और विट्गेन्स्टाइन के बीच एक सेतु का निर्माण करती थी । अमर्त्य सेन स्राफा के छात्र और मित्र रह चुके थे और अपने एक लेख में उन्होंने ग्राम्शी-स्राफा-विट्गेन्स्टाइन कड़ी की जांच-पड़ताल की है ।46 विट्गेन्स्टाइन के परवर्त्ती दार्शनिक विचारों पर स्राफा का प्रभाव एक सर्वमान्य तथ्य है । उनके विचारों में तार्किक से मानवशास्त्रीय दृष्टि की ओर जो झुकाव दिखायी देता, उसका मुख्य श्रेय स्राफा को ही जाता है ।

पूर्ववर्त्ती विट्गेन्स्टाइन की तर्कशास्त्रीय दृष्टि से उत्तरवर्त्ती विट्गेन्स्टाइन की मानवशास्त्रीय दृष्टि में संक्रमण का बौद्धिक क्रम कुछ इस तरह बनता है : फॉयरबॉख → मार्क्स → ग्राम्शी → स्राफा । इस मंडली में भाषाविद् निकोलाई बाख़्तीन (जो पहले तो गृहयुद्ध के दौरान प्रतिक्रान्तिकारी श्वेत सेना में शामिल थे, लेकिन बाद में मार्क्सवादी हो गये थे), जॉर्ज थॉमसन, विट्गेन्स्टाइन की (रूसी भाषा की) शिक्षिका फैनिया पास्कल, उनके पति कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य रॉय पास्कल आदि शामिल थे । निकोलाई के भाई प्रख्यात साहित्यशास्त्री मिख़ाइल बाख़्तीन का विट्गेन्स्टाइन ने ‘फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस’ की भूमिका में बिना नाम लिये जिक्र किया है । बाख़्तीन, थॉमसन और पास्कल परिवार 1930 के दशक के अन्त में बर्मिंघम चले गये थे, लेकिन विट्गेन्स्टाइन अक्सर उनसे मिलने वहाँ जाते रहते थे ।

वरिष्ठ मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के अलावा विट्गेन्स्टाइन की मित्र-मंडली में युवा पीढ़ी के कई मार्क्सवादी भी शामिल थे, कुछ तो उनके छात्र ही थे – जुलियन बेल, डेविड हेयडेन-गेस्ट, जॉन कोनफोर्ड, और मॉरिस कोर्नफोर्थ । इनमें से कुछ आगे चलकर कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रमुख नाम बने । विट्गेन्स्टाइन के घनिष्ठ दोस्त फ्रांसिस स्किनर, जिनके साथ 1935 में उन्होंने सोवियत संघ जाने की योजना बनायी थी, कम्युनिस्ट आदर्शों से काफी सहानुभूति रखते थे । उनके एक और दोस्त जिन्हें उन्होंने ‘फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस’ के प्रकाशन की जिम्मेवारी सौंपी थी, रश रीस त्रात्स्कीवादी रह चुके थे ।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु होने के बाद उनके लिए ऑस्ट्रिया का दरवाजा बन्द हो चुका था (हिटलर ने ऑस्ट्रिया का जर्मनी के साथ ‘विलय’ कर दिया था) । 1939 में उन्होंने ब्रिटिश नागरिकता लेने का निश्चय किया और 1940 से वे ब्रिटिश नागरिक बन गये । 1935 में वे सोवियत संघ की यात्रा कर आये थे – वहाँ उनका अत्यन्त सम्मान तथा गर्मजोशी से स्वागत किया गया था । उन्हें वहाँ सोवियत विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का प्रस्ताव भी मिला । सोवियत संघ में घूमने के दौरान वे कुछ चीजों और स्थितियों से असहमत भी थे, लेकिन उन्होंने अपनी सोवियत यात्रा का कोई संस्मरण नहीं लिखा । जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो सुनिये उन्होंने क्या कहा – उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहते थे कि उनके नाम तथा उनकी कुछ नकारात्मक टिप्पणियों का सोवियत-विरोधी प्रचार में इस्तेमाल किया जाय । 1935 में ही ब्रिटेन में सोवियत संघ के राजदूत के नाम पत्र में जॉन मेनार्ड कीन्स ने लिखा था – ‘यद्यपि विट्गेन्स्टाइन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं हैं, फिर भी उनकी उन आदर्शों तथा जीवन-पद्धति के साथ गहरी सहानुभूति है जिनके प्रति सोवियत सत्ता अपनी आस्था प्रकट करती है ।’47

द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के दृष्टिकोण से मेल खाता था । नवम्बर 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा एक युद्ध-विरोधी छात्र कन्वेंशन आयोजित किया गया । इस कन्वेंशन के समर्थकों में कैम्ब्रिज के बस तीन प्रोफेसरों का नाम था – उनमें से एक थे लुडविग विट्गेन्स्टाइन (मॉरिस डॉब का नाम तो था ही) । विट्गेन्स्टाइन के इस रुख़ से कई वाम-समर्थक अथवा प्रगतिशील बुद्धिजीवी (जैसे, जॉर्ज ऑरवेल और विक्टर गोलांज) भी क्षुब्ध थे – वे युद्ध-प्रयासों में ब्रिटिश सरकार का साथ देने के हिमायती थे । ऐसे कन्वेंशन 1940 और 1941 के दौरान पूरे ब्रिटेन में आयोजित किये गये थे । इन कन्वेंशनों के सिलसिले का अन्त जनवरी 1941 में लंदन में एक पीपुल्स कन्वेंशन में हुआ । इस कन्वेंशन में रखी गई कुछ मांगें इस प्रकार थीं – जनता के जीवन-स्तर में सुधार और हवाई हमलों की स्थिति में सुरक्षित शेल्टरों की व्यवस्था ; जनवादी, नागरिक तथा ट्रेड यूनियन अधिकारों की पुनर्बहाली ; आपात्कालीन अधिकारों का उपयोग कर बैंकों, सेवाओं तथा उत्पादन के साधनों का अधिग्रहण ; सोवियत संघ के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध तथा जन सरकार की स्थापना ; तमाम देशों की जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार की मान्यता आदि । जून 1941 में सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के बाद ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के रुख़ में परिवर्तन हुआ और वह फासिस्ट-विरोधी मित्र-राष्ट्रों के मोर्चे के समर्थन में आ गई । विट्गेन्स्टाइन के रुख़ में भी यह परिवर्तन परिलक्षित हुआ । पूरे युद्ध के दौरान वे अस्पताल में घायलों की नियमित देखभाल करते रहे ।

युद्ध के दरम्यान ब्रिटेन में जो अंधराष्ट्रवादी उभार देखा गया, उससे विट्गेन्स्टाइन क्षुब्ध थे – हॉलीवुड फिल्मों के शौकीन विट्गेन्स्टाइन फिल्मों से पहले दिखाये जानेवाले भड़काऊ न्यूजरील तथा फिल्मों के अन्त में बजाये जानेवाले राष्ट्रगीत से भी गुस्सा थे ।

युद्ध के दौरान उन्होंने एक बार कहा था कि युद्ध समाप्त होने के बाद भी हालात काफी बुरे ही होंगे – अगर नाजी जीतते हैं तो स्थिति अत्यन्त भयावह होगी, और अगर मित्र-राष्ट्र जीतते हैं तब भी बुरी ही होगी । पूँजीवादी सभ्यता के प्रति इससे उनकी दृष्टि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है – संगीत के प्रसंग में भी हम यूरोपीय तथा अमेरिकी सभ्यता की पतनशीलता को लेकर उनके विचार का जिक्र कर चुके हैं ।

युद्ध के बाद ब्रिटेन में जो आम चुनाव हुआ, उसमें कई लोगों को ऐसी उम्मीद थी कि वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी को ही वोट देंगे । लेकिन उन्होंने लेबर पार्टी को वोट दिया – यह कहते हुए कि इस चुनाव में तब मुख्य मुद्दा ब्रिटेन को चर्चिल से मुक्ति दिलाना था । उन्होंने अपने मित्रों से भी लेबर पार्टी को वोट देने को कहा था ।

निजी सम्पत्ति तथा निजी भूस्वामित्व के उनके विरोध की भी हम पहले चर्चा कर चुके हैं । वे मार्क्स की ‘पूँजी’ के प्रथम खण्ड के कई अध्याय पढ़ चुके थे । इतने सारे मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट मित्रों के साथ रहते हुए उन्होंने अन्य रचनाएँ भी पढ़ी होंगी । लेनिन की दार्शनिक रचनाओं से भी वे अवगत थे ।

आम धारणा के विपरीत वे दार्शनिक चिन्तन और रोजमर्रे के जीवन को अन्तर्सम्बन्धित मानते थे और दर्शनशास्त्र को जीवन को दिशा देनेवाला एक उद्यम । शारीरिक श्रम की मर्यादा में उनकी गहरी आस्था थी और वे धन अथवा भौतिक सम्पत्ति की मध्यस्था के बिना मनुष्य के भाईचारे के पैरोकार थे । अपने संस्मरण में रॉलैंड हट लिखते हैं कि विट्गेन्स्टाइन ने एक बार खुद अपने को ‘दिल से कम्युनिस्ट’ कहा था ।48

इन विवरणों के बाद मुझे और कुछ नहीं कहना । अब तो मौन ही श्रेयस्कर है ।

9. हिन्दी में ‘ट्रैक्टेटस’

एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद को विट्गेन्स्टाइन भाषा के खेलों की सूची में शामिल करते हैं । मूल लेखक और उसकी रचना यहाँ प्राधिकार की भूमिका में होती है । विश्व की विभिन्न भाषाओं में रचित श्रेष्ठ रचनाएँ अनूदित होने से इंकार कर देती हैं – वे अपनी अद्वितीयता, अपना विशिष्ट सौंदर्य खोना नहीं चाहतीं । इसलिए महान रचनाकार अपनी रचनाओं के अनुवाद अथवा अन्य कला-माध्यमों में उनके रूपान्तर से प्रायः असंतुष्ट ही रहते हैं, यहाँ तक कि नाराज़ भी ।

हर भाषाई समुदाय को विरासत में एक भाषा-परम्परा प्राप्त होती है – कथाओं, कथाओं के वाचन, वाचन के साथ अंग-संचालन तथा दैहिक भंगिमाओं की एक पूरी दुनिया, एक पूरा-का-पूरा ध्वनि-संसार । रचनाएँ इसी ध्वनि-संसार में अवस्थित होती हैं । समाजों के बीच अन्तर्सम्पर्कों के कारण इस ध्वनि-संसार में बहुत कुछ साझा भी है, लेकिन अलग-अलग भाषाओं की पहचान इन साझा प्रवर्गों से नहीं, बल्कि भिन्नताओं से होती है ।

अनुवादक के सामने चुनौती यह होती है कि वह रचना की अद्वितीयता को पूरा सम्मान देते हुए एक भाषा-संसार से दूसरे भाषा-संसार में उसके कायान्तरण के जरिये उस एक को दो में, अ-द्वैत को द्वैत में बदल दे और उस रचना को अपनी भाषा के विशिष्ट सौंदर्य से मंडित कर दे । अनुवाद रचना का और अनुवादक रचनाकार की भूमिका में आ खड़ा होता है । अनुवाद की यह चुनौतीपूर्ण क्रिया अनवरत् चलती रहती है । कृति प्रायः दुबारा नहीं लिखी जाती, लेकिन अनुवाद के साथ यह बाध्यता नहीं होती । मूल कृति बार-बार अनूदित होती रहती है ।

विट्गेन्स्टाइन ने एक जगह लिखा है, ‘जिसे वस्तुतः विचारों का प्रवाह होना चाहिए, एक किताब अथवा एक लेख उसे जड़ीभूत कर देता है ।’ अनुवादों का जीवंत प्रवाह जड़ीभूत मूल कृति को अपनी जड़ता से मुक्त कर देता है । एक अद्वितीय कृति का अनेक अनुवादों में पुनर्जन्म होता रहता है । अनुवादक के रूप में रचनाकार का भी अलग-अलग भाषा-संसार में अवतार होता रहता है ।

इस प्रकार अनुवादक-रचनाकार के समक्ष एक कठिन चुनौती होती है और इस चुनौती पर कम ही खरे उतर पाते हैं । मूल लेखक अनुवाद के स्पर्श से अपनी रचना को निष्कलुष रखना चाहता है, वहीं अनुवादक अपनी भाषा में रचनाकार के स्पर्श का सुख पाना चाहता है ।

हर समाज में दार्शनिक साहित्य की अपनी एक परम्परा होती है और अपनी दार्शनिक शब्दावलियों का समूह भी । जनजातीय सृष्टि-कथाओं तथा लोक-साहित्य में जो जीवन-दर्शन है उसे तो कथावाचक अथवा नर्तक-नर्तकियों के अंग संचालन अथवा दैहिक भाव-भंगिमाओं को देखे-सुने बिना ग्रहण करना मुश्किल है – सुनना-देखना समझने की एक शर्त के रूप में उपस्थित होता है । अपने देश में पूर्व-मीमांसा, उत्तर-मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, जैन, बौद्ध, आजीवक, लोकायत, अद्वैत-द्वैत-द्वैताद्वैत-विशिष्टाद्वैत, सूफी आदि दर्शनों की एक लम्बी परम्परा रही है । इन दर्शनों की कई शाखाएँ-उपशाखाएँ हैं और सभी की अपनी-अपनी विशिष्ट शब्दावलियाँ भी । सूफी दर्शन की विभिन्न शाखाओं की शब्दावलियों के तार अरब दार्शनिक साहित्य से – इब्न रोश्द, इब्न सीना, अल-ग़ज़ाली, इब्न खाल्दून, आदि से जुड़ते हैं । इसी तरह आधुनिक यूरोपीय तार्किक-गणितीय ज्ञान की पृष्ठभूमि में चीन-भारत-ईरान-यूनान-रोम-अरब की लम्बी तार्किक-गणितीय परम्परा रही है और उसके अनेक पद और शब्द इसी पृष्ठभूमि से लिये गये हैं । इस यूरेशियाई भूखण्ड के अनेक स्थल तथा समुद्री मार्गों-उपमार्गों पर सदियों से सौदागरों, साम्राज्य की सेनाओं, संतों-फकीरों, यात्रियों की टोलियों की आवाजाही होती रही है और इन क्षेत्रों के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान भी । अनुवादकों को शब्दावलियों के इसी महासमुद्र से अपने काम का समानार्थक शब्द ढूँढ़ कर निकालना होता है । आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कितना श्रम-साध्य कार्य है ।

एक शब्द का अर्थ अलग सांस्कृतिक परिवेश में भिन्न अर्थ ग्रहण कर लेता है । ‘विज्ञान’ – पश्चिम में इस शब्द का जो सामान्य अर्थ (‘साइंस’) है, वह उपनिषद और बौद्ध दर्शन में इसके अर्थ (‘चेतना’) से बिल्कुल भिन्न है । ‘फ़िलोसॉफ़ी’ – यह मूल यूनानी शब्द लैटिन से होते हुए अँग्रेजी में दाखिल हुआ, इसका शाब्दिक अर्थ ‘प्रज्ञा-प्रेम’ (‘लव ऑफ विजडम’) है, और इसका निहितार्थ संसार, जीवन, समाज, भाषा आदि के तात्त्विक ज्ञान से है । ‘दर्शन’ का ध्वन्यार्थ इससे भिन्न है – ज्ञान यहाँ ‘देखा’ जाता है । विट्गेन्स्टाइन को भी ‘देखना’ शब्द खासा प्रिय था । ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं ।

‘ट्रैक्टेटस’ का अनुवाद किसी भी अनुवादक के लिए एक कठिन चुनौती है । हिन्दी अनुवाद की इस कठिन चुनौती को स्वीकार करने और इसे बखूबी निबाह ले जाने के लिए श्री अशोक वोहरा को बधाई – और इसी के बहाने विट्गेन्स्टाइन के बारे में इतना कुछ लिख जाने का मुझे मौका देने के लिए भी ।

करीब पच्चीस वर्ष पहले मुझे ‘ट्रैक्टेटस’ का एक हिन्दी अनुवाद देखने-पढ़ने का अवसर मिला था (साथ में डेविड ह्यूम, काण्ट आदि की रचनाओं के अनुवाद का भी) । वह संभवतः राजस्थान या मध्यप्रदेश हिन्दी अकादमी का प्रकाशन था – अब न वह किताब मेरे पास है और न ही उसकी कोई खास स्मृति । इसलिए दोनों अनुवादों का तुलनात्मक अध्ययन करने की स्थिति में मैं नहीं हूँ ।

श्री अशोक वोहरा का अनुवाद अच्छा है – उन्होंने इस बात का खास ख़्याल रखा है कि अनुवाद में अँग्रेजी वाक्य-विन्यास का अनुसरण करने की जगह हिन्दी के वाक्य-विन्यास में बातें रखी जाएँ । कई बार देखा जाता है कि अँग्रेजी वाक्य-विन्यास का हू-ब-हू अनुसरण करने के क्रम में अनुवाद बोझिल और अटपटा हो जाता है । हिन्दी में भाषा का सहज प्रवाह बनाये रखने के लिए अनेक अवसरों पर यह जरूरी हो जाता है कि अँग्रेजी के एक लम्बे वाक्य को दो-तीन छोटे वाक्यों में बांट कर लिखा जाए । ऐसा करने के क्रम में कई बार गड़बड़ी भी हो जाती है – गड़बड़ी यह कि मूल लेखक जिस बात को सम्प्रेषित करना अथवा जिस पर जोर देना चाहता है, कहीं वही बात महत्व न खो बैठे या फिर वह ठीक से सम्प्रेषित ही न हो पाए । वोहराजी के अनुवाद में यह सहज प्रवाह बना रहता है । दार्शनिक शब्दावली में भी उन्होंने यह कोशिश की है कि भारतीय तार्किक-गणितीय परम्परा में उपलब्ध समानार्थी अथवा मिलते-जुलते शब्दों का प्रयोग किया जाए, और अपनी ओर से अनावश्यक शब्द गढ़ने से बचा जाए । यह श्रम-साध्य प्रक्रिया है जिसका ‘अनुवादकीय’ में उन्होंने जिक्र किया है और उनका यह सराहनीय श्रम पुस्तक में परिलक्षित होता है । अँग्रेजी ‘प्रोपोजीशन’ के लिए आम तौर हम ‘प्रस्थापना’ का प्रयोग करते हैं, लेकिन भारतीय तार्किक साहित्य में ‘प्रतिज्ञा’ (और इसी ‘प्रतिज्ञा’ से ‘प्रतिज्ञप्ति’) एक प्रचलित पद है  (पञ्चावयवयुक्त अनुमानवाक्य के पाँच अवयव हैं – प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनयन और निगमन) ।

अनुवाद पर कुछ टिप्पणियाँ जिनसे लेखक का सहमत होना जरूरी नहीं है :

1. पृष्ठ 39 ; 1.12 : ‘द केस’ और ‘नोट द केस’ के लिए क्रमशः ‘सत्’ और ‘असत्’ का प्रयोग मेरे विचार से सही नही है । इन शब्दों के लिए अनुवादक 1.21 और 2 में ‘अस्तित्व’ और ‘अनस्तित्व’ तथा (‘द केस’ के लिए) ‘जो कुछ भी है’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जो सही है । इसलिए 1.12 का अनुवाद यह होना चाहिए : ‘क्योंकि तथ्यों की समग्रता ही क्या कुछ है, और यह भी कि क्या कुछ नहीं है, इसका निर्धारण करती है ।’

हमारी चिन्तन परम्परा में ‘सत्’ और ‘असत्’ का जो ध्वन्यार्थ है, वह विट्गेन्स्टाइन की नज़र में दर्शनशास्त्र का विषय ही नहीं है । वह तो अनिर्वचनीय, मौन का विषय है ।

विट्गेन्स्टाइन का ‘ट्रु’ और ‘फॉल्स’ हमारे दैनिक व्यवहार में, गणित तथा तर्कशास्त्र में प्रयोग होनेवाले ‘सही’ और ‘गलत’, ‘टिक’ (√) या ‘क्रॉस’ (X) चिह्न के समकक्ष है । पूरी किताब में ‘सत्यात्मक’ और ‘असत्यात्मक’ का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है और इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है । जाहिर है, यहाँ सत् या सत्य ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (आरम्भ में न सत् था न असत्) वाला या फिर ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’, ‘सत्यमेव जयते’, ‘सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म’, ‘असतो मा सदगमय’, आदि वाला सत्य नहीं है ; यह अँग्रेजी में कैपिटल टी (T) से शुरू होनेवाला ‘ट्रुथ’ भी नहीं ।

एक दो जगह छोड़कर शेष किताब में भी ‘सत्’ और ‘असत्’ का प्रयोग नहीं किया गया है ।

2. पृष्ठ 42 ; 2.024, 2.025, 2.027 में ‘सब्सटैंस’ के लिए ‘द्रव्य’ की जगह ‘तत्त्व’ शब्द ही ज्यादा उपयुक्त है । 2.021 और 2.0211 में अनुवादक ने इसी शब्द (तत्त्व) का प्रयोग किया है । 2.027 तथा 2.0271 में ‘सत्’ की जगह ‘अस्तित्वमान तत्त्व’ होना चाहिए । 2.0271 में ही ‘अस्थायी’ की जगह ‘अस्थिर’ ही ठीक रहेगा ।

3. पृष्ठ 56 ; 4.026 का दूसरा वाक्य; यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए : ‘बहरहाल, प्रतिज्ञप्तियों की सहायता से हम अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाते हैं ।’

4. पृष्ठ 57 ; 4.032 : लैटिन ‘एम्बुलो’ (अँग्रेजी ‘एम्बल’) का आशय ‘चलने’ से है और इसी में उपसर्ग और प्रत्यय लगाकर कई शब्द बनते हैं ; जैसे, ‘एम्बुलेंस’, ‘प्रिएम्बल’, ‘पेराम्बुलेटर’ आदि । ‘प्रहार’ की जगह इसी चलने से मिलता-जुलता हिन्दी शब्द दिया जाना चाहिए । ‘चल’ से ही कई शब्द बनते हैं ।

5. पृष्ठ 57 ; 4.04 : हर्ट्ज के ‘मैकेनिक्स’ से यहाँ आशय हायनरिख़ हर्ट्ज की किताब ‘द प्रिसिपल्स ऑफ मैकेनिक्स प्रजेण्टेड इन अ न्यू फॉर्म’ से है । यह किताब 1899 में मैकमिलन एण्ड कम्पनी लिमिटेड, लंदन द्वारा प्रकाशित की गई थी । इसलिए ‘(हर्ट्ज के यांत्रिक गतिक नमूनों से तुलना कीजिए ।)’ की जगह यह लिखा जाना चाहिए ‘(हर्ट्ज के मैकेनिक्स में वर्णित गतिक नमूनों से तुलना कीजिए ।)’ ।

6. पृष्ठ 64 ; 4.12721 का दूसरा वाक्य इस प्रकार होना चाहिए : ‘इसलिए आकारगत प्रत्यय को प्रारंभिक विचार के रूप में एक साथ प्रस्तुत करना असम्भव है ।’ इसी के अन्तिम वाक्य का अन्तिम अंश इस प्रकार होना चाहिए : ‘…. एक साथ प्रारम्भिक विचारों के रूप में प्रस्तुत करना असंभव है, जैसाकि रसेल ने किया है ।’

7. पृष्ठ 71 ; अन्तिम वाक्य इस प्रकार होना चाहिए : ‘पुनरुक्ति और व्याघाती प्रतिज्ञप्तियाँ संकेतों के समुच्चय की परिसीमित स्थितियाँ – वस्तुतः उनका विघटन – होती हैं ।’ ‘लिमिटिंग’ के लिए ‘अवच्छेदक’ की जगह ‘परिसीमित’ ही बेहतर होगा । अनुवादक ने एक जगह इस शब्द के लिए ‘सीमान्त’ का प्रयोग किया है और वह भी ‘अवच्छेदक’ से बेहतर है ।

8. पृष्ठ 78 ; 5.24 की अन्तिम पंक्ति में ‘साधारण धर्म’ की जगह ‘साझा’ का प्रयोग ही उपयुक्त होगा ।

9. पृष्ठ 79 ; 5.252 की दूसरी पंक्ति में ‘(रसेल और व्हाइटहेड द्वारा दी गई क्रम-परम्परा’ की जगह ‘…. द्वारा दिए गए क्रम-सोपानों में’ हो तो बेहतर । इसी में आगे के वाक्य में ऐसे क्रम की जगह ‘ .. ऐसे क्रमों की संभावना’ होना चाहिए ।

10. पृष्ठ 80 ; 5.3 : छठी-सातवीं पंक्ति में ‘.. तो प्राथमिक प्रतिज्ञप्ति देनेवाली कोई एकल प्रक्रिया भी होती है’ की जगह यह होना चाहिए ‘.. तो हमेशा प्राथमिक प्रतिज्ञप्तियों पर की जानेवाली कोई एकलप्रक्रिया भी होती है जो वही परिणाम दे ।’

11. पृष्ठ 80 ; 5.32 की दूसरी पंक्ति में ‘सत्यात्मक-प्रक्रियाओं के सीमित आनुक्रमिक प्रयोगों ..’ की जगह ‘सीमित सत्यात्मक-प्रक्रियाओं के आनुक्रमिक प्रयोगों ..’ होगा ।

12. पृष्ठ 86 ; 5.511 ; पंक्ति को इस प्रकार लिखा जाए तो बेहतर होगा : ‘तर्कशास्त्र – सर्वग्राही तर्कशास्त्र जो संसार का दर्पण है – ऐसी विलक्षण बुनावटों और कल्पनाओं का प्रयोग कैसे कर सकता है ? इसका एकमात्र कारण यह है कि वे सभी अनन्त रूप से सूक्ष्म तंत्र में एक-दूसरे से बँधे हैं – एक विशाल दर्पण की रचना करता तंत्र ।’

13. पृष्ठ 90 ; 5.535 में  ‘axiom of infinity’ के लिए ‘अपरिमित-अभिगृहीत’ की जगह ‘अनन्त की स्वयंसिद्धि’ ही मेरी समझ से ठीक होगा । अन्तिम पंक्ति में ‘अनेक नामों’ की जगह ‘अनन्त नामों’ होना चाहिए ।

14. पृष्ठ 92 ; 5.552 की अन्तिम दो पंक्तियों में कोष्ठक में दिए गए शब्दों ‘(तकनीकी सम्बन्धी)’ और ‘(विषय-वस्तु सम्बन्धी)’ की जरूरत नहीं है ।

15. पृष्ठ 93 ; 5.556 तथा 5.5561 में ‘उच्चावच’ की जगह ‘सोपानमूलक’ देना ही बेहतर होगा ।

16. पृष्ठ 100-101 ; 6.1232 और 6.1233 में ‘स्वयंसिद्ध-अपचेयता-सिद्धान्त’ की जगह ‘स्वयंसिद्ध समानयनता’ देना ज्यादा उपयुक्त होगा । ‘अपचेयता’ रसायनशास्त्र में प्रयुक्त होनेवाला शब्द है, जबकि ‘समानयनता’ गणित में ।

17. पृष्ठ 102 ; 6.1262 में दूसरी पंक्ति : ‘रीतितंत्र’ की जगह ‘क्रियाविधि’ ही ठीक होगा – ‘.. पहचानने की सहायक क्रियाविधि ही है ।’

18. पृष्ठ 102 ; 6.1264 में प्रूफ के लिए ‘उपपत्ति’ की जगह ‘प्रमाण’ का प्रयोग ही ठीक होगा – इसके ठीक पहले 6.1263 में अनुवादक ने ‘प्रमाण’ शब्द का ही प्रयोग किया है ।

‘मोडस पोनेन्स’ के लिए विधि-वध्यात्मक हेतुफलानुमान का प्रयोग किया गया है । प्रतिज्ञप्तिमूलक तर्कशास्त्र में ‘मोडस पोनेन्स’ (लैटिन) अनुमान का एक नियम है जिसे ‘इम्प्लीकेशन एलीमिनेशन’ (अर्थापत्ति विलोपन अथवा उपलक्षण बहिष्करण) कहा जाता है । इसी पुस्तक में इसका विवरण मौजूद है (5.101, 5.5351) – ‘यदि p तो  q’; सरल शब्दों में, प्रतिज्ञप्तिमूलक तर्कशास्त्र में यह नियम है कि ‘यदि  p तो q’ – इस शर्त-आश्रित वक्तव्य को स्वीकार किया जाता है और यदि‘p’ सत्यात्मक है, तो q भी सत्यात्मक होगा । क्या मोडस पोनेन्स के लिए शर्त-आश्रित (अथवा आश्रय-सिद्ध) हेतुफलानुमान लिखा जा सकता है ? (जैसे कोई तालाब में उठती भाप को देखकर यह कहे कि इस तालाब में आग है, तो उसका वह अनुमान आश्रय-असिद्ध रूप हेत्वाभास से युक्त होगा । यह वाक्य भी मैंने महाभारत की एक पाद-टिप्पणी से लिया है ।)

19. पृष्ठ 107 ; 6.361 की दूसरी पंक्ति में ‘कल्पनीय’ की जगह ‘विचारनीय’ अथवा ‘विचार का विषय’ ज्यादा उपयुक्त होगा ।

20. पृष्ठ 109 ; 6.36111 में ‘डाइमेन्सन्स’ के लिए ‘विम’ की जगह ‘आयाम’ भी लिखा जा सकता है ।

21. पृष्ठ 110 ; 6.4312 के अन्तिम वाक्य की अन्तिम पंक्ति : ‘अपेक्षित समाधान नहीं है’ की जगह ‘समाधान अपेक्षित नहीं है’ होगा । 6.432, 6.5, 6.51 – इन सभी में ‘रिड्ल’ के लिए ‘समस्या’ की जगह ‘पहेली’ शब्द ही ज्यादा उपयुक्त लगता है ।

22. पृष्ठ 112 ; 7 : ‘अनभिव्यंग्य’ की जगह ‘जो बात कही नहीं जा सकती’ ही बेहतर है । ‘जो बात कही नहीं जा सकती वहाँ मौन ही श्रेयस्कर है ।’ प्राक्कथन में अनुवादक ने यही लिखा भी है ।

दार्शनिक पदों की शब्दावली किताब के अन्त में जरूर दी जानी चाहिए थी । इस महत्वपूर्ण किताब में यह कमी खलती है । इससे हिन्दी में दर्शनशास्त्र पढ़नेवाले विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों को काफी लाभ होता । खासकर यूरोपीय दर्शनशास्त्र के पदों के लिए अलग-अलग अनुवादों में (अनेक मामलों में) अलग-अलग शब्द मिलते हैं और इससे काफी विभ्रम की स्थिति पैदा होती है ।

हिन्दी की किताबों में प्रूफ की गलतियों पर विशेष ध्यान देने की बात अक्सर कही जाती रही है । लेकिन इस मामले में कोई प्रगति दिखायी नहीं देती । इस किताब में भी प्रूफ की कई गलतियाँ हैं जिन्हें शीघ्र सुधारना जरूरी है । सामान्य गलतियों के अलावा कई ऐसी गलतियाँ रह गई हैं जिनसे वाक्य का अर्थ बदल जाता है । इन गलतियों से अनुवादक-लेखक को कितनी पीड़ा होती है, इसे मैं समझ सकता हूँ । यहाँ पूरा शुद्धि-पत्र तो नहीं दिया जा सकता लेकिन कुछ महत्वपूर्ण गलतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है :

1. आवरण पर अनुवादक का नाम अशोक बोहरा है, जबकि अन्दरूनी आवरण, उसके पृष्ठभाग तथा अनुवादकीय में अशोक वोहरा । लेखक का अँग्रेजी में जो नाम दिया गया है, उससे पता चलता है कि वोहरा ही सही है । किताब के आवरण पर ‘फिलोसॉफ़िकस’ है लेकिन अन्दरूनी आवरण तथा पृष्ठ 39 पर शीर्षक में ‘फ़िलोसॉफ़िकस’ । इसी तरह, मूल पाठ के शीर्षक (पृ. 39) में ‘ट्रैक्टेटस’ की जगह ‘ट्रैक्टेट्स’ छपा है । अन्दरूनी आवरण के पृष्ठ भाग में ही अँग्रेजी में ‘Western’ की जगह ‘Weatem’ है । भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशन में इस तरह की भूल की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए ।

2. पृष्ठ 55 ; 4.02 की दूसरी पंक्ति : ‘जाने’ डिलीट होगा । वाक्य इस प्रकार होगा : ‘हमारी इस जानकारी का कारण यह है कि प्रतिज्ञप्तिगत प्रतीक का अर्थ बिना किसी व्याख्या के समझा जा सकता है ।’ इसी तरह, पृ. 60 (4.114) की चौथी पंक्ति में ग्यारहवाँ शब्द ‘को’ डिलीट होगा । इस वाक्य को इस प्रकार भी लिखा जा सकता है : ‘जो विचार का विषय हो सकता है, उसकी परिधि से बाहर निकल कर इस शास्त्र को यह सीमा निर्धारित करनी चाहिए कि विचार का विषय क्या नहीं हो सकता है ।’

3. पृष्ठ 63 ; 4.1272 की पहली पंक्ति : ‘अचर’ की जगह ‘चर’ होगा । वैसे मेरे विचार में पूरा वाक्य इस प्रकार लिखा जाना चाहिए : ‘अतः चर नाम  ‘x’ छद्म-प्रत्यय वस्तु का समुचित चिह्न है ।’ पृ. 70 ; 4.4611 की दूसरी पंक्ति में ‘गणित’ की जगह ‘अंकगणित’ होगा ।

4. पृष्ठ 72 ; 5.02 की नौवीं पंक्ति : ‘~p’ की जगह ‘p होगा । वाक्य इस प्रकार होगा : ‘p’ के अर्थ की पूर्ण जानकारी के बिना ‘~p’ के अर्थ को समझा नहीं जा सकता ।

इसी की तेरहवीं पंक्ति में ‘जुलियस’ की जगह ‘जुलियन’ होगा ।

5. पृष्ठ 73 ; 5.101 में प्रस्तुत आकृतिगण में नौंवी पंक्ति : (FTTF) की जगह (TFFT) होगा ।

6. पृष्ठ 74 ; 5.1311 की चौथी और पाँचवीं पंक्ति में तिर्यक चिह्न (/) की जगह शेफर्स स्ट्रोक (|) होगा : ‘p/q./.p/q’ की जगह   ‘p|q.|.p|q’ और ‘p/p की जगह ‘p|p तथा कोष्ठक के अन्दर ‘p/q’ की जगह‘p|q’ होगा । 1913 में तर्कशास्त्री हेनरी शेफर ने इस संकेत (|) का प्रयोग शुरू किया था जिसका मतलब था ‘न तो यह और न वह’ – ‘न p और न q’ को इस तरह दर्शाया जाता है p|q । उन्हीं के नाम पर यह संकेत-चिह्न शेफर्स स्ट्रोक कहलाता है ।

7. पृष्ठ 86 ; 5.51 की पहली पंक्ति के पहले संकेत-चिह्न (Nξ) में N डिलीट होगा, सिर्फ ξ होगा । इसी तरह की कुछ और त्रुटियाँ हैं ।

संकेत चिह्नों के बीच स्पेस देने अथवा न देने के मामले में अनेक जगहों पर असावधानी दिखाई देती है । यहाँ उसका विवरण मैं नहीं दे सकता । इसे पृ. 79, 80, 81, 83, 86, 96, 98, 99 आदि पर देखा जा सकता है । तर्कशास्त्र और गणित के संकेत-चिह्नों में इस तरह की असावधानी से इन चिह्नों द्वारा द्योतित अर्थ ही बदल जाते हैं । जहाँ स्पेस नहीं देना है, वहाँ स्पेस देने से एक संकेत-चिह्न दो पृथक चिह्नों में बदल जाता है, और जहाँ स्पेस देना है, वहाँ नहीं देने से दो पृथक चिह्न एक चिह्न में बदल जाता है । वैसे अधिकांश जगहों पर यह ठीक है ।

8. पृ. 96 ; 6.02 की छठी पंक्ति में ‘x,’ के बाद स्पेस होगा (x, Ω’x, Ω’Ω’x, Ω’Ω’Ω’x, ….) । नौवीं पंक्ति के अन्त में ‘,x’  डिलीट होगा : ‘[Ω0’x, Ωv’x, Ωv+1’x]’ ।

9. पृ. 89 ; 5.531 की पहली पंक्ति में ‘f(aa)’ तथा ‘f(bb)’ की जगह  ‘f(a,a)’और‘f(b,b)’ होगा ।

10. पृ. 89 ; 5.532 की दूसरी पंक्ति के आरम्भ में ‘(Ǝx.y)’ में ‘.y’ डिलीट होगा ; पूरा चिह्न इस प्रकार होगा : ‘(Ǝx).f(x,x)

इसी तरह की कुछ और त्रुटियाँ हैं जिनसे वाक्यों, चिह्नों अथवा समीकरणों का अर्थ बदल जाता है ।

यह सुखद है कि श्री वोहरा अनुवाद के क्रम में कोई अनावश्यक प्रयोग करने, अनुवाद में अपनी ओर से कोई छूट लेने से भरसक बचने का प्रयास करते हैं । वे मूल पाठ पर (और विट्गेन्स्टाइन पर) हावी होने की कतई कोशिश नहीं करते – खुद पृष्ठभूमि में रहते हुए मूल पाठ के अनुवाद का आनन्द लेते दिखते हैं । कई बार मूल पाठ पर हावी होने के क्रम में कई अनुवादक न सिर्फ अनुवाद के अनासक्त आनंद से खुद वंचित रह जाते हैं, बल्कि पाठकों को भी मूल पाठ के आस्वाद से वंचित कर देते हैं ।

पुस्तक की विशेषता उसकी सादगी है, सादगी की सहज सरसता है । ‘अनुवादकीय’ में अनुवादक ने संक्षेप में विट्गेन्स्टाइन और ‘ट्रैक्टेटस’ का रोचक परिचय तो दिया ही है, अपनी श्रमसाध्य अनुवाद-प्रक्रिया का भी विवरण प्रस्तुत किया है । दर्शनशास्त्र, खासकर विट्गेन्स्टाइन के दर्शन में रुचि रखनेवाले पाठकों तथा विद्यार्थियों के लिए यह एक उपयोगी एवं जरूरी किताब है ।

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टिप्पणियाँ

1 विट्गेन्स्टाइन के जीवन तथा कृतित्व से सम्बन्धित बहुत सारी सामग्री अब पब्लिक डोमेन में हैं । उन पर काफी लिखा गया है और ऐसे अनेक लेख, पुस्तक-अंश और पुस्तकें भी ऑनलाइन उपलब्ध हैं । 24,000 पृष्ठों के उनके नोटबुक तथा ड्राफ्ट्स का सीडी-रोम तो है ही, उनका बड़ा हिस्सा http://www.wittgensteinsource.org पर उपलब्ध है । ‘ट्रैक्टेटस’ और ‘फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस’ के अलावा विट्गेन्स्टाइन की कुछ अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं : 1. ‘द ब्लू एण्ड ब्राउन बुक्स’; 2. ‘ऑन सर्टेंटी’ (1969) ; 3. ‘कल्चर एण्ड वैल्यू’ (ब्लैकवेल, 1980) ; 4. ‘रिमार्क्स ऑन द फाउण्डेशंस ऑफ मैथेमेटिक्स’ (1956) ; 5. ‘नोटबुक्स : 1914-1916’ (ब्लैकवेल, 1979 ) ; 6. ‘रिमार्क्स ऑन कलर’ आदि । उनकी जीवनी पर सबसे चर्चित किताब है रे मोंक की ‘लुडविग विट्गेन्स्टाइन : द ड्युटी ऑफ जीनियस’, विंटेज, लंदन, 1991 । कुछ अन्य किताबें हैं : रश रीस के सम्पादन में प्रकाशित ‘लुडविग विट्गेन्स्टाइन : पर्सनल रीकलेक्शंस’, ऑक्सफोर्ड-ब्लैकवेल, 1981 (हरमिन विट्गेन्स्टाइन का संस्मरण ‘माइ ब्रदर लुडविग’ इसी किताब में संकलित है ; मॉरिस ड्रुरी, रश रीस आदि के संस्मरण भी इसमें संकलित हैं) ; जेम्स सी क्लैग की ‘सिम्पली विट्गेन्स्टाइन’ (न्यूयार्क, 2016) ; ब्रायन मैकगिन्नेस के सम्पादन में प्रकाशित ‘विट्गेन्स्टाइन इन कैम्ब्रिज : लेटर्स एण्ड डॉकुमेंट्स 1911-1951’ (ऑक्सफोर्ड-ब्लैकवेल, 2008) ; आदि । दर्शनशास्त्र की अन्य किताबों में भी विट्गेन्स्टाइन से सम्बन्धित सामग्रियाँ मिल जाती हैं ।

इस लेख में अँग्रेजी में ‘ट्रैक्टेटस’ के संदर्भ इस पुस्तक से लिये गये हैं : विट्गेन्स्टाइन, लुडविग (1974) ; ‘ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलोसॉफ़िकस’, राउटलेज एण्ड केगान पॉल, लंदन ; अनुवादक : डी एफ पियर्स और बी एफ मैकगिन्नेस ।

‘ट्रैक्टेटस’ के लगभग सभी उद्धरणों का हिन्दी अनुवाद श्री अशोक वोहरा द्वारा अनूदित ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलोसॉफ़िकस (भारतीय ज्ञानपीठ, 2016) से लिया गया है । शेष अँग्रेजी उद्धरणों का हिन्दी अनुवाद लेखक द्वारा किया गया है ।

2 यह वाक्यांश ‘ट्रैक्टेटस’ के ध्येय-वाक्य से लिया गया है । अनुवाद श्री अशोक वोहरा का है ।

3 बॉदेलेअर, चार्ल्स (1919) ; ‘द पोएम्स एण्ड प्रोज पोएम्स ऑफ चार्ल्स बॉदेलेअर’, ए पब्लिक डोमेन बुक, ब्रेंतानोज पब्लिशर्स, न्यूयार्क; ‘द इनविटेशन टु द वोयेज’ (किंडल एडीशन, लोकेशन 1135-36) ।

4 क्लैग, जेम्स सी (2016) ; ‘सिम्पली विट्गेन्स्टाइन’ सिम्पली चार्ली, न्यूयार्क (किंडल एडीशन), में उद्धृत ।

5 बॉदेलेअर, चार्ल्स (1919) ; ऊपर वर्णित; ‘एवरीमैन हिज कीमेरा’, (लोकेशन 1071-1077) ।

6 बोवुआर, सिमोन द (2004) ; ‘एक गुमशुदा औरत की डायरी’, मेरठ, 2004; अनुवाद : ललित कार्तिकेय; ‘संध्या-वेला’ : 73 ।

7 नारायण, कुँवर (2009) ; ‘वाजश्रवा के बहाने’, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली : 148, 154 ।

8 महाभारत (1973) ; प्रथम खण्ड, सभा पर्व के द्युत पर्व में भीष्मवाक्य विषयक उनहत्तरवाँ अध्याय, गीता प्रेस गोरखपुर : 907, श्लोक 15 ।

9 बेकवेल, सारा (2017) ; ‘एट द एक्जिस्टेंशियलिस्ट कैफे : फ्रीडम बीइंग एण्ड एप्रिकॉट कॉकटेल’, विंटेज, लंदन ; ‘9. लाइफ स्टडीज : इन व्हिच एक्जिस्टेंशियलिज़्म इज एप्लाइड टु एक्चुअल पीपल’ : 218-220 ।

10 राधाकृष्णन, सर्वपल्ली (1955) ; ‘ईस्ट एण्ड वेस्ट’, जॉर्ज एलेन एण्ड अनविन लिमिटेड, लंदन : 125 ।

11 क्लैग, जेम्स सी (2016) ; ऊपर वर्णित ।

12 छांदोग्य उपनिषद (1983) ; मूल संस्कृत के साथ अँग्रेजी अनुवाद : स्वामी गंभीरानंद ; अद्वैत आश्रम, कोलकाता ; अध्याय VII, 1-26 : 510-558 । नारद के परिचय में छांदोग्य उपनिषद के साथ-साथ महाभारत में दिए गए परिचय का भी कुछ अंश जोड़ दिया गया है । महाभारत (1973) ; सभा पर्व के अन्तर्गत लोकपालसभाख्यानपर्व, पञ्चम अध्याय : 675-6 ।

13 लेहरर, के और मारेक जे सी (सम्पादन) (1997) ; ‘ऑस्ट्रियन फ़िलोसॉफ़ी : पास्ट एण्ड प्रजेण्ट’, बोस्टन स्टडीज इन द फ़िलोसॉफ़ी ऑफ साइंस, खण्ड 190, स्प्रिंगर, डोरड्रेख़ में संकलित जे हिनतिक्का का लेख ‘द आइडिया ऑफ फेनोमेनोलॉजी इन विट्गेन्स्टाइन एण्ड हुसेर्ल’ : 101-123 । इसी लेख में हर्बर्ट स्पाइगेलबर्ग के लेख ‘द पजल ऑफ विट्गेन्स्टाइन्स फेनोमेनोलॉजी (1929 – )’ का उद्धरण दिया गया है । स्पाइगेलबर्ग का यह लेख 1982 में मार्टिनस निजहॉफ (द हेग) द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘द कंटेक्स्ट ऑफ द फेनोमेनोलॉजिकल मूवमेंट’ में संकलित है (पृष्ठ : 202-228) ।

14 मुक्तिबोध, गजानन माधव (1985) ; मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड 2, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली; ‘अँधेरे में’ : 334

15 क्लैग, जेम्स सी (2016) ; ऊपर वर्णित । आगे के कुछ विवरण भी इसी किताब से ।

16 वही ।

17 बेनफे, क्रिस्टोफर (2017) ; ‘द मिस्टीरियस म्यूजिक ऑफ जॉर्ज त्राक्ल’, द न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्स, 1 अगस्त, 2017 ।

18 द फ्रेगे-विट्गेन्स्टाइन कॉरेस्पोंडेंस – बोस्टन युनिवर्सिटी : www.bu.edu/philo/files/2011/01/Frege-WittgensteinCorrespondence.pdf ; इसी में, जुलियट फ्लॉयड का लेख ‘द फ्रेगे-विट्गेन्स्टाइन कॉरेस्पोंडेंस : इंटरप्रेटिव थीम्स’ ।

19 ट्रैवर्सो, एंजो (2016) ; ‘लेफ्टविंग मेलंकोलिया : मार्क्सिज्म, हिस्ट्री एण्ड मेमोरी’, कोलम्बिया युनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क (पीडीएफ) ; ‘प्रीफेस’ : 13 ।

20 लेनिन, ब्लादिमिर, इलिच (1972) ; ‘मेटेरियलिज़्म एण्ड इम्पीरियो-क्रिटिसिज़्म’, फॉरेन लैंग्वेज प्रेस, पेकिंग । 1905-7 की असफल रूसी क्रान्ति के बाद लेनिन उन दिनों जेनेवा में निर्वासित थे । इस किताब के लिए जरूरी संदर्भ-सामग्री चूँकि जेनेवा में उपलब्ध नहीं थी, इसलिए मई 1908 में एक महीने के लिए वे लंदन चले गये और वहाँ ब्रिटिश म्युजियम की लाइब्रेरी में सम्बन्धित सामग्री के अध्ययन में जुटे रहे । किताब की पाण्डुलिपि चोरी-छिपे मास्को के एक गुप्त ठिकाने पर भेजी गई थी । प्रूफ देखने का काम लेनिन की बहन ए आई एलिजारोवा ने किया था – वैसे छपने से पहले अन्तिम प्रूफ गुप्त रूप से लेनिन को भी भेजी गई थी । दर्शन की इस किताब में लेनिन ने जारशाही के सेंसर से बचने के लिए सचेत रूप से समकालीन राजनीतिक संदर्भों का जिक्र नहीं किया था । किताब ज़्वेनो पब्लिशिंग हाउस, मॉस्को से मई 1909 में प्रकाशित होकर आई ।

21 लेनिन, ब्लादिमिर इलिच (1972) ; ऊपर वर्णित : 144-5 ।

22 वही : 340-2 ।

23 वही : 342 ।

24 जेफ्रीज, स्टुअर्ट (2016 ) ; ‘ग्रैंड होटल एबीस : द लाइव्स ऑफ द फ्रैंकफुर्ट स्कूल’, वर्सो, लंदन (पीडीएफ); पार्ट 1. ‘कंडीशन : क्रिटिकल’ : 38-40 । फ्रैंकफुर्ट स्कूल का कुछ विवरण इसी किताब से । साथ ही, लुकाच, जॉर्ज (1971) ; ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कंशसनेस : स्टडीज इन मार्क्सिस्ट डाइलेक्टिक्स’, मर्लिन प्रेस, लंदन ; ‘द मार्क्सिज्म ऑफ रोजा लक्जमबर्ग’ : 27-45 । यह किताब मूल रूप में सबसे पहले 1922 में छपी थी ।

25 वही : 19 ।

26 रसेल, बर्ट्रेंड (1967) ; ‘हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फ़िलोसॉफ़ी’, जॉर्ज एलेन एण्ड अनविन, लंदन ; अध्याय XXXI, ‘द फ़िलोसॉफ़ी ऑफ लॉजिकल एनेलाइसिस’ : 783 ।

27 एंगेल्स, फ्रेडरिख़ (वर्ष नहीं) ; ‘ड्युहरिंग मत-खण्डन : श्री यूजेन ड्युहरिंग द्वारा विज्ञान में प्रवर्तित क्रान्ति’, विदेशी भाषा प्रकाशन गृह, मास्को; ‘12. परमाणु और गुण’ : 203 ।

28 वही : 204 ।

29 अलेक्जेंडर, अमीर (2014) ; ‘इनफिटिसमल : हाउ ए डेंजरस मैथेमेटिकल थ्योरी शेप्ड द मॉडर्न वर्ल्ड’, वन वर्ल्ड, लंदन ; अध्याय I, ‘द चिल्ड्रेन ऑफ इग्नेसियस’ : 43 ।

30 ‘द रेने देकार्ते कलेक्शन : हिज क्लासिक वर्क्स’, वैक्सकीप पब्लिशिंग ; ‘डिस्कोर्स ऑन द मेथड ऑफ राइटली कंडक्टिंग द रीजन एण्ड सीकिंग ट्रुथ इन द साइंसेज’, पार्ट I (किंडल एडीशन) ।

31 अलेक्जेंडर, अमीर (2014) ; ऊपर वर्णित ; अध्याय 2, ‘मैथेमेटिकल ऑर्डर’ : 68 ।

32 एंगेल्स, फ्रेडरिख़ (वर्ष नहीं) ; ऊपर वर्णित; ‘9. नैतिकता और कानून । शाश्वत सत्य’ : 147 ।

33 अलेक्जेंडर, अमीर (2014) ; ऊपर वर्णित ; ‘टाइमलाइन’ : 307-8 ।

34 1870 के आरम्भ में हैनोवर में लाइबनीज़ का घर गिरा दिया गया था और सारा सामान फेंक दिया गया । मार्क्स के मित्र कुगेलमन ने उन्हीं सामानों में से बच गये लाइबनीज़ के अध्ययन-कक्ष के दो वाल-पेपर रख लिये थे और मार्क्स के जन्मदिन पर (5 मई को) वही वाल-पेपर उपहार के रूप में उन्हें लंदन भेज दिया । इस उपहार से मार्क्स काफी खुश थे और 10 मई 1870 को एंगेल्स के नाम पत्र में उन्होंने अपनी खुशी का इज़हार करते हुए लिखा, ‘…. मूर्ख हैनोवरवासी (लाइबनीज़ के) इन सामानों को फेंकने के बजाए लंदन के नीलामी बाजार में नीलाम कर देते तो उन्हें अच्छी आमदनी हो जाती । .. खैर, मैंने वालपेपर को अपने अध्ययन-कक्ष में टांग दिया है । तुम्हें तो पता है, मैं लाइबनीज़ का कितना बड़ा प्रशंसक हूँ ।’ एंगेल्स के नाम एक अन्य पत्र में एंगेल्स द्वारा कैलकुलस के सम्बन्ध में पूछे गये एक प्रश्न के जवाब में मार्क्स उन्हें कैलकुलस की बुनियादी प्रस्थापनाओं को डायग्राम बनाकर समझाते हैं ।

35 रसेल, बर्ट्रेंड (1967) ; ऊपर वर्णित; अध्याय XXXI ; ‘द फ़िलोसॉफ़ी ऑफ लॉजिकल एनेलाइसिस’ : 783 ।

36 वही ; अध्याय XX ; ‘काण्ट’ : 680 ।

37 वही ; ऊपर वर्णित; अध्याय XXXI ; ‘द फ़िलोसॉफ़ी ऑफ लॉजिकल एनेलाइसिस’ : 786-9 ।

38 क्लैग, जेम्स सी (2016) ; ऊपर वर्णित ।

39 ओर्दोनेज़, विंसेंते (वर्ष नहीं) ; ‘ब्राम्ज़ म्युजिक इन लुडविग विट्गेन्स्टाइन्स फ़िलोसॉफ़ी’, (पीडीएफ) : 10 में उद्धृत ।

40 ‘प्लुटार्क्स लाइव्स’ (वर्ष नहीं) ; वाल्टर स्कॉट पब्लिकेशंस, फेलिंग, न्यूकैसल-ऑन-टाइन; ‘देमोस्थेनीज’ : 283-307 ; ‘सिसेरो’ : 308-348 ; ‘देमोस्थेनीज एण्ड सिसेरो कम्पेयर्ड’ : 348-351 ।

41 बोर्हेस, जोर्ग लुई (2000)  ; ‘सेलेक्टेड पोएम्स’, पेंग्विन बुक्स, लंदन ; ‘द सेल्फ एण्ड द अदर’, ‘प्रोलोग’ : 149 ।

42 ओर्दोनेज, विंसेंते (वर्ष नहीं) ; ऊपर वर्णित : 15 (मैकगिन्नेस से उद्धृत) ।

43 वही : 7 ।

44 क्लैग, जेम्स सी (2016); ऊपर वर्णित ।

45 ‘द फ़िलोसॉफ़ी ऑफ कम्प्यूटर साइंस’ (20 अगस्त, 2013, पुनर्संशोधन 19 जनवरी, 2017) : https://plato.stanford.edu/entries/computer-science/

डेविड हिल्बर्ट से सम्बन्धित संदर्भ यहाँ देखें :

www.seas.harvard.edu/courses/cs121/handouts/Hilbert.pdf

46 ह्युमेनिटीज (2015); 4 (www.mpdi.com/journal/humanities), में एम्सटर्डम विश्वविद्यालय (द हेग) में दर्शनशास्त्र विभाग के दिमित्रिस गैकिस का लेख ‘विट्गेन्स्टाइन, मार्क्स एण्ड मार्क्सिज्म : सम हिस्टोरिकल कनेक्शंस’, 4 दिसम्बर, 2015 : 924-937 ।

इस लेख में अमर्त्य सेन का निम्नलिखित लेख उद्धृत किया गया है : सेन, अमर्त्य (2003) ; ‘स्राफा, विट्गेन्स्टाइन एण्ड ग्राम्शी’, जर्नल ऑफ इकोनोमिक लिटरेचर 41 : 1240-55 ।

47 दिमित्रिस के ऊपर वर्णित लेख में उद्धृत ।

48 वही ।

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अनन्त का छंद – 9

अनन्त का छंद – 9

प्रसन्न कुमार चौधरी

टिप्पणियाँ

1. “दोनों (इतिहास और प्रकृति के अध्ययन के) मामले में आधुनिक भौतिकवाद सारतः द्वन्द्वात्मक है और उसे अन्य तमाम विज्ञानों से ऊपर किसी तत्वशास्त्र की अब ज़रूरत नहीं रह गई है । जैसे ही चीजों, और चीजों कके हमारे ज्ञान की विराट समग्रता में अपनी स्थिति स्पष्ट करना प्रत्येक पृथक के लिए ज़रूरी हो जाएगा, वैसे ही इस समग्रता से जुड़ा एक विशेष विज्ञान भी ग़ैरज़रूरी हो जाएगा । तमाम पूर्ववर्ती तत्वशास्त्र से स्वतंत्र जो चीज बची रह जाती है वह है चिन्तन और उसके नियमों का विज्ञान – यानी औपचारिक तर्कशास्त्र तथा द्वन्द्ववाद । बाकी सब कुछ प्रकृति और इतिहास के प्रत्यक्ष विज्ञान में समाहित हो जाता है ।” फ़्रेडरिक एंगेल्स, ‘एण्टी-ड्युरिंग’, बीजिङ, 1976 ।

प्रसंगवश, किसी भी विचार प्रणाली का जीवनकाल बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस विचार प्रणाली के पुनर्जन्म/पुनर्नवीकरण/पुनर्व्याख्या की कितनी गुंजाइश रहती है । प्रायः हर विचार प्रणाली पुनर्नवीकरणों/पुनर्व्याख्याओं की एक प्रक्रिया से ग़ुजरने के बाद या तो लुप्त हो जाती है या फिर किसी दूसरी विचार प्रणाली अथवा प्रणालियों में रूपान्तरित हो जाती है ।

ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण की गुंजाइश के कारण मार्क्सवाद की भी (अलग-अलग राष्ट्रीय स्थितियों में) अनेक व्याख्याएँ सामने आईं । साथ ही एक सार्विक विचार प्रणाली के रूप में उसके स्तरीकरण की कोशिशों तथा उसकी अलग-अलग राष्ट्रीय व्याख्याओं के बीच का द्वन्द्व (खासकर तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, 1919-1943 के दौर में) निरन्तर क्रियाशील रहा । इसके परिणामस्वरूप कई छोटे-बड़े विभाजन भी हुए, और इन व्याख्याओं ने भी अनेक मामलों में अपनी सार्विकता का दावा ठोंका ।

2. वाक्यांश स्व. जीवनानन्द दास से साभार ।

एस.एन. दासगुप्त और एस. राधाकृष्णन के अध्ययन मूलतः विवरणात्मक-व्याख्यात्मक हैं । लोकायत पर देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय का कार्य अनुसंधानमूलक है । जे. कृष्णमूर्ति की रचनाएँ ध्यानमूलक हैं ।

बहरहाल, उपनिवेशों में पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता के बरक्श अपनी पहचान का प्रश्न विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होता रहा है । नई स्थितियों में अपनी पहचान को निरूपित करने के क्रम में, इन देशों के अग्रणी विचारकों ने न सिर्फ अपने-अपने देशों का सांस्कृतिक परम्पराओं और विचार प्रणालियों का, बल्कि तत्कालीन पश्चिमी समाज में प्रचलित विभिन्न विचारशाखाओं – मार्क्सवाद/अतियथार्थवाद/अस्तित्ववाद आदि का भी उपयोग किया ।

अपने देश में भी विभिन्न अंचलों में अनेक विचारकों तथा समाज सुधारकों ने औपनिवेशिक स्थितियों में भारतीय पहचान की विशद व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं । इनमें सबका जिक्र करना तो यहाँ संभव नहीं, फिर भी उन्नीसवीं सदी के अन्त तथा बीसवीं सदी के आरम्भ के काल में तीन नाम आसानी से लिए जा सकते हैं – स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गांधी । पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी पश्चिमी सभ्यता के मुक़ाबले भारतीय पहचान के प्रतीक पुरुष बने रहे ।

3. ‘अर्थशास्त्र’ में तत्वशास्त्र की चाणक्य द्वारा दी गई परिभाषा ।

4. इस बहिष्कृत मध्य की प्रस्थापना के बारे में हेगेल ख़ुद बताते हैं कि इसके अन्तर्गत कोई चीज या तो (अ) है या (अ नहीं) है । किसी तासरी स्थिति की गुंजाइश नहीं रहती । बहरहाल, इसका खण्डन करते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि इस प्रस्थापना में ही तीसरी स्थिति मौज़ूद है । (अ) ख़ुद वह तीसरी स्थिति है क्योंकि वह दोनों, (+अ) तथा (−अ), हो सकती है । इस प्रकार, वह ‘कोई चीज’ ख़ुद तीसरी स्थिति है, जिसको बहिष्कृत करने की बात की जाती है । प्रसंगवश, इस बाबत विखंडनवादी विमर्श में देरिदा के विचारों को भी देखा जा सकता है ।

5. फ़्रांसिस बेकन, ‘एसेज़’, तथा ‘दि ग्रेट इंस्टॉरेशन एण्ड न्यू एटलांटिस’ ।

6. ऋग्वेद, 10/129 ।

7. हेगेल, ‘साइंस ऑफ़ लॉज़िक’ ।

8. फ़्रेडरिक एंगेल्स, ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ ।

9. छांदोग्य उपनिषद, 8/3/5 ।

10. बृहदारण्यक उपनिषद ।

11. ‘कबीर ग्रंथावली’, सं. डॉ. माताप्रसाद गुप्त ।

12. ‘दोहाकोश-गीति’, सरहपाद, सं. राहुल सांकृत्यायन ।

13. ‘कबीर ग्रंथावली’, वही ।

14. चरक संहिता, 5/29 ।

15. प्रकृति और मानव समाज के अध्ययन के क्रम में प्रायः सभी बड़े चिन्तकों ने भेदों के सापेक्ष संसार से ऊपर उठने की ज़रूरत महसूस की है । इस ज़रूरत की अभिव्यक्ति उनके आलेखों में अलग-अलग रूपों में हुई है । यहाँ कुछ का जिक्र करना ही पर्याप्त होगा । बर्ट्रेंड रसेल की नज़र में तत्वशास्त्र मन की एक निश्चित स्वाभाविक दिशा का मार्ग प्रशस्त करता है । वह हमें सापेक्षताओं (फ़ाइनाइटनेस) से, आसक्तियों और रोज़मर्रा के झमेलों की निरंकुशता से आज़ाद करता है । उसमें अनन्त का गुण है । वह हमें अपनी चंचल चाहतों और क्षुद्र विचारों की क़ैद से मुक्त कर देता है । “हमारे जीवन का यह अनन्त पक्ष किसी एक दृष्टिबिन्दु से दुनिया को नहीं देखता, वह तो निष्पक्ष रूप से, मेघाछन्न समुद्र पर बिखरी प्रकाश किरणों की तरह जगमगाता रहता है । प्राचीन युग और दूरवर्ती क्षेत्र भी उसके लिए उतने ही यथार्थ होते हैं जितना वर्तमान और निकटवर्ती क्षेत्र । विचार में, वह संवेदनाओं के जीवन से ऊपर उठ जाता है, वह हमेशा सार्विक और सर्वसुलभ की तलाश में होता है । चाहतों और आकांक्षाओं के क्षेत्र में, उसका लक्ष्य मेरे-तेरे की भावना से परे, सिर्फ अच्छाई होता है । भावनाओं के धरातल पर, वह सब पर प्यार लुटाता है – न सिर्फ उन पर जो उसके निजी हितों को आगे बढ़ाए । सान्त (फ़ाइनाइट) जीवन के विपरीत, वह निष्पक्ष होता हैः उसकी निष्पक्षता विचारों में सत्य, कर्म में न्याय, और भावनाओं में सार्विक प्रेम की ओर ले जाती है ।” (‘इसेन्स ऑफ़ रिलीज़न’, हिब्बर्ट जर्नल, अक्टूबर 1912)

इस सिलसिले में टॉयनबी अनेक बार उद्धृत किए जा चुके हैं, इसीलिए यहाँ उन्हें दुहराने की ज़रूरत नहीं । मार्क्सवादी भी यह मानते हैं कि वैज्ञानिक समाजवाद का निरूपण मज़दूर वर्ग की वर्गचेतना के स्वाभाविक विकास का नतीजा नहीं । मज़दूर वर्ग अपने वर्ग आन्दोलन के क्रम में अधिक-से-अधिक ट्रेड यूनियन चेतना तक ही पहुँच सकता है । मार्क्स की साम्यावस्था भी सर्वप्रथम मन की वह अवस्था है जहाँ से पूंजीवादी समाज के अन्दरूनी विरोधों को अपेक्षाकृत निष्पक्षता से जांचा-परखा जा सकता है ।

मनोविश्लेषक लाकां हमारी तमाम फंतासियों को समग्रता की हमारी आकांक्षा का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व मानते हैं । उनकी नज़र में समग्रता की हमारी चाहना तार्किक रूप से असंभव है ।

16. वाक्यांश बर्ट्रेंड रसेल का है । “धर्मशास्त्र और विज्ञान के बीच एक निर्जन प्रदेश (नो मेन्स लैंड) है जिस पर दोनों पक्षों के हमलों का खतरा बना रहता है । यह निर्जन प्रदेश ही तत्वशास्त्र (फ़िलोसॅफ़ी) है ।” (‘हिस्ट्री ऑफ़ वेस्टर्न फ़िलोसॅफ़ी’, लंदन, 1961)

17. इसीलिए ज़ेम्स जी. फ़्रेज़र (‘दि गोल्डेन बाउ’) और अर्नाल्ड ज़े. टॉयनबी (‘ए स्टडी ऑफ़ हिस्ट्री’, खण्ड 7) का यह कहना सही नहीं है कि भारतीय चिन्तन परम्परा में सिर्फ ‘विदड्रावल’ है, ‘रिटर्न’ नहीं । टॉयनबी ने बाद में अपने विचार बदले । ‘इंटरनेशनल अफ़ेयर्स’ (खण्ड 31, संख्या 1, जनवरी 1955) में प्रकाशित अपने एक लेख ‘ए स्टडी ऑफ़ हिस्ट्रीः व्हाट आई एम ट्राइंग टु डू’ में उन्होंने लिखा, “मेरा तो अब यह विश्वास हो चला है कि तमाम पंथ और तत्वशास्त्र सत्य को, एक या दूसरे पहलू से, आंशिक रूप में ही प्रकट करते हैं । खास तौर पर, मैं जानता हूँ कि दूरियों के खात्मे के कारण हम जिस एक विश्व की ओर बढ़ रहे हैं, उसमें ईसाई, इस्लाम और यहूदी मत बौद्ध और हिन्दू मत से नसीहत ले सकता है । यहूदी परम्परा वाले पंथों के विपरीत, भारतीय धर्म बहिष्कार का पक्षपोषण नहीं करते । वे अस्तित्व के रहस्य तक पहुँचने के वैकल्पिक मार्गों की संभावना को स्वीकारते हैं, और यह मुझे यहूदी, ईसाई और इस्लाम मत के अनोखा तथा अन्तिम (प्रकाशन) होने के प्रतिद्वन्द्वी दावों की तुलना में अधिक सत्य प्रतीत होता है । अपनी पुस्तक के अन्तिम चार खण्ड मैंने इसी भारतीय दृष्टिकोण के आधार पर लिखे हैं ।”

18. बीसवीं सदी के आरम्भ में 3 × 102 इलेक्ट्रॉन वोल्ट के ऊर्जा कण के साथ ब्राउनियन गति की खोज से यह प्रमाणित हुआ कि पदार्थ परमाणुओं से बना है । फिर यह खोज हुई कि ये कथित अविभाज्य परमाणु दरअसल इलेक्ट्रॉनों से बने हैं जो कुछेक इलेक्ट्रॉन वोल्ट की ऊर्जा से युक्त न्यूक्लिअस के चारो ओर चक्कर काटते रहते हैं । न्यूक्लिअस भी 106 इ.वो. की ऊर्जा के न्यूक्लिअर बन्धन के साथ प्रोटोन और न्यूट्रॉन से बने पाये गये । इस क्रम में सबसे नयी खोज यह है कि प्रोटोन तथा इलेक्ट्रॉन भी क्वार्कों से बने हैं और ये क्वार्क 109 इ.वो. की ऊर्जा से बंधे हैं । इस तरह उच्च और उच्चतर ऊर्जा की स्थितियों के साथ संरचनाओं की नई-नई परतें उद्घाटित हो रही हैं ।

पचास और साठ के दशकों में अब्दुस सलाम और स्टीवन वाइनबर्ग ने अपने प्रयोगों से यह प्रमाणित किया कि अति उच्च ऊर्जा की स्थितियों में विद्युत्चुम्बकीय शक्ति (जिसका वाहक स्पिन 1 कण फ़ोटोन है) और दुर्बल न्यूक्लिअर शक्ति (जिसके वाहक स्पिन 1 कण w+, w और z0 हैं) एक होकर समान आचरण करने लगती हैं । यानी उनका पुनर्सामान्यीकरण घटित होता है । इस खोज के लिए 1979 में सलाम, वाइनबर्ग और शेल्डन ग्लेशो को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि और भी उच्च ऊर्जा की स्थिति में (क़रीब 1024 इ.वो. की ऊर्जा की स्थिति में) सबल न्यूक्लिअर शक्ति का भी पुनर्सामान्यीकरण घटित होता है ।

बहरहाल, 1024 इ.वो. की ऊर्जा अभी प्रयोगशालाओं की पहुँच से काफ़ी दूर है । पार्टिकल एक्सलरेटर्स की मौज़ूदा पीढ़ी 1010 इ.वो. की ऊर्जा पैदा करने में सक्षम है । (109 इ.वो. की ऊर्जा उस ऊर्जा के बराबर है जो एक हाइड्रोज़न परमाणु को पूरी तरह ऊर्जा में रूपान्तरित करने से निःसृत होती है ।)

ऐसा अनुमान किया जाता है कि या तो 1033 से.मी. के अत्यल्प लेंग्थ स्केल पर (प्रोटोन अथवा न्यूट्रॉन का आकार क़रीब 1013 से.मी. है) या फिर 1028 इ.वो. की अति उच्च ऊर्जा की स्थिति में विद्युत्चुम्बकीय और गुरुत्वाकर्षण की शक्तियों का भी एकीकरण हो जा सकता है । 1010 इ.वो. की वर्तमान प्रायोगिक सीमा और 1028 इ.वो. की परिकल्पित सीमा के बीच इतनी दूरी है कि कुछ कहना मुश्किल है । इस बीच नई-नई संरचनाओं की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता ।

संदर्भः ‘ए ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम’, स्टीफ़न हॉकिंग, लंदन, 1996; और ‘ब्लैक होल्स एण्ड बेबी यूनिवर्सेस’, स्टीफ़न हॉकिंग, लंदन, 1993 ।

19. सम ओवर हिस्ट्रीज़ (इतिहासों का योग) – अमेरिकी वैज्ञानिक रिचर्ड फ़ाइनमैन द्वारा द्वारा प्रवर्तित अवधारणा । इसके अनुसार, किसी भी कण का दिक्काल में बस एक ही इतिहास अथवा मार्ग नहीं होता (जैसा कि शास्त्रीय, ग़ैर-क्वांटम सिद्धान्त में माना जाता है) । इसके विपरीत कोई भी कण (अ से ब तक जाने में) हर संभव मार्ग अपना सकता है । फ़ाइनमैन को भी बाद में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

यह अवधारणा, भारतीय चिन्तन में (वैदिक, जैन आदि साहित्य में, और रामायण, महाभारत आदि के अनेक प्रसंगों में) वर्णित सत्य के बहुआयामी होने तथा अनेकान्तवाद के साथ साम्य रखती है ।

सी.पी.टी. क्रमः 1956 में दो अमेरिकी भौतिक विज्ञानियों (श्रीमती) सुंग दाओ ली और (श्री) छन निंग यांग ने यह अवधारणा पेश की कि दुर्बल शक्ति पी क्रम का पालन नहीं करती । उसी वर्ष उनके सहयोगी छ्येन श्युंग वू ने उनकी भविष्यवाणी को प्रमाणित कर दिखाया । ली और यांग को नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया । 1964 में दो अन्य अमेरिकी वैज्ञानिकों ज़े.डब्ल्यू. क्रोनिन और वाल फ़िच ने दिखाया कि कुछ कणों जैसे के-मेज़न्स के पराभव (डिके) में सी.पी. क्रम का पालन नहीं होता । (उन्हें भी 1980 में नोबेल पुरस्कार दिया गया ।) इसी तरह यह भी पाया गया कि टी क्रम भी भंग होता है ।

20. चन्द्रशेखर सीमाः सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर ने (1930 के दशक में ही) यह दिखलाया कि सूर्य के द्रव्यमान से 1.4 गुणा द्रव्यमान वाले तारे अपनी ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति के जाल में फंसने को बाध्य हैं । ऐसे तारों के कृष्ण विवर बनने की संभावना बनती है । (क़रीब पाँच दशक बाद चन्द्रशेखर को अपनी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार मिला ।)

21. छांदोग्य उपनिषद, 8/13/1 । ‘अन्धकार से मैं विविधता की ओर जाना चाहता हूँ, विविधता से ही मैंने अन्धकार तक की यात्रा की है ।’

22. कई नृतत्वशास्त्रियों, मनोविश्लेषकों और समाजशास्त्रियों ने मनुष्य की इस विलक्षणता का गहन अध्ययन किया है । उनकी नज़र में मनुष्य एक अपूर्ण, अनगढ़ प्राणी है । कल्चर (संस्कृति) ही उसे पूर्णता प्रदान करती है । वह अंशतः जैविक (बायोलॉज़िकल) और अंशतः सांस्कृतिक प्राणी है । इस संदर्भ में क्लाउड लेवी स्ट्रॉस का नाम विशेष उल्लेखनीय है । और देखिए, ‘दि इन्टरप्रेटेशन ऑफ़ कल्चर्स, सेलेक्टेड एसेज़ बाइ क्लिफ़ोर्ड गीर्त्ज़’, न्यूयार्क, 1978 ।

23. हाल ही में वैज्ञानिकों ने स्मरण की प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली एक जीन एन.आर. 2बी का पता लगाया है, जो एन-मिथाएल डेस्पार्टेट (एन.एम.डी.ए.) नामक प्रोटीन बनाने में मदद करती है । स्मरण से जुड़े मस्तिष्क के महत्वपूर्ण क्षेत्रों, हिप्पोकैम्पस और एमिगडला को लेकर काफ़ी सूचनाएँ प्रकाश में आई हैं । अल्पकालिक स्मृतियों का स्थायी स्मृतियों में रूपान्तरण, स्थायी स्मृतियों का संरक्षण, विस्मरण की प्रणालियों आदि के सम्बन्ध में अगले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलने की उम्मीद है ।

24. भारतीय चिन्तन परम्परा और साहित्य में (प्राचीन ग्रीक मिथकों में भी) ‘मर्यादा’, ‘अतिक्रमण’ और इनसे उपजे द्वन्द्व के उदाहरण भरे पड़े हैं । रामायण के राम अतिक्रमण की क्षमता रखने के बावज़ूद कदम-कदम पर पुत्र, पति, मित्र, राजा, मनुष्य आदि के रूप में मर्यादा पालन का आदर्श प्रस्तुत करते हैं, इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं । सीता लक्ष्मण-रेखा का अतिक्रमण करती है । महाभारत के पात्रों का कहना ही क्या ? द्रौपदी का तो जन्म ही अतिक्रमण था । फिर विश्वामित्र जैसे जटिल पात्र हैं जिन्होंने ख़ुद एक नई सृष्टि रच डाली । ख़ैर, यहाँ इनकी ओर संकेत भर करना हमारा उद्देश्य है ।

25. ‘मैज़िक’ से यहाँ हमारा कमोबेश वही तात्पर्य है जो ज़ेम्स जी. फ़्रेज़र का ‘दि गोल्डेन बाउ’ में ।

26. बिल गेट्स, स्टीव ज़ोब्स, ज़िम क्लार्क और ज़ेफ़ बेज़ोस – क्रमशः माइक्रोसॉफ़्ट, एपल, नेटस्केप और अमेज़न डॉट कॉम के संस्थापक । नए ज्ञान युग के प्रतीक पुरुष ।

27. इस प्रकरण में उद्धृत सभी आंकड़े ‘टाइम’ पत्रिका, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) के प्रकाशनों, तथा ज़ॉन बेलामी फ़ोस्टर लिखित ‘दि वलनरेबल प्लेनेट’, न्यूयार्क, 1994 से लिए गए हैं ।

28. श्रीमद् भगवद्गीता, अष्टादशोsध्यायः ।।20।।, ।।21।।, और ।।22।। ।

29. संदर्भः अल्बर्ट आइंस्टीन का ‘दि फ़ंडामेण्ट्स ऑफ़ थ्योरेटिकल फ़िज़िक्स’, तथा नील्स बोर का ‘यूनिटी ऑफ़ नॉलेज़’ शीर्षक लेख ।

30. इन धाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ प्रमुख नाम हैः ज़ेम्स जॉयस, अल्बेयर कामू, सल्वाडोर डाली, जौं पाल सार्थ, बोर्खेस, ग्रेब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़, प्रबन्धन के क्षेत्र में पार्श्व चिन्तन (लेटरल थिंकिंग) के प्रवर्त्तक एडवर्ड डी बोनो आदि ।

31. आनन्द के. कुमारस्वामी, ‘क्रिश्चियन एण्ड ओरिएंटल फ़िलोसॅफ़ी ऑफ़ आर्ट’, न्यूयार्क ।

32. मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड 5, ‘साहित्य में पक्षधरता, विश्वबोध और मानव मूल्य’, अगस्त-सितम्बर 1963 (संभावित), नई दिल्ली, 1985 ।

33. ज़ॉन कीट्स, ‘हाइपरियनः ए फ़्रेगमेण्ट’, बुक 1 ।

34. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, ‘गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को’ ।

35. आनन्दवर्धन, ‘ध्वन्यालोकः’, चतुर्थ उद्योत, वाराणसी ।

36. पर्सी ब्राइश शैली, ‘प्रोमेथ्यू अनबाउण्ड’, प्रीफ़ेस ।

37. आनन्दवर्धन, उपर्युक्त ।

38. जौं पाल सार्थ, ‘शब्द’, नई दिल्ली, 1992 ।

39. टॉयनबी द्वारा सभ्यताओं के सम्बन्ध की बाबत प्रयुक्त शब्दावली (‘ए स्टडी ऑफ़ हिस्ट्री’, खण्ड 1) ।*

40. कोष, पंख आने के ठीक पहले की स्थिति । टॉयनबी द्वारा प्रयुक्त (उपर्युक्त, खण्ड 7) ।

41. वी.आइ. लेनिन, ‘लेव टॉल्सटाय एण्ड हिज़ इपोक’, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 17, मास्को, 1977 ।

42. पी 53 जीनः एक जीन । इसे ‘जीन समूह (ज़ीनोम) का संरक्षक’ जीन भी माना जाता है क्योंकि कोशिकाओं में विभाजन के दौरान यह डी.एन.ए. पर नज़र रखता है । इस जीन में गड़बड़ी केन्सर का एक प्रमुख कारण मानी जाती है ।

(प्रस्तुत प्रकरण में ‘फ़िलोसॅफ़ी’ शब्द के लिए प्रायः तत्वशास्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है । भारतीय संदर्भ में ही दर्शन शब्द का उपयोग हुआ है । प्रायः अधिकांश अँग्रेज़ी उद्धरणों का हिन्दी भावानुवाद लेखक द्वारा किया गया है ।)

[प्रस्तुत पुस्तक के मूल सूत्र 1989-1992 के बीच लिखे गये थे । 2001 में प्रकाशन के लिए देते समय इसमें कुछ नयी सूचनाएँ, नये संदर्भ और नयी व्याख्याएँ जोड़ी गईं । पुस्तक आधार प्रकाशन (पंचकूला, हरियाणा) से 2004 में प्रकाशित हुई । प्रकाशित पुस्तक में ‘भारतीयता और वैश्वीकरण’ शीर्षक से एक परिशिष्ट भी शामिल किया गया था (इस सॉफ़्ट कॉपी में वह परिशिष्ट नहीं है) । परिशिष्ट दरअसल मीराँ संस्थान, जोधपुर द्वारा भेजी गई प्रश्नावली का लेखक द्वारा दिया गया जवाब था जो 2001 में उसी संस्थान द्वारा प्रकाशित और श्री ओम प्रकाश टाक द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘साधो सार शब्द मथ लीजे’ में संकलित है ।]

(समाप्त)

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अनन्त का छंद – 8

अनन्त का छंद – 8

प्रसन्न कुमार चौधरी

ङ. कला-साहित्य

103. साहित्य सचेत अस्तित्व के इन चार कारकों की जटिल अन्तःक्रिया का निरूपण है । साहित्य में रचनाकार अपनी तमाम व्यक्तिगत विशिष्टताओं बावज़ूद, और उनके साथ, सचेत अस्तित्व को पुनः सृजित करने की कोशिश करता है और इसी कोशिश के परिणामस्वरूप कालजयी कृतियाँ सामने आती हैं । सृजन की यह बेचैनी हर रचनाकार में मौज़ूद रहती है । ‘क्या मैं सिरज नहीं सकता ?/कर नहीं सकता साकार/गढ़ नहीं सकता ?/एक दूसरी दुनिया, दूसरा ब्रह्माण्ड/ताकि जो है उसे रौंदकर, टुकड़े-टुकड़े कर नेस्तनाबूद कर सकूँ ?/कहाँ है दूसरा प्रलय ? आख़िर कहाँ ?’33 .. ‘प्रलय के समय में जब/ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय/होता है अगणन ब्रह्माण्ड ग्रास करके, यह/ध्वस्त होता संसार,/पार कर जाता है तर्क की सीमा को,/ .. विकसित फिर होता मैं,/मेरी ही शक्ति धरती पहले विकार-रूप,/आदि वाणी प्रणव ओंकार ही/बजता महाशून्य-पथ में,/अन्तहीन महाकाश सुनता महानन्द-ध्वनि,/कारण-मण्डली की निद्रा छूट जाती है,/अगणित परमाणुओं में प्राण समा जाते हैं,/नर्तनावर्तोच्छ्वास/बड़ी दूर-दूर से/चलते केन्द्र की तरफ,/चेतन पवन है उठाती ऊर्मिमालाएँ/महाभूत-सिन्धु पर,/परमाणुओं के आवर्त घन विकास और/रंग-भंग-पतन-उच्छ्वास-संग/बहती बड़े वेग से हैं वे तरंगराजियाँ,/जिससे अनन्त – वे अनन्त खण्ड उठे हुए/घात-प्रतिघातों से शून्यपथ में दौड़ते-/बन-बन ख-मण्डल हैं तारा-ग्रह घूमते,/घूमती यह पृथ्वी भी, मनुष्यों की वास-भूमि,/मैं ही हूँ आदि कवि,/मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में हैं/जड़ और जीव सारे/मैं ही खेलता हूँ शक्ति-रूपा निज माया से,/एक, होता अनेक, मैं/देखने के लिए सब अपने स्वरूपों को/….’34

104. सचेत अस्तित्व को कमोबेश उसकी सम्पूर्णता में पुनः सृजित करने की इसी कोशिश के कारण प्रायः कालजयी कृतियों में अनेक समानताएँ मिलती हैं । लेकिन न तो यह प्रतिबिम्ब सादृश्य है और न ही चित्राकारतुल्य, बल्कि यह तुल्यदेहिवत है, क्योंकि एक देहधारी दूसरे देहधारी के समान होने पर भी एक (अभिन्न) ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता ।35 इसी सादृश्य की चर्चा करते हुए शैली ने ‘प्रोमेथ्यू अनबाउण्ड’ की भूमिका में लिखा था, ‘जहाँ तक अनुकरण की बात है, तो कविता एक अनुकरणमूलक कला है । यह रचती है ज़रूर, लेकिन यह रचना सम्मिलन और सादृश्य के ज़रिये साकार होती है । .. होमर और हेसियोड के बीच .. वर्ज़िल और होरेस के बीच, दांते और पेत्रार्क के बीच, शेक्सपीयर और फ़्लेचर के बीच, ड्राइडन और पोप के बीच समानता है । प्रत्येक के बीच एक व्यापक (रचयितामूलक) सादृश्य है, और इस सादृश्य के तहत ही उनकी अपनी विशिष्टताएँ सजी होती हैं । अगर यह समानता अनुकरण का परिणाम है, तो मुझे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं कि मैंने अनुकरण किया है । ….’36

सामान्यतः जिसे लोकप्रिय साहित्य अथवा ‘पॉप लिटरेचर’ कहते हैं, वह साहित्य की मुख्यधारा नहीं होती । साहित्य की मुख्यधारा कालजयी कृतियाँ होती हैं, जिनकी संख्या किसी भी भाषा में अपेक्षाकृत कम ही होती हैं । ये कृतियाँ हर युग में पढ़ी जाती हैं और हर वर्ग के पाठक इन कृतियों में न जाने कितने अर्थ ढूंढ़ लेते हैं । मनुष्य के चेतन अस्तित्व को उसकी समग्रता में पुनः सृजित करने की कोशिश ही उन कृतियों में अर्थ की अनन्तता का स्रोत है ।37

105. कुल मिलाकर, साहित्य के केन्द्र में अनुभूति, स्वीकृति और संस्कार होता है । एक रचनाकार के ज़ेहन में तरह-तरह की अनुभूतियाँ जमा होती रहती हैं । अनुभूतियों का यह ‘ब्लैक होल’, ये घनीभूत अनुभूतियाँ ही रचना के ‘बिग बैंग’ में पुनरुत्पादित होती है । रचनाकार कृष्ण विवर और महाविस्फोट के सन्धिस्थल पर खड़ा होता है । ‘एक हाथ अपनी कब्र पर और दूसरा अपने पालने पर ।’38

106. साहित्य में स्वीकृति कोई निष्क्रिय श्रेणी नहीं है । अव्वल तो इसलिए कि साहित्य संस्कारित किए बिना कुछ भी स्वीकार नहीं करता । दूसरे, अस्तित्व के विभिन्न रूप ख़ुद जड़ श्रेणियाँ नहीं, बल्कि गतिमान श्रेणियाँ हैं । इसीलिए साहित्य में यह गत्यात्मक स्वीकृति विभिन्न अस्तित्व-रूपों की अपनी दिक्-काल सीमाओं में स्वीकृति है । यही कारण है कि साहित्य अपने स्वभाव से ही वर्चस्व-वृत्ति के विरुद्ध रहा है – स्तरीकरण के ख़िलाफ़ सतत् संघर्षरत । वर्चस्व और उत्पीड़न की ताकतें साहित्य को हमेशा विध्वंसक कार्य मानती रही हैं । प्रायः सभी कालजयी कृतियों को किसी-न-किसी समय ऐसी ताकतों की उपेक्षा, उत्पीड़न और प्रतिबन्ध का सामना करना पड़ा है और साहित्यकारों को निर्वासन, जेल अथवा तंगहाली की सज़ा भुगतनी पड़ी है ।

107. साहित्य की रचना शून्य में नहीं होती । किसी रचनाकार को विरासत में साहित्य की एक परम्परा मिलती है । हर काल के साहित्य का अपने पूर्ववर्ती साहित्य के साथ ‘एपरेंटेशन एण्ड एफ़िलिएशन’39 का एक रिश्ता होता है । फिर अपने देश में एक खास परम्परा भी रही है । यहाँ हर कुछ सौ वर्षों के अन्तराल पर चिन्तकों ने सार-संकलन का काम किया है, ताकि जीवन के प्रति अपेक्षाकृत एक सामग्रिक दृष्टि अपनाई जा सके । ऋग्वेद भी इसी तरह का एक सार-संकलन था, उपनिषद, जैन और बौद्ध साहित्य भी, गीता भी, संगम साहित्य और कश्मीर का त्रिक्दर्शन भी, मध्यकाल का संत/भक्ति साहित्य और आदि ग्रंथ भी .. प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सार-संकलन की यह क्रिया आज तक जारी है । क्षेत्रीय पैमाने पर कभी इसका केन्द्र कुरू-पांचाल रहा तो कभी मिथिला और मगध, कभी मदुरै तो कभी बंगाल और असम, कभी मराठा क्षेत्र तो कभी अवध । इस तरह चिन्तन का यह संगम देश भर में प्रवाहित होता रहा है – हाँ, इस पर अंचल विशेष की और चिन्तकों के निजी रुझानों/आग्रहों की छाप भी रही, लेकिन कुल मिलाकर उन्हें भारतीय चिन्तन का सार-संकलन कहा जा सकता है । अनेक छोटे-बड़े राजे-रजवाड़ों में बँटे होने के बावज़ूद भी इस प्रक्रिया ने एक भारतीय मन के निर्माण में अहम भूमिका निभाई । सार-संकलन के इन ग्रंथों ने एक काल से दूसरे काल के साहित्य के बीच ‘क्रिसॅलिस’40 की भूमिका निभाई । अपभ्रंश के प्रारम्भिक रचनाकारों में से एक सरहपाद का ‘दोहा कोश गीति’ भी इसी तरह का एक सार-संकलन ही है ।

108. बहरहाल, साहित्य की रचना भाषा में ही होती है और भाषा का व्याकरण, शब्द-संयोजन/वाक्य विन्यास के नियम, अभिव्यक्ति का साहित्यिक शिल्प हमें विरासत में मिलता है । रचनाकार के लिए साहित्य के इस प्रविधि-पक्ष की जानकारी भी अत्यन्त ज़रूरी है, हालांकि इसके साथ उसका दुहरा रिश्ता होता है । वह इनका प्रयोग करता है, साथ ही अपनी अभिव्यक्ति की विशिष्ट ज़रूरतों के अनुरूप उन्हें तोड़ता भी है – हालांकि यह तोड़ना निरपेक्ष नहीं होता । कुल मिलाकर इससे साहित्य का शिल्प समृद्ध ही होता है ।

109. और अन्त में, रचना कोई व्यक्ति करता है – यथार्थ जगत में रोज़मर्रा की ज़द्दोज़हद में शामिल व्यक्ति । उसकी अपनी समस्याएँ होती हैं, अपना बचपन होता है । अपनी गृहस्थी होती है, अपने द्वन्द्व होते हैं, विरासत में मिला अपना परिवेश और उस परिवेश का दबाव होता है । वह अपने आसपास की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों और उनके प्रभावों के बीच जीता है । साथ ही, उसकी भी सीखने की अपनी निहायत निजी प्रक्रिया होती है – अपने चेतन-अस्तित्व को अपने जीवनानुभवों के ज़रिये पहचानने की प्रक्रिया । परिपक्वता आख़िरकार एक प्रक्रिया है जो अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग ढंग से अंज़ाम पाती है ।

क्षण में जीने को भवितव्य यह व्यक्ति अपनी रचना में क्षण से क्षण भर मुक्ति पाता है, परन्तु उसके क्षण की छाप किसी-न-किसी रूप में उसकी रचना में मौज़ूद रहती है । क्षण की व्यावहारिक मांग और रचना में मुक्ति की चाह के बीच का द्वन्द्व जीवन पर्यन्त चलता रहता है । जीवन को उसकी सम्पूर्णता में पकड़ने की प्रक्रिया में क्षण के झमेले बाधक लगते हैं, और क्षण की ज़रूरी जिन्दगी को उपर्युक्त पूरी कोशिश ही बकवास लगती है । जीवन जीना जीवन को बाँचने से ज़्यादा ज़रूरी जान पड़ता है और जीवन बाँचना हो तो अपना जीवन शत्रु-सरीखा लगता है । (टू दि लाइटहाउस उपन्यास में मिसेज़ रेमसे के बारे में कही गई यह पंक्ति – लाइफ़ हर ओल्ड एण्टागोनिस्ट – ख़ुद वर्ज़ीनिया वुल्फ़ के अपने तनावों का सार है, एक आत्म-स्वीकारोक्ति ।) इस तनाव में कई रचनाकार की या तो रचनात्मक शक्ति ही खो जाती है, या कभी-कभी वे आत्महत्या भी कर बैठते हैं ।

110. जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, साहित्य चेतन अस्तित्व को उसकी समग्रता में व्यक्त करने का प्रयास है – हालांकि कुछेक कालजयी रचनाओं में ही यह समग्रता कमोबेश साकार हो पाती है । आम तौर पर लिखे जानेवाले साहित्य में हम अस्तित्व के कुछेक आयामों की ही अभिव्यक्ति पाते हैं – यही स्वाभाविक भी है । साहित्य रचना एक प्रक्रिया है । एक लेखक भी प्रायः अपने किसी आदर्श लेखक के अनुसरण से अपनी रचना शुरू करता है । जैसे कोई गायक अपने किसी आदर्श गायक का अनुसरण करते-करते धीरे-धीरे विधा पर, उसके शिल्प पर अपनी पकड़ बनाने लगता है और अपनी आवाज़ पा जाता है । उसी तरह लेखक भी क्रमशः भावाभिव्यक्ति के अपने शब्द और शिल्प पा जाता है । फिर जीवनानुभवों की एक प्रक्रिया भी ज़रूरी होती है । बहरहाल, प्रत्येक रचनाकार का विकास अलग-अलग ढंग से होता है और उसकी कोई टेक्स्टबुक प्रक्रिया नहीं है । कुल मिलाकर समाज में आम तौर पर प्रचलित साहित्य रचना-प्रक्रिया-में-साहित्य (लिटरेचर-इन-दि-मेकिंग) है, और उससे एक साहित्यिक परिवेश का निर्माण होता है ।

चेतन अस्तित्व को कमोबेश उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करना कोई ज़रूरी नहीं कि भारी भरकम ग्रंथ में ही संभव हो । इसकी अभिव्यक्ति का सबसे संक्षिप्त रूप हमें ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है और इसका वृहत्तम रूप ‘महाभारत’ में ।

111. जहाँ तक विचारधाराओं का प्रश्न है, साहित्य में, उसकी कालजयी कृतियों में हम किसी एक नहीं, बल्कि कई विचारधाराओं का साक्षात् करते हैं । साहित्य उन्हें स्वीकार करता है, लेकिन साथ ही उन्हें उनकी सीमा भी बता देता है और उनका संस्कार करता है । साहित्य विचारधाराओं का गुच्छा लिए होता है – गेंदे की तरह फूलों का गुच्छा जहाँ परत-दर-परत हर फूल की अपनी जगह होती है ।

सचेत अस्तित्व को अपेक्षाकृत सम्पूर्ण गाथा होने के कारण साहित्य विचारधारा समेत यथार्थ के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है । साथ ही नये-नये वैचारिक आन्दोलनों को ज़ज़्ब करने की प्रक्रिया में साहित्य भी समृद्ध होता रहा है । मार्क्स की रचनाओं से ग़ुजरते हुए कोई भी उन पर आम तौर पर यूरोपीय और जर्मन साहित्य तथा खासकर गोएठे का प्रभाव महसूस कर सकता है । रूसी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों पर रूसी साहित्य के प्रभाव की बात तो जगजाहिर है । वैज्ञानिक मरे गेल-मन को अब तक ज्ञात सबसे सूक्ष्म कणों का नामकरण करते वक़्त ज़ेम्स ज़ॉयस का यह उद्धरण याद आयाः ‘थ्री क्वार्क्स फ़ॉर मस्टर मार्क’, और उन्होंने उन कणों को नाम दिया – क्वार्क ।

जब कोई विचारधारा अभियानरत रहती है, तब अपनी अन्तर्निहित वर्चस्व-वृत्ति के कारण वह साहित्य को भी अपनी सेवा में लगाने का यत्न करती है । यही साहित्य और विचारधारा के बीच तनाव का कारण बनता है ।

कृति और कृतिकार में एक फ़र्क होता है । रचनाकार एक खास सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थितियों में जीता है । समाज में रहते हुए अपनी ठोस वस्तुगत स्थितियों के अनुरूप वह किसी विचारधारा अथवा पार्टी का अनुयायी हो सकता है । लेकिन अपनी कृति में, अस्तित्व को अपनी समग्रता में पकड़ने की कोशिश में, वह थोड़े समय के लिए अपनी वैचारिक-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से भी मुक्ति पा जाता है । वह इन विचारधाराओं और पार्टियों का जन्म और विकास ही नहीं, उनकी मृत्यु भी देख लेता है । अब भला अपनी मृत्यु का कौन साक्षात् करना चाहेगा ? फलतः प्रतिबद्ध-से-प्रतिबद्ध रचनाकार का भी अपनी विचारधारा के प्रवर्त्तकों और पार्टी प्रतिष्ठान से द्वन्द्व खड़ा हो जाता है । यह द्वन्द्व हर स्थिति में और हर रचनाकार के लिए भले ही आत्महत्या, उपेक्षा-उत्पीड़न, जेल और निर्वासन का सबब न बने, पर यह रहता है अवश्य । विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की मांग क्रमशः विचारधारा की वाहक पार्टी और विचारधारा के प्रवर्त्तक-नेता के प्रति प्रतिबद्धता की मांग में बदल जाती है । प्रतिबद्धता की मांग को पूरा करने में असमर्थ होता लेखक अन्तरात्मा की शरण लेता है । लेकिन विचारधारा अन्तरात्मा को अपने प्रतिद्वन्द्वी के रूप में देखती है, उसमें उसे षड्यंत्र और बग़ावत की आहट सुनाई देती है । विचारधारा और साहित्य का द्वन्द्व इन स्थितियों में प्रायः विचारधारा और अन्तरात्मा के बीच द्वन्द्व के रूप में सामने आता है । प्रतिबद्धता किसके प्रति ? विचारधारा के प्रति या फिर अन्तरात्मा के प्रति ? रचनाकार विचारधारा की दीवार में अन्तरात्मा की खिड़की खोलने की कोशिश करता है ।

साहित्य और वैचारिक-राजनीतिक आन्दोलन के बीच कोई एकरेखीय रिश्ता नहीं होता । यह ज़रूरी नहीं कि एक ऐतिहासिक स्थिति में एक तथाकथित अग्रणी विचारधारा का प्रवर्त्तक श्रेष्ठ साहित्यकार भी हो या फिर कोई श्रेष्ठ साहित्यकार अग्रणी विचारधारा का प्रवर्त्तक । साथ ही, किसी को भी, इसीलिए साहित्यकार को भी, कर्मचयन की स्वतंत्रता है । वह किसी वैचारिक-राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेता है या नहीं, यह उसके निजी चयन के दायरे में आता है । समाज में अनेक कर्म हैं और हर कर्म का अपना महत्व है । अगर कोई कृषि कर्म अथवा वैज्ञानिक प्रयोगों का कर्म चुनता है तो आप उससे यह प्रश्न नहीं कर सकते कि तुम खेती अथवा वैज्ञानिक प्रयोगों में अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हो, तुम्हें तो अमुक आन्दोलन में होना चाहिए था । आपको उसकी समीक्षा उसके चयन को दायरे में ही करनी चाहिए । कई निर्विवाद रूप से कालजयी रचनाओं के लेखक अपने समय के वैचारिक-राजनीतिक आन्दोलनों से अलग-थलग रहे, इससे उनकी कृति का महत्व कम नहीं हो जाता । इसी तरह किसी वैचारिक-राजनीतिक आन्दोलन में आगे बढ़कर काम करनेवाले बहुतेरे लोगों ने कोई कालजयी रचना नहीं दी तो इससे उस आन्दोलन में उनका योगदान कम नहीं हो जाता । उनका मूल्यांकन भी सम्बन्धित आन्दोलन में उनकी गतिविधियों के आधार पर किया जाना चाहिए । विचारधाराएँ/पार्टियाँ आती-जाती रहती हैं, वे मनुष्य के अस्तित्व का एक हिस्सा हैं, अस्तित्व का पूरा स्पेस उनका नहीं है । हाँ, अस्तित्व का यह पूरा स्पेस साहित्य का विषय ज़रूर है । लेनिन ने टॉल्सटाय का काल निर्धारित किया था – 1861 ई. से 1905 ई. । यानी रूस में भूदास प्रथा के उन्मूलन से लेकर रूस के पहले क्रान्तिकारी उभार के बीच का काल ।41 उस काल के बाद एक शताब्दी ग़ुजरने को है । इस बीच कितनी विचारधाराएँ आईं-गईं, पार्टियाँ बनीं-बिगड़ीं, किन्तु टॉल्सटाय का (और उन्नीसवीं सदी का महान रूसी) साहित्य अपनी जगह कायम है ।

112. साहित्य के केन्द्र में चूँकि अनुभूति है, इसीलिए जब तक कोई घटना अनुभूति के स्तर पर नहीं उतरती, उस पर साहित्यिक कृति सामने नहीं आ सकती । साहित्यिक रचनाएँ जबर्दस्ती न लिखवाई जा सकती हैं, न लिखी जा सकती हैं । योजना बनाकर नेहरू म्यूज़ियम या इंडिया हाउस में बैठकर, दस्तावेजों का संग्रह कर, सर्वे और साक्षात्कार को आधार बनाकर साहित्यिक कृति नहीं रची जा सकती । वे अपनी जगह ज़रूरी हैं, साहित्य रचना के लिहाज़ से भी काफ़ी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे अनुभूति को विस्थापित कर साहित्य का आधार नहीं बन सकतीं । किसी घटना को लेकर ज़ज़्बात हो सकते हैं, ज़ुनून भी हो सकता है, कुछ तार्किक-बौद्धिक व्याख्याएँ हो सकती हैं, लेकिन इन चीजों की उपस्थिति ही बताती है कि घटना अनुभूति का हिस्सा नहीं बनी है । ऐसी घटनाओं पर आलेख, रिपोर्ताज़, विवरणात्मक-व्याख्यात्मक क़िताबें लिखी जा सकती हैं क्योंकि उनका आधार तर्क और बुद्धि है । ऐसी रचनाओं का भी निश्चय ही अपना महत्व है, लेकिन वे साहित्य का स्थान नहीं ले सकतीं । नेपोलियन के रूसी अभियान पर टॉल्सटाय की कालजयी कृति ‘युद्ध और शान्ति’ उस घटना के क़रीब साठ साल बाद आई । समय के लिहाज़ से महान रूसी साहित्यकार पुश्किन या गोगोल उस घटना के ज़्यादा क़रीब थे, टॉल्सटाय का तब जन्म भी नहीं हुआ था । फिर भी पुश्किन ने नहीं, टॉल्सटाय ने उस अभियान पर यदि कालजयी कृति दी तो इसका कारण यह नहीं था कि पुश्किन कम बड़े साहित्यकार थे । कारण यह था कि तब तक वह अभियान रूसियों की अनुभूति का हिस्सा नहीं बना था । ऐसी बहुत-सी बड़ी-बड़ी घटनाएँ हैं, हादसे हैं जो लोगों की अनुभूति के स्तर पर उतरने में समय लेते हैं । लोग हतप्रभ रहते हैं । समझ नहीं पाते आख़िर ऐसा कैसे हो गया । तर्क और बुद्धि से, कुछ विचारधाराओं की मदद से ऐसी घटनाओं की कुछ व्याख्या तो कर देते हैं, लेकिन फिर भी मन पूरी तरह संतुष्ट नहीं होता । अनुभव और स्मृति के कुछ टुकड़ों से कुछेक कहानियाँ, कुछेक कविताएँ तो बन जाती हैं, लेकिन इस पूरी घटना को अपनी सम्पूर्णता में पकड़ पाना संभव नहीं हो पाता । साहित्य अपना समय लेता है ।

113. इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति, सूचना-संचार-मनोरंजन क्रान्ति के भौतिक और मानसिक अस्तित्व की स्थितियों में काफ़ी तेजी से परिवर्तन ला रहा है । साहित्य पर उसका दबाव भी स्पष्टतः महसूस किया जा रहा है । जीवन से जुड़ी हर जानी-अनजानी चीजों का आज सूचना के रूप में पुनर्अवतार हो रहा है । सूचना के रूप में पुनर्जन्म लेकर ही वे अपनी प्रासंगिकता बरकरार रख पा रही हैं । इसके अपने फायदे हैं तो नुकसान भी ।

वर्चुअल (माया) रीयल (यथार्थ) को विस्थापित करता जा रहा है, और इसकी तार्किक परिणति होगी वर्चुअल मनुष्य द्वारा यथार्थ मनुष्य का विस्थापन । बहरहाल, अपने कमरे में बन्द, वैज्ञानिक उपकरणों से घिरा, परिवार तथा समाज से बस औपचारिक रूप से जुड़ा, अपने कम्प्यूटर पर अपने वर्चुअल विश्व में रमण करता, वर्चुअल शॉपिंग करता, वर्चुअल प्रेम और मौज-मस्ती करता व्यक्ति क्या सचमुच यथार्थ मनुष्य रह गया है ? या वह भी वर्चुअल मनुष्य बन गया है ? यथार्थ परिवार और यथार्थ समाज का स्थान भी धीरे-धीरे वर्चुअल नेट परिवार और वर्चुअल नेट समाज लेता जा रहा है तथा सामाजिक सम्बन्धों का स्थान नेटवर्किंग । हेगेल की शैली में कहें तो जो भी यथार्थ है, वह वर्चुअल है; जो भी वर्चुअल है, वह यथार्थ है । वर्चुअल और यथार्थ का एक-दूसरे में रूपान्तरण मनुष्य के अस्तित्व के सन्दर्भ में क्या मायने रखता है ? वर्चुअल की दुनिया कोई त्याज्य चीज नहीं है, वह मानवीय प्रविधि की अभूतपूर्व उपलब्धि है । (विज्ञान की भाषा में शक्ति-कणों को वर्चुअल कण कहा जाता है ।) इसीलिए सवाल फिर सिर्फ नकार का नहीं है । अथवा यथार्थ और वर्चुअल को दो परस्पर विरोधी प्रवर्गों में बाँटकर एक पर दूसरे के वर्चस्व के पक्षपोषण का नहीं है । सवाल यह है कि हमारे अस्तित्व की स्थितियों में हो रहे ये परिवर्तन साहित्य में किस रूप में स्वीकृत हो रहे हैं ? उनका कैसे संस्कार किया जा रहा है ? क्या वर्चुअल ख़ुद एक विचारधारा बनता जा रहा है और अस्तित्व का पूरा स्पेस हथियाता जा रहा है ? वर्चुअल का वर्चस्व ? यथार्थ पर माया का वर्चस्व ?

दृश्य-श्रव्य माध्यमों के सर्वव्यापी प्रसार के कारण एक विधा के रूप में पटकथा-लेखन की मांग काफ़ी बढ़ गई है । यथार्थ और वर्चुअल का (सम्मोहित कर देनेवाला) दृश्य-मिश्रण सशक्त पटकथाओं में पहले से ही अभिव्यक्त होता आया है । परिष्कृत प्रविधि और सशक्त पटकथा दृश्य-श्रव्य माध्यमों में सफलता की शर्त है । साहित्य की अन्य विधाओं पर भी पटकथा-लेखन का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देने लगा है । उपन्यासों को विस्थापित कर क्या पटकथा-लेखन ज्ञान समाज में साहित्य की मुख्य विधा हो जाएगी ?

पटकथाओं की, और गानों की रीमिक्सिंग लोकप्रिय मनोरंजन उद्योग का अभिन्न अंग बन चुकी है । उसी तर्ज़ पर लिटरेचर रीमिक्सिंग (लिट-रीमिक्स) के भी संकेत मिलने लगे हैं । पॉप साहित्य विचारधारा के अधिक नजदीक होता है क्योंकि उसके केन्द्र में अनुभूति, स्वीकृति और संस्कार के बजाए फ़ार्मूला अथवा कुछ फ़ार्मूलों का समूह, बाजार की मांग और बिक्री की तकनीक होती है । लिट-रीमिक्स पॉप साहित्य का ही नया रूप है । इसे बाजार की मांग के अनुरूप तुरत तैयार किया जा सकता है ।

कुल मिलाकर, सूचना-संचार-मनोरंजन युग में लोकप्रिय मनोरंजन उद्योग के साथ कला और साहित्य के रिश्ते भी पुनर्संयोजन की प्रक्रिया से ग़ुजर रहे हैं ।

114. मनुष्य का प्रादुर्भाव और विकास भाषा के प्रादुर्भाव और विकास से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है । अपने रोज़मर्रे के जीवन में, जीवनयापन के क्रम में संवाद के माध्यम के रूप में भाषा का व्यावहारिक-सामाजिक पक्ष समाज में प्रचलित वर्चस्व-प्रणाली का अंग बन जाता है । इस पक्ष का, जो भाषाई झगड़ों का कारण बनता है, यहाँ हम जिक्र नहीं करेंगे । भाषा का एक दूसरा पक्ष है जो मानव समुदायों को जोड़ता है, उनके बीच आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करता है । भाषा में मनुष्य सृष्टि के साथ और अपने आत्म से भी संवाद स्थापित करता है और यह संवाद भी भाषा के माध्यम से ही पूरे मानव समाज में न सिरफ संचरित होता रहता है बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित भी होता रहता है । वह मनुष्य की साझा अनुभूतियों तथा स्मृतियों का आगार है ।

115. भाषा की मूल इकाई है शब्द, और शब्द कॉस्मिक (दिव्य) ध्वनियों और गणित की अन्तःक्रिया का परिणाम है । जनों की मंत्रभाषा, कृषि समाज की महाकाव्यात्मक-नाटकीय भाषा, तथा औद्योगिक समाज की सेक्यूलर गद्य भाषा से आज हम जिस कम्प्यूटर भाषा के मुकाम पर पहुँचे हैं, वहाँ रोज़मर्रा के जीवन में शब्दों से दिव्य ध्वनियों का क्रमशः विस्थापन हो रहा है । सिर्फ तार्किक-गणितीय भाषा रह गई है । बीसवीं सदी में तत्वशास्त्र के गणितीय-भाषाई स्कूल ने इलेक्ट्रॉनिक युग के अनुरूप भाषा के अनुकूलन में काफ़ी बड़ी भूमिका निभाई । अब तक प्रचलित भाषा के रूप जहाँ शब्द तत्वशास्त्रीय/दार्शनिक, अनुभूतिपरक अर्थ लिए होते हैं और इसीलिए बहुअर्थी होते हैं, जहाँ वे स्थितियों के अनुरूप अनेक ध्वनियों के वाहक होते हैं, कम्प्यूटर के लिए अनुपयोगी हो गये । इसीलिए उनका तार्किक-गणितीय आधार पर शुद्धीकरण ज़रूरी हो गया । आम दैनिक जीवन से निष्कासित होते दिव्य ध्वनियों का एकमात्र आश्रय-स्थल लगता है शास्त्रीय संगीत और साहित्य ही रह गया है ।

116. सृष्टि ख़ुद एक स्खलन है – अनन्त से स्खलन । एक संतुलन-भंग । सृष्टि के अंग के रूप में मनुष्य इस स्खलन-बोध से, अधूरेपन और अभाव के बोध से संतप्त रहता है । (प्रसंगवश, हर युग में मनुष्य अपने निरन्तर खण्डित होते अस्तित्व के बीच, यह महसूस करता रहा है कि यद्यपि उसने निरन्तर भौतिक प्रगति की है, तथापि नैतिक रूप से वह गिरता ही आया है । भौतिक प्रगति और नैतिक ह्रास का चिरन्तन द्वन्द्व मानव जीवन का अभिन्न अंग रहा है ।)

बहरहाल, भाषा में वह न सिर्फ अपने इस अभाव का साक्षात् करता है, बल्कि उससे उबरने की कोशिश भी करता है । सृष्टि के स्खलन के रूप में मनुष्य और मनुष्य के उन्नयन के रूप में भाषा – हर भाषा अपने जन्म से ही इस तनाव से ग्रस्त रहती है । यह चिरन्तन तनाव ही भाषा का सौन्दर्य है ।

117. लेकिन भाषा से पहले किंवदन्तियाँ थीः जहाँ भाषा का सरोकार सृष्टि और मनुष्य है, वहीं किंवदन्तियाँ सृष्टि-पूर्व (संतुलन) और (संतुलन-भंग के रूप मे) सृष्टि की उत्पत्ति को देख लेती हैं । यह देखना किंवदन्तियों में आनन्द-उत्सव का रूप ले लेता है । एक वर्णनातीत दृश्य किंवदन्तियों में चमत्कारिक रूप से क़ैद हो जाता है । फिर रहस्य के लिए गुंजाइश ही कहाँ बचती – सब कुछ साफ हो जाता है । वहाँ स्खलन-बोध की पीड़ा नहीं, प्राप्ति का आनन्द होता है ।

118. प्रत्येक भाषा अस्तित्व में आने के बाद किंवदन्तियों को आत्मसात करने की कोशिश करती है – मिथकीय साहित्य की स्वीकृति के रूप में करती भी है । लेकिन इससे भाषा में एक अतिरिक्त तनाव पैदा होता है । मनुष्य के उन्नयन के रूप में भाषा की श्रेष्ठता का दावा संदिग्ध हो जाता है । भाषा दरअसल किंवदन्तियों का स्खलन साबित होती है । हर भाषा में जहाँ एक ओर किंवदन्तियों से मिलने की अन्दरूनी चाह छिपी होती है, वहीं दूसरी ओर हर भाषा का स्वाधीन विकास उसे किंवदन्तियों से निरन्तर दूर लेता जाता है । भाषा विभिन्न उतार-चढ़ावों के साथ यह तनाव झेलती आ रही है ।

किंवदन्तियों को भाषा से अलग रखने की बार-बार कोशिशों के बावज़ूद वे भाषा साहित्य में अनेक रूपों में प्रवेश करती रही हैं – कभी चेतन-प्रवाह के रूप में, कभी सुरियलिज़्म के रूप में, तो कभी जादुई यथार्थवाद के रूप में ।

119. भाषा की तरह, बल्कि अनेक समय में भाषा की तुलना में अधिक आकुलता से, मनुष्य की सृष्टि-पूर्व (संतुलन) तथा (संतुलन-भंग के रूप में) सृष्टि की उत्पत्ति को अभिव्यक्त करने की कोशिश अन्य कलाओं में – मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुशिल्प आदि में भी प्रकट होती है । प्रायः वह भाषा की सीमाओं से विद्रोह करती दिखाई देती है ।

120. आज जब मनुष्य सृष्टि के कथित आरम्भ (महाविस्फोट) को देखने के काफ़ी क़रीब पहुँच चुका है, जब शक्तिशाली पार्टिकल एक्सलरेटर्स में वह शक्ति के एकीकृत सिद्धान्त की पुष्टि में जुटा है, जब इन-विट्रो फ़र्टिलाइज़ेशन और क्लोनिंग के ज़रिये वह ख़ुद अपने प्रतिरूप तथा ज़ेनेटिक इंज़ीनियरिंग के ज़रिये नये-नये जीवन-रूप बनाने की क्षमता हासिल कर चुका है, और जब ‘विचारधारा तथा इतिहास का अन्त’ घोषित किया जा चुका है, तब क्या साहित्य को भी अपनी मृत्यु की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए ? ऐसे जमाने में किंवदन्तियों का क्या स्वाभाविक अन्त हो जाएगा ?

बहरहाल, दूरी या नज़दीकी किसी मूर्त अस्तित्व के साथ ही हो सकती है – अनन्त के साथ नहीं । अनन्त के साथ मनुष्य की दूरी उतनी ही बनी रहेगी जितनी उसकी उत्पत्ति के समय थी । यह दूरी ही किंवदन्तियों का क्रीड़ा-स्थल है । जहाँ तक साहित्य का प्रश्न है, किंवदन्तियों की उपस्थिति के कारण वह तो कब का मरना भूल चुका है । वह मरना चाहे भी तो यह किंवदन्ती ज़ीन उसे मरने नहीं देगी – वह साहित्य के शरीर में मौज़ूद पी 53 ज़ीन42 है । और फिर मनुष्य की अमरता के बहाने के रूप में साहित्य को जिन्दा रहने से कोई परहेज भी नहीं ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 7

अनन्त का छंद – 7

प्रसन्न कुमार चौधरी

घ. चेतन अस्तित्व

सामान्य

96. अपने जीवनयापन के क्रम में मनुष्य निरन्तर अपनी समृति में डूबता-उतराता रहता है, अपने होने के अनेको अर्थ उलीचता जाता है, अपने को परिभाषित और पुनर्परिभाषित करने की ज़द्दोज़हद में उलझा पाता है । मैं नहीं जानता मैं क्या हूँ, मेरा मन भटकता फिरता है । ऋग्वेद के एक श्लोक का कुछ ऐसा ही भावार्थ है । स्मृति ही भौतिक जीवन के परस्पर विरोधी प्रवर्गों में तादात्म्य स्थापित करती है और एक-दूसरे में उनका रूपान्तरण संभव बनाती है । महान मध्यस्थ है यह स्मृति । इसी स्मृति से ग़ुजरकर क्षण अनन्त बनता है, लोकायत वेदान्त और सभ्यता संस्कृति । स्मृति में, चेतना में जीने का कुछ ऐसा ही रंग-ढंग है ।

97. मनुष्य के चेतन अस्तित्व के चार उपादान हैं – अज्ञात, कल्पना, यथार्थ और एकत्व-बोध ।

अपने अस्तित्व के दौरान मनुष्य बार-बार अज्ञात से टकराता है । हर समय, हर जगह, वह हमारे आसपास होता है, किन्तु हम उसे पकड़ नहीं पाते । वह हमारी अनुभूति में तो आता है, किन्तु हम उसकी शिनाख़्त नहीं कर पाते । जीवन में नान रूपों में अभिव्यक्त होता है यह अज्ञात ।

हम जानते हैं कि हमारे अस्तित्व का एक अच्छा-खासा अंश हमारे अन्दर मौज़ूद जीन्स द्वारा निर्धारित होता है । हम अपने अन्दर अरबों शब्दों वाले ज़ेनेटिक कोड के वाहक हैं । हमारे चिन्तन और व्यवहार में यह कोड हमेशा अभिव्यक्ति पाता है, लेकिन कैसे और किस रूप में, यह हम नहीं जानते । हमारी अपनी कृति भी पूरी तरह अपनी नहीं लगती । हमें अपनी अपूर्णता का बोध होता है । अपने आप से परायेपन की अनुभूति होती है । अभाव का यह अहसास, अज्ञात द्वारा हमारे अपने आप का यह विस्थापन हमारे चेतन अस्तित्व का एक स्थायी कारक है ।

एक रचनाकार अपनी कृति में अपने अज्ञात का साक्षात् करता है । रचना में अपने अज्ञात की अभिव्यक्ति उसे अपनी कृति नहीं लगती । कृति कृतिकार को विस्थापित कर अपनी स्वायत्तता हासिल कर लेती है । बहरहाल, कला और साहित्य में अज्ञात की अभिव्यक्ति अनेक रूपों में सामने आती है । कभी-कभी यह अज्ञात पात्र के रूप में मूर्त रूप ग्रहण कर लेता है – रचनाकार से पृथक और उसे भी वश में कर लेनेवाला पात्र । वह रचनाकार की कृति नहीं, ख़ुद रचनाकार उसकी कृति लगने लगता है । तुलसी के राम या राम के तुलसीदास ? राम तो ‘अतर्क्य, बुद्धि मन ग्याना’ हैं, फिर तुलसीदास रामचरित कैसे बखान सकते हैं ? यह तो राम ही हैं जो उनसे यह सब करा रहे हैं । उसी तरह व्यास के कृष्ण या कृष्ण के व्यास ? मूर्त और अमूर्त का, कृति और कृतिकार का एक-दूसरे में रूपान्तरण साहित्य में अज्ञात की उपस्थिति का प्रमाण है ।

साहित्य में अज्ञात की अभिव्यक्ति का एक और रूप हम जेम्स जॉयस की ‘यूलीसिस’ के अन्तिम सौ-सवा सौ पन्नों में पाते हैं । साहित्य एक हद तक लेखक के अन्दर के ज़ेनेटिक कोड की डिकोडिंग होता है । इन सौ-सवा सौ पन्नों में ऐसा लगता है जैसे जॉयस इस ज़ेनेटिक कोड के, अपनी स्मृति के एक अंश का अँग्रेज़ी में लिप्यांतर कर रहे हों । अँग्रेज़ी का व्याकरण बिखर जाता है, और लोग चाहें तो उसके अनेक अर्थ निकाल सकते हैं । ख़ैर, हर लेखक और कलाकार इस अज्ञात का अपने ढंग से अनुभव करता है, और इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति का रूप भी भिन्न-भिन्न होता है ।

98. मनुष्य के चेतन अस्तित्व का दूसरा उपादान कल्पना यथार्थ का विस्थापन नहीं है । वह (गणित की जटिल संख्या की तरह) हमारे जटिल अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है । यथार्थ की क्षैतिज रेखा को काटती हुई इस काल्पनिक ऊर्ध्व रेखा के बिना मनुष्य की आकृति अधूरी रह जाती है । यथार्थ और कल्पना/फंतासी के मेल से ही मनुष्य सृष्टि में अपनी स्थिति की तलाश करता है – अपनी कमोबेश परिपूर्ण छवि गढ़ने की कोशिश करता है । कला और साहित्य मानव अस्तित्व के इसी √−1 का निरूपण है ।

कला, आनन्द कुमारस्वामी के शब्दों में, वस्तुओं के प्रकट रूपों का नहीं, उनकी प्रकृति का अनुकरण है । वस्तुओं के रूप तो ख़ुद को हमारी ज्ञानेन्द्रियों के समक्ष प्रकट कर देते हैं, लेकिन उनकी प्रकृति का अनुकरण कलाकार की कल्पना के लिए चुनौती बन जाता है ।31 अनजान कलाकारों ने जब बुद्ध की मूर्तियाँ बनाई होंगी, तो उनके मन में बुद्ध की क्या छवि रही होगी ? बुद्धत्व को मूर्त रूप देना कितना असंभव लगता होगा । किस उदात्त कल्पना से उन्होंने ऐसी शानदार, चमत्कृत कर देनेवाली मूर्तियाँ बनाईं कि बुद्ध के चेहरे की अलौकिक शान्ति देखनेवाले के मन-मस्तिष्क में भी उतर जाती है और दर्शक के साथ एक अद्भुत संवाद स्थापित कर लेती है ।

99. यथार्थ – चेतन अस्तित्व का यह तीसरा उपादान – मनुष्य के जीविकोपार्जन और पुनरुत्पादन का, एवं इस प्रक्रिया में मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ तथा आपस में स्थापित सम्बन्ध का क्षेत्र है । यथार्थ में मनुष्य का भौतिक अस्तित्व और सामाजिक जीवन है, रोज़मर्रा के संघर्ष और समझौते हैं, विचारधाराएँ और शासन पद्धतियाँ हैं, रीति-रिवाज़ हैं, कुण्ठाएँ हैं, हार है, जीत है, नायक और खलनायक हैं । यह मनुष्य के कर्म का क्षेत्र है जहाँ हमारी स्वतंत्रता है, दासता है, उत्पीड़न और संघर्ष है, प्रेम और घृणा है, पक्ष और विपक्ष है, हमारा अपना बनाने और बिगाड़ने का खेल है, जन्मना और मरना है । यह यथार्थ कला और साहित्य की आधारभूमि है ।

100. चेतन अस्तित्व का चौथा उपादान है एकत्व-बोध । इसके बिना मनुष्य के अस्तित्व को उसकी समग्रता में पकड़ना ही संभव नहीं । मुक्तिबोध इसे ही विश्वबोध और समग्रानुभूति कहते हैं । ‘मनुष्य के हृदय में एक विश्वबोध तैयार रहता है । उसमें मानव अस्तित्व का विश्लेषण और मानव मूल्यों की स्थापना और उस स्थापना के लिए आकुलता की गति चलती ही रहती है ।’32 सृष्टि के साथ अपने एकत्व की तार्किक समझ हासिल करने के बावज़ूद यह बोध अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग समय और तरीके से आता है । यह मानव चेतना की एक विशिष्ट पहचान है । यथार्थ अगर साहित्य की आधारभूमि है, तो एकत्व-बोध साहित्य की अपरिहार्य मांग ।

101. हमारे चेतन अस्तित्व के ये चारो कारक – अज्ञात, कल्पना, यथार्थ और एकत्व-बोध अलग-अलग नहीं रहते । वे एक-दूसरे से घुले-मिले होते हैं । और अस्तित्व का प्रक्रिया में उनका एक-दूसरे में निरन्तर रूपान्तरण होता रहता है । इस अन्तःक्रिया में ही मनुष्य का चेतन अस्तित्व आकार ग्रहण करता है । इन चार उपादानों के समकक्ष भारतीय मनोविज्ञान में क्रमशः सुषुप्ति, स्वप्न, जाग्रत और तुरीय अवस्थाओं का वर्णन है । (तुलसीदास ने सीता-राम, माण्डवी-भरत, उर्मिला-लक्ष्मण, श्रुतकीर्ति-शत्रुघ्न को इन चार अवस्थाओं के प्रतीक के रूप में भी चित्रित किया हैः सुन्दरी सुन्दर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं । जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं ।।)

कला और साहित्य चूँकि मनुष्य के चेतन अस्तित्व के प्रश्नों से कमोबेश उसकी समग्रता में साक्षात् करता है, इसीलिए ये चारो उपादान कला और साहित्य के भी उपादान हैं ।

102. यहीं यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि मनुष्य के भौतिक अस्तित्व के चार कारक (श्रम, भूमि, विनिमय और ज्ञान) तथा उसके चेतन अस्तित्व के चार उपादान (अज्ञात, कल्पना, यथार्थ और एकत्व-बोध) अलग-थलग नहीं रहते । वे आपस में घुले-मिले होते हैं । उनके बीच परस्पर विरोध का कोई सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि उनके सम्मिश्रण में ही मानव का जटिल अस्तित्व आकार ग्रहण करता है । वे अस्तित्व के अविभाज्य अंग हैं । मनुष्य उन्हें एक साथ जीता है ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 6

अनन्त का छंद – 6

प्रसन्न कुमार चौधरी

ग. ज्ञान

75. इस पूरे प्रकरण में ‘नॉलेज़’ शब्द के लिए ‘जानकारी’ की जगह आम तौर पर प्रचलित ‘ज्ञान’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है । वैसे भारतीय चिन्तन परम्परा में ज्ञान का प्रयोग सार्विक भाव के उदय के लिए किया जाता रहा है । यह ज्ञान पूंजी कदापि नहीं हो सकती । इसे हासिल करने की कोई वैज्ञानिक-तार्किक विधि नहीं । इसी तरह जानकार और ज्ञानी में भी फ़र्क किया जाता है ।

विद्या भी ‘नॉलेज़’ के लिए उपयुक्त शब्द नहीं है । विद्या अध्यात्म (ज्ञान) और जानकारी का समुच्चय है । सृष्टि और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अध्यात्म और अध्ययन/कर्म के समन्वय से ही विद्या की विभिन्न शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ है और होता रहेगा । यह विद्या भी खरीद-बिक्री की चीज नहीं, बल्कि बांटने की चीज है, वह पूंजी नहीं हो सकती ।

गीता में जिन तीन किस्म के ज्ञानों का ज़िक्र किया गया है, यह ज्ञान उनमें से पहले किस्म का सात्विक ज्ञान (सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।।) नहीं है । यह ज्ञान राजस ज्ञान (पृथकत्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।।) के समकक्ष एक प्रवर्ग है । किसी एक कार्यरूप का बन्दी हो जाना और उसी स्थिति से अन्य सारे रूपों को देखते-परखते रहना तीसरे किस्म का तामस ज्ञान (यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम । अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ।।)28 कहा गया है । यह तीसरे किस्म का ज्ञान भी प्रायः प्रचुर मात्रा में पाया जाता है ।

बहरहाल, इन स्पष्टीकरणों के साथ यह कह देना ज़रूरी है कि प्रस्तुत विवरण में ज्ञान (नॉलेज़) का प्रयोग जानकारी के अर्थ में किया गया है । इसी अर्थ में ज्ञान शब्द आजकल प्रचलित भी है ।

76. ज्ञान भेद की क्रिया है । पहले अपने और दूसरे का भेद, फिर भेदों की अनन्त श्रृंखला । अपने और दूसरे का भेद जानने के बाद दूसरे को जानने की कोशिश । दूसरे का ज्ञान दूसरे पर अधिकार और शक्ति देता है । इस प्रकार ज्ञान वर्चस्व की क्रिया बन जाता है । वर्चस्व सर्वग्रासी होता है और वह स्तरीकरण को अंज़ाम देता है । इस तरह भेद से शुरू होकर ज्ञान स्तरीकरण पर खत्म होता है । स्तरीकरण भेद का निषेध है । इसीलिए ज्ञान का निषेध भी । यही ज्ञान का चक्र है – भेद → वर्चस्व → स्तरीकरण ।

77. मनुष्य अनुकरण करनेवाला प्राणी है और अन्वेषण करनेवाला भी । ये मस्तिष्क की दो ऐसी क्रियाएँ हैं जिनकी जड़ें यूँ तो हमारी जीन में ही मौज़ूद हैं, फिर भी जिन्हें हमारे सामाजिक व्यवहार ने काफ़ी मज़बूती प्रदान की है । इन विशिष्टताओं के साथ हमारा मस्तिष्क भी लाखों वर्षों के जेनेटिक विकास का नतीजा है ।

बहरहाल, मनुष्य अनुकरण करता है और अन्वेषण करता है । अन्वेषण भेदों की एक नई श्रृंखला का उद्घाटन है – एक नये ज्ञान-समूह का, नये भेदों का उत्थान । फिर वही चक्रः नये भेद → नया वर्चस्व → नया स्तरीकरण । सामाजिक रूप से उपयोगी किन्तु भिन्न होने की सचेत क्रिया ही अन्वेषण है । अनुकरण के ज़रिये अन्वेषण का सार्विकरण अन्वेषण का अन्त है ।

78. अस्तित्व भिन्नता है । आज के ज्ञान युग में निरन्तर भिन्न होने की अन्तहीन क्रिया – प्राकृतिक भिन्नता अथवा बाह्य कारकों से उत्पन्न भिन्नता ही नहीं, बल्कि भिन्न होने की सचेत कोशिश (दूसरे शब्दों में ज्ञान) व्यवसायों, समूहों, संस्थाओं आदि के अस्तित्व की पूर्व शर्त है । भिन्नता की कोई सीमा नहीं, इसीलिए ज्ञान की भी कोई सीमा नहीं ।

ज्ञान का एक चक्र (भेद – वर्चस्व – स्तरीकरण) अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय लेता है । समग्रतः यह समय निरन्तर घटता जा रहा है (इंटरनेट ब्राउज़र सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में तो यह चक्र तीन से छः महीने में ही पूरा हो जाता है । इसी क्षेत्र में नेटस्केप और माइक्रोसॉफ़्ट के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा हाल के दिनों में बहुचर्चित कानूनी लड़ाई का कारण बनी जिसमें माइक्रोसॉफ़्ट को शिकस्त खानी पड़ी है ।) अनुसंधान एवं विकास संस्थाएँ, शैक्षणिक प्रतिष्ठान, प्रतिस्पर्धी थिंक टैंक्स विभिन्न क्षेत्रों में निरन्तर नये भेदों के उत्खनन-अन्वेषण में लगे रहते हैं । ज्ञान का एक चक्र पूरा होते-न-होते दूसरा चक्र (नये भेद – नया वर्चस्व – नया स्तरीकरण) शुरूहो जाता है, और यह क्रिया अन्तहीन रूप से चलती रहती है । सामान्य उपभोक्ता सामग्रियों, मनोरंजन के उत्पादों, विचारों, संस्थाओं आदि से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह क्रिया बेरोकटोक जारी है ।

79. ज्ञान की मूल इकाई सूचना है । सूचना के निम्नलिखित स्रोत हैः

क. ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाएँ – जैसा कि सर्वविदित है, विभिन्न प्राणियों की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता भिन्न-भिन्न है । कालक्रम में मनुष्य ने इन ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता (अपनी दृश्य-शक्ति, श्रवण-शक्ति, घ्राण-शक्ति, स्वाद-शक्ति और स्पर्श-शक्ति) बढ़ानेवाले उपकरण विकसित कर लिए हैं और वैज्ञानिक तकनीकी क्षेत्रों में तो इन ज्ञानेन्द्रियों का कार्य इन उपकरणों के हवाले कर दिया गया है । ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सामान्य सूचनाओं की जगह इन उपकरणों से प्राप्त सूचनाओं ने ले ली है । इन उपकरणों का भी निरन्तर परिष्कार होता रहता है, और प्रत्येक परिष्कार सूचनाओं का नया भण्डार भी लेकर सामने आता है । शक्तिशाली माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप, सेंसर्स, रेडियो तरंगों का अध्ययन करनेवाले उपकरण आदि का परिष्कार सिर्फ इन उपकरणों का परिष्कार नहीं होता, वह हमें नये संसार का साक्षात् भी कराता है ।

ख. कर्म – कालक्रम में मनुष्य ने अपनी कर्मेन्द्रियों की क्षमता बढ़ानेवाले उपकरण विकसित कर लिए हैं और बहुतेरे कार्यों को – ख़ासकर उत्पादन तथा वैज्ञानिक कर्म के क्षेत्र में – इन उपकरणों के हवाले कर रखा है । इनके परिष्कार की प्रक्रिया भी निरन्तर जारी है । कर्म को भी दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है – सामान्य और प्रायोगिक ।

ग. अनुकरण – अनुकरण की प्रक्रिया में उपयोग में लाई जानेवाली सामग्रियों के बारे में बहुत-सी सूचनाएँ मिलती हैं जो आगे अन्वेषण के लिए महत्वपूर्ण होती हैं । अनुकरण को भी दो भागों में बांटा जा सकता है – सामान्य अनुकरण और वर्चुअल सिमुलेशन (मायावी अनुकरण) । प्रायोगिक कर्म और मायावी अनुकरण प्रायः अनुकरण और अन्वेषण का सन्धिस्थल प्रमाणित होता है ।

घ. उपमान – सामान्य सादृश्य और मापदंड पर आधारित तुलनाएँ । ऐसी तुलनाओं से भी कुछेक क्षेत्रों में विभिन्न अस्तित्वों के बीच मौज़ूद भेदों के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं ।

ङ. संचित सूचनाएँ – क़िताबों, शिलालेखों, पुरातात्त्विक अवशेषों, हमारे रीति-रिवाज़ों आदि में सुरक्षित सूचनाएँ । पुरातत्त्व के क्षेत्र में भी तकनीक में भारी प्रगति हुई है । बहरहाल, लिखित सामग्रियों से प्राप्त सूचनाओं का कुछ अंश अप्रासंगिक अथवा गलत हो सकता है अथवा है ।

80. जिस तरह मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को विस्थापित करने वाले उपकरण विकसित करने में क़ामयाब हुआ है, उसी तरह उसने मस्तिष्क के कुछेक क्रियाकलापों (कुछेक बौद्धिक कार्यों) को भी संगणकों के हवाले करने में क़ामयाबी पाई है । कृत्रिम बुद्धि विकसित करने की कोशिशें जारी हैं । हम स्मार्ट उपभोक्ता सामग्रियों, उपकरणों, स्मार्ट रोबो के युग में दाख़िल हो चुके हैं ।

81. ज्ञान चूंकि आज अस्तित्व की पूर्व शर्त है और ज्ञान की मूल इकाई सूचना है, इसलिए सूचना-सम्प्रेषण की तकनीक में भी भारी क्रान्ति आई है । मुद्रण, दृश्य-श्रव्य माध्यम और संगणक आज सूचना के मुख्य संवाहक हैं । उपग्रह-तकनीक और इंटरनेट आज सूचनाओं के त्वरित सम्प्रेषण और उपलब्धि के माध्यम के रूप में तेजी से विस्तार पा रहे हैं ।

82. सूचना के उपर्युक्त स्रोत भी अन्तर्गुंथित हैं और इन स्रोतों का सम्मिलित उपयोग वैज्ञानिक विधि है । इस विधि से प्राप्त सूचनाओं में आन्तरिक संगति बैठाना तर्क है और आन्तरिक संगति बैठाने की मस्तिष्क की क्षमता ही बुद्धि है । सूचना + बुद्धि → वैज्ञानिक-तार्किक विधि → ज्ञान (अथवा बौद्धिक सम्पदा) । यही ज्ञान के उत्पादन की प्रक्रिया है ।

83. यथार्थ का अनुकरण छाया यथार्थ है और छाया यथार्थ का क्रियान्वयन परिवर्तित यथार्थ । यथार्थ → छाया यथार्थ → परिवर्तित यथार्थ : यह चक्र वैसे ख़ुद-ब-ख़ुद तो अन्वेषण की ओर नहीं ले जाता, लेकिन अन्वेषण के लिए/भिन्न होने के लिए आवश्यक संसाधन अवश्य जुटाता है । एक दूसरा पक्ष भी है । परिकल्पित यथार्थ माया यथार्थ है और माया यथार्थ का क्रियान्वयन वास्तविक यथार्थ । यथार्थ का अभाव → परिकल्पित (माया) यथार्थ → मूर्त यथार्थ । भौतिक स्तर पर यह चक्र हमेशा चलता रहता है । पुल का अभाव → पुल की परिकल्पना (माया पुल अथवा वर्चुअल ब्रिज़ का निर्माण) → पुल यथार्थ पुल । मस्तिष्क की अन्वेषक वृत्ति इसी तरह कार्य करती है । (प्रसंगवश, मानसिक स्तर पर भी मनुष्य निरन्तर अभाव के प्रश्न से जूझता रहा है । यह अभाव दरअसल उसके अस्तित्व की अपूर्णता का सनातन भाव ही है । इस अभाव का निरूपण और निराकरण दार्शनिक विमर्श की सर्वप्रमुख समस्या रही है ।)

84. बहरहाल, इस ज्ञान युग में भेदों की मांग काफ़ी बढ़ गई है, सूचनाओं का अभूतपूर्व विस्फोट हुआ है और ज्ञान उद्यमियों की एक नई श्रेणी सामने आई है । उनके अनुकरण के ज़रिये सूचनाओं का, और इस कारण अवसरों का विश्वव्यापी प्रसार हुआ है । साथ ही मांग और आपूर्ति की खाई के कारण, कहीं सूचनाओं की बाढ़ तथा कहीं सूचनाओं के अकाल के कारण, अन्य उत्पादन प्रणालियों की तरह ही इस प्रणाली में भी ज्ञान के सटोरियों और जमाखोरों का तबका सक्रिय हो गया है । मनचाहे, हानिकारक कृत्रिम भेदों की मैन्युफ़ैक्चरिंग होने लगी है, मिलावटी ज्ञान उद्योग और ज्ञान का चोर बाजार भी पनप रहा है । जीवन के हर क्षेत्र में – विभिन्न किस्म के व्यवसायों से लेकर अनुसंधान प्रयोगशालाओं और समाज संस्थाओं तक में इन कुवृत्तियों की लीलाएँ देखी जा सकती हैं । आधुनिक संचार तकनीक के कारण इन ज्ञान-अपराधों की पहुँच भी विश्वव्यापी है – बस कुछेक बटन दबाने भर की बात है, और आमदनी अरबों डॉलरों में है ।

85. आज हर उत्पाद – सामान्य उपभोक्ता सामग्री से लेकर सेलेब्रिटी व्यक्ति और समारोह तथा विचार तक अब बिकाऊ उत्पाद ही है – ज्ञान-उत्पाद के रूप में ही अपनी विश्वसनीयता स्थापित कर सकता है । इसीलिए प्रख्यात व्यक्तियों तथा प्रयोगशालाओं/अनुसंधान संस्थानों का अनुमोदन उनके विज्ञापन का ज़रूरी अंग बन गया है ।

86. ऊपर हमने जिस ज्ञान-चक्र की चर्चा की है, वह अन्य उत्पादन प्रणालियों में भी चलता रहा है । हाँ, विभिन्न प्रणालियों में चक्र पूरा होने का समय ज़रूर भिन्न-भिन्न रहा । पाषाण-युग में पत्थर के औज़ारों (जैसे हाथ की कुल्हाड़ी, हैंड एक्स) के कमोबेश विश्वव्यापी स्तरीकरण में हजारों वर्षों का समय लगा । आरम्भिक धातु के औज़ार पत्थर के औज़ारों की ही अनुकृति हुआ करते थे । बाद में अनुकरण का अतिक्रमण कर नये-नये किस्म के धातु के औज़ार सामने आये । (इन्नोवेशन) । कृषि युग में विभिन्न कृषि-उपकरणों के स्तरीकरण में शताब्दियाँ लगीं । औद्योगिक युग में इस चक्र का समय औसतन पन्द्रह-बीस वर्ष था। आज के युग में यह घटकर दो से पाँच वर्षरह गया है । इतना ही नहीं, ज्ञान-युग में यह समय हमेशा शून्य की ओर प्रवृत्त होता है । स्तरीकरण के पहले ही आपको नये ज्ञान के साथ आ जाना है । भेद → नया भेद । भेदों का निरन्तर, बिना रुके उद्घाटन आज अस्तित्व की शर्त है । आइडियाज़ डॉट कॉम के इस युग में विचारों पर भारी दाँव लगा हुआ है, उन पर वेनचॅ कैपिटल में लगातार वृद्धि हो रही है । पेटेण्टों को लेकर ज़बर्दस्त होड़ मची है ।

87. जैसा कि हम पहले ज़िक्र कर चुके हैं, हर प्रणाली का लक्ष्य विभिन्न मानव समुदायों – जनों, खेतिहर समूहों, और राष्ट्रों – का विस्तारित पुनरुत्पादन रहा है । एक अनुमान के अनुसार, फल-संग्राहक और शिकारी जीवन की विकसित अवस्था में पृथ्वी पर मनुष्य की आबादी क़रीब 60 लाख थी । दस हजार वर्षों के कृषि युग में इसमें क़रीब सौ गुनी वृद्धि हुई । कृषि युग के आखिरी दिनों, अथवा विनिमय-युग के आरम्भिक काल में – सत्रहवीं सदी के शुरू के दशकों में आबादी क़रीब 60 करोड़ थी । औद्योगिक युग की महज़ साढ़े तीन-चार शताब्दियों में क़रीब दस गुनी वृद्धि के साथ आज यह 6 अरब है । इस अभूतपूर्व विस्तारित पुनरुत्पादन के क्रम में धरती पर होमोसेपियन नामक इस प्रजाति का इस क़दर वर्चस्व कायम हो गया है कि अब वह उसके अस्तित्व के लिए ही खतरा बनता जा रहा है ।

मनुष्य का अस्तित्व प्रकृति के पर्यावरण (इको-सिस्टम) और उसमें जन्मने, फलने-फूलने वाली प्रजातियों (संक्षेप में, जैव-विविधता) के अस्तित्व के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है । पिछली प्रणालियों, ख़ासकर औद्योगिक प्रणाली में मनुष्य के तीव्र विस्तारित पुनरुत्पादन की कीमत पर पर्यावरण और जैव-विविधता का जो भारी नुकसान अथवा संहार हुआ है, उसकी भरपाई की जिम्मेवारी आज के ज्ञान समाज पर है । मनुष्य के पुनरुत्पादन को कम करना तथा पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन के ज़रिये जैव-विविधता का विस्तारित पुनरुत्पादन – यह है आज के समाज के समक्ष चुनौती । यह चुनौती उन विचार-प्रणालियों के विस्थापन की भी मांग करते हैं जो मनुष्य को सृष्टि के केन्द्र में रखती हैं, प्रकृति में मनुष्य की श्रेष्ठता का दावा करती हैं, और प्रकृति पर मनुष्य के स्वामीवत् शासन को वैध ठहराती हैं ।

मनुष्य तो सबसे नई प्रजातियों में से एक है । धरती पर अनेक प्रजातियाँ न मालूम कितनी प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी दसियों लाख वर्षों से विद्यमान हैं । उनके जीन-समूहों में उनके अस्तित्व की बाबत अनेक बहुमूल्य सूचनाएँ दर्ज़ हैं, जिनसे हम काफ़ी कुछ सीख सकते हैं । ज्ञान के इस अनजाने ख़जाने में संभवतः हमारी बहुत सारी बीमारियों का, हमारे भौतिक जीवन की बहुत सारी समस्याओं का हल छिपा है । जैव विविधता का यह आश्चर्यलोक मनुष्य की सबसे प्राथमिक पाठशाला है, और उसके स्थाई छात्र के रूप में ही हम अपने सुरक्षित और निरन्तर समृद्ध होते अस्तित्व की कल्पना कर सकते हैं । यह सही है कि मनुष्य का अस्तित्व ही पर्यावरण की विकृति का कारण बनता है, लेकिन हमें कम से कम नुकसान पहुँचाने और प्रत्येक नुकसान की भरपाई करने – ‘प्रायश्चित के साथ जीने’ की कला भी सीखनी होगी ।

88. जन-क्षेत्र, नदी-घाटी और राष्ट्र-राज्य की जगह भूमि का अर्थ अब पूरी दुनिया है । मानव जाति के समक्ष आज कुछ चुनौतियाँ भी ऐसी हैं जो सामुदायिक और राष्ट्रीय प्रयासों के साथ-साथ वैश्विक प्रयासों की मांग करती हैं । फलतः राष्ट्रीय सम्प्रभुता का क्षरण हो रहा है ।

केऑस सिद्धान्त का एक बहुचर्चित सूत्र हैः धरती के किसी एक हिस्से में तितली के पंखों की फरफराहट दूसरे हिस्से में भयंकर आंधी-तूफान का कारण बन सकती है । पर्यावरण विनाश आज जिस अवस्था में जा पहुँचा है, वहाँ अमेज़न के सदाबहार जंगलों का थोड़ा और क्षरण किन-किन जगहों में (मौसम परिवर्तन, बाढ़ और अकाल आदि के रूप में) क्या-क्या क़हर ढाएगा, इसका आकलन करना मुश्किल है । हालांकि पिछले कई वर्षों से इसकी झलक हमें मिलती रही है । ऐसी ही स्थिति अन्य कई क्षेत्रों में है । पर्यावरण, जैव-विविधता, प्रदूषण, जनसंख्या, अन्तरिक्ष और सामुद्रिक अनुसंधान, सागर-तलीय संसाधनों का संरक्षण और उपयोग, परमाण्विक निःशस्त्रीकरण आदि कई ऐसे विषय हैं जहाँ वैश्विक प्रयास काफ़ी पहले शुरू हो चुके हैं । राष्ट्रीय हितों के टकरावों के बावज़ूद कई प्रश्नों पर विश्वव्यापी सर्वानुमति भी बनी है, और कुछेक विश्व-सन्धियाँ भी सामने आई हैं । कुछ विवादास्पद मुद्दों को विश्व-प्रश्न बनाये जाने, और राष्ट्रीय सम्प्रभुता के कुछ क्षेत्रों में सीमित होने के क्रम में विश्व-वर्चस्व की प्रवृत्तियाँ भी समानान्तर रूप से क्रियाशील रही हैं । व्यापार, श्रम-कानून, ग़रीबी-उन्मूलन, प्राथमिक शिक्षा, बाल और स्त्री अधिकार, महामारियों के ख़िलाफ़ अभियान, नशीले पदार्थों की तस्करी, आतंकवाद, मानव अधिकार, जनतंत्र आदि प्रश्नों पर भी वर्चस्व-वृत्तियों तथा राष्ट्रीय हितों के टकरावों के बीच अनेक द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और अन्तर्राष्ट्रीय समझौते तथा पहलकदमियाँ सामने आ रही हैं । विषयों की लम्बी सूची ही बताती है कि कितने प्रश्न राष्ट्रीय सीमाओं से ऊपर उठकर विश्व-समुदाय की कार्यसूची का भी अंग बन चुके हैं । अपनी आबादी और प्राकृतिक संसाधनों के साथ मनमानी करने का राष्ट्र-राज्यों का अधिकार न सिर्फ सीमित हो रहा है, बल्कि आज की चुनौतियों का सामना करने में उनकी क्षमता पर भी प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे हैं । कुछ लोगों ने तो अभी ही ख़ुद को पृथ्वी-नागरिकों के मोबाइल रिपब्लिक का सदस्य घोषित कर रखा है ।

इन सब बातों का यह मतलब नहीं कि राष्ट्र-राज्यों का बस अब अन्त ही होने जा रहा है । नहीं, ऐसी बात नहीं है । हाँ, नई वैश्विक चुनौतियों तथा विश्वव्यापी नेटवर्क समाज के क्रमशः बढ़ते दख़ल के बीच उन्हें अपनी भूमिका पुनः परिभाषित करनी पड़ रही है । मानव समाज के असमान विकास, विरासत में प्राप्त स्थितियों और विश्व-वर्चस्व की कोशिशों की पृष्ठभूमि में यह प्रक्रिया अलग-अलग राष्ट्र-राज्यों में अलग-अलग रूपों में सामने आएगी, और आ भी रही है । और राष्ट्र-राज्य ही क्यों, तमाम संगठनों और संस्थानों को भी ज्ञान समाज की ज़रूरतों के अनुरूप पुनर्गठन की प्रक्रिया से ग़ुजरना पड़ रहा है ।

89. औद्योगिक समाज की जीवन-दृष्टि, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, विभिन्न सेक्यूलर विचारधाराओं में अभिव्यक्त हुई । विचारधारा प्रकृति और मानव-समाज के, अथवा उनके विभिन्न पहलुओं के, नियमों का पता लगाने, फिर उन नियमों के आधार पर यथार्थ को रूपान्तरित करने पर ज़ोर देती है । वह यथार्थ की ज़मीन पर पनपती है, किन्तु कालक्रम में वह यथार्थ को विस्थापित कर ख़ुद एक भौतिक शक्ति बन जाती है । ऐसी स्थिति में यथार्थ भी यथार्थ नहीं रहता – वह विचारधारा का सेवक मात्र हो जाता है । विचारधारा के लिए वही यथार्थ ज़रूरी रह जाता है, जो उसे संतुष्ट करता हो । विचारधारा-आधारित आन्दोलन और संस्थाओं के लिए दुनिया अपनी विचारधारा की संकीर्ण दुनिया में सिमट कर रह जाती है ।

विचारधारा का केन्द्र नियम, नकार और निष्कासन है । जो भी चीज उसके नियम से मेल नहीं खाती अथवा उसके नियम से टकराती है, उसे नकार दिया जाता है और यथार्थ की दुनिया से उसके निष्कासन की मुहिम छेड़ दी जाती है । वह यथार्थ पर अपना एकछत्र प्रभुत्व चाहता है । इस तरह वर्चस्व-वृत्ति हर विचारधारा में अन्तर्निहित होती है, हालांकि यही उसके पतन का कारण भी बनती है ।

मनुष्य के अस्तित्व की समग्रता के लिहाज़ से विचारधाराओं की निश्चय ही अपनी एक भूमिका है । नियम है, और नियमों की जानकारी और उनका कार्यान्वयन यथार्थ को रूपान्तरित करने में कामयाब भी होता है । चूँकि यथार्थ के अनेक आयाम हैं, इसीलिए समाज में एक ही समय अनेक विचारधाराएँ क्रियाशील रहती हैं । वर्चस्व के लिए उनके बीच प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है ।

ज्ञान समाज के आगमन के साथ विचारधाराओं का भी अवमूल्यन हुआ है । विभिन्न विचारधाराओं और पार्टियों के बीच विचारधारात्मक विभाजन रेखाएँ धूमिल हुई हैं, और कुछ तो विचारधाराओं के अन्त की घोषणा भी कर चुके हैं । भेदों की नित नई श्रृँखलाओं के उद्घाटन पर आधारित होने के कारण ज्ञान समाज बहुलता (प्लुरलिज़्म) का पक्षधर है । उत्पादों की तरह ही, जीवन के हर क्षेत्र में पहचान की नई-नई (यथार्थ अथवा वर्चुअल) परतों का उद्घाटन ज्ञान के समाजशास्त्र का महत्वपूर्ण कार्यभार है । औद्योगिक समाज की ‘राष्ट्र’ और ‘वर्ग’ जैसी भारी-भरकम स्तरीकृत श्रेणियों की जगह यहाँ हम एथनिक समूहों, सबॉल्टर्न समुदायों, उपभोक्ता संगठनों, सूचना-मण्डलों, एफ़िनिटी ग्रुप्स, चैट ग्रुप्स और विभिन्न वर्चुअल समूहों, संश्रयों, नेटवर्कों का बहुलतावादी संसार पाते हैं । यह समाज बहुलता की किसी एक श्रृँखला के साथ अधिक दिनों तक बँधा भी नहीं रह सकता । बहुलता की कोई एक श्रृँखला अगर उसके लिए पुरानी और अनुपयोगी हो जाती है, तो वह बहुलता की एक नई श्रृँखला सृजित कर लेगा । सूचनाओं पर वर्चस्व के लिए प्रतिस्पर्धा उत्पादों से लेकर जीवन के हरेक क्षेत्र में बहुलताओं के नित नये संसार में प्रतिफलित होती है । विचारधाराओं की बन्द और निश्चित दुनिया के विरुद्ध ज्ञान का संसार चंचल बहुलता का चलायमान संसार है ।

विचारधारा बनाम बहुलता का यह द्वन्द्व, बहरहाल, एक और अनेक/एकता और विविधता को दो परस्पर विरोधी प्रवर्गों में बाँटकर देखने का ही परिणाम है । बहुलताविहीन एकीकृत स्तरीकरण और एकत्व की अनुभूति से शून्य बहुलता – दोनों एक ही नज़रिये की स्वाभाविक परिणतियाँ हैं । तत्वशास्त्रीय रूप में बहुलता का उत्तर-आधुनिक विमर्श विचारधारा की आधुनिक ‘ग्रैंड नेरेटिव्स’ का प्रतिक्रियात्मक विरोध भर है ।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अनेक एक के, विविधता एकता के अस्तित्व का ढंग है । विज्ञान का भाषा में, भेदों/बहुलताओं की प्रत्येक श्रृँखला के उद्घाटन को हम संतुलन-भंग (सिमिट्री-ब्रेकिंग) कह सकते हैं । लेकिन संतुलन-भंग का प्रत्येक बिन्दु पुनर्सामान्यीकरण (रिनॉर्मलाइज़ेशन) की अवस्था का भी संकेत देता है । उसी तरह भेदों/बहुलताओं की प्रत्येक श्रृँखला अभेद का भी साक्षात् कराती है ।

90. ज्ञान अगर भेद की क्रिया है, तो अध्यातम अभेद की अनुभूति । ज्ञान अगर भिन्न होना है तो अध्यात्म एकात्म होना । ज्ञान और अध्यात्म दोनों मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं । मुनष्य मशीन बनाने वाला प्राणी ही नहीं है, वह मंदिर बनाने वाला प्राणी भी है । एक उसके जीविकोपार्जन के लिए ज़रूरी है, तो दूसरा उसकी ‘मुक्ति’ के लिए ।

91. अध्यात्म के बिना भिन्न होना विरोधी होने में बदल जाता है, ज्ञान विध्वंस और विनाश की ओर ले जाता है । एकात्मता स्तरीकरण या सार्विकरण नहीं है – वह तो भिन्नता, अनन्त भिन्नता की स्वीकृति है, और भिन्नता में एकत्व की अनुभूति है ।

आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि ही संसार को विरोधों में बाँटकर देखने की चिन्तन विधि का विकल्प हो सकती है । उपर्युक्त चिन्तन विधि में, एक दूसरे से ही अपनी पहचान ग्रहण करता है । एक की स्थापना दूसरे का निषेध है । दूसरे की निकृष्टता प्रमाणित किये बग़ैर एक अपनी श्रेष्ठता भी स्थापित नहीं कर सकता । संसार प्रत्यक्षतः ऐसा ही दिखता है । लेकिन प्रत्यक्ष का संसार एकमात्र संसार नहीं ।

भिन्न होना विरोधी होना नहीं है । दरअसल, अस्तित्व ही भिन्नता है । अपने अस्तित्व की सीमाओं और संभावनाओं को समझना तथा संभावनाओं को पूरी तरह अंज़ाम देने की कोशिश करना ही पहचान की प्रक्रिया है । लेकिन प्रायः अस्तित्व सीमा का अतिक्रमण करता है और सर्वव्यापी होने की कोशिश करता है । पहचान की प्रक्रिया अन्य अस्तित्वों का निषेध करने और उन्हें निर्मूल करने की प्रक्रिया बन जाती है । यह अस्तित्व के आधार का ही निषेध है । भिन्नता का अन्त सारे अस्तित्वों का भी अन्त है । यह बात प्रकृति और समाज के सभी प्रकार के अस्तित्वों पर – व्यक्ति, समाज, राष्ट्र, कर्म, विचार, मानव जाति आदि सभी पर – लागू होती है ।

एक रुख़ पारस्परिक स्वीकृति और सम्मान, सहानुभूति और सहयोग तथा समझदारी और शान्ति की ओर ले जाता है । दूसरा नकार और असहिष्णुता, तनाव और तिक्तता, नफ़रत और हिंसा को जन्म देता है ।

92. ज्ञान भेद की क्रिया अवश्य है, लेकिन अपने विकास-क्रम में वह एक सापेक्ष एकीकृत दृष्टि को भी जन्म देता है । ज्ञान का यह एकत्व दरअसल एक काल-विशेष में उपलब्ध सूचनाओं का तर्क आधारित एकत्व है । जाहिर है कि नई सूचनाएँ इस एकत्व का अन्त कर देती हैं, और फिर नई तार्किक एकता की ज़मीन तैयार करती हैं । नई सूचनाएँ पुरानी एकीकृत दृष्टि के साथ संगति नहीं बिठा पाती हैं, और चूँकि इन नई सूचनाओं का पता लगानेवाले पुरानी स्वीकृत दृष्टि से ही चीजों को देखने-समझने के अभ्यस्त होते हैं, इसीलिए वह दृष्टि नई तर्कसंगत दृष्टि के निर्माण में बाधक सिद्ध होती है ।

आधुनिक काल में नई वैज्ञानिक खोजों की रोशनी में इस तरह की एकीकृत विश्वदृष्टि के निर्माण का पहला श्रेय न्यूटन को जाता है । न्यूटन की यांत्रिक-नियतिवादी दृष्टि लम्बे समय तक प्रभावी रही, और उसने यूरोप में चर्च की विश्वदृष्टि के विरुद्ध एक सेक्यूलर विश्वदृष्टि के निर्माण में निर्णायक भूमिका अदा की । उन्नीसवीं सदी के अन्त में नई खोजों ने (खासकर प्रकाश के तरंग सिद्धान्त ने) इस यांत्रिक-नियतिवादी दृष्टि की सीमाओं को उजागर कर दिया । फ़ैरेडे, मैक्सवेल, हर्त्ज़ आदि इस आधार (दृष्टि) के साथ नई खोजों की संगति बैठाने के प्रयास में सफल नहीं हुए । जे.जे. थॉमसन आदि ने एक नया फ़ील्ड सिद्धान्त विकसित करने का प्रयास किया । बहरहाल, बीसवीं शताब्धी के आरम्भिक दशकों में न्यूटन के यांत्रिक-नियतिवाद का स्थान सापेक्षता-संभाव्यता-अनिश्चितता के सिद्धान्त ने ले लिया । इसका श्रेय आइन्स्टीन, नील्स बोर, श्रोडिंगर और हाइज़ेनबर्ग को जाता है । सापेक्षता के सिद्धान्त, क्वांटम यांत्रिकी और अनिश्चितता के नियमों ने न्यूटन की दुनिया ही उलट-पुलट कर रख दी ।29

यह सापेक्षता-संभाव्यता-अनिश्चितता का सिद्धान्त तार्किक प्रणाली का सीमान्त है । जिस तरह न्यूटन के विश्व ने आधुनिक सेक्यूलर बुद्धिवादी सिद्धान्तों और विचारधाराओं के विकास में अहम भूमिका निभाई थी, उसी तरह इस सिद्धान्त ने उत्तर-आधुनिक विमर्श को काफ़ी प्रभावित किया है । यह दौर तत्वशास्त्र, कला और साहित्य के क्षेत्र में अति यथार्थवाद (सुरियलिज़्म) और अस्तित्ववाद की विभिन्न शाखाओं, चेतन-प्रवाह, केऑस, एब्सर्ड, जादुई यथार्थवाद, प्रबन्धन के क्षेत्र में पार्श्व चिन्तन (लेटरल थिंकिंग) आदि के प्रादुर्भाव और प्रतिष्ठा का दौर साबित हुआ । पहले तो सार्विक नियमों और प्रमेयों पर आधारित विचार प्रणालियों का स्थान इन्द्रियानुभवों के तार्किक विश्लेषण ने ले लिया । फिर तर्क की इस सीमान्त भूमिका को भी चुनौती दी जाने लगी ।30

बहरहाल, ज्ञान का सापेक्ष तार्किक एकत्व आध्यात्मिक एकत्व नहीं है । एक में एकता स्थापित की जाती है, दूसरे में एक हुआ जाता है । तथापि, तर्क का सीमान्त एक ओर निहिलिज़्म तो दूसरी ओर आध्यात्मिकता के लिए अनुकूल स्थितियाँ तैयार करता है । बस इतना ही ।

93. अध्यात्म ज्ञान के प्रति अवहेलना की ओर ले जा सकता है और यथास्थितिवाद को भी प्रश्रय दे सकता है । भिन्नताओं की स्वीकृति और उन्हें सम्मान देने का रुख़ अन्वेषण से मुँह मोड़ लेने और अकर्मण्यता की ओर भी ले जा सकता है । अध्यात्म जनित अकर्मण्यता और ज्ञान के स्खलन के कारण ही भारत को पराधीनता झेलनी पड़ी । ज्ञान में गुणी और अध्यात्म में अग्रणी होकर ही वह भाग्य से किए अपने वायदे को पूरा कर सकता है ।

मानव जाति का इतिहास ज्ञान और अध्यात्म के सच्चे समन्वय की कोशिशों का इतिहास भी है । इस समन्वय की कोई टेक्स्टबुक तकनीक नहीं, कोई सर्वकालिक, सार्वदेशिक विधि नहीं । ज्ञान और अध्यात्म । भेदाभेद । द्वैताद्वैत ।

94. ज्ञान आज अगर अस्तित्व की पूर्व शर्त है तो अध्यात्म ख़ुद ज्ञान के अस्तित्व की ।

95. जिस तरह औद्योगिक समाज के उत्थान के काल में उस समाज के प्रणेताओं ने दावा किया था कि मानव जाति की सारी समस्याओं का समाधान औद्योगीकरण तथा और औद्योगीकरण है, कुछ उसी तरह के दावे आज भी हो रहे हैं । ज्ञान समाज के प्रणेता औद्योगिक समाज में पनपे आन्दोलनों के प्रति सहानुभूति भी दिखलाते हैं और अनेक मामलों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उनका समर्थन भी करते हैं । उनकी नज़र में ऐसे आन्दोलनों से अन्ततः ज्ञान समाज का मार्ग ही प्रशस्त होगा । ग़रीबी उन्मूलन, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, नौकरशाही – ऐसे सारे प्रश्नों का समाधान वे ज्ञान-प्रणाली में देखते हैं । सूचना का अधिकार, सूचना की स्वतंत्र आवाजाही और नेटवर्किंग आज के प्रचलित नारे हैं ।

बहरहाल, इन प्रणेताओं के दावों में सच्चाई भी है, और साथ ही नये का दंभ-जनित संभ्रम भी ।

मनुष्य के भौतिक अस्तित्व के चार कारकों – श्रम, भूमि, विनिमय और ज्ञान – और चार युगों जिनमें प्रत्येक कारक ने अलग-अलग केन्द्रीय भूमिका निभाई है, के वर्णन का यह मतलब नहीं कि मानव समाज अपने विकास की चरम अवस्था में जा पहुँचा है । जैसे चार आधारभूत शक्तियों के अन्तःमिश्रण से सृष्टि में नाना अस्तित्व-रूप दिखाई देते हैं, उसी तरह इन चार कारकों के अन्तःमिश्रण से नाना प्रकार के समाजों की संभावना बनती है ।

मानव जाति के लिए कोई प्रणाली अथवा व्यवस्था अन्तिम नहीं – वह अपनी बेहतरी के प्रयास को कभी तिलांजलि नहीं देगी ।

(जारी)

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अनन्त का छंद – 5

अनन्त का छंद – 5

प्रसन्न कुमार चौधरी

ख. भौतिक अस्तित्व

60. मनुष्य के अस्तित्व की एक सामान्य चर्चा के बाद हम अब उसके भौतिक और चेतन पक्ष की अलग से थोड़ी चर्चा करेंगे । पहले भौतिक पक्ष ।

अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य अपने विस्तारित आत्म-पुनरुत्पादन के लिए प्राकृतिक परिवेश का उपयोग मात्र नहीं करता, बल्कि श्रम के औज़ारों के विकास के ज़रिये उत्पादन करता है और इस प्रक्रिया में प्रकृति के साथ तथा आपस में ख़ास सम्बन्ध कायम करता है । इसके साथ ही वह प्रकृति को बदलने और सामाजिक सम्बन्धों के अनजाने सफर पर भी कूच कर जाता है । उसके अस्तित्व का यही भौतिक आधार है ।

61. मनुष्य के इस भौतिक अस्तित्व के चार कारक हैः श्रम, भूमि (स्पेस), विनिमय (वस्तु और विचार दोनों का) और ज्ञान । (भौतिक अस्तित्व के ये चारो कारक अत्यन्त प्राथमिक रूप में प्राणिजगत में भी पाये जाते हैं ।) चारो कारक अन्तर्गुंथित होते हैं । हाँ, अन्तर्गुंथित होने के बावज़ूद उत्पादन की अलग-अलग प्रणालियों में कोई एक कारक केन्द्रीय भूमिका ग्रहण कर लेता है । तथापि अन्य कारक खत्म नहीं हो जाते, बल्कि केन्द्रीय भूमिका ग्रहण कर लेने वाले कारक के साथ विशिष्ट सम्बन्ध में बँधकर क्रियाशील रहते हैं ।

62. एक उत्पादन विधि से दूसरी उत्पादन विधि में संक्रमण के दौरान ज्ञान और विनिमय निर्णायक भूमिका अदा करते हैं । नये आधार पर चारो कारकों के पुनर्संतुलन की प्रक्रिया काफ़ी उथल-पुथल भरी होती है और प्रायः शताब्दियों तक चलती रहती है । इन चारो कारकों के अनुरूप मानव समाज में मूलतः चार श्रेणियाँ हर उत्पादन विधि में सामने आती हैं और उनका एक-दूसरे में रूपान्तरण भी होता रहता है । यह मानव समाज का सबसे आधारभूत श्रेणी-विभाजन है ।

63. मनुष्य ने अब तक अपना सबसे लम्बा (कई लाख वर्षों का) समय फल संग्राहक और शिकारी के रूप में बिताया है । लम्बी कालावधि मनुष्य के अर्जित गुण उसकी जेनेटिक संरचना का अंग बन जाते हैं । इस लिहाज़ से यह काल (कुल मिलाकर पाषाण युग) काफ़ी महत्वपूर्ण है । इस काल में श्रम ख़ुद मानव जीवन के अस्तित्व की शर्त था । जनों (गणों) के विस्तारित पुनरुत्पादन का माध्यम था फल संग्रह और शिकार । भूमि का मतलब जनों का अपना-अपना जन-क्षेत्र था । बोलियाँ विकसित हो रही थीं । वस्तु-विनिमय अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था और जनों के बीच युद्ध भी होते रहते थे । मनुष्य वनों, पत्थरों, औज़ारों, प्राणियों, वनस्पतियों और प्राकृतिक शक्तियों का वर्गीकरण और अपने जीविकोपार्जन में उनका उपयोग करने लगा था । यही जनों का ज्ञान-तत्व था । उनकी जीवन-दृष्टि ‘मैज़िक’25 में अभिव्यक्त होती थी ।

64. कृषि आधारित उत्पादन प्रणाली में (नवपाषाण और धातु युग में) भूमि जनों के अस्तित्व की शर्त बन जाती है । क़रीब दस हजार वर्षों तक वह इतिहास का क्रियास्थल बनी रही । भूमि का अर्थ जनजातीय क्षेत्रों की जगह अब नदी-घाटी क्षेत्र और खेती लायक ज़मीन हो गया । जब जनों के विस्तारित पुनरुत्पादन में शिकार और फल-संग्रह अपर्याप्त होने लगा, तब कृषि ने खेती-आधारित मानव-समुदायों के विस्तारित पुनरुत्पादन को ज़बर्दस्त आवेग प्रदान किया । स्थायी बस्तियाँ बसने लगीं, ग्रामों एवं नगरों का प्रादुर्भाव हुआ और आबादी का तेजी से विकास हुआ । कृषि श्रम के रूप में श्रम ने नया रूप ग्रहण किया । अनुकरण के ज़रिये अन्य जन भी इस प्रक्रिया में शामिल हुए । श्रम की मांग बढ़ी और शिकार तथा फल-संग्रह के ज़रिये जीवन-यापन करने वाले जनों को ज़बरन दास अथवा भूदास के रूप में नयी उत्पादन प्रणाली में शामिल किया गया । नदी घाटी क्षेत्रों में विशाल साम्राज्यों का उदय हुआ । मुद्रा के आगमन ने विनिमय को नया आधार और आवेग प्रदान किया और व्यापारिक पूंजी का उदय हुआ । बोलियों से भाषाओं और लिपियों के विकास ने मानव समाज को एक नया आयाम दिया । धातुओं, पशुओं, कृषि उपकरणों, कृषि और पशुपालन सम्बन्धी कार्यों तथा उत्पादों, मौसम तथा ज्योतिष विज्ञान, विभिन्न हस्तशिल्पों और कलाओं आदि के क्षेत्र में ज्ञान का विस्फोट हुआ । मैज़िक को अपने में समाहित करते हुए पंथ अब खेतिहर समुदायों की जीवन-दृष्टि का निरूपण करने लगे । जनों के बीच युद्ध का स्थान अब साम्राज्य निर्माण के लिए युद्ध और पंथ-युद्ध ने ले लिया ।

65. जब कुछेक खेतिहर समुदायों के लिए कृषि भी विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए अक्षम होने लगी तो विनिमय उन समुदायों के अस्तित्व की शर्त बन गया । क़रीब चार सौ वर्षों से चली आ रही इस प्रणाली में विनिमय ने पूंजी के सामाजिक सम्बन्ध में अपनी सर्वोच्च अभिव्यक्ति पायी । बाज़ार और भाषाई राष्ट्र-राज्य सामने आये । उजड़ती श्रम के रूप में श्रम ने नया रूप ग्रहण किया । भूमि का मतलब अब राष्ट्र-राज्य हो गया । आधुनिक भाषाओं का विकास हुआ और वैज्ञानिक क्रान्ति ने ज्ञान की सभी शाखाओं में अभूतपूर्व विकास को अंज़ाम दिया । जो खेतिहर समुदाय अब भी कृषि के ज़रिये अपना पुनरुत्पादन कर रहे थे, उन्हें औपनिवेशिक प्रणाली के तहत बलपूर्वक विनिमय की इस प्रणाली में शामिल किया गया । यह युग राष्ट्रीय युद्धों, विश्व साम्राज्यवाद और विश्व युद्धों का भी युग रहा । इस युग की जीवन-दृष्टि विभिन्न सेक्यूलर विचार-प्रणालियों में अभिव्यक्त हुई ।

66. आज की ज्ञान-आधारित प्रणाली में ज्ञान अब विनिमय के अस्तित्व की शर्त बन गया है । इस युग को आये मुश्किल से पच्चीस वर्ष हुए हैं, लेकिन यह प्रणाली अभूतपूर्व रफ़्तार से विकास-लाभ कर रही है । पुरानी उत्पादन प्रणाली में रह रहे समुदायों को इस ज्ञान-प्रणाली में शामिल करने की ज़बर्दस्त होड़ मची है और वे शामिल भी हो रहे हैं । भूमि का अर्थ अब पूरी धरती – प्लेनेट अर्थ और अन्तरिक्ष है । मीडिया और साइबर लोक इतिहास का नया क्रिया-स्थल बन रहा है । सिर्फ जनों, खेतिहर समुदायों और राष्ट्र-राज्यों का नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति का पुनरुत्पादन इस प्रणाली का लक्ष्य है । इसके पास उसकी क्षमता है, लेकिन साथ ही सम्पूर्ण विनाश की क्षमता भी है । मस्तिष्क की शक्ति – विचार-शक्ति ने इस प्रणाली में प्रमुख उत्पादक शक्ति की भूमिका ले ली है । कम्प्यूटर भाषाओं का निरन्तर विकास-परिष्कार हो रहा है, और इंटरनेट के ज़रिये एक विश्वव्यापी (ग्लोबल) नेटवर्क समाज का प्रादुर्भाव हुआ है । आध्यात्मिकता (स्पिरिचुअलिटी) ही इस ज्ञान-युग की जीवन-दृष्टि हो सकती है ।

67. युगों के बीच चीन की दीवार नहीं होती । एक युग से दूसरे युग में संक्रमण एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है और मानव समाज अनेक स्तरों पर एक साथ जीता है । यहाँ हमारा उद्देश्य इन चीजों पर विस्तृत चर्चा का नहीं है, क्योंकि इन पर अनेक गहन अध्ययन पहले से मौज़ूद हैं ।

68. किसी भी काल में कुछेक समुदाय ही नयी उत्पादन विधि की ओर कदम बढ़ाते हैं । अगर वह विधि जीविकोपार्जन के लिहाज़ से अधिक सक्षम साबित होती है, तो शीघ्र ही वह पूरी दुनिया को अपने आग़ोश में ले लेती है । कई समुदाय अनुकरण के ज़रिये उससे जुड़ जाते हैं, तो बाकी को बलपूर्वक उसमें शामिल कर लिया जाता है । ‘निम्न’ और ‘पिछड़े’ पर ‘उच्च’ और ‘विकसित’ का वर्चस्व नया-नया रूप अख़्तियार करता रहता है ।

69. वर्चस्व, उत्पीड़न और विषमता के ख़िलाफ, ज़ाहिर है, समय-समय पर हर युग में बड़े-बड़े आन्दोलन/प्रयास/वैकल्पिक प्रयोग आदि भी होते रहे हैं । देश-काल की भिन्नताओं के कारण इन आन्दोलनों की रूप भी बदलता रहा है । कुल मिलाकर ऐसे आन्दोलन विफल ही होते रहे हैं । जहाँ वे सफल रहे, वहाँ भी उन्होंने नये वर्चस्व–उत्पीड़न-विषमता का मार्ग ही प्रशस्त किया है । मानवजाति आज तक वर्चस्व, उत्पीड़न और विषमता से मुक्त उत्पादन प्रणाली विकसित नहीं कर पायी है । एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को यथार्थ रूप नहीं दे सकी है जहाँ बिना वर्चस्व के भिन्नताओं की स्वीकृति हो, ‘श्रेष्ठ-निम्न’ का भाव न हो । तब क्या ऐसे प्रयास ही बेमानी हैं ? क्या मनुष्य वर्चस्व-बर्बरता से युक्त उपलब्धियों के रूप में प्रगति के लिए अभिशप्त है ?

70. मनुष्य का अस्तित्व दो स्तरों पर क्रियाशील होता है । एक, मानव जाति के रूप में उसका समग्र अस्तित्व और दूसरा जनों, खेतिहर समुदायों, जातियों, राष्ट्रों, वर्गों, तबकों, पेशागत समुदायों, कुल-परिवारों और व्यक्तियों के रूप में उसका अस्तित्व । उसके समग्र अस्तित्व की आकांक्षाएँ ही इतिहास में शानदार विफलताओं के रूप में सामने आती हैं, जबकि सफलताएँ उसके खण्डित अस्तित्व का मापदण्ड हैं । इन विफलताओं के बिना मानव-अस्तित्व की कल्पना ही एक खण्डित कल्पना है । अस्तित्व के पूरे स्पेस पर सफलताओं के वर्चस्व का अर्थ है एक जाति के रूप में मनुष्य की मौत । इसलिए मानव समाज सफलताओं को इस बात की इज़ाज़त नहीं देता । वह अपने नैतिक मूल्य इन्हीं विफलताओं से ग्रहण करता है और उसके प्रतीकों को मानवता के स्मारकों के रूप में संजोकर रखता है ।

सफलताएँ क्षणिक होती हैं: उनकी उम्र तब तक होती है, जब तक दूसरी सफलताएँ उन्हें बेदख़ल न कर दें । विफलताएँ चिरस्थायी हैं, उनका प्रभाव मानव समाज हमेशा महसूस करता है ।

71. इसलिए, सफलता-विफलता को दो परस्पर विरोधी प्रवर्गों के रूप में नहीं देखा जा सकता । दोनों ज़रूरी हैं । एक दूसरे को बेदख़ल नहीं करता । समाज के लिए गांधी की विफलता भी उतनी ही ज़रूरी है, जितनी बिल गेट्स, स्टीव ज़ोब्स, ज़िम क्लार्क या ज़ेफ़ बेज़ोस26 आदि की सफलताएँ । इन दोनों प्रवर्गों की तुलना ही बेमानी है ।

72. मनुष्य का खण्डित अस्तित्व भी एक सच है । मनुष्य, मनुष्य के रूप में नहीं जीता । वह छात्र, शिक्षक, श्रमिक, किसान, व्यवसायी, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक आदि के रूप में ही जीवनयापन करता है । (यहाँ तक कि एक व्यक्ति भी अपने भीतर पहचान की कई परतें लिए रहता है ।) इन रूपों में निरन्तर अपने काम को बेहतर करते जाना और बेहतरी के प्रयास में सफल होना ही उद्यमिता है । इस उद्यमिता के बिना भी मुनष्य की कल्पना नहीं की जा सकती । लेकिन इसके साथ अगर मनुष्यत्व न रहे तो सफलता की कोशिशें किस तरह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गलत रास्तों पर – नशाखोरी, धोखाधड़ी, बर्बरता की ओर ले जाती हैं, इसका अन्दाज़ा हम हाल के ही कई ऐसे ‘सफल’ नायकों (?) के क्रियाकलापों से लगा सकते हैं अतीत के ऐसे उदाहरणों की ज़रूरत ही नहीं ।

विफलताएँ इसलिए विफलताएँ हैं कि जिन प्रयासों के वे परिणाम हैं, वे प्रयास कभी समाप्त होने वाले नहीं हैं । इन प्रयासों का मूल्यांकन सफलता-विफलता के आधार पर नहीं किया जा सकता । मनुष्यता की दावेदारी एक निरन्तर क्रिया है ।

बहरहाल, मनुष्य आज तक ‘आदमी बनने’ और अपने निजी-पेशागत जीवन में सफल होने के बीच संतुलन कायम करने में कामयाब नहीं रहा है । अगर वह मनुष्य बनने की कोशिश करता है, तो प्रायः अपने निजी-खण्डित जीवन में असफल हो जाता है, और निजी-खण्डित जीवन में सफल होने के लिए उसे मानवता से स्खलित होना ज़रूरी लगता है – मनुष्य का अस्तित्व इस चिरन्तन द्वन्द्व से निरन्तर क्षत-विक्षत होता आया है ।

73. बहरहाल, जब मनुष्य का जीवन कमोबेश स्वयं सम्पूर्ण था, तब उसे अपना अस्तित्व ही पराया लगता था; किसी अदृश्य, अनन्त शक्ति की अमानत जिसे वह पुनः उसी शक्ति को समर्पित कर देना चाहता था । बलि के रूप में अस्तित्व । औद्योगिक युग में, जब मनुष्य का जीवन (निरन्तर बढ़ते विशिष्टिकरण/श्रम-विभाजन के कारण) अधिकाधिक खण्डित होता गया, तब वह अधिकाधिक उपभोग के ज़रिये अपने अस्तित्व के अभाव को भरने की कोशिश करने लगा । अनन्त उपभोग के रूप में अस्तित्व ।

74. उपर्युक्त संदर्भों की पृष्ठभूमि में हम एक नज़र उन यथार्थ स्थितियों पर डालना चाहेंगे जिनकी विरासत के साथ और जिनके बीच से आज का ज्ञान समाज विकसित हो रहा है ।

सर्वप्रथम, मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध में ।

क. मानवजाति के पूरे इतिहास में जितने वनक्षेत्र का विनाश हुआ है, उसका क़रीब आधा 1950 ई. से 1990 ई. के बीच के महज़ 40 वर्षों में हुआ । विश्व के उष्णकटिबन्धीय जंगलों का आधा समाप्त हो चुका है और बाकी बचे आधे क्षेत्र की हालत भी खस्ता है । ज्ञातव्य है कि इसी क्षेत्र में विश्व की कुल ज्ञात प्रजातियों का पचास फीसदी वास करती हैं ।

ख. आज प्रति घण्टे तीन (प्रतिदिन 74 और प्रतिवर्ष 27,000) प्रजातियों का विनाश हो रहा है । अनुमानतः धरती पर आज भी तीन करोड़ प्रजातियाँ वास करती हैं, जिनमें से महज़ चौदह लाख प्रजातियों की पहचान ही हो सकी है । इन प्रजातियों का बीस फीसदी अगले तीन दशकों में लुप्त हो सकता है ।

ग. 1970 से 1990 के बीच के महज़ बीस वर्षों में क़रीब 12 करोड़ हेक्टेयर मरुभूमि का विस्तार हुआ । यह क्षेत्र चीन में अभी खेती की जानेवाली ज़मीन के क्षेत्र से भी ज़्यादा है । इसी बीच 480 अरब टन मिट्टी (टॉप स्वायल) बह गई – यह मात्रा भारत के कुल फसल क्षेत्र की मिट्टी की मात्रा के बराबर है ।

घ. व्यावसायिक ऊर्जा की विश्वव्यापी ख़पत में 1860 ई. से 1985 ई. के बीच 60 गुनी वृद्धि हुई है । इस ऊर्जा का अधिकांश हिस्सा उन स्रोतों से आता है जिनका पुनर्नवीकरण नहीं हो सकता ।

ङ. विश्व में प्रतिदिन 10 लाख टन हानिकारक कचरा जमा होता है । इस कचरे में औद्योगिक दुनिया का हिस्सा 90 फीसदी है ।

च. 1949 से 1968 के बीच संयुक्त राज्य अमेरिका में नाइट्रोज़न उर्वरक के इस्तेमाल में 648 प्रतिशत की वृद्धि हुई । इसी अवधि में जहाँ आबादी में 34 फीसदी और प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन में 11 फीसदी की वृद्धि हुई, वहीं प्रति टन फसल, नाइट्रोज़न उर्वरक के इस्तेमाल में 405 फीसदी की भारी वृद्धि दर्ज़ की गई । नतीज़ा झीलों, नदियों और अन्य जल स्रोतों का प्रदूषण ।

अब कुछ आंकड़े मानव समाज के संदर्भ मेः

क. आज से महज़ 250 वर्ष पूर्व (1750 ई. में) आज के अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय आज के विकसित देशों की प्रति व्यक्ति आय से कुछ ज़्यादा ही थी । (1960 ई. के डॉलर और कीमतों में आज के विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय तब थी 180 डॉलर, जबकि आज के अल्प विकसित देशों में यह आय थी 180 से 190 डॉलर के बीच ।) 1980 में यह बढ़कर क्रमशः 3000 डॉलर और 410 डॉलर हो गई । दूसरे शब्दों में, 1750 में दोनों क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय का अनुपात लगभग बराबर था, जबकि 1980 में वह 7 : 1 हो गया । आज औद्योगिक देशों में रहने वाली विश्व की आबादी का महज़ 25 फीसदी विश्व उत्पादन के 75 फीसदी का उपभोग करती है ।

ख. औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप, 1750 ई. से लेकर 1980 ई. के बीच मैन्युफ़ैक्चरिंग उत्पाद में 80 गुना से भी अधिक बढोत्तरी हुई । 1970 से 1990 के बीच विश्व औद्योगिक उत्पादन दो गुना हो गया । अगर वृद्धि दर 3 फीसदी हो तो हर 23 साल में, और अगर वृद्धि दर 4 फीसदी हो तो प्रत्येक 18 साल में औद्योगिक उत्पादन दुगुना हो जाएगा ।

ग. तीसरी दुनिया के व्यक्ति की तुलना में एक उत्तर अमेरिकी व्यावसायिक ऊर्जा का औसतन 40 गुना अधिक खपत करता है । उप-सहाराई अफ़्रीका और विकसित देशों के बीच यह अनुपात तो 1 : 80 है ।

घ. 1987 में प्रति व्यक्ति कार्बन डाइ-ऑक्साइड के निस्सरण में अमेरिका के 20 फीसदी ग़रीबों की तुलना में 10 फीसदी धनिकों का योगदान ग्यारह गुना अधिक था ।

ङ. 1960 से 1991 के बीच विश्व आमदनी में 20 फीसदी धनिकों का हिस्सा 70 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया और निर्धनतम 20 फीसदी का हिस्सा 2.3 फीसदी से घटकर मात्र 1.4 फीसदी रह गया । इस तरह विश्व आमदनी में इन वर्षों के दौरान घनियों और ग़रीबों का अनुपात 30 : 1 से बढ़कर 61 : 1 हो गया ।

च. 1993 में विश्वव्यापी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) था 230 खरब डॉलर जिसमें विकसित औद्योगिक देशों का हिस्सा था 180 खरब डॉलर और विकासशील देशों का (जहाँ विश्व की आबादी का अस्सी फीसदी वास करती है) मात्र 50 खरब डॉलर ।

छ. विश्व उत्पादन के 25 फीसदी का नियंत्रण अपनी 5 लाख से भी अधिक विदेशी सहायक कम्पनियों के साथ 60,000 बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ करती हैं ।

ज. मात्र 358 लोगों की कुल सम्पत्ति विश्व आबादी की निर्धन 45 फीसदी की – यानी 2.3 अरब लोगों की – सम्मिलित आमदनी के बराबर है (1993-94) ।

झ. मैन्युफ़ैक्चरिंग-औद्योगिक समाज के पूरे विकास-क्रम में देसी जनों के सामूहिक नरसंहार, लोमहर्षक दास-व्यापार, आक्रामक औपनिवेशिक मुहिमों और लूटों, रंगभेद, तानाशाहियों और सैनिक हस्तक्षेपों, विश्व-युद्धों और परमाण्विक महाविनाश, आदि रूपों में बर्बरताएँ तो वर्णनातीत हैं ।

विनिमय आधारित औद्योगिक समाज की विभिन्न क्षेत्रों में चमत्कारिक उपलब्धियों के साथ-साथ मौज़ूद वर्चस्व-विषमता-बर्बरता की उपर्युक्त संक्षिप्त झलक के बाद इस पृष्ठभूमि में अभूतपूर्व गति से विकसित होते ज्ञान समाज पर हम एक विहंगम दृष्टि डाल सकते हैः

क. सन् 2000 के अन्त तक वेब आबादी 45 करोड़ तक जा पहुँचने का अनुमान है । वेब पृष्ठों की संख्या अभी 80 करोड़ है जो हर साल दुगुनी होती जा रही है ।

ख. 2000 ई. के अन्त तक कुल ई-कॉमर्स राजस्व 233 अरब डॉलर होने का अनुमान है जो 2003 ई. में बढ़कर 1400 अरब डॉलर हो जाएगा । इस साल के अन्त तक कुल ई-कॉमर्स में बिज़नेस-टु-बिज़नेस (बी2बी) ई-कॉमर्स का हिस्सा 75 फीसदी (184.85 अरब डॉलर) तक चले जाने की उम्मीद व्यक्त की जा रही है ।27

ग. सूचना और संचार क्रान्ति ने अवसरों का एक नया संसार उद्घाटित किया है और इन अवसरों का उपयोग करने वाले उद्यमियों की एक नई श्रेणी भी तेजी से विस्तार पा रही है । बेडरूम से लेकर व्यवसाय और सत्ता-राजनीति तक, कार्यस्थलों से लेकर फ़ुर्सत के क्षणों तक लोगों की जीवनशैली, जीवन जीने का अंदाज़ बदल रहा है । एक सूचना अथवा सूचनाओं का समूह जब तक अपनी जगह बनाता है, तब तक दूसरी सूचना अथवा सूचनाओं का समूह आ खड़ा होता है । या तो पहले को पूरी तरह बेदख़ल करता या फिर उसे परिष्कृत करता । अनुसंधान एक निरंतर क्रिया है और कोई ज्ञान अंतिम नहीं । यह अनुसंधान-चालित विश्व है ।

घ. नए-नए डॉट-कॉम अरबपतियों के उदय के साथ-साथ सूचना, संचार और मनोरंजन (आइ.सी.ई) की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के विलय से नए-नए सूचना साम्राज्यों का प्रादुर्भाव हो रहा है (उदाहरणस्वरूप, हाल ही में अमेरिका ऑनलाइन और टाइम वार्नर का विलय) । सूचनाओं पर वर्चस्व की होड़, उत्पादों की बिक्री से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति-राजनीति तक में, सूचनाओं के चुनिंदा, आक्रामक उपयोग, सूचनाओं का सोपान (हायरार्की), सूचनाओं का नित नवीकरण और द्रुत सम्प्रेषण – समूचा विश्व आज इस अभूतपूर्व हलचल से ग़ुजर रहा है । सूचनाओं के आम प्रसार के साथ-साथ सूचनाओं के चुनिंदा हमले – कभी छुपे, कभी खुले – निरन्तर चलते रहते हैं । उनका शिकार कभी कोई बच्चा हो सकता है, कोई प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी हो सकती है, तो कभी कोई देश, समुदाय, अथवा यहाँ तक कि प्रतिद्वन्द्वी अनुसंधान और सूचनाएँ भी । सूचनाओं के वायवीय लोक में कुछ भी ठोस नहीं । प्रायः विभिन्न सूचना-केन्द्रों से जारी सूचनाएँ जितना कुछ बताती हैं, उतना ही छिपाती भी हैं ।

ङ. चंचल सूचनाओं के बीच ज़रूरी और उपयोगी सूचनाओं को निकालना व्यक्ति के बुद्धि-विवेक की परीक्षा लेता है । साथ ही सूचनाओं की यह भीड़ जालसाज़ी, धोखाधड़ी, प्रायोजित अनुसंधानों/सूचनाओं का स्पेस भी मुहैय्या करती हैं ।

च. यह नया लोक वर्चस्व और श्रेष्ठता के अपने नए मानदण्ड भी लेकर आता है । अगर आप मीडिया अथवा साइबरलोक में नहीं हैं तो आप बस नहीं हैं । मनुष्य का भौतिक अस्तित्व इतिहास के लम्बे विकास-क्रम में आज माया-अस्तित्व में विनीन हो रहा है । आख़िर वह भी ब्रह्माण्ड-लोक के वेब पर एक पृष्ठ ही तो है !

वेब पर व्यक्ति की उपस्थिति उसकी छवि की उपस्थिति है । प्रायः व्यक्ति के प्रोफ़ाइल में वैसी ही सूचनाएँ रहती हैं जो उसकी वांछित छवि की पुष्टि कर सकें । साइबरलोक में व्यक्ति पहले तो पनी छवि में रूपान्तरित होता है, फिर वह छवि उसे अपनी क़ैद में ले लेती है – छवि-निर्माण से लेकर छवि के ग़ुलाम तक । बहरहाल, व्यक्ति सूचनाओं के समूह भर नहीं होता । वह सिर्फ सूचनाओं में नहीं जीता, बल्कि अपनी चेतना में भी जीता है । सूचनाओं में वह अपनी छवि का साक्षात् कर सकता है, अपने आप का, अपने आत्म का नहीं । यह तो चेतना में ही संभव है । लेकिन मनुष्य के चेतन अस्तित्व पर चर्चा करने से पहले ज्ञान पर कुछ और ।

(जारी)

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